Saturday, December 25, 2010

एक और स्याह दिन

(पेशानी पर हल्की सलवटें, चेहरे पर साफगोई, सूती कुर्ता-पायजामा, और आंखों में चमक.. साल 2007 की शुरुआत में डॉक्टर बिनायक सेन से मुलाक़ात हुई थी, रायपुर, छत्तीसगढ़ में। उस वक़्त यह भान नहीं था कि मैं इतने बड़े समाजसेवी और डॉक्टर से मिल रही हूं। यह भी नहीं पता था कि मानव अधिकारों की रक्षा में जुटे इस मसीहा को एक दिन सलाख़ों के पीछे डाल दिया जाएगा। बस, उन्हें यह कहते हुए सुना था कि नक़्सली समस्या शांतिपूर्ण तरीक़े से सुलझ सकती है- बातचीत और समझौते की बिनह पर। यह कहकर वे मुस्कुराए और चल दिए। सौम्य-सी वो मुस्कान याद आ रही है। और खून खौल रहा है यह सुनकर कि डॉक्टर सेन को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई है। यह जानकर कि उन पर देशद्रोह का आरोप है।)

आज का दिन
काला दिन है
एक और मसीह को
घसीट ले जाया गया है सलीब तक

इशारा मिलते ही ठोक दी जाएंगी
उसकी हथेलियों पर कीलें
ताकि उठें न वो हाथ कभी
ग़रीब की मदद के लिए

ठोक दी जाएंगी कीलें
उसके पैरों पर
ताकि चल न सके वह दूर तक
किसी मक़सद के साथ

एक और कील ठोकी जाएगी
गले में 
ताकि ख़ामोश पड़े आवाज़ 
और 
चिर निद्रा में चला जाए वो

आज का दिन काला ही नहीं
शर्मनाक भी है।
-माधवी

Monday, December 20, 2010

विरह की कविता

स्लेट की मेहराब वाला
लकड़ी का घर
हो गया है अब
मकान आलीशान
सुविधाओं से संपन्न
पर
सुक़ून से कोसों परे 

जर्द हो गया है बरगद
आग़ोश में जिसके
गुज़रा बचपन
जवानी और 
जेठ की कई दोपहरें 

तोड़ दिया है दम
गुच्छेदार फूलों से
लदे अमलतास  ने 
सुनहली चादर से 
ढक लेता था जो आंगन
कभी-कभी
मेरे अंधेरों को भी 

उदास रहती है
ब्यास नदी 
बिना कश्ती के 
लांघ लिया है उसे
किसी पुरपेच पुल ने 

मेरा घर, मेरा गांव
मेरा नहीं रहा
मैं भी अब
मैं कहां रही! 

(वागर्थ के अगस्त 2011 अंक में प्रकाशित, चित्र दीपांजना मंडल से साभार)

Thursday, December 2, 2010

रोटी और कविता

मुझे नहीं पता
आटे-दाल का भाव
इन दिनों 

नहीं जानती
ख़त्म हो चुका है घर में 
नमक, मिर्च, तेल और
दूसरा ज़रूरी सामान 

रसोईघर में पैर रख 
राशन नहीं
सोचती हूं सिर्फ़
कविता 

आटा गूंधते-गूंधते
गुंधने लगता है कुछ भीतर
गीला, सूखा, लसलसा-सा 

चूल्हे पर रखते ही तवा 
ऊष्मा से भर उठता है मस्तिष्क 

बेलती हूं रोटियां
नाप-तोल, गोलाई के साथ
विचार भी लेने लगते हैं आकार 

होता है शुरू रोटियों के
सिकने का सिलसिला
शब्द भी सिकते हैं धीरे-धीरे 

देखती हूं यंत्रवत्
रोटियों की उलट-पलट
उनका उफान 

आख़िरी रोटी के फूलने तक
कविता भी हो जाती है
पककर तैयार।

(वागर्थ के अगस्त 2011 अंक में प्रकाशित)

Tuesday, November 30, 2010

ब्रह्माण्ड के छोर पर

ब्रह्माण्ड के छोर पर
लटकी हूं मैं
बेसुर गाती
चीखकर बोलती
ख़ुद में सिमटी हुई
ताकि गिरने पर लगे न चोट

गिर जाना चाहिए मुझे
गहरे अंतरिक्ष में
आकार से मुक्त और
इस सोच से भी कि
लौटूंगी धरती पर कभी
दुखदायी नहीं है यह

चक्कर काटती रहूंगी मैं
उस ब्लैक होल में
खो दूंगी शरीर, अंग
तेज़ी से
आज़ाद रूह भी अपनी

अगली आकाशगंगा में
उतरूंगी मैं
अपना वजूद लिए
लगी हुई ख़ुद के ही गले
क्योंकि
मैं तुम्हारे सपने देखती हूं। 


-Translation of one of the love poems by African-American poet Nikki Giovanni

Wednesday, November 24, 2010

उम्दा ऑमलेट लिखा मैंने

उम्दा ऑमलेट लिखा मैंने
खाई एक गरम कविता
तुमसे प्रेम करने के बाद

गाड़ी के बटन लगाए
और कोट चलाकर मैं
घर पहुंची बारिश में
तुमसे प्रेम करने के बाद

लाल बत्ती पर चलती रही
रुक गई हरी होते ही
झूलती रही बीच में कहीं
यहां कभी, वहां भी
तुमसे प्रेम करने के बाद

समेट लिया बिस्तर मैंने
बिछा दिए अपने बाल
कुछ तो गड़बड़ है
लेकिन मुझे नहीं परवाह

उतारकर रख दिए दांत
गाउन से किए गरारे
फिर खड़ी हुई मैं
और
लिटा लिया ख़ुद को
सोने के लिए
तुमसे प्रेम करने के बाद।
(अनुवाद- माधवी)

-Translation of one of the love poems by African-American poet Nikki Giovanni

Monday, November 22, 2010

क्योंकि मैं हूं

मैं आदि हूं, अंत हूं
पूज्य मैं, तिरस्कृत भी
वैश्या हूं, साध्वी भी 

पत्नी हूं
भंग नहीं हुआ 
कौमार्य जिसका 

मां हूं, बेटी हूं
बल हूं अपनी मां का 

कई औलादों के बाद भी बंजर 
विवाहिता कुंवारी हूं मैं 

जन्मदात्री, नहीं गुज़री जो
प्रजनन की क्रिया से कभी 

मैं ढाढ़स 
प्रसव पीड़ा के बाद का
पत्नी हूं, मैं पति भी
मेरे मर्द ने किया है
सृजन मेरा 

पिता की मां हूं
बहन पति की
वही है मेरा 
बहिष्कृत पुत्र भी 

मेरा सम्मान करो
क्योंकि
शर्मनाक हूं मैं
और
शानदार भी।


-Translated from 'Eleven Minutes' by Paulo Coelho

Saturday, November 13, 2010

मुश्किलें हज़ार हैं

लिखने को बहुत कुछ था
लिखने बैठी तो कुछ नहीं

है मुश्किल 
खटखटाते रहना
दरवाज़े उलझे मन के
परत-दर-परत 
बेधड़क

है मुश्किल
जवाब न मिलने पर
घुस जाना ज़बरन 
निकालना ख़यालों की
दो-चार क़तरन 
और चिपका देना 
किसी सफ़्हे पर 
साफ़गोई से

है मुश्किल
बेतरतीब, बेअदब लफ्ज़ों को
समझा-बुझाकर 
सभ्य बनाना और 
पहना देना ख़याली जामा
नफ़ासत के साथ

है मुश्किल
बनाना क़ाबिल
उस क़तरे को इतना
कि हर्फ़ों में सिमटा 
लांघ जाए वो
वक़्त, मुल्क और 
सरहदों को

है मुश्किल लिखना 
उससे भी मुश्किल है
लिखना ख़ुद को

मुश्किलें हज़ार हैं
कोशिशें पुरज़ोर। 

('लमही' के अप्रैल-जून 2011 अंक में प्रकाशित)

Sunday, October 31, 2010

नीले समंदर में मोती-सा मॉरिशस

(अफ्रीका महाद्वीप के दक्षिण पश्चिम और हिन्द महासागर के मध्य में एक छोटा-सा द्वीप है मॉरिशस। नीले पानी की चादर... हरियाली से लिपटे पहाड़... ख़ूबसूरत समुद्र तट और दूर तक फैली सफेद चमकती रेत... इस द्वीप को देखकर लगता है जैसे कुदरत ख़ुद यहां आ बसी हो। 45 किलोमीटर चौड़ा और 65 किलोमीटर लंबा यह द्वीप इतना ख़ूबसूरत है कि यहां बार-बार जाने का मन करता है.. आपको भी लिए चलते हैं मॉरिशस की सैर पर...)

