Sunday, October 19, 2014

चाहता हूं प्रेम

(रूसी कवि और फ़िल्मकार येव्‍गेनी येव्‍तुशेंको की कविताएं पढ़ते हुए 
इस कविता पर आना हुआ. अनुवाद वरयाम सिंह का है. येव्गेनी की 
और कविताएं यहां पढ़ी जा सकती हैं.)
मैं नहीं चाहता हर कोई मुझे प्‍यार करे
इसलिए कि संघर्ष की भावना के साथ-साथ
मुझमें बीज की तरह बैठा है मेरा युग
शायद एक नहीं, बल्कि कई-कई युग

पश्चिम के प्रति मैं सावधान होने का अभिनय नहीं करता
न पूरब की पूजा करता हूं अंधों की तरह
दोनों पक्षों की प्रशंसा पाने के लिए
मैंने स्‍वयं अपने से पूछी नहीं पहेलियां

अपने हृदय पर हाथ रख
संभव नहीं है इस निर्मम संघर्ष में
पक्षधर होना एक साथ
शिकार और शिकारी का

लुच्‍चापन है यह प्रयास करना
कि सभी मुझे पसंद करें
जितनी दूर मैं रखता हूं चाटुकारों को
उतनी ही दूर चाटुकारिता चाहने वालों को

मैं नहीं चाहता भीड़ मुझे प्रेम करे
चाहता हूं प्रेम केवल मित्रों का
चाहता हूं तुम मुझे प्रेम करो
और कभी-कभी मेरा अपना बेटा मुझे प्रेम करे

मैं चाहता हूं पाना उनका प्रेम
जो लड़ते हैं, और लड़ते हैं अंत तक
चाहता हूं मुझे प्रेम करती रहे
मेरे खोये पिता की छाया। 

(चित्र- रोरिक)

Saturday, July 12, 2014

सीखने की ललक ने मुझे हमेशा बांधे रखा

(पांच साल की उम्र से शुरू हुए थिरकते कदम जब 94 साल में भी थिरक रहे हों तो इसे चमत्कार कहना ग़लत नहीं होगा। इस चमत्कार का नाम है सितारा देवी! आज भी उनकी बड़ी-बड़ी आंखें वो जज़्बात बयां करती हैं जो ईश्वर की देन के बिना संभव नहीं है। एक कलाकार के रूप में जीया जीवन उनके भीतर उत्साह बनकर दौड़ता है। लेकिन ये उत्साह उनके पैरों में ही नहीं, उनकी ज़बान से भी छलकता है। उनसे बात करो तो यूं लगता है आप किसी उमंग से भरी किशोरी से बात कर रहे हैं।)

