मुझे नहीं पता
आटे-दाल का भाव
इन दिनों
नहीं जानती
ख़त्म हो चुका है घर में
ख़त्म हो चुका है घर में
नमक, मिर्च, तेल और
दूसरा ज़रूरी सामान
रसोईघर में पैर रख
राशन नहीं
सोचती हूं सिर्फ़
कविता
आटा गूंधते-गूंधते
गुंधने लगता है कुछ भीतर
गीला, सूखा, लसलसा-सा
चूल्हे पर रखते ही तवा
ऊष्मा से भर उठता है मस्तिष्क
बेलती हूं रोटियां
नाप-तोल, गोलाई के साथ
नाप-तोल, गोलाई के साथ
विचार भी लेने लगते हैं आकार
होता है शुरू रोटियों के
सिकने का सिलसिला
शब्द भी सिकते हैं धीरे-धीरे
देखती हूं यंत्रवत्
रोटियों की उलट-पलट
उनका उफान
आख़िरी रोटी के फूलने तक
कविता भी हो जाती है
पककर तैयार।
(वागर्थ के अगस्त 2011 अंक में प्रकाशित)
... bahut sundar ... shaandaar !!!
ReplyDeleteऔर देखिये रोती के पकने तक कितनी अच्छी कविता पक के तैयात भी हो गयी है...:)
ReplyDeleteKind of makes sense. Rediculously sensible. More of these please !!
ReplyDeleteAnd has this name anything to do with the Great name GULERI ... of "Us Na Kahaa Thaa" fame ?
ReplyDeleteअच्छा प्रयास! आंच संतुलित हो तभी रोटी अच्छी पकती है वरना कच्ची रह जाती है या ऊपर-ऊपर पक जाती है ! कविता के गढ़ने की प्रक्रिया जटिल होती है और रोचक भी ! इस पर मेरी एक कविता जरूर पढियेगा : "कविता का जन्म"
ReplyDeleteशुभकामनाओं सहित,
सुशील
वाह! रोटी के पकने के साथ कविता का पकना …………बेहद उम्दा प्रस्तुति…………ऐसा भी होता है ।
ReplyDeleteकविता तो निरंतर चलती रहती है...
ReplyDeleteसुन्दर!
is poem se pet hi nahi atma ki bhookh bhi mit gai...well done..great work.
ReplyDeleteमेरी अधपक्की रोटियां शायद सानी है मेरे अधपक्के अंतर्मन का....
ReplyDeleteबहुत खूब माधवी
सभी सुधिजनों को दिल से धन्यवाद !!
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