Monday, October 7, 2013

एक वचनश्रुति का होना

(प्रिय कवि आलोक श्रीवास्तव के कविता-संग्रह 'दुख का देश और बुद्ध' से...) 
 
बुद्ध का होना 
एक फूल का खिलना  है 
हवा में महक का बिखरना 
और दिशाओं में रंगों का छा जाना है 

बुद्ध का होना 
अपने भीतर होना है 
दुख को समझते हुए जीना 
पता नहीं पृथ्वी पर 
कितने कदम चले बुद्ध ने 
कितने वचन कहे 
कितनी देशना  दी  
पर बुद्ध का होना 
मनुष्य में बुद्ध की संभावना  का होना है 
दुख की सहस्र पुकारों के बीच 
दुख से मुक्ति की एक वचनश्रुति का होना है 

बुद्ध का होना 
धरती का, रंगों का, ऋतुओं का 
राग का होना है... 

(बुद्ध की तस्वीर थाईलैंड प्रवास के दौरान अयुथ्या मठ से.)

Saturday, August 3, 2013

सिनेमा ने दिया जीने का मक़सद

(नसरीन मुन्नी कबीर विदेश में पली-बढ़ीं लेकिन उनका दिल भारत के लिए धड़कता रहा। लंदन में रहकर वे भारतीय फ़िल्में देखतीं और हिन्दी गाने सुनतीं। पढ़ाई के लिए यूरोप गईं तो वहां भी यह सिलसिला बरक़रार रहा। सिनेमा की पढ़ाई के बाद नसरीन लंदन लौट आईं। उन्हें ब्रिटिश फ़िल्म इंस्टीट्यूट' में गवर्नर नियुक्त किया गया। लेकिन भारत और सिनेमा के प्रति प्यार उन्हें बार-बार हिन्दुस्तान खींचकर लाता रहा। नसरीन भारतीय सिनेमा से जुड़ी हस्तियों पर कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बना चुकी हैं और किताबें लिख चुकी हैं। ब्रिटेन और यूरोप में भारतीय सिनेमा का परचम लहराने वाली नसरीन हाल में भारत आईं तो अहा ज़िंदगी के लिए उन्होंने ख़ास बातचीत की।)
 

मेरा जन्म हैदराबाद का है। बहुत छोटी थी जब माता-पिता इंग्लैंड जाकर बस गए थे। तब से लंदन में ही हूं। लंदन बहुत ख़ूबसूरत शहर है। यहां काम करने में मज़ा आता है। कला-प्रदर्शनी हो या रंगमंच- सब-कुछ बेहतरीन है। सीखने और करने के लिए बहुत कुछ है यहां। लंदन सांस्कृतिक रूप से काफी समृद्ध है। यूं तो मेरे जीवन का ज़्यादातर हिस्सा लंदन में गुज़रा है, लेकिन पैरिस में भी मैंने 18 साल बिताए हैं। मेरी पढ़ाई पैरिस में ही हुई है।
सिनेमा में मास्टर्स करने के बाद मैंने फ्रांस के नामी निर्देशक रॉबर्ट ब्रेसों को जॉइन किया। रॉबर्ट की फ़िल्म फोर नाइट्स ऑफ ए ड्रीमर में बतौर सहायक काम किया। रॉबर्ट फिक्शन फ़िल्मों के बादशाह थे। उनके साथ काम करने के दौरान मुझे समझ आ गया था कि मैं उस फिक्शन को गढ़ने में अच्छी नहीं हूं, जो फ़िल्मों के लिए ज़रूरी है। फ़िल्मों में एक अलग ही दुनिया रचनी पड़ती है। ऐसी दुनिया जो वास्तव में नहीं है, लेकिन वास्तव लगनी चाहिए। मैं समझ गई थी कि मैं असल घटनाओं को रिकॉर्ड करने में बेहतर हूं। इसीलिए मैंने डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाने की ठानी।
जल्द समझ आ गया कि फिल्में मेरे बस की नहीं
लंदन में मैंने हिन्दुस्तानी फ़िल्में ख़ूब देखीं। भारत से मेरा ताल्लुक भारतीय खाने और भारतीय सिनेमा के कारण बरक़रार रहा, यह मेरे लिए बड़ी बात थी। विदेश में रह रहे लाखों हिन्दुस्तानियों की तरह मैं भी हिन्दी गाने सुना करती थी... ख़ासतौर से पचास और साठ के दशक के गाने, जो लाजवाब थे। फिर मैंने सोचा कि क्यों न भारतीय फ़िल्मों पर ही रिसर्च करूं। शुरुआत हुई यूरोपीय देशों में भारतीय सिनेमा समारोह आयोजित करने से। इसी कड़ी में मैंने 1983 और 1985 में पैरिस के जॉर्ज पॉम्पिदू सेंटर में भारतीय सिनेमा के महत्वपूर्ण समारोह कराए।
1982 में जब यूनाइटेड किंगडम में चैनल 4 टेलीविज़न की शुरुआत हुई तो मुझे उसमें बतौर सिनेमा सहायक काम करने का प्रस्ताव मिला। तब से चैनल 4 के साथ ही हूं। मैं इस चैनल के लिए भारतीय फ़िल्म शृंखला का आयोजन करती हूं। चैनल 4 पर हर साल 20 भारतीय फ़िल्में दिखाई जाती हैं। 
डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की बात करूं तो कह सकती हूं कि वृत्त-चित्र और चैनल 4 के लिए भारतीय फ़िल्मों का आयोजन मेरी उपलब्धि रही है। वैसे फ़िल्मों में मैंने हर तरह का काम किया है। चैनल 4 के लिए हिन्दी सिनेमा पर कई सीरीज़ बना चुकी हूं, जैसे- मूवी महल, इन सर्च ऑफ गुरु दत्त, अमिताभ बच्चन के जीवन पर आधारित फॉलो दैट स्टार और लता मंगेशकर पर एक सीरीज़ जो छह भागों में है। इसके अलावा शाहरुख़ पर भी वृत्त-चित्र बना चुकी हूं- द इनर एंड आउटर वर्ल्ड ऑफ शाहरुख़ खान
वृत्त-चित्र का निर्माण किसी भी हस्ती के जीवन को रिकॉर्ड करने का शानदार ज़रिया है। गुरु दत्त और लता मंगेशकर ऐसी हस्तियां हैं जिन्होंने हमारे सांस्कृतिक जीवन को गहरे प्रभावित किया है। इन महान कलाकारों की जीवनगाथा सुनकर फ़िल्म बनाना मेरे लिए फ़ख्र की बात है।
हर कलाकार में है कुछ अलग बात
वृत्त चित्र बनाने के दौरान मेरा रुझान सिनेमा पर किताबें लिखने की तरफ़ हुआ। मैंने जावेद अख़्तर और लता मंगेशकर के जीवन पर किताबें लिखीं। ए.आर. रहमान की जीवनी भी लिखी। ये सब किताबें बातचीत पर आधारित हैं। गुरु दत्त की जीवनी पर भी काम कर चुकी हूं। गुरु दत्त से मैं कभी नहीं मिली, लेकिन उन पर काम करने का अनुभव अलग ही था। वे रहस्यमयी इंसान थे। उनके व्यक्तित्व में कई परतें थीं शायद इसीलिए उनकी फ़िल्मों का जादू अब तक बरक़रार है। उनकी फ़िल्में हर पीढ़ी से संवाद स्थापित करने में सक्षम हैं।
काम के दौरान जिन हस्तियों से भी मैं मिली, सबके साथ बहुत मजा आया। हालांकि सब अनुभव एक-दूसरे से अलग रहे। लता मंगेशकर गज़ब की महिला हैं। वे हाज़िरजवाब और ज़िंदादिल हैं। उनके साथ बैठकर महसूस होता है कि आप एक कमाल की प्रतिभा के साथ हैं। अमिताभ बच्चन ऐसे संजीदा इंसान हैं जिनके व्यक्तित्व में कई रंग हैं। अमिताभ को फ़िल्माते समय वे पूरी टीम के साथ खुले स्वभाव से पेश आते रहे। उन्हें मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और मुकुल आनन्द के साथ काम करते हुए देखने में बड़ा मज़ा आया। हमने 1989 में उन पर वृत्त-चित्र बनाया था। उस दौरान वे जहां भी जाते, जनता सब-कुछ भूलकर उन्हें घेरे रहती। मेरे ख़याल से भारतीय सिनेमा में इतना बड़ा सितारा दोबारा शायद ही देखने को मिले। ए.आर. रहमान विनम्र हैं, क़ाबिलियत कूट-कूट कर भरी है उनमें। सबसे प्यारी बात यह है कि वे ईमानदार हैं। रहमान बहुत शांत लेकिन मज़ाकिया हैं। वे आपको कभी भी हंसा सकते हैं। शाहरुख़ खान जोशीले हैं। जब हम लोग शाहरुख़ पर फ़िल्म बना रहे थे तो वे हमसे काफी घुल-मिल गए थे। कैमरे के पीछे काम करने वाले लोगों के साथ वे बहुत आदर से पेश आते हैं। किसी तकनीशियन से कैसे बात करनी है, यह शाहरुख़ बख़ूबी जानते हैं। वे अपने फैन्स के साथ बहुत सलीके से पेश आते हैं। इसीलिए उनके प्रशंसक उन्हें इतना प्यार करते हैं। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान सहज और सक्रिय इंसान थे। सिर्फ़ संगीत नहीं, उनकी मौजूदगी भी धन्य कर देने वाली थी। ऐसे कम लोग होते हैं जो इतने हुनरमंद होने पर भी गुरूर नहीं करते, कामयाबी को सर पर नहीं चढ़ने देते। खान साहब में नम्रता थी जो महान कलाकारों की ख़ासियत रही है। गुरु दत्त और बिस्मिल्लाह खान पर बनाए गए वृत्त-चित्रों को मैं अब तक अपना सबसे अच्छा काम मानती हूं।
फिल्मी पत्रकारिता के लिए शोध ज़रूरी है
किसी चीज़ को लेकर जुनून हो तो उस तक पहुंचने के तरीके हम ढूंढ़ ही लेते हैं। फ़िल्मों के साथ भी ऐसा ही है। डायलॉग बुक्स में जो बातचीत है वो हिन्दी, उर्दू, रोमन हिन्दी या अंग्रेज़ी अनुवाद में है। ऐसा प्रयोग पहली बार हुआ है। जिन फ़िल्मों पर मैंने काम किया है वो मुगल-ए-आज़म, आवारा, मदर इंडिया और प्यासा जैसी सदाबहार फ़िल्में हैं। मेरी नई डायलॉग बुक बिमल रॉय की फ़िल्म देवदास पर है।
मेरे ख़याल से किसी चरित्र को समझने के लिए डायलॉग की बहुत बड़ी भूमिका होती है। सिनेमा-प्रेमियों तक फ़िल्म का मूल भाव पहुंचाना डायलॉग से ही संभव है। यह वाकई शानदार तरीका है। अनुवाद के कारण भाषा की समस्या भी आड़े नहीं आती। मुझे ख़ुशी है कि मेरी डायलॉग बुक्स हॉवर्ड, टोक्यो और पैरिस के विश्वविद्यालयों में हिन्दी और उर्दू पढ़ाने के काम में लाई जा रही हैं।
इस क्षेत्र में बड़ी चुनौती यह है कि आप सवाल सही पूछ रहे हैं या नहीं। जिस व्यक्ति-विशेष पर आप काम कर रहे हैं, उसे विश्वास में लेना ज़रूरी है। गहन शोध भी चाहिए ताकि वो आपसे खुलकर बात कर सके। ज़रा सोचिए, जिसने फ़िल्म इंडस्ट्री में बरसों गुज़ारे हों, उसके लिए एक-एक बात याद रखना कितना मुश्किल है। यह पूरी तरह आप पर निर्भर है कि आप उसे कितना और क्या याद दिला पाते हैं।
हिंदी सिनेमा के पास निर्देशक हैं, पटकथा नहीं
हिन्दी सिनेमा के पास मणिरत्नम, दिबाकर बैनर्जी और विशाल भारद्वाज जैसे सशक्त फ़िल्मकार हैं। ये निर्देशक शानदार कहानियां सुनाते हैं, लेकिन बिल्कुल अलग अंदाज़ में। महिलाओं में मेरी पसंदीदा फ़िल्म निर्देशक फ़राह खान हैं। तीसमार खां तो नहीं लेकिन मुझे उनकी ओम शांति ओम औरमैं हूं ना फ़िल्में काफी पसंद आईं। फ़राह मनमोहन देसाई की शैली की फ़िल्में बनाती हैं। वे फ़िल्मों के अलावा गानों का निर्देशन भी अच्छा कर लेती हैं। उनकी कोरियोग्राफी बेहतरीन है। गानों में नई ऊर्जा भरना कोई उनसे सीखे। मुझे फ़राह की आने वाली फ़िल्मों का इंतज़ार है।
अच्छा फ़िल्मकार होने के लिए ज़रूरी है अच्छा किस्सागो होना। साथ ही यह जानना कि उन किस्सों को दृश्यों में किस तरह उतारा जाए। अच्छे फ़िल्मकार को यह इल्म होना ज़रूरी है। फिर, अच्छा अभिनय करवाना और अच्छे अभिनय की परख भी उतनी ही ज़रूरी है। निर्देशक ही वो आख़िरी इंसान है जो शॉट को ओके करता है। इसलिए जब तक निर्देशक में समझ नहीं होगी तब तक अच्छी फ़िल्म बनना नामुमकिन है। फ़िल्म बनाते हुए तुरंत फ़ैसले लेने की क्षमता होनी चाहिए। इसके अलावा अच्छे निर्देशक के लिए अच्छा एडिटर होना ज़रूरी है। 
क्वालिटी की बात करें तो पाश्चात्य और भारतीय सिनेमा के बीच आज भी ज़मीन-आसमान का फर्क़ है। हिन्दी सिनेमा का सबसे कमज़ोर पक्ष उसकी पटकथा है। हिन्दी फ़िल्मों की पटकथा में मौलिकता नहीं है। एडिटिंग में कई ख़ामियां हैं। एडिटिंग या तो बहुत चालू होती है या फिर घिसी-पिटी लीक पर। लेकिन मैं फिर कहूंगी कि यह परिवर्तन का समय है। भारतीय सिनेमा में नए प्रयोग हो रहे हैं। नए फ़िल्मकार ख़ुद को साबित कर सकें, इसके लिए उन्हें समय और मौक़ा मिलना चाहिए।
ईरानी सिनेमा बेहद पसंद है
ख़ाली वक्त में मुझे फ़िल्में देखना पसंद है, ख़ासतौर से यूरोप और हॉलीवुड की फ़िल्में। ईरान का सिनेमा भी बहुत पसंद है। ईरानी फ़िल्म सेपरेशन कमाल की फ़िल्म है। इसके अलावा द आर्टिस्ट भी मेरी पसंदीदा है। यह साइलेंट फ़िल्म है लेकिन इसे देखकर समझ में आता है कि कहने का ढंग अच्छा हो तो कैसे एक साधारण कहानी भी असाधारण बन जाती है।
जब भी भारत आती हूं, यहां से लौटने का मन नहीं करता। यहां आकर बहुत सुक़ून मिलता है मुझे। दरअसल मुझे भारत की ज़िंदादिली पसंद है। यह देश बख़ूबी बताता है कि जीवन में कितने विविध रंग हैं। आर्थिक परेशानी के बावजूद यहां लोग पूरे उत्साह के साथ जीते हैं, एक-दूसरे का सम्मान करते हैं। 