कथक आपको विरासत में मिला है। वो वक्त क्या था, जब आपने पहली बार पैरों को हरकत देनी शुरू की?
मैंने पिता सुखदेव महाराज से कथक सीखा है। मेरे पिता नृत्य के साथ-साथ गीत-संगीत में भी पारंगत थे। वे राजदरबार में गायक थे। उस समय नृत्य पर केवल पुरुषों का अधिकार माना जाता था। पिताजी ने सोचा कि क्यों न कोई ऐसा नृत्य तैयार किया जाए जिसे लड़कियां भी कर सकें। उन्होंने धार्मिक कहानियों को कविता-रूप देकर उन पर मुझे और मेरी बहनों- अलकनंदा और तारा- को नृत्य सिखाना शुरू किया। पिताजी को हमें नृत्य सिखाते देख मोहल्ले में कोहराम मच गया। लोग पिताजी से कहने लगे कि लड़कियों को दरबारी नाच सिखा रहे हो, उनसे मुजरा करवाओगे क्या! बनारस में हर जगह उनकी आलोचना होने लगी। उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया। मार-पीटकर मोहल्ले से बाहर तक निकाला गया। लेकिन पिताजी ने हार नहीं मानी। वे अपने फ़ैसले पर अडिग रहे क्योंकि वे इस कला को बच्चों तक पहुंचाना चाहते थे। हम बनारस में ही किसी दूसरी जगह जाकर बस गए और पिताजी ने हमें प्रशिक्षण देना जारी रखा।
कथक असल में एक बिरादरी है, जो कथावाचक थी। हम इसी कथक बिरादरी से हैं। हमारे पूर्वज मंदिरों में कथाएं कहते हुए नाचते-गाते थे। उन्हें शादी-विवाह और तीज-त्योहार के अवसर पर राजाओं-महाराजाओं के दरबार में नाचने के लिए बुलाया जाता था। राजाओं की शान में किया जाने वाला यह नृत्य दरबारी नाच कहलाने लगा। उस वक्त वाजिद अली शाह का राज था। वाजिद अली ने इस नृत्य को कथक नाम दिया। पर कथक सीमित होकर रह गया था। उसमें से कहानी और भजन-भाव ख़त्म होता चला गया। पिताजी ने जो लिखा, वो कथा-नृत्य है। वे कथक को राजदरबारों से बाहर लेकर आए। पिताजी से हमने हर तरह का नृत्य सीखा, कथक भी और कथा-नृत्य भी। पिताजी के अलावा मेरे गुरु शंभूनाथ जी महाराज और अच्छन जी महाराज थे, जिनसे मैंने नृत्य की बारीकियां सीखीं। अच्छन जी महाराज पंडित बिरजू महाराज के पिता हैं। ताल और लय पर उनकी गहरी पकड़ थी।
आपका वास्तविक नाम धनलक्ष्मी है। सितारा नाम किसने दिया?
मैं धनतेरस के दिन पैदा हुई थी। पिताजी कहते थे हमारे घर लक्ष्मी आई है, और उन्होंने मेरा नाम धनलक्ष्मी रख दिया। घर में सब मुझे प्यार से धन्नो बुलाते थे। सितारा नाम बाद में मिला, जब मैंने नृत्य सीखना शुरू किया। मैं छोटी उम्र से ही स्टेज पर नाचने लगी थी। एक बार स्कूल में सावित्री-सत्यवान का नाटक हुआ जिसमें कुछ लड़कियों के साथ मिलकर मैंने नृत्य-नाटिका पेश की। तब मैं आठ साल की थी। सब आश्चर्य में पड़ गए कि छोटी-सी बच्ची ने इतना अच्छा नृत्य कैसे तैयार किया। कार्यक्रम के बाद मास्टरजी मुझे स्टेज पर लेकर आए और बोले कि यह हमारा आज का सबसे बड़ा आर्टिस्ट है। उस नृत्य-प्रदर्शन की ख़बर आज नाम के अख़बार में भी छपी। पिताजी ने अगले दिन अख़बार देखा तो बहुत ख़ुश हुए। दो-तीन दिन बाद मास्टरजी हमारे घर आए। पिताजी ने कहा, उनके लिए नाश्ता लेकर जाओ। मैं नाश्ता रखकर भाग आई। तब तक मास्टरजी को मालूम नहीं था कि मैं सुखदेव जी की बेटी हूं। जब मास्टरजी को पता चला तो उन्होंने पिताजी से कहा कि यह बच्ची बहुत तेज़ है, इसे नृत्य ज़रूर सिखाइए। उस दिन से मेरा विधिवत प्रशिक्षण शुरू हुआ। तब से पिताजी और बहनें मुझे सितारा कहकर बुलाने लगे। धीरे-धीरे बाकी लोग भी इसी नाम से पहचानने लगे।
फ़िल्मों में कैसे आना हुआ?
पिताजी बनारस मूल के थे। वो कोलकाता में मैमन सिंह महाराज के दरबार में मुलाज़िम थे और उनकी बेटियों को गाना सिखाते थे। बनारस आना-जाना होता रहता था। मैंने पांच साल की उम्र से नृत्य सीखना शुरू किया था और दस साल की होते-होते स्टेज पर परफॉर्म करने लगी थी। नृत्य की शुरुआत गणेश-वंदना से करती थी। दो-तीन घंटे नाचती थी और हर परफॉर्मेंस पर मुझे 20-25 रुपए मिलते थे।
उन दिनों ऊषा-हरण पिक्चर बन रही थी। मुंबई से कुछ लोग बनारस आए हुए थे। उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए ऐसी लड़की चाहिए थी जिसे धार्मिक नृत्य आता हो। कलाकार ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वो लोग हमारे घर पहुंचे। उस वक्त मैं 12 साल की थी। फ़िल्मवालों ने मुझे 400 रुपये महीने की तनख़्वाह और मुंबई में फ्लैट देने का प्रस्ताव रखा। हम सपरिवार मुंबई शिफ्ट हो गए।
ऊषा हरण के बाद नगीना, रोटी, होली, वतन, अंजलि, मदर इंडिया, बाग़बान जैसी कई फ़िल्मों में काम किया।
मुग़ल-ए-आज़म आपके घर की पिक्चर थी। उसमें काम क्यों नहीं किया?
आसिफ़ साहब से शादी के बाद उनकी फ़िल्मों हलचल और फूल में काम किया। मुग़ल-ए-आज़ममें मेरे लिए कोई रोल नहीं था। वो मुग़लों की फ़िल्म थी और उसमें लंबी-चौड़ी कद-काठी वाले लोग चाहिए थे। बहार के रोल में निगार सुल्ताना को लिया गया। कम ही लोग जानते हैं कि मुग़ल-ए-आज़म पहले अनारकली नाम से बन रही थी। उसमें नर्गिस बतौर हीरोइन काम कर रही थी और हीरो थे सप्रू। चार-पांच रीलें भी बन चुकी थीं लेकिन उसी बीच हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क गए और फ़िल्म के फायनेंसर पाकिस्तान भाग गए। पिक्चर बंद करनी पड़ी। फिर चार-पांच साल बाद नए फायनेंसर मिलने पर रीमेक शुरू हुआ। उसमें सलीम के लिए दिलीप कुमार और मधुबाला अनारकली के लिए चुनी गई। मधुबाला मुझसे नृत्य सीखती थी। कितना अच्छा नाची थी वो मुग़ल-ए-आज़म में!
क्या वजह रही कि फ़िल्मों को अलविदा कहना पड़ा?
मुझे ख़ास किरदारों वाले रोल मिलते थे। उनके लिए अवॉर्ड भी मिले। पर फ़िल्मों की वजह से कथक पर ध्यान नहीं दे पाती थी क्योंकि दिन-रात शूटिंग चलती थी। हालांकि फ़िल्मों में भी ज़्यादातर भूमिकाएं नृत्य पर ही आधारित थीं। लेकिन मैंने सोचा कि फ़िल्में आज हैं कल नहीं। कथक मेरी प्राथमिकता थी और रोज़ी-रोटी का साधन भी। सो, धीरे-धीरे काम कम कर दिया। कथक में फिर से रमी तो फ़िल्में पूरी तरह छूट गईं।