यह मेरी पहली विदेश यात्रा थी और मैं जल्द-से-जल्द मॉरिशस पहुंचना चाहती थी। मुंबई से सवा छह घंटे की फ्लाइट के बाद हम मॉरीशस के सर शिवसागर रामगुलाम हवाई अड्डे पर उतरे। डोडो की धरती पर क़दम रखते ही नीले अंबर, दिलक़श मौसम व ताज़ा हवा के झोंके ने हमारा स्वागत किया। डोडो मॉरिशस का राष्ट्रीय पक्षी है जो विलुप्त हो चुका है। 
मॉरिशस आने के लिए पहले वीज़ा लेने की ज़रुरत नहीं है। मॉरिशस हवाई अड्डे पर ही वीज़ा जारी किया जाता है। वीज़ा से जुड़ी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद हमने बैल मार इलाक़े के लिए टैक्सी ली। मॉरिशस के पूर्व में स्थित है बैल मार, जो अपने शानदार होटलों और ख़ूबसूरत समुद्र तटों के लिए मशहूर है। मनी एक्सचेंज ऑफिस में हमने अमरीकी डॉलर के बदले मॉरिशियन रुपए लिए। मॉरिशस की करंसी रुपया है जिसकी कीमत भारतीय रुपए से डेढ़ गुना अधिक है। समुद्र तट के किनारे खुली सड़क पर दौड़ती हुई टैक्सी कुछ ही देर में हमें होटल एंबर लेकर आई। होटल पहुंचते ही वेलकम ड्रिंक और ताज़ा फूलों के गुलदस्ते ने हमारी सारी थकान गायब कर दी। 
कुछ देर सुस्ताने के बाद हम बीच पर जा पहुंचे। वो कोई आम बीच नहीं बल्कि होटल का प्राइवेट बीच था। साफ-सुथरे और ख़ूबसूरत बीच पर पहुंचकर लगा जैसे हम किसी शहंशाह से कम नहीं थे। सुहावना मौसम, नीला-हरा पानी, सफ़ेद नर्म रेत और उस पर धूप-स्नान करते सैलानी... इस नज़ारे का लुत्फ़ लेते-लेते मैं मॉरिशस के ख़यालों में खो गई।
सुबह फोन की घंटी बजने पर नींद खुली। फोन पर रूना की आवाज़ सुनकर मैं फ़ौरन उठकर तैयार हुई। रूना ट्रेवल गाईड थी जो हमें मॉरिशस की सैर कराने वाली थी। जिस टैक्सी में हम सवार हुए, उसमें कुछ यूरोपीय सैलानी और एक नवविवाहित भारतीय जोड़ा था। वो जोड़ा हनीमून के लिए लखनऊ से यहां आया था। हमवतन व ख़ुशमिजाज़ जोड़े से जल्द दोस्ती हो गई, जो आज भी क़ायम है। 
मॉरिशस में घूमने-फिरने के लिए टैक्सी अच्छा विकल्प है। हर होटल के बाहर टैक्सी आसानी से मिल जाती है लेकिन एडवांस में टैक्सी बुक न कराएं। यह महंगा पड़ सकता है। कहीं जाना हो तो टैक्सी वालों से उसी समय मोल-भाव करना ठीक है।
बहुरंगी संस्कृति का देश
मॉरिशस पर फ्रेंच संस्कृति का गहरा असर है। फ्रेंच के अलावा अंग्रेज़ी, अफ्रीकी और भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। 17वीं शताब्दी तक मॉरिशस एक गुमनाम द्वीप था। लंबे अरसे तक पुर्तगाली, फ्रांसिसी और ब्रिटिश शासन के अधीन रहने के बाद 12 मार्च 1968 को मॉरिशस ने आज़ादी की सांस ली। मॉरिशस की राजभाषा क्रियोल (काफी-कुछ फ्रेंच से मिलती हुई खिचड़ी भाषा) है। क्रियोल के बाद फ्रेंच और अंग्रेजी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषाएं हैं। ख़ास बात यह है कि मॉरिशस में क़रीब 48 फ़ीसदी लोग भारतीय मूल के हैं जो हिन्दी और भोजपुरी ठीक से बोल-समझ लेते हैं। टेलीविज़न चैनलों में ज़्यादातर फ्रेंच चैनल हैं। बॉलीवुड की फ़िल्में यहां रिलीज़ होती हैं। हिन्दी फ़िल्मों के अलावा हिन्दी गाने भी लोग ख़ूब पसंद करते हैं। स्थानीय रेडियो चैनलों पर कई कार्यक्रम हिन्दी में प्रसारित किए जाते हैं। टैक्सी में किशोर कुमार के गाने सुनते हुए हम सेंट्रल मॉरिशस के क्योरपाइप इलाक़े की ओर जा रहे थे। बहुत छोटी थी जब दूरदर्शन पर 'स्टोन ब्वॉय' नाम का प्रोग्राम आता था। 'स्टोन ब्वॉय' की पृष्ठभूमि मॉरिशस थी, और उसकी शूटिंग यहीं एक पहाड़ी पर हुई थी। क्योरपाइप से गुज़रते हुए उस पहाड़ी को देखने का मौक़ा मिला तो बचपन की यादें बरबस ताज़ा हो गईं। 
क्योरपाइप ख़रीदारी के लिए अच्छी जगह है। यहां कई ड्यूटी-फ्री दुकानें हैं जहां से आप विदेशी सामान ख़रीद सकते हैं। क्योरपाइप में सबसे बड़ा आकर्षण है त्रू ऑ सर्फ (Trou-aux-Cerfs)... जो एक सुप्त ज्वालामुखी है।
हिन्दू धर्म का परिचायक द्वीप
सेंट्रल मॉरिशस के पहाड़ी इलाक़े में है ग्रांड बेसिन। ग्रांड बेसिन में शिव मंदिर और गंगा तालाब है। मंदिर से कई रोचक कथाएं जुड़ी हैं। कहते हैं भगवान शिव और पार्वती जब पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे थे तो शिव को एक ख़ूबसूरत द्वीप दिखाई दिया। द्वीप पर उतरते हुए शिव का संतुलन बिगड़ा जिससे उनके शीश पर विराजमान गंगा की कुछ बूंदें नीचे गिर गईं। यह मॉरिशस द्वीप था जहां बूंदें गिरने से एक छोटा तालाब बन गया। गंगा क्रोधित हुईं। इस पर शिव ने गंगा से कहा कि भारत में तुम्हारे आस-पास रहने वाले लोग इस द्वीप पर आकर बसेंगे और तुम्हारी पूजा करेंगे। यह जानकारी दिलचस्प है क्योंकि मॉरिशस में रहने वाले ज़्यादातर हिन्दू भारत के बिहार प्रदेश से संबंध रखते हैं। 
मॉरिशस के कैलेंडर में शिवरात्रि का दिन महत्वपूर्ण है। इस दिन भारतीय मूल के लोग ग्रांड बेसिन में पूजा-पाठ करते हैं। गंगा तालाब से कुछ ही दूरी पर है शिव की 108 फुट ऊंची मूर्ति, जो कांसे की है। इतनी ख़ूबसूरत मूर्ति को देखकर भी मन नहीं भर रहा था। उधर हमारे साथी चेमेरल (Chamarel) जाने के लिए तैयार खड़े थे सो उन्हें और इंतज़ार न कराते हुए हम उनके साथ हो लिए। चेमेरल, मॉरिशस के पश्चिमी हिस्से में छोटा-सा गांव है। यहां अफ्रीकी मूल के लोग रहते हैं जिनके पूर्वजों को अफ्रीका के मोज़ाम्बिक इलाक़े से दास बनाकर लाया गया था। चेमेरल में आप मॉरिशस की असल ज़िंदग़ी से वाकिफ़ हो सकते हैं। यहां जंगल के बीचों-बीच एक वॉटरफॉल भी है जहां जाकर लगता है जैसे हम किसी दूसरे ही लोक में पहुंच गए हों। मॉरिशस में एक और बेहतरीन जगह जाने का मौक़ा मिला... सेवन कलर्ड अर्थ यानि सात रंग की धरती पर। लाल, पीली, काली, हरी, नीली, भूरी और सफेद रंग की मिट्टी एक-साथ देखकर हैरानी हुई। ऐसा लगा जैसे वहां किसी ने होली खेली हो। लेकिन वो होली के रंग नहीं बल्कि ज्वालामुखी की जमी हुई राख थी। राख में खनिज की मात्रा ज़्यादा होने के कारण ज़मीन रंग-बिरंगी दिखती है। सेवन कलर्ड अर्थ को देखने के लिए सुबह का वक़्त सबसे अच्छा है क्योंकि सूरज की किरणों में इसके इन्द्रधनुषी रंग और भी चमकीले लगते हैं। 
शाम होते ही मॉरिशस में सब-कुछ वीरान हो जाता है। कमोबेश सभी दुकानें 6 या 7 बजे तक बंद हो जाती हैं। सूरज ढलने लगा तो ‘जैसा देश वैसा भेष’ की कहावत पर अमल करते हुए हम भी होटल लौट गए
सैर बोटेनिकल गार्डन, फोर्ट एडलेड व ओपन चर्च की 
अगले दिन हमें पेम्पलमोसे (Pamplemousses) जाना था। पेम्पलमोसे मॉरिशस का सबसे घनी आबादी वाला इलाका है। यहीं 25 हेक्टेयर के क्षेत्रफल में फैला है सर शिवसागर रामगुलाम बोटेनिकल गार्डन। इसका नाम मॉरिशस के पहले प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम के सम्मान में रखा गया है। यहां आपको पानी में उगने वाली क्वीन विक्टोरिया लिली और पाम की ढेरों प्रजातियां देखने को मिलेंगी। श्रीलंका का टेलीपॉट पाम भी, जो पूरे जीवन में सिर्फ़ एक बार फल देता है। रॉयल पाम, बॉटल पाम, राफिया पाम, फीवर और शुगर पाम... एक ही जगह पर पाम की ढेरों क़िस्में देखकर आप हैरान ज़रूर होंगे। और 200 साल पुराना बुद्ध वृक्ष देखकर तो आप कह उठेंगे... वाह!