चलते-चलते
जन्मदिन: 19 मई 1949
भारत में पसंदीदा जगह: मुंबई और केरल
पसंदीदा किताबें: सादिक हिदायत की द ब्लाइंड आउल
पसंदीदा फ़िल्में: प्यासाऔर द थर्ड मैन
पसंदीदा निर्देशक: गुरु दत्त और बिली वाइल्डर
पसंदीदा गाने:ये रात ये चांदनी फिर कहां और अभी न जाओ छोड़कर
पसंदीदा अभिनेता/अभिनेत्री: दिलीप कुमार, नरगिस
अवॉर्ड: कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में वूमन अचीवमेंट अवॉर्ड
कोई पुरानी याद: पुरानी हिन्दी फ़िल्में और बीटल्स के गाने
जीवन का टर्निंग पॉइंट: जब मैंने भारतीय सिनेमा पर रिसर्च का काम शुरू किया। लगा कि मुझे जीवन में एक उद्देश्य मिल गया है। 

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के अगस्त 2013 अंक में प्रकाशित)

Sunday, July 7, 2013

गुलेरी जयंती पर विशेष

(साहित्य के पुरोधा पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की आज 130वीं जयंती है। गुलेरी जी की रचनाओं के बारे में इतना सब लिखा, पढ़ा व सुना जा चुका है कि कुछ और कहना सूरज को दीया दिखाने समान है। दो साल पहले पैतृक घर गुलेर जाना हुआ तो मैं गुलेरी जी की निजी डायरी अपने साथ मुंबई ले आई थी। यह वह डायरी है जिसे गुलेरी जी के पौत्र यानी मेरे पिता डॉ. विद्याधर शर्मा गुलेरी अपनी सबसे बड़ी संपत्ति मानते थे। परदादा जी की डायरी पढ़ते हुए उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानने का सौभाग्य मुझे मिला, वहीं उनके अपने शब्दों में उनका परिचय पाकर मैं अभिभूत हो उठी। इसे हिन्दी-साहित्य का दुर्भाग्य माना जाना चाहिए कि पाठकवर्ग गुलेरी जी की उन अधिकांश रचनाओं से वंचित रहा है, जो वे 39 वर्ष की अल्पायु में लिखकर चले गए। प्रतिभापुत्र गुलेरी जी मुख्यतया उसने कहा था कहानी से साहित्य-प्रेमियों में अपनी पहचान रखते हैं, लेकिन कहानी लेखन के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी उनका योगदान अप्रतिम है। भाषा एवं साहित्य से इतर दर्शन, इतिहास, पुरातत्व, धर्म, ज्योतिष, पत्रकारिता व मनोविज्ञान जैसे अनेक विषयों पर गुलेरी जी की गहरी पैठ थी। गुलेरी जी के रचनाकर्म को पाठक अच्छे से जान पाएं, इस कामना के साथ उनका यह लेख, जो मूल अंग्रेजी से अनूदित है।)
गुलेरी जी अपने शब्दों में
मैं पंजाब प्रांत के काँगड़ा जिले में गुलेर नामक ग्राम निवासी सारस्वत ब्राह्मणों के सम्मान्य कुल का वंशज हूँ। ज्योतिष के विद्वान और पंचांग विद्या के कर्ता के रूप में मेरे प्रपितामह की प्रसिद्धि उन दिनों में पटियाला और बनारस तक फैली हुई थी। हमारे वंश के लोग माफी और जागीर की भूमि का उपभोग करते हैं और हम इतिहास-प्रसिद्ध गुलेर के राजा कटोच क्षत्रियों के मुख्य पुरोहित और गुरु हैं। गुलेर के राजा ने मेरे पिताजी को गुरु के रूप में पालकी, गद्दी और ताजीम का सम्मान प्रदान किया था और उनके बाद मुझे भी वही प्रतिष्ठा प्राप्त है।
मेरे पिता पंडित शिवरामजी, अपने समय में बनारस के विशिष्ट संस्कृत विद्वान माने जाते थे और जयपुर के स्वर्गीय महाराजा रामसिंह जी बहादुर ने अपने दरबार के राजपंडित पद के लिए उनका चयन किया था। वे जयपुर दरबार के वरिष्ठ पंडित थे और लगभग 48 वर्ष तक जयपुर के संस्कृत कॉलेज में उपाध्यक्ष एवं संस्कृत, व्याकरण, भाषा विज्ञान और वेदान्त, दर्शन के आचार्य पर प्रतिष्ठित रहे। स्वर्गीय एवं वर्तमान महाराजा तथा समाज के सभी वर्गों के लोगों से प्रखर पाण्डित्य तथा निर्मल चरित्र के कारण उनको महान समादर प्राप्त था। वे जयपुर में संस्कृत अध्ययन के आद्य प्रवर्तकों में थे और उनकी शिष्य मण्डली में देश के बहुत से प्रसिद्ध पंडित हैं तथा तीन को तो भारत सरकार द्वारा महामहोपाध्याय का सम्मान भी प्राप्त हो चुका है।
मेरा जन्म जयपुर में ही हुआ और मैंने महाराज कॉलेज में शिक्षा पाई। स्कूल व कॉलेज की सभी कक्षाओं में मैं सर्वोच्च स्थान एवं पारितोषिक पाता रहा। मैंने माध्यमिक परीक्षा 1897 ई. में द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन् 1899 ई. में मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एण्ट्रेन्स परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और विश्वविद्यालय की इस परीक्षा के वरिष्ठता क्रम में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। जयपुर राज्य में शिक्षा के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व अवसर था। अत: महाराजा साहिब बहादुर की ओर से सार्वजनिक शिक्षा विभाग द्वारा मुझे स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। साथ ही, मैंने उसी वर्ष कलकत्ता विश्वविद्यालय से मैट्रिक परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1901 ई. में मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रथम वर्ष कला परीक्षा में द्वितीय श्रेणी प्राप्त करके उत्तीर्ण हुआ। इस परीक्षा में अंग्रेजी के अतिरिक्त मेरे विषय तुर्क, ग्रीक और रोमन इतिहास, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, संस्कृत और सामान्य एवं उच्चतर गणित रहे थे। इसके साथ ही मैंने हिन्दी में मौलिक रचना प्रस्तुत करके वैकल्पिक परीक्षा में सफलता प्राप्त की। मेरे एक आचार्य द्वारा मेरे नाम लिखे गये पत्र के उद्धरण से ज्ञात होगा कि मैंने कलकत्ता के सभी परीक्षार्थियों में अंग्रेजी गद्य-लेखन में द्वितीय स्थान प्राप्त किया था।
विद्यार्थी अवस्था में ही स्वर्गीय कर्नल स्विन्टन जैकब और कैप्टन ए.एफ. गैरट आर.ई.एम. ने मुझे जयपुरस्थ ज्योतिष यंत्रालय के यंत्रोद्धार के निमित्त सहायक के रूप में चुन लिया था। कठिन एवं मौलिक कार्य में मैंने जो सहायता की, उसमें मेरी सफलता को प्रमाणित करते हुए राज्य की ओर से मुझे 200 रु. का पारितोषिक प्रदान किया गया। इसके लिए ऊपरिलिखित दोनों महानुभावों ने जो संलग्न प्रमाणपत्र प्रदान किए हैं, वे साक्षीभूत हैं।
अंग्रेजी, मानसिक एवं नैतिक विज्ञान और संस्कृत विषय लेकर मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1903 ई. में बी.ए. परीक्षा पास की और विश्वविद्यालय के सफल परीक्षार्थियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। जयपुर के महाराजा कॉलेज अथवा राजपूताना के किसी भी कॉलेज से कोई भी परीक्षार्थी अब तक ऐसी सफलता प्राप्त नहीं कर सका था। अत: इन शिक्षालयों के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व घटना थी। राज्य की ओर से मुझे पुन: स्वर्णपदक और 300 रु. के मूल्य की पुस्तकें प्रदान करके पुरस्कृत किया गया। उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी होने के नाते मैंने नॉर्थ ब्रुक स्वर्णपदक भी प्राप्त किया।
मनोविज्ञान एवं कर्तव्यशास्त्र विषय लेकर मैंने एम.ए. उपाधि के लिए परीक्षा के निमित्त आवश्यकता से भी अधिक अध्ययन किया परन्तु स्वास्थ्य की गड़बड़ी ने मुझे परीक्षा में बैठने का अवसर नहीं दिया।
संस्कृत के विश्रुत विद्वान अपने पिताजी से कई वर्षों तक स्वतंत्र रूप से अध्ययन करने का असाधारण सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। मैं संस्कृत बहुत अच्छी तरह जानता हूँ और उच्चतर एवं मौलिक शोध को लक्ष्य में रखकर मैंने वैदिक, पौराणिक, साहित्यिक एवं वेदान्तक विषयक संस्कृत साहित्य के अंगों का विशिष्ट अध्ययन किया है। मैंने संस्कृत का आरम्भिक अध्ययन प्राचीन पद्धति से किया जो बहुत ठोस होता है। अंग्रेजी शिक्षा ने मुझे वह कसौटी प्रदान कर दी है जिसका कि पाश्चात्य विद्वान प्राचीन भाषा में संशोधन के उद्देश्य के लिए प्रयोग करते हैं।
मैंने इण्डियन एन्टीक्वेरी एवं अन्य संस्कृत और हिन्दी सावधिक पत्र-पत्रिकाओं को बहुत से विद्वतापूर्ण लेखों द्वारा योगदान दिया है। इण्डियन एन्टीक्वेरी में प्रकाशित मेरे लेखों की विशिष्ट प्राच्य विद्याविदों ने प्रशंसा की है। जब महामहिम ब्रिटिश सम्राट भारत आये तो मैंने उनके लिए संस्कृत में स्वागत गान की रचना की। सुप्रसिद्ध डच विद्वान डॉ. कैलेण्ड (उद्वेच निवासी) ने एतन्निमित्त मेरी बहुत प्रशंसा की। मैंने कतिपय आद्यावधि अप्रकाशित संस्कृत ग्रन्थों की समीक्षा एवं व्याख्यात्मक प्रस्तावना और टिप्पणियों सहित सम्पादन कार्य भी हाथ में लिया है। जयपुर राज्य द्वारा संचालित संस्कृतोपाधि की परीक्षाओं में मैं साहित्य, धर्मशास्त्र और व्याकरण विषयों का परीक्षक होता हूँ तथा राजपूताना मिडिल स्कूल और जयपुर मिडिल स्कूल परीक्षाओं में भी मुझे परीक्षक नियुक्त किया जाता है।
सन् 1904 ई. में कर्नल टी.सी. पियर्स, आई.ए. तत्कालीन रेजीडेन्ट जयपुर की सहमति से मुझे खेतड़ी के अल्पव्यस्क राजा का अभिभावक, अध्यापक नियुक्त किया गया। पियर्स साहब का कश्मीर से लिखा हुआ प्रशंसा-पत्र इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है कि मेरी कार्यप्रणाली के विषय में उनके मन में कैसी धारणा थी। जब जयपुर दरबार ने मेयो कॉलेज अजमेर के मोतमिद् (रियासत के सामन्तों और प्रशिक्षणार्थियों के अभिभावक) पद का स्तर ऊँचा करने का निर्णय किया तो 1907 ई. में इस पद के लिए मुझे चुना गया। यह चुनाव करते समय रियासत की स्टेट कौंसिल के सचिव ने रेजीडेन्ट जयपुर के नाम यह पत्र लिखा था-
संख्या 2254
जयपुर, दिनांक 21 अक्टूबर, 1916
मेयो कॉलेज के मोतमिद् पद पर किसी अधिक योग्य व्यक्ति की नियुक्ति करके उसका स्तर बढ़ाने का प्रश्न कुछ समय से जयपुर दरबार के विचाराधीन है। अब कौंसिल ने राजा जी खेतड़ी के शिक्षक पं. चन्द्रधर गुलेरी बी.ए. को लाला मिट्ठन लाल के स्थान पर मेयो कॉलेज के मोतमिद् पद को ग्रहण करने के लिए चुना है। पं. चन्द्रधर गुलेरी एक बहुत ही योग्य व्यक्ति हैं और उन्होंने अपने कर्तव्यों का सम्यक पालन करते हुए प्रिंसिपल मेयो कॉलेज को सदैव सन्तुष्ट किया है और अब तक इस संस्था का बहुत कुछ अनुभव प्राप्त कर लिया है, अत: कौंसिल को विश्वास है कि इनकी नियुक्त के विषय में प्रिंसिपल मेयो कॉलेज, अजमेर की सहमति प्राप्त हो जायेगी।
मेयो कॉलेज में लगभग 15 वर्ष बहुत लंबे समय तक में विविध श्रेणियों को अवैतनिक रूप से विभिन्न विषय पढ़ाता रहा हूँ। तदन्तर सन् 1916 में मुझे महामहोपाध्याय पंडित शिवनारायण के स्थान पर हैड पंडित मेयो कॉलेज के पद पर नियुक्ति के लिए चुना गया और हिन्दी व संस्कृत का अध्यापन कार्य मुझे सौंपा गया। कक्षा में, छात्रावास में और क्रीड़ा-क्षेत्र में अपने विद्यार्थियों के मानसिक, नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक विकास की दिशा में मैंने जिस परिणाम में और जिस स्तर पर कार्य किया है उसके विषय में प्रिंसिपल महोदय ही अपना मत दे सकते हैं कि वह उनके मनोनुकूल है या नहीं।
मैंने प्राचीन एवं आधुनिक गद्य तथा पद्यात्मक हिन्दी सहित्य का विशिष्ट अध्ययन किया है और पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं से इसके विकास के संबंध में भी अनुशीलन किया है। इतिहास और पुरातत्व विषयों में मेरी अभिरुचि है और अपने नाम से, बिना नाम के अथवा अन्य विद्वानों के साथ जो लेख आदि प्रकाशित किए हैं, वे सर्वनिवेदित हैं।
मैं हिन्दी का प्रसिद्ध लेखक हूँ और साहित्यिक जगत में आलोचक और विद्वान के रूप में मेरी ख्याति है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी की प्रबंधकारिणी परिषद् का मैं कई वर्षों तक सदस्य रहा हूँ। जयपुर के रेजीडेन्ट कर्नल शावर्स द्वारा लिखित नोट्स ऑन जयपुर’ पुस्तक में मेरा यथेष्ट योगदान है। युद्ध काल में मैंने सम्राट की सेनाओं की विजय के सम्बन्ध में एक संस्कृत प्रार्थना लिखी थी जो प्रति दिन विद्यालयों में दोहराई जाती थी। युद्धकाल में प्रिंसिपल मेयो कॉलेज पब्लिसिटी बोर्ड, अजमेर मेरवाड़ा बार गजट में हिन्दी संस्करण के सम्पादन में अकेले ही उनकी सहायता की थी और साथ ही अंग्रेजी संस्करण में भी लेख लिखता था। अजमेर मेरवाड़ा गजट के हिन्दी संस्करण की शैली और साहित्यिक स्तर का अपेक्षाकृत अधिक समादर था।
चन्द्रधर गुलेरी
जुलाई 8, 1917 


(दैनिक जागरण और दिव्य हिमाचल में क्रमश: 7 व 8 जुलाई, 2013 को प्रकाशित)

Monday, May 13, 2013

कौन सी कविताएं

(प्रिय कविताओं में से एक नरेश सक्सेना की यह कविता, साथ में एडवर्ड मुंच
का चित्र 'मेलनकली'.)
जैसे चिड़ियों की उड़ान में
शामिल होते हैं पेड़
क्या कविताएं होंगी मुसीबत में हमारे साथ?

जैसे युद्ध में काम आए
सैनिक की वर्दी और शस्त्रों के साथ
ख़ून में डूबी मिलती है उसके बच्चे की तस्वीर
क्या कोई पंक्ति डूबेगी ख़ून में?

जैसे चिड़ियों की उड़ान में
शामिल होते हैं पेड़
मुसीबत के वक़्त कौन सी कविताएं होंगी हमारे साथ
लड़ाई के लिए उठे हाथों में
कौन से शब्द होंगे?

Thursday, March 21, 2013

एक अच्छी कविता लिखने के लिए

(विश्व कविता दिवस पर राइनेर मारिया रिल्के का गद्य, गणेश पाइन की कलाकृति के साथ. अनुवाद राजी सेठ का.)
"...कविता मात्र आवेग नहीं... अनुभव है। एक अच्छी कविता लिखने के लिए तुम्हें बहुत-से नगर और नागरिक और वस्तुएं देखनी-जाननी चाहिए। बहुत-से पशु और पक्षी... पक्षियों के उड़ने का ढब। नन्हें फूलों के किसी कोरे प्रात में खिलने की मुद्रा। अज्ञात प्रदेशों और अनजानी सड़कों को पलटकर देखने का स्वाद। औचक के मिलन। कब से प्रस्तावित बिछोह। बचपन के निपट अजाने दिनों के अनबूझे रहस्य। माता-पिता, जिन्हें आहत करना पड़ा था, क्योंकि उनके जुटाए सुख उस घड़ी आत्मसात् नहीं हो पाए थे। आमूल बदल देने वाली छुटपन की रुग्णताएं। ख़ामोश कमरों में दुबके दिन। समुद्र की प्रात। समुद्र ख़ुद। सब समुद्र। सितारों से होड़ लगाती यात्रा की गतिवान रातें। नहीं, इतना भर ही नहीं। उद्दाम रातों की नेहभरी स्मृतियां... प्रसव में छटपटाती औरत की चीखें। पीला आलोक। निद्रा में उभरती सद्य:प्रसूता। मरणासन्न के सिरहाने ठिठके क्षण। मृतक के साथ खुली खिड़की वाले कमरे में गुज़ारी रात्रि और छिटका शोर। नहीं, इन सब यादों में तिर जाना काफी नहीं। तुम्हें और भी कुछ चाहिए- इस स्मृति संपदा को भुला देने का बल। इनके लौटने को देखने का अनन्त धीरज।... जानते हुए कि इस बार जब वे आएंगी, तो यादें नहीं होंगी। हमारे ही रक्त, भाव और मुद्रा में घुल चुकी अनाम धपधप होगी। जो अचानक अनूठे शब्दों में फूटकर किसी भी घड़ी बोल देना चाहेगी अपने-आप..."