...और वो रबीन्द्रनाथ टैगोर से नृत्य साम्राज्ञी की उपाधि मिलना?
उन दिनों आज़ादी की लहर थी। राज्यों को आपस में मिलाया जा रहा था। इस सिलसिले में मुंबई में एक बड़ा जलसा हुआ जिसमें बीकानेर, जोधपुर, जयपुर, बनारस वगैरह के राजा-महाराजा इकट्ठे हुए थे। उसमें मेरा प्रोग्राम था। मुझे 15-20 मिनट का समय दिया गया था। नाच के बाद मैं चुपचाप खड़ी हो गई। वहां सरोजिनी नायडू भी थीं। उन्होंने पूछा कि मैं मायूस क्यों खड़ी हूं। मैंने धीमे स्वर में कहा कि 15 मिनट में क्या नाच दिखाती, मैं तो सारा दिन नाचती हूं। यह सुनकर उन्होंने उद्घोषणा की कि इस बच्ची का नाच से दिल नहीं भरा है, इसलिए इसे 15 मिनट का वक्त और दिया जाए। कार्यक्रम में गुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर भी आए हुए थे। मेरा नृत्य देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। इनाम के तौर पर मुझे एक साड़ी, 50 रुपए और मिठाई का डिब्बा दिया गया। पिताजी ने सिखाया था कि बस आशीर्वाद लेना और कुछ नहीं। मैंने झट से कहा कि साड़ी फट जाएगी, मिठाई खा लूंगी और पैसे खर्च हो जाएंगे... मुझे बस आपका आशीर्वाद चाहिए। मेरा जन्म कोलकाता का है। रबीन्द्रजी से बंगाली में बात करने लगी तो वे और ख़ुश हुए। उन्होंने आशीर्वाद देकर मुझे अगले दिन उनके पास आने को कहा। उनका सान्निध्य मिलने लगा। उन्होंने एक बार तीन घंटे तक मेरा नृत्य देखा और मुझे नृत्य-साम्राज्ञीकी उपाधि दी। तब मैं 16 साल की थी। अंग्रेज़ी अख़बारों और फ़िल्मफेयर ने नृत्य साम्राज्ञी को कथक क्वीन बना दिया।
आपने दुनिया भर में परफॉर्म किया है। कैसा अनुभव रहा?  
रूस में मेरा नृत्य देख प्रशंसक मुझे गोद में उठा लेते थे। एक बार रोमानिया में कोई पार्टी थी, जिसमें वहां के प्रधानमंत्री के साथ मैंने बालरूम डांस किया था। सब लोग बहुत हैरान थे क्योंकि उन्होंने अपने प्रधानमंत्री को नाचते हुए कभी नहीं देखा था। पार्टी ख़त्म होने के बाद प्रधानमंत्री ने मेरे लीडर से कहा कि सितारा को हमें दे दो। लीडर हंसते हुए बोला कि यह बात मुझसे नहीं, भारत सरकार से कहिए। मैं मन ही मन सोच रही थी कि यहां कौन रहेगा! दुनिया के कोने-कोने में घूमी लेकिन भारत के अलावा मेरा मन कहीं नहीं लगा। मैं अब भी यही सोचती हूं कि भारत के लोग अमेरिका या दूसरे देशों में कैसे रह लेते हैं। हिन्दुस्तान की बात ही कुछ और है।
कोई और दिलचस्प वाकया?
एक बार डीआईजी साहब ने फ़ोन कर मुझे मिलने के लिए बुलाया। उन्होंने कहा कि एक काम है, थोड़ा मुश्किल है लेकिन आप कर सकती हैं। भिंड में एक बड़ा समारोह था और डीआईजी साहब चाहते थे कि मैं वहां नृत्य पेश करूं। मैं मान गई। मेरी टीम के लोगों ने सुना तो वो डरे लेकिन मेरे कहने पर जैसे-तैसे तैयार हो गए। हम ग्वालियर में ठहरे थे। शाम को भिंड पहुंचे जहां चारों तरफ पुलिस का पहरा था। माहौल डरावना था। हमें देखकर सब हंसने लगे। मैंने हाथ जोड़कर कहा कि पहली बार आप लोगों के सामने नाचने जा रही हूं, इत्मीनान से देखिए, आपको अच्छा लगेगा। जय भवानी के उच्चारण के साथ नृत्य शुरू किया तो सब मंत्रमुग्ध होकर देखते रह गए।
आसिफ़ साहब से कैसे मुलाक़ात हुई? उनसे अलग क्यों हुईं?
हम कभी अलग नहीं हुए। आसिफ़ साहब के मामा नज़ीर की प्रोडक्शन कंपनी थी, मैं उसमें काम करती थी। हम पार्टनर थे। आसिफ़ कंपनी में प्रोडक्शन मैनेजर थे। घर जैसा माहौल था और हम दोनों अच्छे दोस्त बन गए। रोज़ का मिलना-जुलना था। दोस्ती धीरे-धीरे मोहब्बत में बदल गई। लेकिन आसिफ़ साहब के मामा नहीं चाहते थे कि हमारी शादी हो क्योंकि मैं ब्राह्मण थी। उनकी मां भी हमारे रिश्ते के ख़िलाफ़ थीं। उन्होंने लाहौर में आसिफ़ की शादी करा दी... यह कहकर कि हमें बहू चाहिए, फ़िल्मों में काम करने वाली नहीं। बाद में आसिफ़ साहब उन्हें छोड़कर मेरे साथ रहने लगे। उन्हें बच्चा चाहिए था। हमारा कोई बच्चा नहीं हुआ तो उन्होंने निगार सुल्ताना को अपना लिया। निगार मेरी दोस्त थी। मुझे कभी कोई शिकायत नहीं रही किसी से। आसिफ़ साहब बहुत अच्छे इंसान थे, लेकिन उनकी एक ही गलती थी कि उन्होंने अख़्तर से शादी कर ली। अख़्तर, दिलीप कुमार की बहन थी। वो मंगलीक थी। मैंने बहुत मना किया था, लेकिन वो नहीं माने। उनके इस फ़ैसले से दिलीप साहब भी बहुत ख़फ़ा हुए थे।
कथक और पारिवारिक जीवन के बीच सामंजस्य बैठाने में मुश्किलें नहीं आईं?
जब फ़िल्मों में काम करती थी तब मां-पिताजी पूरा साथ देते थे। किसी तरह की परेशानी नहीं हुई कभी। हां, आसिफ़ साहब की दूसरी शादियों से मेरे जीवन में थोड़ी उथल-पुथल ज़रूर मची लेकिन मैंने नृत्य पर इसका असर नहीं पड़ने दिया। कई बार उनसे झगड़े भी हुए लेकिन मेरी रूटीन नहीं टूटी। नृत्य का अभ्यास चलता ही रहा। जब खाली समय होता तो कुछ-न-कुछ नया सीखने लगती। सीखने की ललक ने मुझे हमेशा बांधे रखा। स्विमिंग करती थी, भरतनाट्यम सीखती थी, बॉलरूम डांस सीखती थी। रशियन बैले करती थी जो अब तक किसी ने नहीं किया था। मेरा विश्वास हमेशा कुछ नया और कुछ अलग करने में रहा।
प्रताप बरोट से कैसे मिलना हुआ?
मैं परफॉर्मेंस के लिए अफ्रीका गई थी। जान-पहचान के कारण हम सब उनके घर ठहरे हुए थे। प्रताप को देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने उनके सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया। फिर वे भारत आए और हमारी शादी हो गई। आसिफ़ साहब कई बार शिक़ायत भरे लहज़े में कहते कि तुमने शादी क्यों कर ली! रंजीत के पैदा होने पर आसिफ़ उसे गोद में उठाकर प्रताप से कहते कि यह मेरा बेटा है। मैं भी उन्हें कह देती कि हां आसिफ़ साहब, यह आपका ही बच्चा है। हम सब हंसने लगते। आसिफ़ साहब को आज भी बहुत मिस करती हूं मैं। हालांकि उन्होंने मुझे कोई सुख नहीं दिया, लेकिन वो बहुत ज़हीन और क्रियेटिव थे। मैं उनकी शख़्सियत पर फ़िदा थी।