प्रकृति के साथ कुछ वक़्त बिताने के बाद हमने सिटाडेल (Citadel) की तरफ कूच किया। सिटाडेल ऊंचाई पर है। यहां आप फोर्ट एडलेड देख सकते हैं। इस फोर्ट को अंग्रेज़ों ने सुरक्षा की दृष्टि से सन् 1835 में बनवाया था। यहां से मॉरिशस की राजधानी पोर्ट लुई (Port Louis) का विहंगम नज़ारा नज़र आता है। फोर्ट एडलेड से हम स्पेस नॉस्त्रा साल्व (Spes Nostra Salve) पहुंचे। यह एक ओपन चर्च है। फ़िल्म 'मुझसे शादी करोगी' की शूटिंग इसी चर्च में हुई थी।
पोर्ट लुई में एक शाम
चर्च में प्रार्थना के बाद हम राजधानी पोर्ट लुई पहुंचे। यह पोर्ट फ्रांस के राजा लुई 15वें के नाम पर है। पोर्ट लुई एक व्यापारिक केन्द्र है जहां कई शॉपिंग कॉम्प्लेक्स हैं। पोर्ट किनारे वॉटरफ्रंट है। यहां बड़े ब्रांडों की दुकानें, केसिनो, बार और कई अच्छे रेस्तरां हैं। मनोरंजन का दिल हुआ तो हम केसिनो में प्रवेश कर गए। शुरुआत में कुछ बाज़ियां जीतने के बाद 500 रुपए हारे तो चुपचाप वहां से बाहर आ गए। वॉटरफ्रंट के नज़दीक चाइना टाउन है, जहां घूमते हुए लगा जैसे चीन के किसी बाज़ार में घूम रहे हों।
पोर्ट लुई चहल-पहल भरा इलाक़ा है। यहां नाइट लाइफ अच्छी है लेकिन शॉपिंग काम्प्लेक्स अंधेरा होते ही बंद हो जाते हैं। आप नाइट लाइफ का मज़ा लेना चाहते हैं तो ग्रांड बे अच्छा विकल्प है। यह उत्तर मॉरिशस में है। यहां कई बड़े पब और डिस्कोथेक हैं जो रात भर खुले रहते हैं।
अपनेपन से भरे लोग
राजधानी में हसीन शाम बिताने के बाद हमने होटल के लिए टैक्सी ली। राजधानी को छोड़ दें तो पूरे मॉरिशस में ट्रैफिक काफी कम है। ट्रैफिक से जुड़े क़ायदों का यहां सख़्ती से पालन होता है। लोग सभ्य और नम्र हैं। हमारे टैक्सी ड्रायवर का नाम देवानंद था; 65 साल का पतला-दुबला लेकिन जोश से भरा इंसान। देवानंद अच्छी हिन्दी बोल रहा था। उसने बताया कि उसके पूर्वज भारतीय मूल के थे और उसकी दिली इच्छा है कि वह एक बार भारत ज़रूर आए। हमारा होटल लौटने का मन नहीं था, देवानंद शायद यह समझ गया और उसने हमें अपने घर चलने को कहा। देवानंद का घर मुझे किसी भारतीय घर जैसा ही लगा। घर के अहाते में छोटा-सा मंदिर था। दो मिनट बैठे कि गरमा-गरम कॉफी से हमारा स्वागत हुआ। कॉफी की चुस्कियों के साथ देवानंद के परिवार से हमने ख़ूब बातें कीं। मॉरिशस में गन्ने की खेती लोगों का मुख्य पेशा है। औसत कमाई अच्छी है। आम लोगों का रहन-सहन काफी अच्छा है। कुल मिलाकर, अफ्रीका की सबसे मज़बूत आर्थिक इकाइयों में से एक मॉरिशस, अमीर और महंगा देश है।
वॉटर-स्पोर्ट्स के लिए मशहूर
मॉरीशस में हमारा अगला दिन वॉटर स्पोर्ट्स के नाम रहा। वॉटर स्पोर्ट्स के लिए मॉरीशस बेशक एक बेहतरीन जगह है। पूर्वी तट पर इल ऑ सर्फ (Ile aux Cerfs) नाम का द्वीप इसके लिए मुफ़ीद है। प्वॉइंट मॉरिस से बोट के ज़रिए इल ऑ सर्फ बीच तक पहुंचते हैं।
यहां आप पूरा दिन बेतकल्लुफ़ होकर बिता सकते हैं लेकिन शाम ढलते ही लौटना होगा। इसलिए यहां जितनी जल्दी पहुंचेंगे, उतना ज़्यादा वक़्त बिता पाएंगे। दिन भर बीच पर पड़े-पड़े सुस्ताने का कोई मूड नहीं था सो मैंने पैरा-सेलिंग करना बेहतर समझा। 45 मिनट तक गहरे नीले समंदर के ऊपर आकाश में किसी बेफिक्र परिंदे की तरह उड़ना... ज़िंदग़ी के सबसे ख़ूबसूरत तजुर्बों में से एक है। मॉरिशस में वॉटर-स्पोर्ट्स महंगे हैं। लेकिन अपनी जेब और पसंद के मुताबिक आप स्कूबा डाइविंग, वॉटर-स्कीइंग या स्नॉर्क्लिंग जैसा कोई भी खेल चुन सकते हैं।
कब जाएं
मॉरिशस के मौसम में साल भर ख़ास तब्दीली नहीं होती लेकिन तेज़ धूप, गर्मी और उमस से बचने के लिए जुलाई से सितम्बर तक का समय उपयुक्त है। इस दौरान वहां हल्की ठंडक रहती है। दिसम्बर में भी मॉरिशस जाने का प्रोग्राम बना सकते हैं। मॉरिशस जैसे रंगीन देश में क्रिसमस व नए साल का स्वागत बेशक़ एक अच्छा तजुर्बा होगा।
क्या ख़रीदें
फ्लाक मॉरिशस का बड़ा बाज़ार है। यहां साप्ताहिक हाट लगता है। मज़े की बात है कि मॉरिशस में आप किसी भी दुकान से बीयर ख़रीद सकते हैं। गन्ने से बनी स्थानीय रम भी ज़रूर चखें। एक दुकानदार ने बताया कि यहां दूध का उत्पादन नहीं होता बल्कि दूसरे देशों से इसे आयात किया जाता है। मॉरिशस में जगह-जगह खोमचे वाले दिखे जो जंक फूड नहीं बल्कि अन्नानास, ऑलिव (जैतून) और एक स्थानीय फल बेच रहे थे। कम दाम में अच्छा स्वाद और सेहत- अगर आप भी इससे इत्तेफाक रखते हैं तो मॉरिशियन 10 रुपए में चटपटी चटनी में डूबे ये फल ज़रूर खाईए। फ्लाक में ऐसी कई दुकानें हैं जिन्हें भारतीय मूल के लोग चलाते हैं। लेटेस्ट हिन्दी और भोजपुरी फ़िल्मों की सीडी तो यहां जगह-जगह बिकती हैं। मॉरिशस से यादगार के तौर पर आप काफी कुछ ख़रीद सकते हैं जैसे... डोडो के प्रिंट वाली टी-शर्ट या स्थानीय कारीग़रों की बनाईं दूसरी चीज़ें। ये आपको किसी भी सूवेनियर शॉप से मिल जाएंगीं। अगर जेब भारी हो तो समुद्री जहाज़ों के मॉडल या फिर ड्यूटी फ्री सामान ख़रीद सकते हैं।
खाने-पीने के शौक़ीनों के लिए मॉरिशस अदद जगह है। आप समुद्री खाना पसंद करते हैं तो मॉरिशस में सब-कुछ मिलेगा... समुद्री मछलियां, झींगे, केकड़े, यहां तक कि सांप भी! शाकाहारी होने के कारण ये सब तो मैं नहीं खा पाई लेकिन कुछ दूसरे स्थानीय भोजन का ज़ायका ज़रूर लिया। ख़ासतौर से ढोलपुरी का। पतली चपाती पर दाल के साथ तरह-तरह की चटनी मिलाकर सर्व की जाती है ढोलपुरी यानि दालपुरी। मॉरिशस में रहने वाले हिन्दुस्तानी लोगों ने भारतीय संस्कृति, भाषा और खाने-पीने के तरीक़ों को काफी सहेजकर रखा है।
मॉरिशस में आख़िरी शाम
होटल लौटे तो पता चला कि कुछ स्थानीय कलाकार सेगा का प्रदर्शन करने वाले हैं। सेगा मॉरिशस की पारंपरिक नृत्य व गायन कला है। फ्रांसिसी शासन के दौरान जिन दासों को अफ्रीका से मॉरिशस लाया गया था, उन्होंने इस कला का यहां प्रचार किया। रंग-बिरंगे कपड़े पहने युवक-युवतियां जोड़े बनाकर सेगा नृत्य करते हैं। ढोल की थाप और स्थानीय वाद्य यंत्रों की धुन के बीच सेगा नृत्य उत्तेजक लगता है। मॉरीशस में इसका मज़ा लेना बिल्कुल न भूलें। 
खुले थियेटर में सेगा के शानदार प्रदर्शन व लज़ीज खाने का स्वाद लिए मैं होटल के कमरे में लौट आई। “स्वर्ग से पहले मॉरीशस की रचना हुई थी”... सामान पैक करते हुए अमेरीकी लेखक मार्क ट्वेन की यही पंक्ति मुझे बार-बार याद आ रही थी। मॉरिशस है ही इतना ख़ूबसूरत कि स्वर्ग बनाने के लिए बेशक़ इसकी नक़ल की गई होगी। 