Saturday, February 23, 2013

सुरों से जगाता हूं अलख

(वे कहते हैं कि मैं अपने संगीत को बयां नहीं कर सकता, मेरा संगीत मुझे बयां करता है। आप उनका संगीत सुनते हैं तो समझ जाते हैं कि वे ऐसा क्यों कह रहे हैं। उनके हर गीत को सुनकर गाने वाले की एक छवि मन में अभरती है, यह छवि कैलाश खेर की है। कैलाश अलग हैं, अद्भुत हैं, और उनमें कुछ ऐसा है जो किसी और में नहीं है। उनके बारे में और ज़्यादा जानने की इच्छा हमेशा रहती है, इसी इच्छा के चलते हम पहुंचे उनके घर...)

नौ वर्ष के करियर में आप 800 से ज़्यादा कन्सर्ट कर चुके हैं, कैसा लगता है?
यह ख़ुशी और हैरानी की बात है। साल 2002 में जब मेरी संगीत यात्रा का आरंभ हुआ था, तब मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह यात्रा इतनी गतिशील और प्रगतिशील होगी, और देखते ही देखते मैं इस मुकाम तक पहुंच जाऊंगा। किसी कन्सर्ट में जाता हूं तो लोगों की भीड़ और उनकी ऊर्जा देखकर विस्मित रह जाता हूं। यह संगीत का असर है। संगीत, जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ एक रोशनी है, सीख है। हर साल मेरे लाइव शो होते हैं और इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है।
आपके बैंड कैलासा की उत्पत्ति कब हुई?
कैलासा संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ है- दिव्यता।कैलासा की उत्पत्ति साल 2004 में हुई। इससे पहले 2003 में मेरा एक फ़िल्मी गाना अल्लाह के बंदे आ चुका था। गाना लोकप्रिय हुआ और इसे कई अवॉर्ड मिले। फ़िल्म इंडस्ट्री में मेरी मौजूदगी दर्ज हो चुकी थी और मुझे लाइव शो के लिए बुलाया जाने लगा था। मेरी हमेशा यह इच्छा थी कि मेरी सोच का एक बैंड होना चाहिए जिसमें भारतीयता हो, लेकिन गुणवत्ता के स्तर पर वो पूरे विश्व के मानसपटल पर अपना प्रभाव छोड़ सके। आत्मिक चाह थी तो ईश्वरीय राह निकलने लगी। धीरे-धीरे मैं मनपंसद संगीतज्ञों से मिलता गया और वो चुम्बक की तरह साथ जुड़ते गए। आप पवित्र मन से कुछ चाहें तो पवित्रता आपकी ओर आकर्षित होने लगती है। आज कैलासा में कुल 14 सदस्य हैं।
हाल ही में हमने कुल्लू में परफॉर्म किया था, जहां क़रीब 50 हज़ार लोगों की भीड़ थी। लोग दूर-दूर से बसों-ट्रकों में भरकर आए थे। अब संगीत के प्रति प्रशासनिक अमला भी उदार, या कहें कि जागरुक होने लगा है। व्यवस्था अच्छी हो तो परफॉर्म करने में भी आनन्द आता है। लोगों में संगीत के प्रति आस्था बढ़ रही है। संगीतकारों के लिए यह दौर अद्भुत है।
नई एलबम रंगीलेके बाद आप 60 देशों की यात्रा कर चुके हैं। कैसा अनुभव रहा?
जनवरी 2012 में अमिताभ बच्चन ने रंगीले एलबम का लोकार्पण किया था। लगभग उसी समय तय हो गया था कि मार्च से हमें विश्वयात्रा पर जाना है। लेकिन यह यात्रा कितनी लंबी होगी, इसका अंदाज़ा नहीं था। शुरुआत अफ्रीका से हुई। उसके बाद हम बांग्लादेश, पाकिस्तान, यूरोप, इंग्लैंड, कनाडा, अमेरिका और उत्तरी अमेरिका होते हुए भारत वापस आए। फिर मॉरिशस, ऑस्ट्रेलिया, ओमान और सिंगापुर गए। इस तरह पूरा वर्ष देशाटन करते हुए बीता है। यह साल मेरे लिए बहुत पावन रहा। मेरी मां ने इसी वर्ष प्राण त्यागे हैं। मां का जाना बड़े सुक़ून से हुआ। वो ऐसे गईं जैसे कोई संत अपनी देह छोड़कर जाता है। पिता भी ऐसे ही गए थे। मैं इसे मरना नहीं, मोक्ष कहता हूं। जब किसी बुज़ुर्ग की मृत्यु होती है तो वो अपना आशीर्वाद हमें देकर जाता है। बड़े-बूढ़े शरीर त्यागकर सिर्फ़ संसार से विदा लेते हैं, लेकिन उनका आशीष हमारे साथ रहता है। 13 फरवरी को मां की मृत्यु हुई, 14 फरवरी को मेरी शादी की सालगिरह होती है। मेरे जीवन में तिथियों और स्थितियों के विघटन बड़े अद्भुत रहे हैं।
आपने देश-विदेश में परफॉर्म किया है। सबसे अच्छा रिस्पॉन्स कहां मिला?
हर जगह अच्छा रिस्पॉन्स मिलता है। लेकिन कुछ क्षण या अनुभव ऐसे होते हैं जो भुलाए नहीं भूलते। शिकागो में एक शो हुआ था, जिसमें बिल क्लिंटन और उनकी पत्नी हिलेरी क्लिंटन आए हुए थे। हर गाने पर दोनों मुस्कराते और बच्चों की तरह तालियां पीटते। दोनों इतनी श्रद्धा से बैठे हमें सुन रहे थे कि लग ही नहीं रहा था कि ये लोग भी वीवीआईपी का तमगा ढोते हैं। जबकि हमारे देश में वीआपी सामने तो होते हैं, लेकिन उनका दिमाग कहीं और ही होता है।
एक बार अटलांटा में शो के दौरान एक बुज़ुर्ग महिला ने आकर मेरे पैर छुए। मैं हैरान रह गया। वो महिला क़रीब 80 साल की रही होंगी। फिर उन्होंने एक पत्र लिखकर स्टेज पर रखा। मुझे लगा कि किसी गाने की फ़रमाइश होगी। पत्र में लिखा था, मैं तुम्हारी दादी की उम्र की हूं, लेकिन मेरी भारतीय संस्कृति और कला में इतनी आस्था है कि मुझे तुम्हारे अंदर भगवान दिखता है। ऐसा लगता है जैसे साक्षात् भगवान गा रहा हो।
कई बार हम श्रोताओं को स्टेज पर नाचने-गाने के लिए आमंत्रित करते हैं ताकि वो कार्यक्रम से जुड़ सकें। इंग्लैंड में गाने के दौरान एक युवती मेरे पास आकर पूछने लगी, कैन आई हग यू?’ मैंने मस्ती में कहा, हां... हग लो। हिन्दी-अंग्रेज़ी के फ्यूज़न में कई बार शब्द सुनने में अच्छे नहीं लगते, लेकिन भावनाएं शुद्ध हों तो वो पल यादगार बन जाते हैं। मेरी बात सुनकर सब हंसने लगे। गाना रोकना पड़ा और पांच मिनट तक हम सब हंसते रहे। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि तेरी दीवानी, तौबा-तौबा, जाणा जोगी दे नाल या अगड़ बम-बबम, बम लहरी जैसे गाने इतने चर्चित होंगे। देश-दुनिया में जो लोग हिन्दी भाषा नहीं समझते, उन पर भी मेरे गानों का बेतरह असर हुआ है। यह ईश्वरीय संयोजन है, और मैं माध्यम हूं। कुछ मिले न मिले, मुझे प्रेम बहुत सच्चे दिल से मिलता है। और जब मैं उस प्रेम का भक्षण करता हूं, उसका आह्वान करता हूं, तो उसके प्रति मेरा भी कुछ दायित्व बनता है। यह दायित्व मेरी मुस्कान में दिखता है कि मैं भी आपके प्रति उतना ही कटिबद्ध हूं, जितने आप हैं।
आप मेरठ से हैं। वहां के मशहूर नौचंदी मेले में गाने का मौक़ा मिला है?
दो बार बुलावा आया, लेकिन अस्पष्टता के कारण बात बन नहीं पाई। चूंकि यह प्रशासन का मेला होता है तो प्रशासन बुलाए, या फिर कोई एनजीओ या ट्रस्ट दिलचस्पी ले तो मैं हाज़िर हूं। नौचंदी मेले का बड़ा नाम है, और मेरा जन्म भी मेरठ का है, तो दिल से चाहता हूं कि मैं वहां जाकर गाऊं। एक बार मेरे गाने को लेकर वहां के किसी संस्थान से विज्ञापन भी आने शुरू हो गए थे, लेकिन कार्यक्रम सिरे नहीं चढ़ा। लेकिन मुझे विश्वास है कि किसी विशेष, अनूठे मुहूर्त में मुझे अपनी जन्मस्थली में गाने का अवसर ज़रूर मिलेगा।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आपका बचपन बीता है। वहां लोक संगीत का बोलबाला है। प्लेबैक सिंगिंग करते समय, जोकि लोक गायकी से बिल्कुल अलग विधा है, किस तरह सामंजस्य बिठाते हैं?