आप नहीं चाहती थीं कि बेटा रंजीत बरोट भी कथक की दुनिया में आए?
रंजीत को शुरू से ही तबला बजाने का शौक रहा। मेरी मां कई बार कहतीं कि घर में सब गाने-बजाने और नाचने वाले हैं, इसे तो डॉक्टर बनाओ। लेकिन रंजीत का रुझान संगीत में ही था। आज वो बड़ा संगीतकार है। ए आर रहमान उसे बहुत पसंद करते हैं। दोनों साथ में ख़ूब काम करते हैं।
अगर आज के दौर में कथक अपनातीं तो कितनी सफल होतीं?
भगवान जाने क्या होता! वो समय ही कुछ और था। मैं इतना कूदती-फांदती थी कि घरवाले परेशान हो जाते थे। उन्हें लगता था कि मैं खेल-कूद ही करती रहूंगी, नाच नहीं सीखूंगी। मैं अपनी बहनों को नाचते हुए देख उनकी नकल करती थी। स्कूल में भी नाचती। पूरी लगन के साथ नृत्य सीखा मैंने। अब न वो कथक रहा और न वो समर्पण।
आप अब भी परफॉर्म करती हैं। इतनी उम्र में परफॉर्म करने के बावजूद आपका नाम रिकॉर्ड बुक्स में नहीं है?
सबको पता है कि मैं पिछले 85-90 साल से नाच रही हूं। अब व्हील-चेयर पर बैठकर फुट-वर्क और अभिनय करती हूं। दूसरा रिकॉर्ड यह है कि मैं लगातार 12 घंटे तक नाच चुकी हूं। इतनी देर तक यहां कोई नहीं नाचा। लेकिन ये सब रिकॉर्ड रखना लोगों का काम है। मेरा काम नाचना है, मैं क्यों इस बारे में सोचूं!
आजकल बड़े-बड़े कलाकार रियेलिटी शो में बतौर जज आने लगे हैं। आपने इस बारे में नहीं सोचा?
मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता। यह भी कोई बात हुई कि दस लड़कियां मेहनत से नाचें और किसी एक को चुन लो। मैं किसी को दुखी नहीं करना चाहती। एक बार ऐसा ही हुआ था। सारे प्रतियोगी बहुत अच्छा नाचे और आकर मेरे पैर छूने लगे। मुझे सब अच्छे लगे लेकिन चुनना किसी एक को पड़ा। मैंने तभी सोच लिया था कि भविष्य में जज नहीं बनूंगी।
दिनचर्या क्या रहती है?
जीवन में अब कोई नियम नहीं है। पहले सुबह पांच बजे उठकर रियाज़ करती थी। अब जो मन में आए, करती हूं। कथक के बारे में सोच-विचार चलता रहता है। गाने की प्रैक्टिस भी करती हूं लेकिन दिल की बीमारी के कारण ज़्यादा गाने पर पाबंदी है। डॉक्टरों ने ब्रेक लगा दिया है। हार्ट सर्जरी करा नहीं सकती क्योंकि सर्जरी के लिए ब्रेन में इंजेक्शन लगता है। डॉक्टरों की सलाह है कि ऑपरेशन मत कराओ, ब्रेन में इंजेक्शन और सर्जरी के बाद कुछ नहीं कर पाओगी। अब जैसी हूं, वैसी भली। उम्र के हिसाब से ठीक ही हूं। 
आदर्श किसे मानती हैं?
पिता सुखदेव जी महाराज मेरे आदर्श और प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। दिलीप कुमार भी मेरे आदर्श हैं। उन्हें बहुत मानती हूं मैं।
नृत्य के अलावा क्या अच्छा लगता है?
शॉपिंग पसंद है। पुरानी और कलात्मक चीज़ें ख़रीदना अच्छा लगता है, ख़ासतौर से राजस्थानी कला की वस्तुएं। कुछ समय पहले परफॉर्मेंस के लिए उदयपुर गई थी, वहां ढेर सारी शॉपिंग की।
पसंदीदा जगह?
जयपुर बहुत पसंद है। आगरा भी अच्छी जगह है, ताजमहल के कारण। लेकिन रहने के लिए मुंबई से अच्छा शहर और कोई नहीं है।
कोई अधूरी ख़्वाहिश?
इतना कुछ कर चुकी हूं कि निराशा का भाव नहीं है। कभी यह नहीं लगता कि ये नहीं किया, वो नहीं किया। न यह सोचती हूं कि अकेली हूं। बहुत अच्छा जीवन जिया है मैंने। संतुष्ट हूं।
इस उम्र में भी आप इतनी ऊर्जावान हैं। ख़ुद को फिट रखने के लिए क्या करती हैं?
खाने-पीने का ध्यान रखती हूं। खाना कम खाती हूं और फल ज़्यादा। संगीत सुनती हूं।
आपके लिए ख़ुशी के क्या मायने हैं?
आज भी मेरा नृत्य अच्छा होता है, कार्यक्रम सफल होता है तो बहुत ख़ुशी मिलती है। प्रोग्राम के बाद लोग आते हैं, ऑटोग्राफ लेते हैं, पत्र-पत्रिकाओं में ख़बरें छपती हैं तो प्रसन्न हो जाती हूं। भगवान मेहनत का फल दे रहा है... एक कलाकार को भला इससे ज़्यादा और क्या चाहिए!
फ़िल्में देखती हैं?
पुरानी फ़िल्में ज़्यादा देखती हूं। मुग़ल-ए-आज़म शानदार फ़िल्म है। इससे बेहतर फ़िल्म आज तक नहीं बनी। कभी-कभार नई फ़िल्में भी देख लेती हूं। 'जोधा अकबर' अच्छी लगी। इसे देखते हुए मुग़ल-ए-आज़म की याद आती है। मुझे सनी देओल, जैकी श्राफ और सलमान खान जैसे रफ-टफ हीरो अच्छे लगते हैं। शाहरुख खान की पिक्चरें पसंद हैं। सब लोग मेरा बहुत मान भी करते हैं।
फ़िल्म इंडस्ट्री में किसी से बात-मुलाक़ात होती है?
श्यामा मेरी अच्छी सहेली है। कई पुरानी फ़िल्मों में काम किया है उसने। कभी-कभी फोन करती हूं। समय हो तो मिलने चली जाती हूं। दिलीप कुमार से बात होती है। वे मेरे मुंहबोले भाई हैं। उन्हें हर साल राखी बांधती हूं।
नई पीढ़ी में क्या अच्छी बात देखती हैं?
आजकल के बच्चे हैप्पी गो लकीहैं, उनमें गंभीरता नहीं है। पहरावा अजीब है। कपड़े तन ढकने के लिए पहने जाते हैं, लेकिन अब इसका उल्टा है।
कथक का भविष्य क्या है?
कथक का सर्वनाश हो चुका है। पहले एक बड़ा घराना बनारस हुआ करता था। अब इतने घराने हैं कि गिनते-गिनते थक जाओ। घराना न हुआ, फैशन हो गया। अब दिल से सीखने वाले ही कहां हैं!
नृत्य सीखने की कोई उम्र है? कुशल नृत्यांगना होने के लिए क्या ज़रूरी है?
लगन हो तो नृत्य किसी भी उम्र में सीखा जा सकता है। अच्छी नृत्यांगना होने के लिए अच्छा स्वास्थ्य होना चाहिए। अपनी देखरेख बहुत ज़रूरी है। लव अफेयर नहीं होना चाहिए। अगर है तो उसमें इतना न डूब जाओ कि कोई सुध-बुध न रहे, या अपना काम न कर पाओ।
अहा ज़िंदगी के पाठकों के लिए क्या कहेंगी?
कोई भी काम करें तो संजीदगी और मेहनत के साथ करें। जीवन का आधा हिस्सा अपने काम के लिए समर्पित रखें। व्यर्थ की बातों में समय नष्ट करने के बजाय नई चीज़ें सीखें।