(दैनिक जागरण के 'यात्रा' परिशिष्ट में 31 अक्तूबर 2010 को प्रकाशित)

Saturday, October 16, 2010

कुछ हाइकु

1.
सिमट गई
बर्फ की रजाई में
शरद ऋतु

2.

चला कोहरा
जाने किस दिशा में
लिए मन को

3.
पहन लिया
चिनार ने भी चोला
बसंत में

4.
मां का पहलू
जाड़े की धूप जैसा
नर्म-ओ-गर्म

5.
ठिठका हुआ
बादल उड़ गया
बरस कर

6.
चलता रहे
दरिया की तरह
जीवन चक्र 

(हिमाचल मित्र के ग्रीष्म अंक 2011 में प्रकाशित)

Friday, October 8, 2010

खुली हुई खिड़की

अंधेरा पसरा हुआ है
खिड़की के बाहर
घुप्प...

बियाबान है पूरी पहाड़ी
मद्धम एक लौ
दूर वीराने से निकल
खेल रही है आंख-मिचौली 

यहां-वहां भटक रही
नन्ही मशालों पर
जा अटकी हैं बोझिल नज़रें 
जाने किस तलाश में है 
टोली जुगनुओं की? 

बेसुर कुछ आवाज़ें
तिलचट्टे और झींगुर की
चीरे जा रही हैं
तलहटी में बिखरे सन्नाटे को 

टिमटिमाते तारों ने
ओढ़ लिया है बादलों का लिहाफ़
और
हवा के थपेड़ों से
झूलने लगा है कमरे से सटा 
देवदार का दरख़्त 

मैं खिड़की बंद कर लेती हूं
...
...
भीतर एक शोर था
सन्नाटे में डूबकर
शांत हो गया है जो।
-माधवी 

('लमही' के अप्रैल-जून 2011 अंक में प्रकाशित)

Sunday, September 26, 2010

ब्रह्मगिरी पहाड़ियों में लिपटा भारत का स्कॉटलैंड

(आजकल हर हिल-स्टेशन कमोबेश एक-सा ही लगता है। इसकी बड़ी वजह यह है कि ज़्यादातर हिल-स्टेशनों में व्यवसायीकरण हावी हो रहा है, और ये धीरे-धीरे अपना सौंदर्य खोते जा रहे हैं। कर्नाटक में एक ज़िला है कूर्ग, जहां जाने पर हिल-स्टेशनों के प्रति आपका नज़रिया बदल सकता है। कूर्ग एक अलग-थलग पहाड़ी इलाक़ा है जो अपनी संस्कृति और ख़ूबसूरती से कई नामी हिल-स्टेशनों को मात देता है। कहते हैं कि एक बार कूर्ग जाएं तो यह हमेशा आपके साथ रहता है। यह सौ फ़ीसदी सही है। यक़ीन नहीं होता तो चलिए मेरे साथ कूर्ग के सफ़र पर...) 