उत्तर प्रदेश में रहते हुए मैंने लोक संगीत के बहुत सारे प्रकार सुने... जैसे स्वांग, ढोला, और एक ऐसा प्रकार जो बैरागी या जोगी गाते हैं। मेरे पिता निर्गुण संगीत गाते थे। वो एकतारा बजाकर गाते थे। मां भी गाती थीं। हालांकि दोनों शौक़िया तौर पर गाते थे, लेकिन ऐसा कि पेशेवर गायकों को भी टक्कर दे दें। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा और समझा है। फिर हम दिल्ली आ गए, लेकिन दिल्ली आकर भी सब-कुछ वैसा ही रहा। घर में गांव जैसा ही माहौल और वही जीवनशैली रही। सो, अपने प्रदेश की गायकी और वहां के संगीत का प्रभाव मुझ पर हमेशा रहा है। यही मेरे संगीत पर भी दिखता है।
मैंने नहीं सोचा था कि फ़िल्मों में गाऊंगा, न ऐसी कोई चाहत थी। मैं यहां एलबम बनाने के लिए आया था। लेकिन लोगों ने आवाज़ सुनकर पसंद की तो फ़िल्म, टेलीविज़न, विज्ञापन, हर जगह से काम की बाढ़-सी आ गई। अब तक 400 फ़िल्मों के लिए गाने और 600 से ज़्यादा विज्ञापन फ़िल्मों के लिए जिंगल गा चुका हूं।
आपने संघर्ष का दौर भी देखा है। किस तरह की मुश्किलें आईं और उनसे किस तरह उबरे?
जब मुंबई आया था, तब मैं 29 साल का था, अब 39 साल का हूं। लोग 15-16 साल की उम्र में सुपरस्टार और रॉकस्टार बनने का सपना संजोए होते हैं। मैं इस मामले में लेटलतीफ़ रहा। लेकिन यह मेरी नियति थी, जो ईश्वर ने मेरे लिए तय कर रखी थी। एक समय ऐसा था जब मेरा जूता फट गया था। मेरे पास पैसे थे, लेकिन मैं उन्हें संभलकर ख़र्च कर रहा था क्योंकि मुझे ज़्यादा समय तक मुंबई में बने रहना था। मेरे पास 6 हज़ार रुपए थे और मुझे पूरा एक साल काटना था। मैं सिर्फ़ जीने के लिए खाता था, और कोई ख़र्चा नहीं था। मोबाइल फ़ोन हमेशा रिचार्ज कराकर रखता था क्योंकि काम के लिए लोगों से बात करनी होती थी। मेरे पास एक मोटरसाइकिल भी थी, जिसमें हमेशा पेट्रोल भराकर रखता था क्योंकि काम की तलाश में जाना होता था। एक बार किसी ने काम के सिलसिले में बुलाया। वहां बस से पहुंचना सुविधाजनक था तो मैं बस में चढ़ गया। बरसात के दिन थे और जूते का तल्ला फटा होने के कारण मेरे कपड़े ख़राब हो चुके थे। बस में साथ खड़े आदमी ने बताया कि आपके सारे कपड़े ख़राब हो गए हैं। यह सुनकर मैं ख़ूब हंसा और सोचा कि भगवान कैसी परीक्षा ले रहा है। मैं इतने उत्साह से उस व्यक्ति से मिलने जा रहा था और अब जाना मुमकिन नहीं था।
वो परीक्षा के दिन थे। मुझे यह सिखाया जा रहा था कि उत्साह रख, उत्तेजना पाल, लेकिन धीरज भी रख। सब्र सबसे बड़ी उत्तेजना है। आप जितने सब्र और धैर्य से काम लेंगे, मुश्किलों को गले लगाएंगे, एक समय के बाद आपका जीवन उतना ही सरल होगा। संघर्ष की स्थिति कुछ देने के लिए आती है, लेकिन हम उस स्थिति में डगमगा जाते हैं और लेने लायक नहीं बचते। आप ख़ुद भगवान भी बनें और भक्त भी, यह संभव नहीं है। 
फ़िल्मों में गाना आसान है या विज्ञापनों के लिए जिंगल?
जिंगल गाना ज़्यादा चुनौती से भरा है। किसी भी जिंगल को तीस, चालीस या ज़्यादा-से-ज़्यादा साठ सेकेंड में गाना होता है, जैसे एक मिनट में कोई जादू करना हो। जितनी देर में आलाप लेते हैं, उतनी देर में समय ख़त्म हो जाता है। कम वक़्त में गहरा काम करना होता है
संगीत के क्षेत्र में इन दिनों कई प्रयोग हो रहे हैं, क्या कहेंगे?
यह प्रयोगवादी युग है। यह दौर संगीत के लिए बहुत अच्छा है। जो भी प्रयोग दिखाई दे रहे हैं वो हमारे जीवन के विभिन्न रसों से प्रेरित होकर हो रहे हैं। इसीलिए खुलापन भी आया है। पहले एक जैसी सोच और एक तरीके के गाने बनते थे, अब ऐसा नहीं है। जैसे हम हर दिन नए कपड़े पहनते हैं, संगीत में भी वही नयापन, वही परिवर्तन चाहते हैं। संगीत को लेकर हमारी सोच बदली है, विचार बदले हैं, और व्यवस्थाएं भी बदली हैं। इस बदलाव का फ़ायदा नए संगीतकारों को हो रहा है। आने वाले समय में संगीत में और भी बदलाव आएंगे। समय के साथ मनुष्य को ढलते रहना चाहिए।
आप गायक हैं, गीतकार हैं और संगीतकार भी। किस भूमिका में ज़्यादा संतुष्टि मिलती है?
तीनों भूमिकाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। लिखना भी उतना ही प्रेरणादायक है, जितना धुन बनाना। संगीत की रचना भी उतनी ही प्रेरणा देती है जितनी गायकी। शरीर में हड्डियों का होना भी उतना ही आवश्यक है, जितना कि मांस और रक्त का होना। ऐसा ढांचा, जो एक-दूसरे के बिना पूरा नहीं दिखता। हां, गाना सर्वोपरि है। यह मुख की तरह है और सबसे पहली दृष्टि मुख पर पड़ती है। गायकी मेरे लिए मुख्य है। मैं उसकी वजह से ही जाना जाता हूं और ख़ुशकिस्मत हूं कि लोग मेरे गानों का इंतज़ार करते हैं।
प्रेरणास्रोत कौन है?
मेरे मां-पिताजी जिन्होंने साधारण होते हुए भी असाधारण जीवन जिया है। मेरे पिता ऐसे गांव में जन्मे, जहां हर दूसरा इंसान गुस्से में होता है, किसी-न-किसी कुंठा में रहता है, और हर तीसरा आदमी अपराधी है। लेकिन पिताजी की ऊर्जा अलग थी। उन्हें बहुत सम्मान मिलता था। कालान्तर में जीवन में अन्य तत्व भी जुड़ते गए, जो मेरी प्रेरणा बने... जैसे वृक्ष, नदियां, सूर्य, पर्वत और समुद्र। संगीत में कुछ करने का विचार सबसे पहले ऋषिकेश में गंगा के तट पर आया। काम के लिए यहां मुंबई में, महासागर की शरण में आ गया। यह सोचकर आया था कि सफ़ल नहीं हुआ तो इसमें ही समा जाऊंगा। लेकिन किस्मत ने साथ दिया और ऐसी नौबत नहीं आई।
शीतल से आपकी मुलाक़ात कहां और कैसे हुई?
शीतल भी कश्मीरी मूल की हैं। हमारी अरेंज्ड मैरिज हुई है। किसी पारिवारिक मित्र के माध्यम से यह रिश्ता आया था। फिर कुछ ऐसे योग बने कि एक संत ने इस रिश्ते का प्रवर्तन किया। ईश्वर का उपकार है कि शीतल संगीत की अच्छी समझ रखती है, अच्छा संगीत सुनती है। जिस साल शादी हुई, उसी साल 28 दिसंबर को बेटे कबीर का जन्म हुआ।
कबीर में भी गायकी के जरासीम हैं?
कबीर में संगीत के तत्व दिखते हैं। उसमें गायकी के पूरे लक्षण हैं। बहुत गहरे गाने भी वो तल्लीन होकर सुनता, गुनगुनाता है। लेकिन मैं उस पर अपनी बात नहीं थोपता। उसके स्वरूप को देखकर बस हंसता रहता हूं। ऐसा लगता है जैसे कबीर मुझे सिखाने के लिए आया है, या वो मुझे पाल रहा है।
ख़ाली वक़्त में क्या करते हैं?
पिछले आठ साल से ख़ाली समय नहीं मिला है। हंसी की बात यह है कि फरवरी 2013 में मेरी शादी को चार साल हो जाएंगे, लेकिन अभी तक हनीमून भी नहीं मनाया है। शीतल कभी-कभार रोष प्रकट करती है, लेकिन फिर हालात को समझकर चुप हो जाती है। वैसे, लोनावला में अपना खेत है। वहां छह गाय रखी हुई हैं, जिनके छह बछड़े हैं। पेड़-पौधे, प्रकृति... सब-कुछ है वहां। वक़्त मिलने पर कबीर को वहीं ले जाता हूं। 
पसंदीदा गाना?
आज मेरे पिया घर आवेंगे, ऐ री सखी मंगल गाओ री, धरती-अंबर सजाओ री और छाप तिलक सब छीनी।
मुंबई में प्रिय जगह?
समन्दर किनारे बना यह घर।
सबसे बड़ा सपना?
कोई सपना नहीं है। सिर्फ़ इस बात में विश्वास है कि जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। यह चाहता हूं कि अच्छा संगीत बनता रहे। दुनिया में अच्छी सोच पैदा हो, लोगों को अच्छा सीखने को मिले। मन में बहुत कुछ है जो संगीत के ज़रिए बांटने की इच्छा है।  