चलते-चलते
कथक मेरी ज़िंदगी है। नृत्य के सिवा मैंने जीवन में किसी और चीज़ को महत्व नहीं दिया। आसिफ़ साहब ने दूसरी शादियां कीं लेकिन मैं नाच में लीन रही। उनसे मेरे झगड़े होते, कई-कई हफ्तों तक वे घर नहीं आते लेकिन मैं चुपचाप रियाज़ करती रहती। जब लौटकर वे मुझे नाचते हुए ख़ुश देखते तो कहते कि तुम्हें कोई मिल गया है। नाचते-नाचते मैं कहती, मेरा पहला इश्क यही है... जिसने मुझे बचाकर रखा है।
कथक को जी रही हैं मां
हमारे घराने में पिछली कई पीढ़ियों से लड़के ही नाचते-गाते आए हैं। लड़कियों को नौ-दस साल की उम्र के बाद बाहर नाचने की मनाही थी। मां पहली महिला हैं जिन्होंने नृत्य का पूरा प्रशिक्षण लिया और उसे इस मुक़ाम तक पहुंचाया। मां आज भी कथक को जी रही हैं। वे अब ज़्यादा नाच नहीं पातीं, रियाज़ नहीं कर पातीं लेकिन बैठे-बैठे इम्प्रोवाइज़ करती रहती हैं। मेरी बेटी ऋषिका भी नृत्य सीख रही है। अच्छा नाच लेती है वो।
-जयंतीमाला मिश्रा (सितारा देवी की बेटी)


