(विश्व कविता दिवस पर राइनेर मारिया रिल्के का गद्य, गणेश पाइन की कलाकृति के साथ. अनुवाद राजी सेठ का.)
"...कविता मात्र आवेग नहीं... अनुभव है। एक अच्छी कविता लिखने के लिए तुम्हें बहुत-से नगर और नागरिक और वस्तुएं देखनी-जाननी चाहिए। बहुत-से पशु और पक्षी... पक्षियों के उड़ने का ढब। नन्हें फूलों के किसी कोरे प्रात में खिलने की मुद्रा। अज्ञात प्रदेशों और अनजानी सड़कों को पलटकर देखने का स्वाद। औचक के मिलन। कब से प्रस्तावित बिछोह। बचपन के निपट अजाने दिनों के अनबूझे रहस्य। माता-पिता, जिन्हें आहत करना पड़ा था, क्योंकि उनके जुटाए सुख उस घड़ी आत्मसात् नहीं हो पाए थे। आमूल बदल देने वाली छुटपन की रुग्णताएं। ख़ामोश कमरों में दुबके दिन। समुद्र की प्रात। समुद्र ख़ुद। सब समुद्र। सितारों से होड़ लगाती यात्रा की गतिवान रातें। नहीं, इतना भर ही नहीं। उद्दाम रातों की नेहभरी स्मृतियां... प्रसव में छटपटाती औरत की चीखें। पीला आलोक। निद्रा में उभरती सद्य:प्रसूता। मरणासन्न के सिरहाने ठिठके क्षण। मृतक के साथ खुली खिड़की वाले कमरे में गुज़ारी रात्रि और छिटका शोर। नहीं, इन सब यादों में तिर जाना काफी नहीं। तुम्हें और भी कुछ चाहिए- इस स्मृति संपदा को भुला देने का बल। इनके लौटने को देखने का अनन्त धीरज।... जानते हुए कि इस बार जब वे आएंगी, तो यादें नहीं होंगी। हमारे ही रक्त, भाव और मुद्रा में घुल चुकी अनाम धपधप होगी। जो अचानक अनूठे शब्दों में फूटकर किसी भी घड़ी बोल देना चाहेगी अपने-आप..."