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के फरवरी 2013, वसंत अंक में प्रकाशित)

Tuesday, February 12, 2013

सुरों की सांस में घुली रहेगी मिठास


संगीत के ज़रिए बहुत कुछ बदला जा सकता है- लकी अली
बतौर संगीतकार मेरे सफ़र की शुरुआत साल 1996 में मेरी पहली एलबम सुनो से हुई। उस वक़्त संगीत के क्षेत्र में इतने प्रयोग नहीं होते थे जितने अब होने लगे हैं। यह अच्छा भी है क्योंकि ख़ुद को एक्सप्रेस करने की कला ज़रूरी है। लोगों के दिलों में क्या है, यह संगीत के ज़रिए बख़ूबी बयां किया जा सकता है। आप बहुत कुछ कह सकते हैं और बहुत कुछ बदल सकते हैं।
जैसे-जैसे तकनीक का विस्तार हो रहा है, वैसे-वैसे संगीत में भी नए-नए प्रयोग होने लगे हैं। तकनीक की वजह से दुनिया सिमट गई है। संगीत में पाश्चात्य प्रभाव दिख रहा है, नई सोच दिख रही है। मैं अलग-अलग संगीत सुनता हूं और सबको सुनकर ख़ुद का संगीत बनाता हूं। संगीत रचने के लिए मुझे जीवन से प्रेरणा मिलती है। जो इंसान दिल से काम करता है, दिल से गाता है या दिल से संगीत बनाता है, वो मुझे प्रभावित करता है। अच्छे संगीत की रचना करना किसी एक शख़्स का काम नहीं है, बहुत सारे लोग मिलकर ही कुछ बेहतर बना पाते हैं। अच्छे संगीतकार को यह बात समझनी चाहिए। वैसे भी हम नया कुछ नहीं रचते। सात सुर पहले से हैं। हम पहले से मौजूद किसी चीज़ को अपने ढंग से पेश करते हैं, बस।
माता-पिता को बहुत याद करता हूं। मेरे पिता महमूद जी ने इंडस्ट्री में बतौर संगीत निर्देशक बहुत-से लोगों को ब्रेक दिया था...जैसे आर.डी. बर्मन, राजेश रोशन, बासु मनोहरी वगैरह। लेकिन मैं ख़ुद इंडस्ट्री से इतना दूर हूं कि आजकल फ़िल्मी संगीत में क्या प्रयोग हो रहे हैं, इससे बेख़बर हूं। ईमानदारी से कहूं तो फ़िल्मों में ज़्यादातर गाने यहां-वहां से कॉपी किए जाते हैं। मगर कुछ लोग हैं जो मेहनत से अपना काम कर रहे हैं। उनके काम में मौलिकता नज़र आती है।
ख़ाली वक़्त में मैं ख़ूब पढ़ता हूं। इन दिनों चार्ल्स डुहिग की पावर ऑफ हैबिट पढ़ रहा हूं। घूमने का बहुत शौक है। जब भी तफ़रीह का मन होता है तो घूमने निकल पड़ता हूं।