(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के जुलाई 2014 अंक में प्रकाशित)

Monday, July 7, 2014

गुलेरी जी की 131वीं जयंती पर

हिंदी कथाजगत में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी एक ऐसे कथाकार हुए जो कुछ ही कहानियां लिखकर अमर हो गए। उनकी कहानियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने समय में रहीं। कथा साहित्य को गुलेरी जी ने नई दिशा और आयाम प्रदान किए। वह उच्च कोटि के निबंधकार और प्रखर समालोचक भी थे। 
गुलेरी जी के पूर्वज मूलत: हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा ज़िले के गुलेर के निवासी थे। इनके पिता पंडित शिवराम शास्त्री आजीविका के सिलसिले में जयपुर चले गए। गुलेरी जी का जन्म 7 जुलाई, 1883 को हुआ था। अपनी मां लक्ष्मी के प्रति गुलेरी जी सदैव श्रद्धावनत रहे। उनकी ख्याति प्रकांड विद्वान के रूप में थी। संस्कृत, पाली, प्राकृत, हिंदी, बांग्ला, अंग्रेज़ी, लैटिन और फ्रेंच भाषाओं पर उनकी अच्छी पकड़ थी।  
सन् 1904 में गुलेरी जी अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्यापक भी रहे। अध्यापक के रूप में उनका बड़ा मान-सम्मान था। अपने शिष्यों में वह लोकप्रिय तो थे ही, अनुशासन और नियमों का भी वह सख्ती से अनुपालन करते थे। उनकी असाधारण योग्यता से प्रभावित होकर पंडित मदनमोहन मालवीय ने उन्हें बनारस बुलाया और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद दिलाया।
गुलेरी जी कवि भी थे
, यह बहुत कम लोग जानते हैं। एशिया की विजय दशमी’, ‘भारत की जय’, ‘अहिताग्नि’, ‘झुकी कमान’, ‘स्वागत’, ‘ईश्वर से प्रार्थनाऔर सुनीतिइनकी कतिपय श्रेष्ठ कविताएं हैं। ये रचनाएं गुलेरी विषयक संपादित ग्रंथों में संकलित हैं। उनकी खड़ी बोली की कविताओं में राष्ट्रीय जागरण और उद्बोधन का स्वर अधिक मुखर हुआ है। अपनी रचनाओं में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की कटु आलोचना की थी। 

उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में जमकर लिखा है, मगर उन्हें ख्याति कथाकार के रूप में मिली। उनकी लिखी तीन कहानियां ही प्रामाणिक हैं- सुखमय जीवन’, ‘बुद्धू का कांटातथा उसने कहा था। इन तीनों में उसने कहा थासर्वाधिक चर्चित हुई। यह कहानी सन् 1915 में सरस्वतीपत्रिका में छपी थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कहानी की प्रशंसा करते हुए अपनी इतिहास की पुस्तक में लिखा है- ‘‘घटना उसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती है, पर उसके भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झांक रहा है। केवल झांक रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा। इसकी घटनाएं ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।" 
गुलेरी जी की कहानियों की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि वह युग से आगे बढ़कर अपनी कहानियों में रोमांस और सेक्स को ले आए। उस आदर्शवादी युग में इस प्रकार का वर्णन समाज को स्वीकार्य नहीं था, परंतु वह सेक्स के नाम पर झिझकने वाले पंडितों में से नहीं थे। उन्होंने जीवन के यथार्थ का खुलकर वर्णन किया।
जिन दिनों हिंदी कहानी घुटनों के बल सरक रही थी,
गुलेरी जी की कहानियां पांव के बल चलकर चौकड़ी भरने में समर्थ थीं। उन्होंने अनुपम कलापूर्ण कहानियां लिखकर युग को प्रेरित और गतिमान किया। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी और हिंदी कथा-साहित्य के मसीहा थे। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार का 39 वर्ष की अल्पायु में 12 सितंबर 1922 को काशी में निधन हो गया। 