कूर्ग के बारे में काफी सुना था। वक़्त की इजाज़त मिली तो कूर्ग जाने का ख़्याल ज़हन में आया और हमने मंगलौर तक की रेलवे टिकट बुक करा लीं। उत्तर भारत से कूर्ग पहुंचने के लिए मैसूर या मंगलौर नज़दीकी रेलवे स्टेशन हैं। हवाई-यात्रा से कूर्ग पहुंचना हो तो मंगलौर का बाजपे एयरपोर्ट सबसे क़रीब है। मंगलौर से कूर्ग की दूरी है 135 किलोमीटर। यहां से मडिकेरी तक की सीधी बसें मिल जाती हैं। मडिकेरी कूर्ग ज़िले का हेडक्वॉर्टर है। मंगलौर से बस में मडिकेरी पहुंचने में साढ़े 4 घंटे का वक़्त लगता है, क़रीब इतना ही वक़्त मैसूर से मडिकेरी पहुंचने में लगता है।
मडिकेरी है कूर्ग का दिल
मडिकेरी के कर्नाटक स्टेट ट्रान्सपोर्ट के बस स्टैन्ड से हमारा होटल 5 किलोमीटर की दूरी पर था। होटल पहुंचकर हम तरो-ताज़ा हुए और कुछ देर आराम करने के बाद टहलने निकल गए। इस दौरान हमने स्थानीय ऑटो-रिक्शा चालक त्यागराजन से बात की और उसे अगले दिन सुबह होटल में आने को कहा।
साफ-सुथरी आबो-हवा, पंछियों की चहचहाहट और होटल के कमरे में कुनकुनाती हुई धूप... मडिकेरी में यह ताज़ग़ी भरी सुबह थी। त्यागराजन हमें मडिकेरी के आस-पास कुछ ख़ास जगहों की सैर कराने वाला था। मडिकेरी कूर्ग का एक बड़ा इलाक़ा है, जिसे स्थानीय लोग मरकरा भी कहते हैं। हम सबसे पहले ओमकारेश्वर मंदिर पहुंचे, जहां घंटियों की गूंज और भगवान के दर्शन से दिन का आग़ाज़ हुआ। ओमकारेश्वर मंदिर की स्थापना हलेरी वंश के राजा लिंग राजेन्द्र द्वितीय ने 1829 ईसवी में की थी। मान्यता है कि लिंगराजेन्द्र ने काशी से शिवलिंग लाकर यहां स्थापित किया था। मंदिर में इस्लामिक स्थापत्य शैली की झलक मिलती है। प्रांगण में एक तालाब है, जिसमें कातला प्रजाति की मछलियां हैं। ये तालाब को गंदा होने से बचाती हैं। आप चाहें तो मछलियों को खाना खिला सकते हैं। पल भर के लिए पानी से उचक कर बाहर निकलतीं और खाना लेकर फिर पानी में गुम होतीं मछलियां... यह मज़ेदार नज़ारा है।
मंदिर से निकलकर हम राजा की सीट (गद्दी) की तरफ बढ़े। हरे-भरे एक बाग के अंदर है राजा की ऐतिहासिक सीट। यह वो जगह है जहां कूर्ग के राजा अपनी शामें बिताया करते थे। पहाड़ियों, बादलों और धुंध के बीच सिमटे कूर्ग का दृश्य देखकर मन बाग-बाग होना तय है। अगर आप शाम के समय यहां आएं तो डूबते सूरज का लुत्फ़ लेना मत भूलिए। मडिकेरी में ऐतिहासिक महत्व की कई जगहें हैं और मडिकेरी किला उनमें से एक है। मुद्दुराजा ने इस किले का निर्माण करवाया था, जिसे बाद में टीपू सुल्तान ने दोबारा बनवाया। किले में एक पुरानी जेल, गिरिजाघर और मंदिर भी है। गिरिजाघर को म्यूज़ियम में तब्दील कर दिया गया है और किले के ज़्यादातर हिस्से में सरकारी दफ़्तर हैं। कुल मिलाकर यहां देखने लायक कुछ ख़ास नहीं है। प्रवेश-द्वार के पास दो हाथी खड़े हैं, मोर्टार से बने ये हाथी देखने में अच्छे लगते हैं। छोटे से म्यूज़ियम का चक्कर लगाकर हम किले से बाहर निकल आए।  
मडिकेरी से क़रीब डेढ़ किलोमीटर दूर एक टीलेनुमा मैदान पर हैं राजा वीरराजेन्द्र और लिंगराजेन्द्र की क़ब्रगाहें। अगर आप इतिहास में दिलचस्पी रखते हैं या प्रकृति-प्रेमी हैं, तो आपको यह जगह पसंद आएगी। ख़ास बात यह है कि क़ब्रगाह के अंदर एक शिवलिंग बना हुआ है।
कूर्ग में एबी वॉटरफॉल जाए बिना कूर्ग यात्रा अधूरी है। मडिकेरी से 8 किलोमीटर दूर यह जलप्रपात एक निजी कॉफी-एस्टेट के अंदर है। कॉफी, काली-मिर्च, इलायची और दूसरे कई पेड़-पौधे इस एस्टेट की शोभा बढ़ाते हैं। हरियाली और ढलान भरे रास्ते से उतरते हुए कल-कल करते झरने की आवाज़ सुनाई देने लगती है। कुछ क़दम चलने के बाद हम एबी वॉटरफॉल पहुंचते हैं, जिसके ठीक सामने है... हैंगिंग ब्रिज यानी झूलता हुआ पुल। पुल पर खड़े हो जाएं तो झरने से उड़कर आने वाले ठंडे-ठंडे छींटों का अनुभव लेकर देखिए। वैसे इस झरने को पूरे शबाब पर देखना हो तो मॉनसून से बेहतर समय कोई नहीं है। 
पुल पर खड़े-खड़े बरबस ही छत्तीसगढ़ के चित्रकोट इलाक़े की याद आ गई। चित्रकोट अछूता जनजातीय इलाका है। यहां विशाल झरना है, जिसे भारत का नियाग्रा जलप्रपात भी कहते हैं।
...और भी बहुत कुछ 
कूर्ग अंग्रेज़ों का दिया नाम है जिसे बदलकर कोडगु कर दिया गया है। यहां की भाषा है कूर्गी, जिसे स्थानीय लोग कोडवत्तक या कोडवा कहते हैं। मडिकेरी के अलावा कूर्ग के मुख्य इलाके विराजपेट, सोमवारपेट और कुशलनगर हैं। हमारे पारिवारिक मित्र श्याम पोनप्पा विराजपेट में रहते हैं। श्याम से मिलना था सो होटल से चैक-आउट कर हम विराजपेट की बस में सवार हो गए। विराजपेट मडिकेरी से 30 किलोमीटर दूर है और बस से वहां पहुंचने में 1 घंटा लगता है। कूर्ग में तफरीह के लिए जीप एक अच्छा साधन है। पहाड़ी इलाका होने के कारण जीप सुविधाजनक रहती है। लेकिन हम जितने दिन भी कूर्ग में रहे, स्थानीय बसों से ही आते-जाते रहे। किफ़ायती यात्रा का मज़ा जो दूना होता है!
यहां लोगों में अलग तरह की ख़ुशमिजाज़ी और ताज़गी दिखती है, जो शायद क़ुदरत के क़रीब रहने वाले हर इंसान में महसूस की जा सकती है। कूर्ग, दक्षिण भारत के दूसरे इलाक़ों से हर मायने में अलग दिखा। लोग आमतौर पर गोरे, आकर्षक और अच्छी क़द-काठी वाले हैं। वेशभूषा भी अलग है। कूर्ग के पुरुष काले रंग का एक ख़ास तरह का परिधान पहनते हैं जिसे स्थानीय भाषा में कुप्या कहते हैं। महिलाओं के नैन-नक़्श अच्छे हैं। स्थानीय महिलाएं अलग अंदाज़ में साड़ी पहने होती हैं, जिससे वो और ख़ूबसूरत लगती हैं।
कूर्ग से आप कुछ अच्छी ख़रीददारी कर सकते हैं जैसे- कॉफी, काली मिर्च, इलायची और शहद वगैरह। ये सभी चीज़ें उम्दा क़िस्म की हैं और ठीक दाम पर मिल जाती हैं। मौसम हो तो कूर्ग के संतरे ज़रूर खाएं। यूं तो कूर्ग का मौसम साल भर सुहावना रहता है लेकिन मॉनसून के दौरान यहां आने से बचना चाहिए। अक्तूबर से अप्रैल तक उपयुक्त समय है। 