संगीत की आत्मा ख़त्म हो गई है- सुष्मित बोस
घर में बचपन से ही संगीत का माहौल देखा। मेरे बाबा सुनील बोस शास्त्रीय संगीतकार थे, वो ठुमरी गाते थे। घर में अलाउद्दीन ख़ां और अमज़द अली ख़ां साहब जैसे बड़े संगीतकारों का जमावड़ा लगा रहता था। नामचीन हस्तियों को सुनते-सुनते मैं बड़ा हुआ हूं।
संगीत में अब वो रस नहीं रह गया है। बड़े ग़ुलाम अली ख़ां साहब, अमीर ख़ां साहब, अलाउद्दीन ख़ां साहब के ज़माने की बात ख़त्म हो गई है। पहले संगीत पेशा नहीं बल्कि एक साधना होती थी। संगीत ज़िंदगी का मक़सद होता था। अब शास्त्रीय संगीतकार इतने डरे हुए हैं कि ख़ुद पाश्चात्य संगीतकारों के साथ काम करना चाहते हैं। शास्त्रीय संगीत की बात करूं तो आजकल पांच मिनट का आलाप होता है और चालीस मिनट तक झाला दिखाते हैं। यह दौर व्यवसायीकरण का है, जहां कला की जगह कारीगरी ने ले ली है। लोग पैसों के लिए काम कर रहे हैं। संगीत की आत्मा ख़त्म हो गई है।
मैंने आय एम कलाम फ़िल्म में संगीत दिया था। फ़िल्में अब सिर्फ़ निर्देशक का माध्यम नहीं रह गई हैं बल्कि निर्माता भी उनमें पूरी दिलचस्पी दिखाने लगे हैं। उन्हें हर स्थिति पर एक गाना चाहिए जबकि कभी-कभी ख़ामोशी भी अपने आप में संगीत का काम करती है। संगीत का मतलब अब नृत्य हो गया है।
अमेरीकी लोक गायक पीट सीगर और बॉब डेलन मेरे आदर्श हैं। बॉब डेलन के लिखने का तरीका अद्भुत है। बंगाल के बाउल गायक भी पसंदीदा हैं। अपने बाबा की तरह रोज़ाना भारतीय शास्त्रीय संगीत का रियाज़ करता हूं। आप मुझे इन सबका मिश्रण कह सकते हैं। सुबह रियाज़ के बाद लोगों से मिलना-जुलना पसंद है। मैं बहुत मिलनसार हूं। लोक कलाकार हूं तो लोगों से जो कहानियां सुनता हूं, या जो अख़बार में पढ़ता हूं, वो मुझ पर असर करता है। वही लिखता हूं और वही गाता हूं।

लोक संगीत से जुड़े रहना ज़रूरी- रब्बी शेरगिल
पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव इन दिनों हर चीज़ पर है। संगीत पर भी इसका असर साफ़ दिख रहा है। कुछ हद तक इस प्रभाव से बचा भी नहीं जा सकता, क्योंकि यह आधुनिकता का एक आयाम है। ज़रूरत संतुलन बनाने की है। संतुलन से प्रयोजन यह है कि जो हमारा लोक संगीत है उसे दरकिनार न किया जाए। लोक संगीत यानी मूल संगीत से हमारा ज़मीनी रिश्ता है और ज़मीन देश से पहले है। हमारी सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता से भी पुरानी मानी जाती है और इसका जीवित रहना बहुत ज़रूरी है। हमारा भविष्य तभी उज्ज्वल हो सकता है जब हमने अतीत से कुछ सीखा हो। अगर अतीत से हमारा नाता पूरी तरह टूट जाएगा तो आनी वाली कौम गूंगी-बहरी हो जाएगी। हमारी आने वाली पीढ़ी चिंतन-मनन कर पाएगी या नहीं... ये कुछ मूल सवाल हैं जो कला और साहित्य को ज़रूर पूछने चाहिए।
फ़िल्में अब व्यापार बन गई हैं, और व्यापार में मुनाफ़ा सर्वोपरि होता है। जब तक मुनाफ़ा सर्वोपरि रहेगा तब तक हमारे जीवन-मूल्य, हमारी सभ्यता, हमारे आदर्श पीछे हटते जाएंगे। जितनी तेज़ी से हमारी जेबें भरी हैं, उतनी ही तेज़ी से हमारा संगीत पीछे छूटा है। कला के मामले में हम ग़रीब होते जा रहे हैं। हमें किस दिशा में जाना है, यह हमें ही सोचना है।
जब मैं बड़ा हो रहा था पैसा उस वक़्त भी ज़रूरी था, लेकिन ऐसी मारामारी कभी देखने को नहीं मिली। ऐसा नहीं लगता था कि फलां महीने पैसे नहीं आएंगे तो घर में राशन कैसे आएगा। जैसे-जैसे महंगाई बढ़ रही है, वैसे ही कला और अभिव्यक्ति से आदमी की सोच हटती जा रही है। हमारा देश एक तरह के नैतिक विभ्रम (मॉरल कन्फ्यूज़न) से गुज़र रहा है, इसे इस स्थिति से बचाने के लिए जिस तरह का साहित्य रचा जाना चाहिए, जिस तरह का संगीत रचा जाना चाहिए, उसे रचने के लिए एक सहज प्रकृति, कुछ समय और सोच चाहिए।
संगीतकारों से ज़्यादा मैं अपने देश के साहित्यकारों से ज़्यादा प्रेरित हूं। शिव कुमार बटालवी, हरभजन सिंह और प्रेमचंद की जीवनगाथाएं पढ़ता हूं तो समझ आता है कि किन मुश्किलात में इन्होंने साहित्य रचना की है। ख़ाली वक़्त में मैं गिटार बजाने का अभ्यास करता हूं। हिमालय बहुत पसंद है और कोशिश में हूं कि ज़्यादा-से-ज़्यादा वक़्त वहां बिता पाऊं।

इंडियन मेलडी अमर है- जावेद अली
संगीत के प्रति मेरा रुझान बचपन से हो गया था। पिताजी शो किया करते थे। संगीत में मेरी दिलचस्पी देखते हुए पिताजी ने मुझे उस्ताद मल्लू ख़ां साहब की शागिर्दगी में रख दिया। स्कूल में होने वाले संगीत समारोहों में मैं हमेशा हिस्सा लिया करता। स्कूल में जब भी संगीत की बात होती, सबसे पहले मेरा नाम सामने आता। मैं ग़ुलाम अली ख़ां साहब का बहुत बड़ा प्रशंसक था। उनकी ग़ज़लें सुन-सुनकर गाने का मेरा शौक़ बढ़ता चला गया। एक बार ग़ुलाम अली ख़ां दिल्ली आए हुए थे। उनका पता ढूंढ़कर पिताजी मुझे उनसे मिलवाने ले गए। ख़ां साहब ने मुझे सुना और पिताजी से कहा कि बच्चा बहुत हुनरमंद है। पिताजी ने कहा कि यह आपका शागिर्द बनना चाहता है। उसके बाद गुलाम अली ख़ां जब भी दिल्ली आते, मैं उनके साथ रहता। उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं प्लेबैक सिंगर बनूंगा।
एक बार मैं कल्याणजी भाई से मिलने के लिए मुंबई आया। उन्होंने कहा कि मुंबई तुम्हारे लिए बेहतर जगह है और तुम्हें यहीं रहना चाहिए। उन्होंने मुझे मुंबई बुला लिया। फिर महसूस हुआ कि एक कलाकार को किसी दायरे में सिमटकर नहीं रहना चाहिए, उसे हरफ़नमौला होना चाहिए; और प्लेबैक सिंगिंग ऐसी चीज़ है जिसमें ग़ज़ल, कव्वाली, रोमांटिक या क्लासिक... सब-कुछ गाने का मौक़ा मिलता है। इस तरह मैं प्लेबैक सिंगिंग में आ गया।
गानों पर पश्चिमी प्रभाव दिखने लगा है। ऐसे गाने तुरंत हिट होते हैं। लेकिन यह बुरा नहीं है। शास्त्रीय संगीत पर आधारित गानों की बात करें तो उनकी उम्र बेशक़ लंबी होती है। इंडियन मेलडी की अपनी ख़ासियत है। लोग आज भी देवदास’, ताल’, जोधा-अकबर के गाने सुनना पसंद करते हैं। अब जो गाने बन रहे हैं, उनमें शायरी ख़त्म हो गई है। साधारण गाने बनते हैं, जिनमें तुकबंदी का इस्तेमाल ज़्यादा है। लोग ऐसे गाने पसंद करने लगे हैं, जैसे यूं तो प्रेमी पचहत्तर हमारे, ले जा तू कर सतत्तर इशारे...।
शास्त्रीय संगीत मेरी पहली पसंद है। वैसे हर तरह का संगीत सुनने का शौक़ीन हूं। पश्चिमी गायकों में व्हिटनी ह्यूस्टन और ब्रायन एडम्स बेहतरीन हैं। उस्ताद राशिद ख़ां, मशहूर ख़ां, ग़ुलाम अली ख़ां, पंडित जय चक्रवर्ती, मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, लता मंगेशकर और आशा भोसले पसंदीदा हैं।

संगीतकारों में पहले जैसा माद्दा नहीं- कुमार सानू
संगीत के क्षेत्र में कोई प्रयोग नहीं हो रहा। संगीतकार ईज़ी मनी के लिए काम करने लगे हैं। संगीत में प्रयोग का कोई फ़ायदा भी नहीं है। हम भारतीय हैं और हमें हिन्दुस्तानी संगीत ही चाहिए। हम कुछ समय के लिए पाश्चात्य संगीत पसंद करते हैं, लेकिन घूम-फिर कर हमें वापस यहीं आना है।
परिवर्तन होता है होना भी चाहिए, लेकिन पुराना दौर लौटता ज़रूर है। आजकल संगीत पर पश्चिमी प्रभाव ज़्यादा इसलिए दिखाई दे रहा है क्योंकि मीडिया को भी चार पैसे कमाने हैं। लेकिन इस दौड़ में हम यह नहीं सोचते कि आने वाली पीढ़ी को हम क्या देकर जाने वाले हैं। कलाकार होने के नाते समाज के प्रति हमारा उत्तरदायित्व बनता है। गानों में अश्लीलता या फूहड़ता होगी तो समाज पर भी उसका असर होगा।
फ़िल्म निर्माताओं को निर्देशकों पर भरोसा नहीं रह गया है, निर्देशक संगीतकारों पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि एक फ़िल्म में कई-कई संगीतकार काम करने लगे हैं। अब किसी फ़िल्म में छह गाने हैं, तो उन पर एक नहीं बल्कि छह अलग-अलग संगीतकार काम करते हैं। यह शर्म की बात है। पहले संगीतकारों में एक फ़िल्म को अकेले संभालने का माद्दा था। जतिन-ललित, नदीम-श्रवण, अनु मलिक और आनंद-मिलिंद इसके उदाहरण हैं। अब वो हुनर कम है।
मुझे पश्चिमी संगीत बहुत ज़्यादा नहीं भाता। लेकिन एक-दो गायक पसंद हैं, जैसे एल्विस प्रेस्ले और सेलेन डियॉन। ख़ाली वक़्त में अंग्रेज़ी फ़िल्में देखता हूं। रोमांटिक फ़िल्में अच्छी नहीं लगतीं। एक्शन, थ्रिलर, हॉरर और साइंस फिक्शन का शौकीन हूं। बेटियों के साथ वक़्त गुज़ारना अच्छा लगता है। मेरी दोनों बेटियों ने अंग्रेज़ी संगीत की तालीम ली है। दोनों पियानो भी बहुत अच्छा बजाती हैं।