(पंजाब केसरी से साभार)

Friday, April 18, 2014

अनंत यात्री हैं हम

(यात्रा... रोज़मर्रा की ज़िंदगी से निकाले ख़ुद के लिए सुकून के कुछ पल। संभवत: हर व्यक्ति अपने जीवन में यात्रा तो करता ही है। आख़िर किसका मन नहीं करता फिर से नई उमंग से जीने का! कोई मन के अंतहीन आकाश में किसी परिंदे की तरह स्वच्छंद उड़ान भरता है तो कोई मन के सागर की गहराइयों से मोती ढूंढ लेता है। कोई पहाड़ की चोटियों पर 'ख़ुद' को तलाशता है तो कोई जीवन-पथ की पगडंडियों पर लड़खड़ाते, गिरते, फिर संभलते हुए 'ख़ुद' को खोजता है... आख़िर 'चलते रहना' ही तो जीवन की बड़ी यात्रा है...।)
हम हर पल चल ही तो रहे हैं। कभी पैरों पर, तो कभी मन के पंखों पर सवार होकर। कभी वास्तविक संसार में तो कभी आभासी दुनिया में। जीवन का अर्थ ही चलते जाना है। ...और रुक जाना मृत्यु। यानी, अगर हम जीवित हैं, सांस ले रहे हैं, प्राणवान् हैं, तो हम सब लगातार यात्रा में होते हैं। एक जीवन-यात्रा! पर क्या इस जीवन-यात्रा की परिभाषा केवल घर की देहरी छोड़ने में निहित है, क्या स्थान छोड़कर दूसरे स्थान पर जाना ही जीवन का सार है? एक गंतव्य से दूसरे गंतव्य तक जाना तो इस जीवन-यात्रा का एक ही पहलू हुआ। शायद एक बहुत छोटा-सा पहलू, क्योंकि हर रोज गंतव्य बदलना आसान नहीं है। तो क्या हम उस दौरान ज़िंदा नहीं रहते, जब हम घर की चहारदीवारी के भीतर होते हैं, या किसी शहर की सीमाओं में बंधे रहकर जीवन गुजार रहे होते हैं? क्या यह संभव है कि हम हर पल, हर दिन जगह बदलते रहें? संभवत: नहीं। व्यावहारिक तौर पर ऐसा हो पाना कदापि संभव नहीं है। फिर भी हम जीते जाते हैं, हमारी जीवन-यात्रा निर्बाध चलती जाती है। तो फिर हम कहां जाते हैं, कहां भ्रमण करते हैं? असल में हम अपने भीतर की यात्राओं पर निकलते रहते हैं। वो यात्राएं जिन्हें हमारा शरीर नहीं, बल्कि मन करता है। शरीर की सीमाओं के भी पार जा आता है मन, उन हदों को छू आता है जहां शारीरिक यात्राओं के ज़रिए जाना संभव ही नहीं है। ऐसी यात्रा हम हर पल करते हैं। सोते हुए करते हैं, खुली आंख के साथ करते हैं, खाते हुए करते हैं, कुछ पढ़ते हुए करते हैं, गुनगुनाते हुए करते हैं, सोचते हुए करते हैं, दोस्तों-साथियों के साथ बतियाते हुए करते हैं, अकेले विचरते हुए करते हैं। यानी, भीतर की यात्रा के लिए न तो कोई विशिष्ट समय चाहिए, न कोई विशेष अवसर। हर कोई अपने मन, ज़रूरत एवं परिस्थिति के हिसाब से यात्रा करता है। कोई लंबी यात्रा पर निकलता है तो कोई छोटी-छोटी यात्राओं पर। कोई आगे ही आगे चलता चला जाता है, तो कोई कुछ दूर जाकर लौट आता है। कोई विरक्ति के लिए यात्रा करता है, तो कोई संयोग-भाव का अहसास लेने के लिए अपने भीतर विचरने निकलता है। सबकी अपनी अलग-अलग यात्राएं हैं, सबके मंतव्य अलग-अलग हैं। बचपन से लेकर बूढ़े होने तक हम इन यात्राओं का सुख, या कहें, अनुभव लेते हैं। लेकिन एक बात जो सबकी साझी है, वो यह कि हम लगातार यात्रा करते ज़रूर हैं। ...और अगर कोई विरला ऐसी यात्रा नहीं करता, वो? तो फिर वो जी नहीं रहा है, वो केवल सांस ले रहा है। 
एक चीनी कहावत है कि दस हज़ार किताबें पढ़ने से बेहतर है दस हज़ार मील की यात्रा करना। ...और जब हम भीतर की यात्राएं करते हैं तो फिर दस हज़ार मील हों या दस लाख मील, कोई हिसाब कहां रहता है। हम चलते जाते हैं, बिना किसी बाधा या रोक-टोक के। कहां रुकना है, कहां पड़ाव डालना है, कहां से कदम वापस खींचने हैं, यह कोई दूसरा नहीं बल्कि हम ही तय करते हैं। इन अंतर्मना यात्राओं के दौरान हम सुख-दुख बीनते जाते हैं, अनुभव समेटते जाते हैं, समृद्ध होते जाते हैं, और एक तरह से लगातार हल्के होते जाते हैं। यह समृद्धता हमें अपने जीवन दर्शन में दिखाई देती है, रिश्ते-नातेदारों के साथ हमारे व्यवहार में नज़र आती है। हम क्या वही होते हैं, जैसे पहले थे? यक़ीनन नहीं। हम बदले होते हैं, हमने मन के ज़रिए दुनिया की सच्चाई से आंख मिला ली होती है। 
एक कवि को यह समृद्धता अपनी कविताओं में नज़र आती है। एक कवि भी तो यात्री ही है। बिना यात्रा के कविता नहीं हो सकती, फिर चाहे वो किसी स्थान की यात्रा हो या मन के भीतर की परतों की। कवि को तो बहुत गहरी यात्रा करनी पड़ती है। अच्छी या बुरी कविता में अंतर बता पाना सरल होता है। अच्छी कविता में लम्बी यात्राओं का निचोड़ दिखाई देता है और बुरी कविता में स्थिरता एवं सतहीपन प्रतिबिम्बित होता है। जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि में कवि का पहुंचना शारीरिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक होता है। कवि अपने मन की खिड़की खोलता है और बिना किसी वीज़ा या पासपोर्ट के अनन्त यात्राएं कर लेता है। उसे न तो कोई सीमा रोक पाती है, न कोई सागर, न कोई दीवार। वह जब लौटता है तो इस तरह के अनुभवों का पिटारा लेकर लौटता है कि लेखनी के ज़रिए वह पिटारा पूरी मानवता के सामने उड़ेल कर रख देता है। 
कवि के अलावा एक चित्रकार, एक फिल्मकार और कला-संसार से जुड़े दूसरे लोग भी अपनी कला के माध्यम से हमें विविध यात्राओं पर ले चलते हैं। क्या कभी किसी ने सोचा होगा कि घर बैठे-बैठे टेलीविज़न पर जुरासिक पार्क जैसी फ़िल्म देखते हुए हम उस जुरासिक काल में पहुंच जाएंगे जहां डायनासोर इस धरती पर विचरते थे! फ़िल्मकार हमारा गाइड है जो हमारा हाथ पकड़कर हमें उस काल की यात्रा पर ले जाता है, जिसके बारे में हमने कभी कल्पना तक नहीं की थी। परदे पर उतरने से पहले यह यात्रा उस फ़िल्मकार के मन में हुई होगी, क्योंकि वो ख़ुद भी उस जुरासिक काल में नहीं गया था। उसने अपने मन में एक जुरासिक पार्क गढ़ा होगा। पहले ख़ुद उसमें टहला होगा, घूमा होगा, फिर उसे मूर्त रूप दिया होगा। ...और अपनी इस यात्रा के ज़रिए वह दुनिया के करोड़ों लोगों को अपने साथ उस प्रागैतिहासिक काल की यात्रा पर ले गया होगा। 
किसी चित्रकार की कूची से निकलकर कैनवास पर फैले रंगों को निहारिए। कल्पना कितने ही विविध रूपों में आंखों के सामने साकार नजर आती है। कभी सोचा है कि कैसे वो रंग अलग-अलग आकृतियों के माध्यम से एक पूरी कहानी कह देते हैं, एक लंबे-चौड़े सफर पर ले जाते हैं? कैनवास पर एक दृश्य उकेरने के लिए उसने मन को कहां-कहां नहीं भटकाया होगा। ऐसा संभव कहां है कि कूची से झरते रंग जो आकार लेते हैं, उन सबको चित्रकार ने अपनी आंखों से देखा हो। यकीनन, वो मन की उंगली पकड़कर उन जगहों पर घूमा है, जहां उसके कदम कभी नहीं पड़े हैं। एक छोटे बच्चे के हाथों हुई कलाकारी ही देख लीजिए। कागज़ पर आड़ी-तिरछी रंगीन रेखाओं के पीछे एक बाल मन की यात्राएं ही तो छुपी होती हैं। वो यात्राएं जिन्हें एक बालक अपनी कल्पनाओं का हाथ पकड़कर तय करता है। 
पर्याप्त हैं भीतर की यात्राएं? 