मांसाहार के शौक़ीन हैं तो कूर्ग आपके लिए मुफ़ीद जगह है। यहां क़दम-क़दम पर मांस की दुकानें हैं। लोग ज़्यादातर मांसाहारी हैं और चिकन, मटन के अलावा पोर्क यानी सूअर का मांस भी शौक़ से खाते हैं। कूर्गी लोग मूल रूप से क्षत्रिय हैं। माना जाता है कि कूर्गी यूनान के महान राजा सिकन्दर की सेना के वंशज हैं। विराजपेट से काकाबे गांव की तरफ जाते हुए हमें सेना के एक रिटायर्ड अधिकारी मिल गए। उन्होंने बताया कि भारतीय सेनाओं में ज़्यादातर अधिकारी और जवान कूर्ग से ही हैं। एक दशक पहले तक कूर्ग के हर घर से एक सदस्य भारतीय सेना में ज़रूर भर्ती होता था। एक और दिलचस्प बात पता चली कि कूर्ग के लोगों को बंदूक रखने के लिए लाइसेंस की ज़रूरत नहीं होती।
होम-स्टे अच्छा विकल्प
कूर्ग में किसी होटल में ठहरने की बजाए होम-स्टे को तरजीह दें। भीड़-भड़क्के से दूर, प्रकृति के बीच एक घर में आप बेशक़ वक़्त बिताना चाहेंगे। ख़ासतौर से जब उस घर में लज़ीज़ खाने के साथ तमाम सुविधाएं भी मिलें। हाथ-मुंह धोने के लिए गर्म पानी और भूख लगने पर मनचाहा खाना.. क्या बात है! और ख़ुद खाना बनाने का मन है तो रसोई आपके लिए तैयार है। सैर का मूड हो तो पास ही कॉफी के बाग़ान हैं। होम-स्टे में हर छोटी-छोटी ज़रूरत का ख़्याल रखा जाता है। आपसे घर के एक सदस्य की तरह ही व्यवहार किया जाता है। तो होटल की बजाए होम-स्टे चुनें... है न यह अच्छा आयडिया?
कावेरी नदी का उद्गम स्थल तलकावेरी
भागमंडला हमारा अगला पड़ाव था। भागमंडला में तीन नदियों का संगम है... ये नदियां हैं कावेरी, कनिका और सुज्योति। यहां पहुंचने के लिए बेहतर है कि आप कोई टैक्सी कर लें। भागमंडला, हिन्दुओं के लिए धार्मिक महत्व की जगह है। साथ ही शिव का प्राचीन भागंदेश्वर मंदिर है। केरल शैली में बना यह मंदिर काफी ख़ूबसूरत लगता है। भागमंडला में ठहरने के लिए कर्नाटक टूरिज़्म का यात्री निवास सस्ती जगह है और अच्छी भी। यहीं से  8 किलोमीटर की ऊंचाई पर है तलकावेरी, जो कावेरी नदी का उद्गम स्थल है। कोडव यानि कूर्ग के लोग कावेरी की पूजा करते हैं। मंदिर के प्रांगण में ब्रह्मकुंडिका यानी कावेरी का उद्गम स्थान है। इसके सामने एक बड़ा कुंड है, जिसमें दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालु स्नान करते हैं। कावेरी के सम्मान में यहां हर साल 17 अक्टूबर को कावेरी संक्रमणा का त्योहार मनाया जाता है। मंदिर के प्रांगण में ही सीढ़ियां हैं, जो आपको एक ऊंची पहाड़ी पर ले जाती हैं। यहां से आप कूर्ग का नयनाभिराम नज़ारा देख सकते हैं। एक तरफ़ हरियाली की चादर तो दूसरी ओर केरल की पहाड़ियां, नीचे सर्पीली सड़क पर सरकते हुए इक्का-दुक्का वाहन तो ऊपर अठखेलियां करते हुए बादल... दूसरी तरफ़ नज़र घुमाइए तो ब्रह्मगिरी की ऊंची-नीची पहाड़ियों पर कोहरे में घूमतीं पवनचक्कियां हैं... ऐसे ख़ूबसूरत नज़ारे को देखकर ही समझ में आता है कि कूर्ग को भारत का स्कॉटलैंड क्यों कहते हैं! 
इगुथप्पा ईष्ट देव
ऊंची और सुनसान सड़क पर दौड़ती हुई टैक्सी हमें इगुथप्पा मंदिर ले आई। कोडव लोगों के इष्टदेव इगुथप्पा यानी शिव का मंदिर। कूर्गी भाषा में इगु का मतलब है खाना, और थप्पा का मतलब है देना। इगुथप्पा यानी भोजन देने वाला देव। इस मंदिर का निर्माण राजा लिंगराजेन्द्र ने 1810 ईसवी में करवाया था। मंदिर के पुजारी लव से देर तक बातचीत हुई। उन्होंने बताया कि कोडव लोगों के लिए कावेरी अगर जीवनदायिनी मां हैं तो इगुथप्पा उनके पालक हैं। प्रसाद के रूप में मंदिर में रोज़ाना भोजन की व्यवस्था है। किसी भी ज़रूरी कर्मकांड से पहले स्थानीय लोग यहां आकर अपने ईष्टदेव से आशीर्वाद लेना नहीं भूलते।
हम भी इगुथप्पा का आशीर्वाद लेकर चेलवरा फॉल की तरफ़ बढ़ गए। चेलवरा कूर्ग के ख़ूबसूरत झरनों में से है। यह विराजपेट से क़रीब 16 किलोमीटर दूर है। एक तंग पगडंडी से होते हुए चेलवरा फॉल पहुंचा जाता है। अगर मॉनसून के वक़्त यहां आएं तो थोड़ी सावधानी बरतें। बारिशों में यह रास्ता फ़िसलनभरा होता है। चेलवरा फॉल से 2 किलोमीटर आगे चोमकुंड की पहाड़ी है। यहां आप बेहतरीन सनसेट देख सकते हैं।
एशिया में सबसे बड़ा कॉफी उत्पादक
सुबह से मूसलाधार बारिश हो रही थी। दोपहर बाद बारिश रुकी लेकिन हमने कहीं बाहर जाने की बजाय अपने मित्र श्याम के कॉफी एस्टेट में घूमना बेहतर समझा। यह फ़ैसला अच्छा साबित हुआ क्योंकि उस दिन कैलपोढ (Kailpodh) था। कैलपोढ हथियारों का त्योहार है। बड़ा त्योहार होने के कारण इस दिन सभी बाज़ार बंद रहते हैं। कैलपोढ के मौक़े पर लोग अपने हथियारों की साफ़-सफ़ाई और पूजा करते हैं। श्याम ने कॉफी और इसकी खेती से जुड़ी कई दिलचस्प जानकारियां हमें दीं। दुनिया में 3 देश कॉफी के बड़े उत्पादक हैं... ब्राज़ील, वियतनाम और भारत। भारत में कॉफी की खेती की शुरुआत कूर्ग से हुई थी, और यह एशिया का सबसे ज़्यादा कॉफी उत्पादन करने वाला इलाक़ा है।
कॉफी की दो क़िस्में होती हैं- रोबस्टा और अरेबिका। रोबस्टा कॉफी का फल आकार में छोटा जबकि अरेबिका का फल बड़ा होता है। अरेबिका की फ़सल को ज़्यादा देखभाल की ज़रूरत होती है, और यह कॉफी रोबस्टा से महंगी है। कॉफी और काली मिर्च की खेती यहां मुख्य पेशा है। इसके अलावा इलायची, केले, चावल और अदरक की खेती होती है। कूर्ग के किसान नवंबर-दिसंबर के महीने में पूर्णमासी के दिन हुत्तरी (Huthari) का त्योहार जोशो-ख़रोश से मनाते हैं। यह फ़सल का त्योहार है। पारंपरिक पोशाकों में सजे किसान इस दिन स्थानीय संगीत वालगा (Valaga) की धुन पर थिरकते हैं व अच्छी फ़सल की दुआ करते हैं। 
मोबाइल फोन में बजते वालगा संगीत का आनन्द लेती हुई मैं वापस जा रही थी... ख़राब सड़कें, अच्छी शिक्षा व्यवस्था का अभाव और सरकारी उपेक्षा के बावजूद कूर्ग की शान-ओ-शौक़त में कोई कमी नहीं दिखती। कूर्ग की बेशुमार ख़ूबसूरती और लोगों का जज़्बा देखकर आप भी इसके क़ायल हुए बिना न रह पाएंगे! 


(दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 26 सितम्बर' 2010 को प्रकाशित)

Saturday, September 11, 2010

दो यात्राएं

(हाल में कूर्ग से लौटी हूं। कर्नाटक के वेस्टर्न घाट्स 
में प्यारा-सा हिल-स्टेशन, जो अलग-थलग संस्कृति 
और ख़ूबसूरती लिए है। यात्रा-वृत्तांत लिख रही हूं, 
जल्द पोस्ट करूंगी। लेकिन कूर्ग का हैंगओवर है कि 
उतरता ही नहीं, इधर विष्णु जी की यह कविता पढ़ 
मन और हरा हो गया है।)

मैं एक यात्रा में
एक और यात्रा करता हूं
एक जगह से 
एक और जगह पहुंच जाता हूं

कुछ और लोगों से मिलकर 
कुछ और लोगों से मिलने चला जाता हूं
कुछ और पहाड़ों कुछ और नदियों को देख
कुछ और पहाड़ों कुछ और नदियों पर 
मुग्ध हो जाता हूं

इस यात्रा में मेरा कुछ ख़र्च नहीं होता
जबकि वहां मेरा कोई मेज़बान भी नहीं होता
इस यात्रा में मेरा कोई सामान नहीं खोता
पसीना बिल्कुल नहीं आता
न भूख लगती है, न प्यास
कितनी ही दूर चला जाऊं
थकने का नाम नहीं लेता

मैं दो यात्राओं से लौटता हूं
और सिर्फ़ एक का टिकट 
फाड़कर फेंकता हूं।

-विष्णु नागर के संग्रह 'घर के बाहर घर' से

Saturday, August 7, 2010

कोई-कोई दिन

कोई-कोई दिन कितना
अलसाया हुआ होता है
सुस्त, निठल्ला
नाकाम-सा

लेकिन मैं
कुछ न करते हुए भी
काम कर रही होती हूं 

जैसे 
बिस्तर पर लेटे
करवटें बदलना
कई सौ बार

यादों की पैरहन उधेड़ 
सिल लेना उसमें 
ख़ुद को 

अरसा पुराने ख़्वाबों को
नए डिज़ाइन में
बुनने की कोशिश करना 

फैंटेसी फ्लाइट में
बिना सीट बैल्ट के
बैठना
हिचकोले खाना जमकर
टाइम-अप के डर से
फिर
नीचे उतर आना

ज़हन में कुलबुलाते
उच्छृंखल विचारों पर 
नकेल डालना ताकि 
सब-कुछ बना रहे 
ऐसा ही
ख़ूबसूरत

बहुत सारे काम बाकी हैं 
और आंखें उनींदी हो चली हैं 
शाम का धुंधलका भी 
छा गया है बाहर। 
-माधवी

Wednesday, August 4, 2010

एक जीवन एकरस

एक लय
एक ताल 

एक झरोखा
एक चांद 

एक ख़ामोशी
एक चुभन 

एक हंसी
एक रुदन 

एक जीवन
एकरस जीवन।
-माधवी

Sunday, August 1, 2010

मुझे नहीं परवाह

कुछ जली, कुछ बुझी 
कुछ जड़, कुछ चेतन
थमी-सी कुछ, कुछ रौ में हूं मैं

एक-भाव की क़वायद में
ख़ुद के हूं ख़िलाफ़ मैं

मुखर, कभी मौन हूं
सोच के झंझावात में 
विचारशून्य
अजनबी, मैं परस्त कौन हूं

ग़मग़ीन किसी बात पर
ख़ुश-ख़याली में हर बात पर

सर्द कभी, कभी गरम
तल्ख़ कभी, कभी नरम 

भाव मन के सारे 
मौसमों के मानिंद 
क्यों हैं आजकल।
-माधवी

Wednesday, July 7, 2010

उसने कहा था

पं चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
                   (1883-1922)
   
(आज गुलेरी जयंती है। आज, 7 जुलाई को पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म हुआ था। गुलेरी जी हिन्दी कहानी के जनक माने जाते हैं। उन्होंने कई कहानियां लिखीं, मगर हिन्दी कथा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई 'उसने कहा था'। सन् 1960 में निर्माता बिमल राय इसी नाम से मोनी भट्टाचार्य के निर्देशन में फ़िल्म बना चुके हैं, जिसमें सुनील दत्त और नंदा ने काम किया है। 
हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा ज़िले के गुलेर गांव में गुलेरी जी का पैतृक आवास है। हिमाचल सरकार का भाषा एवं संस्कृति विभाग हर साल शिमला में गुलेरी जयंती का आयोजन करता है। पिता जी के साथ मुझे कई बार इस आयोजन में जाने का अवसर मिला। उनकी कालजयी रचना को यहां साझा कर रही हूं। ब्लॉग के माध्यम से गुलेरी जी को श्रद्धांजलि देने की छोटी-सी कोशिश भर है।)                                         

 (1)
बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगावें। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आंखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चीथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहरकर, सब्र का समुद्र उमड़ा कर, ‘बचो, खालसाजी', 'हटो भाई जी', 'ठहरना भाई जी', 'आने दो लाला जी', 'हटो बा'छा' कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं; चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं- 
हट जा, जीणे जोगिए; हट जा, करमां वालिए; हट जा, पुत्तां प्यारिए; बच जा, लंबी वालिए। समष्टि में इसका अर्थ है कि तू जीने योग्य है, तू भाग्यों वाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा। 
ऐसे बम्बूकार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियां। दुकानदार एक परदेसी से गुथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
''तेरे घर कहां है?''
''मगरे में; और तेरे?''
''मांझे में, -यहां कहां रहती है?''
''अतरसिंह की बैठक में; वेह मेरे मामा होते हैं।''
''मैं भी मामा के आया हूं, उनका घर गुरु बजार में है।''
इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुस्करा कर पूछा, ''तेरी कुड़माई हो गई?''
इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ा कर 'धत्' कह कर दौड़ गई और लड़का मुंह देखता रह गया।
दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहां या दूधवाले के यहां अकस्मात् दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा,
‘तेरी कुड़माई हो गई?’
और उत्तर में वही 'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हंसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरूद्ध बोली, ''हां, हो गई।''
''कब?''
''कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।'' लड़की भाग गई। लड़के ने घर की सीध ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उंडेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुंचा। 

(2)
“राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है! दिन-रात खंदकों में बैठे हड्डियां अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धंसे हुए हैं। गनीम कहीं दिखता नहीं - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ी है।
इस गैबी गोले से बचे तो काई लड़ै। नगरकोट का जलजला सुना था, यहां दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक् से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।”
“लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खंदक में बिता ही दिये। परसों रिलीफ आ जायेगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फरंगी मेम के बाग में- मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम लेती नहीं। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आये हो।”
“चार दिन तक एक पलक नींद नहीं मिली। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ाकर मार्च का हुकम मिल जाए। फिर सात जरमनों को अकेला मारकर न लौटूं तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े - संगीन देखते ही मुंह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फैंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट आने का कमान दिया, नहीं तो...”
“नहीं तो सीधे बर्लिन पहुंच जाते! क्यों?” सूबेदार हजारासिंह ने मुस्कराकर कहा- “लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?”
“सूबेदार जी, सच है,” लहनसिंह बोला- “पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धंस गया है। सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ से चंबे की बावलियों के-से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाए तो गरमी आ जाए।”
“उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बाल्टियां लेकर खाई का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदला दो।” कहते हुए सूबेदार खंदक में चक्कर लगाने लगे।
वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला- “मैं पाधा बन गया हूं। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!” इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी उसके हाथ में भरकर देकर कहा - “अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।”
“हां, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीन यहां मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊंगा।”
“लाड़ी होरां को भी यहां बुला लोगे? या वही दूध पिलाने वाली फरंगी मेम...”
“चुप कर। यहां वालों को शरम नहीं।”
“देस देस की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तमाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ैगा नहीं।”
“अच्छा, अब बोधासिंह कैसा है?”
“अच्छा है।”
“जैसे मैं जानता ही न होऊं! रात-भर तुम अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी क़े तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मंदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है और 'निमोनिया' से मरने वालों को 'मुरब्बे' नहीं मिला करते।”
“मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आंगन के आम के पेड़ की छाया होगी।”
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा- “क्या मरने-मराने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हां, भाइयो, कैसे-"
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए --
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुं।
कद्दू बणया वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुं।।
कौन जानता था कि दाढ़ियों वाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खंदक इस गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताजा हो गये मानो चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!