संगीत से प्यारा कुछ नहीं- पीनाज़ मसानी
मेरे पिताजी को संगीत से बहुत लगाव है। घर में गाने-बजाने का माहौल था। बहुत छोटी थी जब पिताजी और अंकल के साथ गाड़ी में कहीं जा रही थी। मैंने गाना गाया और अंकल ने मुझे एक रुपया नज़र किया था। वहीं से मेरी गायकी की शुरुआत हुई, और यक़ीन हुआ कि मैं भी गा सकती हूं। बचपन में कोई अच्छा गाना सुनती थी तो मेरी आंखों में आंसू आ जाते थे।
संगीत में हो रहे प्रयोगों को मैं बुरा नहीं मानती। नई कोशिश नहीं करेंगे तो कैसे जानेंगे कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। यह प्रयोग का दौर है। लेकिन इस सबके साथ संगीत की रूह ख़त्म नहीं होनी चाहिए। अब बहुत कम ऐसे गाने मिलते हैं जिन्हें सुनते हुए आप मगन हो जाएं। गीत-संगीत की कला में बदलाव आ गया है। आजकल पहले धुन बना दी जाती है, गाने बाद में बनाए जाते हैं। ग़ज़लों की बात करूं तो हम ग़जल को सुनकर उसे ट्यून करते हैं। ऐसा नहीं होता कि ट्यून हो और ग़ज़ल बैठा दी जाए।
मेरे आईपॉड पर आपको हर किस्म का संगीत मिल जाएगा। इस दुनिया में संगीत से प्यारा कुछ नहीं है। कन्सर्ट वगैरह के सिलसिले में ख़ूब घूमना हो जाता है, इसलिए ख़ाली वक़्त घर पर या दोस्तों के साथ गुज़ारना पसंद करती हूं। अपनी गुरु मधुरानी को बहुत याद करती हूं। जब बाहर जाती हूं तो पिताजी को मिस करती हूं। और कोई जीवन में नहीं है जिसे मिस करूं।

इबादत का दूसरा नाम गायकी- कुणाल गांजावाला
किसी भी मूल चीज़ में जब बदलाव आता है तो यह तय नहीं होता कि लोग उसे स्वीकार करेंगे या नहीं। ए.आर. रहमान ने जब फ़िल्म रोजा में संगीत के साथ प्रयोग किए तो लोगों ने उसे हाथो-हाथ लिया। उससे पहले भी रहमान कुछ-न-कुछ नया कर रहे होंगे, लेकिन रहमान के संगीतकार बनने से लेकर ए.आर. रहमान बनने के सफ़र के बीच के समय के बारे में हम नहीं जानते। बीच का यह समय प्रयोग का होता है जब बदलाव अपनी पुख़्ता शक्ल में न होकर धीरे-धीरे जड़ें जमा रहा होता है। विशाल भारद्वाज ओंकारा के साथ संगीत में जो बदलाव लेकर आए, वो उनकी हर आने वाली फ़िल्म के साथ पुख़्ता होता गया। इन दिनों संगीत में जो प्रयोग हो रहे हैं, वो अच्छे भी हैं और नहीं भी। डिमांड और सप्लाई की बात है। जैसी मांग होगी, वैसा ही संगीत बनेगा।
पिछले कुछ सालों में मनोरंजन की परिभाषा तेज़ी से बदली है। अब हर चीज़ को लाउड तरीके से पेश करने का चलन है। संगीत का वातावरण बदला है। अब लोग ख़ासकर नई पीढ़ी चिल्ल-पौं वाले गाने पसंद करने लगी है। गानों में मधुरता व सौम्यता कम और शोर-शराबा ज़्यादा है। जो सहमापन और कम में ज़्यादा कह देने की ख़ासियत पुराने गानों में थी, वो अब नहीं है। अब गानों में अश्लीलता है। भीगे होंठ तेरे गाने के बोल भी एडल्ट थे, लेकिन इसे जिस तरीके से मैंने गाया उसमें अश्लीलता नहीं दिखी। गाना पेश करने के कई ढंग हैं। किसी गाने को आप मोहब्बत और इबादत के साथ गाते हैं तो उसकी रंगत कुछ और हो जाती है। मेरे हर कन्सर्ट में आज भी लोग सबसे पहले इसी गाने की फ़रमाइश करते हैं।
कम गायकों को मौक़ा मिलता है कि वो किसी व्यक्ति विशेष के प्रभाव या इमेज से बाहर निकल पाएं। बहुत-से लोग हैं जो किशोर कुमार के स्कूल से सीखकर आए हैं और वही लेबल या तख़्ती उनकी पहचान बन गई है। वो कभी मौलिक नहीं हो पाए। मैं ख़ुशकिस्मत हूं कि मुझ पर किसी का प्रभाव नहीं पड़ा, या मुझे किसी दूसरे गायक की तरह नहीं गाना पड़ा। मैंने हमेशा अपने तरीके से गाया है। हालांकि इस वजह से मुझे संघर्ष भी बहुत करना पड़ा, लेकिन आख़िर मैं अपनी पहचान बना पाया। इन दिनों ख़ुद को और परिवार को थोड़ा वक्त दे रहा हूं। फ़िल्मों में गाना कम कर दिया है। बड़ी वजह यह है कि आजकल एक गाना कई गायकों से गवाकर देखा जाता है। मेरी पहली शर्त होती है कि जो गाना मुझसे गवाया जा रहा है, उसे रखा जाए।

फास्ट-फूड जैसा हो गया है संगीत- उदित नारायण
आजकल फास्ट-फूड का ज़माना है। संगीत भी फास्ट-फूड की तरह हो गया है। अचानक कोई गाना आता है, सुपरहिट होता है और छह महीने बाद वो गाना मुश्किल से कहीं सुनाई देता है। लेकिन जितने भी उतार-चढ़ाव आ जाएं, हमारे संगीत में जो निर्मलता और सच्चापन है, जो माधुर्य है, वो अमर रहेगा। के.एल. सहगल, मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद या लता जी ने सालों पहले जो गाने गाए, उन्हें सुनकर आज भी दिल पर वही असर होता है, वही सुक़ून मिलता है। वो गाने बार-बार सुनने की इच्छा होती है। ऐसा नहीं है कि अब अच्छा काम होना बंद हो गया है, लेकिन बदलाव इतनी तेज़ी से हो रहे हैं कि कुछ स्थिर नहीं रह पा रहा है। फ़िल्मों के साथ भी ऐसा है। पहले सिनेमा हॉल में फ़िल्मों की सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली के बोर्ड लगते थे। अब मल्टीप्लेक्स आ गए हैं। कौन-सी पिक्चर कब लगती है, कब उतर जाती है, पता नहीं चलता।
रोमांटिक गायक हूं इसलिए रोमांटिक गाने सुनना ज़्यादा पसंद करता हूं। बचपन से मोहम्मद रफ़ी का फैन हूं। जब आराधनाफ़िल्म आई तब से किशोर कुमार का प्रशंसक भी हो गया। शास्त्रीय संगीत में भीमसेन जोशी, किशोरी अमोनकर, बेगम अख़्तर, पंडित जसराज और शिव-हरी जी को चाव से सुनता हूं। विदेशी संगीत भी पसंद है। माइकल जैक्सन, एल्विस प्रेस्ले, मेडोना, शकीरा और ब्रिटनी स्पीयर्स अच्छे लगते हैं।
ख़ाली वक्त पत्नी और बेटे आदित्य के साथ बिताता हूं। बिहार में अपने गांव जाकर सबसे मिलने का दिल होता है। पहले हर छह महीने में वहां जाकर लोगों के सुख-दुख में शामिल होता था, लेकिन पिछले कुछ सालों से जाना कम हो गया है। अपने जन्मस्थान, अपनी मिट्टी से जुड़ा रहना चाहता हूं। अपने लिए सब जीते हैं, लेकिन जितनी मेरी हैसियत है, उसके हिसाब से थोड़ा-बहुत परोपकार करता रहना चाहता हूं। ईश्वर के आशीर्वाद से जीवन में बहुत नाम कमाया है। एक और दिली इच्छा है कि जब तक हूं, इस आशीर्वाद को निभाता रहूं। अपनी आवाज़, अपनी गायकी और संगीत से लोगों के दिलों पर छाप छोड़ता रहूं और उन्हें ख़ुश करता रहूं।

सुगम संगीत से भरपूर फ़िल्म का इंतज़ार है- रेमो फर्नान्डिस
जब से होश संभाला है, संगीत तब से मेरे जीवन का हिस्सा रहा है। बचपन में हमेशा कुछ-न-कुछ गाता-बजाता रहता था। पांच साल का था जब माउथ ऑर्गन और मराकास (एक लैटिन अमेरिकी वाद्ययंत्र) बजाना शुरू कर दिया था। छठे साल में बैंजो और सातवें साल में यूकलेली (हवाई द्वीप का गिटार) बजाने लगा था। लेकिन संगीत को करियर बनाने के बारे में तब सोचा जब 18 साल का हुआ। उस वक़्त मैं आर्किटेक्चर का कोर्स कर रहा था जिसे मैंने अनमने ढंग से पूरा किया और उसके बाद धीरे-धीरे संगीत में डूबता चला गया।
मुझे हाइब्रिड चीज़ें पसंद हैं। हाइब्रिड लोग पसंद हैं। मेरे बेटे इंडो-फ्रेंच हैं। मिश्रण हमेशा दिलचस्प होता है। संगीत में भी फ्यूज़न अच्छा लगता है। संगीतकारों को नए-नए प्रयोग करते रहना चाहिए। मैंने पहला प्रयोग साल 1977 में किया था, जब अपने गिटार को मैंने इस तरह ट्यून किया कि वो सितार जैसा सुनाई दे। फिर अपने दो दोस्तों के साथ मिलकर स्ट्रीट नाम से बैंड बनाया। इस बैंड में हम मुंबई की गलियों और रेलगाड़ियों में गाने-बजाने वाले लोगों के साथ गाते थे।
मौजूदा संगीत में आत्मा नहीं है, लेकिन यह स्थिति ज़्यादा देर तक नहीं रहने वाली है। उम्मीद है कि हमें जल्द कोई ऐसी फ़िल्म देखने को मिलेगी जिसमें भरपूर सुगम संगीत होगा, और इस नएपन के कारण फ़िल्म को बहुत पसंद भी किया जाएगा। एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ तो लंबे समय तक बरक़रार रहेगा।
इन दिनों एक ही फ़िल्म में कई-कई संगीतकार काम रहे हैं। पश्चिम में यह तकनीक दशकों पहले अपना ली गई थी, तो ज़ाहिर है हमें भी कभी-न-कभी उनकी नक़ल करनी ही थी। लेकिन अगर फ़िल्म निर्देशक समझदार है और इतना संवेदनशील है कि वो तर्क और रुचि के आधार पर अलग-अलग गाने तथा संगीत निर्देशक चुन सके, न कि सिर्फ़ इसलिए कि उसे ऐसा करना है, तो यह फ़िल्म के लिए अच्छा फ़ॉर्मूला साबित हो सकता है।