(3)
दो पहर रात गई है। अंधेरा है। सुनसान मची हुई है। बोधसिंह तीन खाली बिसकुटों के टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछाकर और लहनासिंह के दो कंबल और एक बरानकोट ओढ़कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आंख खाई के मुंह पर है और एक बोधसिंह के दुबले शरीर पर। बोधसिंह कराहा।
“क्यों बोधा भाई¸ क्या है?”
“पानी पिला दो।”
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुंह से लगाकर पूछा - “कहो, कैसे हो?” 
पानी पीकर बोधा बोला- “कंपनी छूट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दांत बज रहे हैं।”
“अच्छा¸ मेरी जरसी पहन लो !”
“और तुम?”
“मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है; पसीना आ रहा है।”
“ना¸ मैं नहीं पहनता, चार दिन से तुम मेरे लिए...”
“हां¸ याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सवेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें¸ गुरु उनका भला करें।” यों कहकर लहना अपना कोट उतारकर जरसी उतारने लगा।
“सच कहते हो?”
“और नहीं झूठ?” यों कहकर नांहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहनकर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुंह से आवाज आई- “सूबेदार हजारासिंह।”
“कौन लपटन साहब? हुकुम हुजूर !” -कहकर सूबेदार तनकर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
“देखो¸ इसी दम धावा करना होगा। मील-भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काटकर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहां मोड़ है वहां पंद्रह जवान खड़े कर आया हूं। तुम यहां दस आदमी छोड़कर सबको साथ ले उनसे जा मिलो। खंदक छीनकर वहीं¸ जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहां रहेगा।”
“जो हुक्म।”
चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कंबल उतारकर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझकर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें¸ इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुंह फेरकर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उनने लहना की ओर हाथ बढ़ाकर कहा- “ लो तुम भी पियो।”
आंख पलकते-पलकते लहनासिंह सब समझ गया। मुंह का भाव छिपाकर बोला - “लाओ, साहब!” हाथ आगे करते उसने सिगड़ी के उजास में साहब का मुंह देखा। बाल देखे। मथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहां उड़ गए और उनकी जगह कैदियों के-से कटे हुए बाल कहां से आ गए?”
शायद साहब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है! लहनासिंह ने जांचना चाहा। लपटन साहब पांच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में रहे थे।
“क्यों साहब¸ हम लोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?”
“लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, यह देश पसंद नहीं?”
“नहीं साहब¸ वह शिकार के मजे यहां कहां? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम-आप जगाधरी के जिले में शिकार करने गये थे!
'हां-हां...'
'वही जब आप खोते पर सवार थे और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था!'
'बेशक, पाजी कहीं का-’
सामने से वह नीलगाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी नही देखी। और आपकी एक गोली कंधे में लगी और पुट्‌ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब¸ शिमले से तैयार होकर उस नीलगाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रजमंट की मैस में लगायेंगे।
‘हां, पर मैंने वह विलायत भेज दिया-’
“ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?”
“हां¸ लहनासिंह¸ दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?”
“पीता हूं साहब¸ दियासलाई ले आता हूं।” कहकर लहनासिंह खंदक में घुसा। अब उसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट विचार किया कि क्या करना चाहिए।
अंधेरे में किसी सोने वाले से टकराया। “कौन? वजीरासिंह?”
“हां¸ क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आंख लगने दी होती?”

(4)
“होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।”
“क्या?”
“लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहनकर कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुंह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की हैं। सोहरा साफ उर्दू बोलता है¸ पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।”
“तो अब!”
“अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरां कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहां खाई पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर नहीं गए होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें। खंदक की बात सब झूठ है। चले जाओ¸ खंदक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।”
“हुकम तो यह है कि यहीं-- ”
“ऐसी-तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम- जमादार लहनासिंह, जो इस बख्त यहां सबसे बड़ा अफसर है¸ उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूं।”
“पर यहां तो सिर्फ तुम आठ ही हो।”
“आठ नहीं¸ दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।”
लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवाल से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से तीन बेल के बराबर गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवालों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बांध दिया। तार के आगे एक सूत की एक गुत्थी थी¸ जिसे सिगड़ी के पास रखा। और बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी पर रखने ही वाला था कि इतने में बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बंदूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुंदा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'आख! मीन गौट्‌ट' कहते हुए चित्त हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फैंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकालकर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्छा हटी! लहनासिंह हंसकर बोला- “क्यों लपटन साहब! मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मंदिरों में पानी चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहां से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिना 'डैम' के पांच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।”
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए¸ दोनों हाथ जेबों में डाले।
लहनासिंह कहता गया- “चालाक तो बड़े हो पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिये चार आंखें चाहिएं। तीन महीने हुए, एक तुरकी मौलवी मेरे गांव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बांटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उनमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिंदुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बंद कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपए निकाल लो; सरकार का राज आने वाला है। डाकबाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्ला जी की दाढ़ी मूंड दी थी और गांव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गांव में अब पैर रक्खा तो-”
साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जांघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिनी के दो फायरों ने साहब की कपालक्रिया कर दी। धड़ाका सुनकर सब दौड़ आये।
बोधा चिल्लाया- “क्या है?”
लहनासिंह ने उसे तो यह कहकर सुला दिया कि 'एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया' और औरों को सब हाल कह दिया। सब बंदूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़कर घाव के दोनों तरफ पट्टियां कसकर बांधी। घाव मांस में ही था और पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहां थे आठ। (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था- वह खड़ा था और¸ और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे।
अचानक आवाज आई 'वाह गुरुजी का खालसा, वाह गुरुजी की फतह!!' और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
एक किलकारी और- 'अकाल सिक्खां दी फौज आई! वाह गुरुजी दी फतह! वाह गुरुजी दा खालसा! सत श्री अकाल पुरुख!!!' और लड़ाई खतम हो गई। तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिखों में पंद्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कंधे में से गोली आर-पार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कसकर कमरबंद की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न पड़ी कि लहना के दूसरा घाव- भारी घाव लगा है।
लड़ाई के समय चांद निकल आया था, ऐसा चांद कि जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्‌ट की भाषा में 'दंतवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर उसकी तुरतबुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उनने पीछे टैलीफोन कर दिया था। वहां से झटपट दो डाक्टर और दो बीमारों को ढोने की गाडियां चलीं, जो एक-डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुंचीं। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहां पहुंच जाएंगे¸ इसलिये मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जांघ में पट्टी बंधवाना चाही। पर उसने यह कहकर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा- “तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनी जी की सौगंध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।”
“और तुम?”
“मेरे लिये वहां पहुंचकर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुरदों के लिये भी तो गाड़ियां आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूं? वजीरासिंह मेरे पास है ही।”
“अच्छा, पर..”
“बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला! आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि जो उनने कहा था वह मैंने कर दिया।”
गाड़ियां चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा- “तैंने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा, साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?”
“अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना।”
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया। “वजीरा पानी पिला दे और मेरा कमरबंद खोल दे। तर हो रहा है।”
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जनम-भर की घटनाएं एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।


लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहां आया हुआ है। दही वाले के यहां, सब्जीवाले के यहां, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि 'तेरी कुड़माई हो गई?' वो ‘धत्‌’ कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा- "हां, कल हो गई¸ देखते नहीं यह रेशम के फूलों वाला सालू!" सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
“वजीरासिंह¸ पानी पिला दे।”
पचीस वर्ष बीत गये। लहनासिंह नं. 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकद्दमे की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहां रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गांव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहां पहुंचा।
जब चलने लगे¸ तब सूबेदार बेड़े में से निकलकर आया। बोला- “लहना, सूबेदारनी तुमको जानती है। बुलाती है, जा मिल आ।” लहनासिंह भीतर पहुंचा। सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जाकर 'मत्था टेकना' कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
"मुझे पहचाना?"
“नहीं।”
'तेरी कुड़माई हो गई? - 'धत्'‌ - 'कल हो गई' - 'देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू - अमृतसर में.. '
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
'वजीरा¸ पानी पिला' -‘उसने कहा था।'
स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है- “मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूं। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है¸ आज नमकहलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही बरस हुआ। इसके पीछे चार और हुए¸ पर एक भी नहीं जिया।" सूबेदारनी रोने लगी। ‘अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन तांगेवाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं।'
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आंसू पोंछता हुआ बाहर आया।
‘वजीरा, पानी पिला’ - 'उसने कहा था।' 
लहना का सिर अपनी गोदी में लिटाए वजीरासिंह बैठा है। जब मांगता है¸ तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना गुम रहा। फिर बोला- 
“कौन! कीरतसिंह?”
वजीरा ने कुछ समझकर कहा, “हां।”
“भइया, मुझे और ऊंचा कर ले। बस पट्ट पर मेरा सिर रख ले।” 
वजीरा ने वैसे ही किया।
“हां, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलैगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था¸ उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।”
वजीरासिंह के आंसू टप-टप पड़ रहे थे।
कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा- 
फ्रांस और बेल्जियम - 68 वीं सूची - मैदान में घावों से मरा - नं. 77 सिख राइफल्स - जमादार लहनासिंह।
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