अब एकरस गानों का दौर है- सोनू निगम
बचपन में माता-पिता को गाते हुए सुन-सुनकर मैंने गाना सीखा। चार साल का था जब पिताजी के साथ पहली बार स्टेज पर गाना गाया। उसके बाद शादियों और पार्टियों में गाने का सिलसिला चलता रहा। 18 साल की उम्र में फ़िल्मों में गाने की हसरत लिए मैं मुम्बई आया। यहां आने से पहले मोहम्मद ताहिर से चार-पांच महीने संगीत सीखा। साल 1997 में मुंबई में उस्ताद ग़ुलाम मुस्तफ़ा ख़ां से तालीम ली।
तकनीक का असर अब संगीत पर भी दिखने लगा है। नई-नई मशीनें और सॉफ्टवेयर आ गए हैं। ऐसे सॉफ्टवेयर हैं, जो सुर में न गाने वाले को भी सुरीला बना देते हैं। इसका कुप्रभाव उन गायकों पर होता है जो रियाज़ करते हैं और संगीत को गहनता से लेते हैं। इससे मनोबल भी टूटता है क्योंकि कोई भी कुछ भी गा रहा है। सकारात्मक दृष्टि से देखें तो इस तकनीक की वजह से अब बहुत लोग गा पा रहे हैं। लेकिन नकारात्मक पहलू यह है कि जो सही मायने में गायक हैं उन्हें उनका पूरा हक़ नहीं मिलता।
पहले फ़िल्मों में हर तरह के गीत होते थे, जैसे हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं’, सुख के सब साथी, दुख में न कोई’, अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...। अब इस तरह के गानों पर ध्यान नहीं दिया जाता। सब कैची गाने चाहते हैं। पिछले चार-पांच साल से एकरस गाने बन रहे हैं। आज का समाज तेज़ रफ़्तार हो चुका है, तो शायद यही ठीक भी है। आजकल सबको विभिन्नता चाहिए। इसलिए एक फ़िल्म के लिए कई-कई गाने बनते हैं और फिर उनका चयन होता है। म्यूज़िक कंपनियां भी ज़ोर डालती हैं कि उन्हें गाना नहीं रिंगटोन चाहिए, ताकि लोग उसे फ़ोन पर लगाएं और उनकी आमदनी हो।
इंडस्ट्री में मेरे प्रेरणास्रोत मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर और अमिताभ बच्चन हैं। महात्मा गांधी के विचारों से बहुत प्रभावित रहा हूं। हाल में ओशो को सुनना-पढ़ना शुरू किया है। वो बहुत गहरी बातें कह गए हैं जो शायद सबकी समझ में नहीं आ पातीं। शायद इसीलिए वो विवादास्पद भी हैं। लेकिन ओशो से अच्छा जीवन-दर्शन कहीं नहीं मिलता।
मुझे घूमना बहुत पसंद है। वक़्त मिलने पर एंबी वैली चला जाता हूं। पिछले दिनों हिमालय गया था। मां के बहुत क़रीब हूं। इन दिनों उनकी तबीयत अच्छी नहीं है। जब उनके आस-पास नहीं होता तो उन्हें बहुत ज़्यादा मिस करता हूं। मेरे माता-पिता और बेटा नेवान मेरी लाइफ-लाइन हैं।

प्रयोग होते रहने चाहिए- एहसान नूरानी
संगीत उसी पल आपकी ज़िंदगी में शुमार हो जाता है जब आप जज़्बाती तौर पर इससे जुड़ते हैं। छह साल का था जब कुछ धुनें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। तो कह लीजिए कि बचपन से संगीत मेरे जीवन का हिस्सा है। ज़्यादातर ब्लूज़ संगीत सुनता हूं।
संगीत की दुनिया में मुझे किसी की कमी महसूस नहीं होती। इंसान को कमी उनकी महसूस होती है जो नहीं रहते। हेमंत कुमार, पंचम दा, जिमी हेन्ड्रिक्स और जॉन कोलट्रेन जैसे संगीतकार एक भरी-पूरी विरासत हमारे लिए छोड़ गए हैं, और वो विरासत है उनका संगीत। ये लोग अपने संगीत से आज भी जिंदा हैं।
संगीत वो माध्यम है जिसमें नित नए प्रयोग संभव हैं... चाहे वो कई तरह के संगीत को मिलाकर या नए वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल से नया संगीत तैयार करना हो, या संगीत के नए रूपों की रचना करना हो। इसका जो भी नतीज़ा निकले- अच्छा या बुरा- हमेशा आनंद देता है, क्योंकि असल में कुछ नया रचने का अनुभव ही अपने-आप में आनंददायक है। प्रयोग किए जाने की ज़रूरत है और यह होता रहना चाहिए।
भारतीय फ़िल्मों पर पाश्चात्य संगीत का बेहद गहरा असर है। पर मुझे लगता है कि यह असर गीतों की प्रोडक्शन और इनमें इस्तेमाल होने वाले इन्स्ट्रूमेन्टेशन पर ज्यादा है, बजाय कि हमारी धुनों पर। धुनें कमाबेश अच्छी ही होती हैं, चाहे वो भारतीय हों या कि पाश्चात्य। हिंदी फ़िल्मों के गीत-संगीत की धुनों पर भारतीय संगीत का असर रहेगी ही, क्योंकि हिंदी को अंग्रेजी की तरह तोड़-मरोड़ कर आप नहीं बोल सकते। नौशाद जैसे संगीतकारों ने भी अपने गीतों में पाश्चात्य ऑर्केस्ट्रा और अरेंजमेंट्स का उपयोग किया। भारतीय श्रोता अब टीवी, रेडियो या इंटरनेट पर दुनियाभर का संगीत सुनता है, तो संगीत उद्योग को लोगों की ज़रूरतों को पूरा तो करना ही पड़ेगा।
मुझे फ़िल्में और दस्तावेज़ी फ़िल्में देखना पसंद है। मैं गिटार बजाता हूं और इसमें लगातार बेहतर होने की कोशिश करता रहता हूं। इंटरनेट पर भी ख़ूब वक्त बिताता हूं। यूएफओ को लेकर बहुत उत्साहित रहता हूं और उन कई ब्लॉग्स का हिस्सा हूं जो इस विषय पर काम कर रहे हैं।

हिन्दुस्तानी बड़े सुरीले लोग हैं- इरशाद कामिल
संगीत कहीं-न-कहीं हर इंसान की ज़िंदगी का हिस्सा होता है। जो लोग इसे महसूस कर लेते हैं वो गीतकार, संगीतकार या गायक बन जाते हैं, और जो महसूस नहीं कर पाते वो भी गाते-गुनगुनाते ज़रूर हैं, चाहे घर में गाएं। मुझे इस बात का एहसास तब हुआ जब मैं बहुत छोटा था। मुझे अचानक कविताएं और नाटक आकर्षित करने लगे थे। यह आकर्षण मिलकर कब संगीत से जुड़ गया और संगीत से जुड़कर यह कैसे गीतों में ढलने लगा, बताना मुश्किल है। यह एक प्रक्रिया का हिस्सा था। लेकिन संगीत के साथ मेरा रिश्ता सिर्फ़ शब्दों का है।
हमारे फ़िल्मी गीत-संगीत में क्षेत्रीयता का दख़ल होता जा रहा है। चाहे वो पंजाब का लोक संगीत हो, उत्तर-प्रदेश का, या फिर बिहार या गुजरात का... जब क्षेत्रीयता राष्ट्रीय स्तर पर आ रही है तो राष्ट्र भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना चाहेगा। इन दिनों ध्वनि के स्तर पर, लयकारी के स्तर पर,  रॉक और फोक का मेल हो रहा है। इस तरह के प्रयोग काबिले-तारीफ़ हैं। रही बात गानों में अश्लीलता की, तो इसके प्रति हम कुछ देर के लिए आकर्षित हो सकते हैं, लेकिन हम यह कतई नहीं चाहते कि वो हमारे जीवन का या भाषा का हिस्सा बने। अश्लील या फूहड़ गाने बनाना ख़ुद पर कम विश्वास वाले लोगों का प्रयास लगता है। जिनका चारित्रिक उत्थान नहीं हुआ है, उनकी यह कोशिश होती है कि किसी भी तरह लोगों के सामने आ जाएं।
आज भले ही हम हारमोनियम पर नहीं गिटार पर गाने बना रहे हैं, लेकिन मेलडी हमारे हाथ से छूटी नहीं है, और न ही छूटेगी क्योंकि हिन्दुस्तानी बड़े सुरीले लोग हैं, सुरों को पसंद करने वाले लोग हैं। यहां मोहल्ले में कोई सब्ज़ी बेचने वाला आवाज़ लगाता है तो वो भी सुर में लगाता है। विदेशी हमारा संगीत बहुत पसंद करते हैं। पंडित रविशंकर, उस्ताद ज़ाकिर हुसैन और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया विदेशों में लोकप्रिय हैं क्योंकि ऐसी कलाएं विदेशियों के पास नहीं है।
मेरा प्रेरणास्रोत मेरा पिछला गाना होता है क्योंकि मैं हमेशा अपना गाना पिछले गाने से बेहतर करने की कोशिश करता हूं। पुराने लेखकों में या दूसरे चेहरों में अपनी प्रेरणा नहीं ढूंढ पाता। बाहर तलाश करने के बनिस्बत प्रेरणा अंदर से ढूंढी जानी चाहिए। भीतर से प्रेरणा लेंगे तो वो स्थाई होगी क्योंकि बाहरी प्रेरणा वक्त के साथ धुंधली पड़ सकती है। अंदर से ऊर्जा और शक्ति मिलती है तो आप ख़ुद-ब-ख़ुद बेहतर होना चाहते हैं।
मैं 50 और 60 के दशक को बहुत मिस करता हूं और उसमें अपने न होने को मिस करता हूं। अगर मैं उस युग में पैदा हुआ होता तो शायद कुछ और बेहतर कर सकता था, और बेहतर लोगों के साथ उठ-बैठकर कुछ और अच्छा लिख सकता था, या और बेहतर इंसान बन सकता था।

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के दिसम्बर 2012, संगीत विशेषांक में प्रकाशित)
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