एक बड़ा सवाल मन में ज़रूर घुमड़ता है कि क्या केवल भीतर की यात्रा करना काफी है, स्वयं की सोच को समृद्ध करने के लिए? क्या शारीरिक तौर पर बिना गंतव्य बदले मन को कल्पनाओं के आकाश में परिंदा बनाकर उड़ाते रहने से अनुभवों का वह खज़ाना मिल पाना संभव है, जिसके ज़रिए हम बाकी लोगों को भी समृद्ध कर सकें। शायद नहीं। मन की उड़ान के लिए ज़रूरी है कि आंखों ने भी ज़्यादा-से-ज़्यादा अनुभव लिए हों। भीतर की यात्रा के साथ-साथ भौतिक यात्रा के फ़ायदे को कैसे भूला जा सकता है। कवियों में भी जो कवि ज़्यादा घूमा-फिरा होगा, जिसने देशाटन किया होगा, उसकी कविताएं निखरी हुई होंगी। इसलिए, क्योंकि उनकी कल्पनाओं में यथार्थ के रंगों का समावेश भी होगा। जब हर तरह के रंग मिलेंगे तो रचनाएं ज़्यादा लोगों से, ज़्यादा गहरे तक जाकर जुड़ पाएंगी। हालांकि, कुछ कवि ऐसे हैं जो जेल की बंद कोठरी में रहकर भी ऐसी यात्राएं कर गए कि क्या कहने! नाज़िम हिकमत के जीवन का एक बड़ा हिस्सा जेल में बीता। उस दौरान उन्होंने सबसे ज़्यादा कविताएं लिखीं। उनकी कविताएं जेल की सारी हदें तोड़ती रहीं। उनके प्रेमी-हृदय की यात्रा को नहीं रोक पाई जेल की चहारदीवारी। नाज़िम का प्रेमी मन अपनी यात्रा में सतत् लगा रहा। जेल में रहकर उन्होंने वसन्त देखा, पेड़-पौधे देखे, आसमान देखा, गांव देखे और निरन्तर देखा अपनी प्रेयसी को। दैहिक रूप में वो साथ नहीं थी लेकिन भावनाओं की यात्रा में वो हिकमत के साथ हमेशा रही। एक कविता में हिकमत कहते हैं कि मैं तुम्हें छू रहा हूं मेरी प्रिये! कमाल की है यह मन की यात्रा! 
घुटनों के बल झुका देख रहा हूं धरती 
देख रहा हूं नीली चमकती कोंपलों से भरी शाखाएं 
वसन्त भरी पृथ्वी की तरह हो तुम, मेरी प्रिया! 
मैं तुम्हें ताक रहा हूं। 
चित्त लेटा मैं देखता हूं आसमान 
तुम वसन्त के मानिन्द हो, आसमान के समान 
प्रिया मेरी! मैं तुम्हें देख रहा हूं। गांव में, रात को सुलगाता हूं आग मैं, छूता हूं लपटें 
तारों तले दहकती आग की तरह हो तुम 
प्रिये! मैं तुम्हें छू रहा हूं।
मन के बंधनों से आज़ाद करती हैं 
हम सब एक बात तो स्वीकार करेंगे कि, रात को सोते समय दिमाग को जो उलझनें जकड़े रखती हैं, सुबह होने तक वो सब उलझनें ख़ुद-ब-ख़ुद सुलझ चुकी होती हैं। सोए रहने के दौरान मन जाने कहां-कहां भटक आता है और हल्का होता जाता है। अनजानी-सी दुनिया की वो यात्राएं हमारा मन हमें बिना बताए स्वयं करता है। लेकिन यही यात्राएं हम जागृत अवस्था में करें, तो? हम जितना विचरण करेंगे अपने भीतर, उतने साफ होते जाएंगे, निर्मल होते जाएंगे। मन की बहुत-सी गुत्थियां स्वयमेव खुलती चली जाएंगी। यह घुमक्कड़ी इन्सान को बेहतर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। विख्यात यायावर एवं लेखक राहुल सांकृत्यायन ने ऐसी ही बात बाहर की यात्राओं के लिए कही, लेकिन वह किसी भी तरह की यात्रा के लिए सटीक बैठती है। वे लिखते हैं- "घुमक्कड़ असंग और निर्लेप रहता है, द्यपि मानव के प्रति उसके हृदय में अपार स्‍नेह है। यही अपार स्‍नेह उसके हृदय में अनंत प्रकार की स्‍मृतियां एकत्रित कर देता है। वह कहीं किसी से द्वेष करने के लिए नहीं जाता। ऐसे आदमी के अकारण द्वेष करने वाले भी कम ही हो सकते हैं, इसलिए उसे हर जगह से मधुर स्‍मृतियाही जमा करने को मिलती हैं।" सांकृत्यायन जी ने जब घुमक्कड़ शास्त्र की रचना की तो उनकी समस्त यात्राओं का निचोड़ ही उनके महावाक्यों का आधार बना। यानी, बाहर की यात्राएं उनके लिए अपने मन को खंगालने का ज़रिया बनती चली गईं। जितना वे बाहर घूमे, उससे कहीं ज़्यादा अपने मन के भीतर विचरण कर आए। इस विचरण के दौरान जहां-जहां उन्हें मैल दिखा, उसे वे साफ करते चले गए। मन की यात्राएं उन्हें निर्मल करती चली गईं। 
चमत्कार से कम नहीं 
रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मिकी की कहानी तो सुनी होगी। वे पहले रत्नाकर डाकू के नाम से जाने जाते थे, जो लोगों की हत्या करके उन्हें लूट लेता था। एक बार उसने नारद जी को लूटने का प्रयत्न किया। नारद जी ने उनसे पूछा कि वह ऐसी लूटपाट किसलिए करते हैं। रत्नाकर ने उत्तर दिया कि परिवार का पेट पालने के लिए। तब नारद जी ने उनसे पूछा कि क्या उनका परिवार उनके पापों का फल भोगने में उनका भागीदार बनने को तैयार है। नारद जी की बात सुनकर रत्नाकर ने अपने परिवार से बात की तो किसी ने भी उनके पापों का बोझ अपने सिर लेने से मना कर दिया। इस पर रत्नाकर सोच में पड़ गए। उन्होंने विचार करना शुरू किया, अपने मन को खंगालना शुरू किया तो उन्हें सत्य की अनुभूति हुई। इसके बाद उन्होंने अपना पूरा ध्यान ईश्वर की भक्ति में लगाया और कालांतर में महर्षि वाल्मिकी के नाम से प्रसिद्ध हुए। 
डाकू रत्नाकर ने जब अपने मन के भीतर विचरण किया तो उस स्थान को पाया जिसके बारे में उन्होंने पहले कभी सोचा तक न होगा। भीतर की यात्रा ने चमत्कार किया और वे बदलते चले गए। यकीनन, मन की यात्राओं पर जाना मोक्ष को पाने जैसा है, ख़ासकर जब हम अपने विचारों के पहिये पर लगातार घूमते जाते हैं। घूमने-फिरने की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि हम एक सुलझे एवं निखरे हुए इंसान के रूप में लौट कर आते हैं। कुछ ऐसा ही अनुभव लेखक, विचारक एवं यायावर कृष्णनाथ को स्पीति घाटी में मिलता है, जब कल्पनाओं में उन्हें अपना शव दिखने लगता है। अपने संस्मरण स्पीति में बारिश में वे लिखते हैं- शांत चित्त से रोहतांग को देखता हूं। बर्फ़ की फिसलन के बीच रास्ता है। यहां हिम मणि की तरह भास्वर नहीं है, मृत्यु की तरह धूसर है। जहां आकाश की छाया पड़ती है वहां नीला, बैंगनी है। चाहे शब्द, अर्थ की वासना का आरोप हो, मुझे लगा कि हिमानी कब्रगाह है जहां अनाम शव बिछे हुए हैं जिन पर न कोई 'क्रॉस' है, पट्टियां हैं। अनाम, अकाल मूरत अजूनी। मरणस्मृति होती है। जो मर गए हैं उनकी स्मृति, जो मरने वाले हैं उनकी स्मृति और उन सब शवों के आगे है मेरा शव। मैं अपने कन्धे पर चढ़ अपना शव देखता हूं। शव स्थान देखता हूं। रोटांग देखता हूं। इस शव के स्थान पर भी एक मढ़ी है। पत्थर का जमाव। गुहा मानुष, अमानुष के लिए एक द्वार है। एक भोट परिवार है। जो शायद आने-जाने वालों के लिए चाय-शाय दे सकता है। पेट पालने के लिए आदमी-जन कहां-कहां रहते हैं! इसके आगे एक मोड़ आता है। बायीं ओर बर्फ़  की चट्टान है। जैसे थक्का की थक्का जमायी हुई पीली पड़ती हुई हड्डियां हैं। इन्हें काटकर रास्ता है। रास्ता यहां संकरा है। संकरा है वह रास्ता जो जिन्दगी की ओर जाता है। चौड़ा है वह रास्ता जो मृत्य की ओर जाता है। रास्ते पर फिसलन है। जीप फिसले तो मृत्यु के उस चौड़े रास्ते पर जाए। अभी तो जिन्दगी के संकरे रास्ते पर हैं। तीसरा पहर है। काल का और जिन्दगी का भी। फिर भी मौसम बहुत अच्छा है। शायद रोहतांग इस ऋतु में, इस वेला में, इतना अच्छा कम ही होता है। फिर यह समय आए, न आए। बर्फ़ पर चलने का, फिसलने का, गिरने, गिर कर फिर उठने, चलने का मन होता है। हम रोहतांग जोत के शीर्ष पर हैं। एक पट बताता है रोहतांग, समुद्र सतह से ऊंचाई 13050 फ़ीट। 
ऐसा नहीं है कि कृष्णनाथ को ये सब अनुभव शारीरिक यात्राओं के दौरान हुए। उन्होंने तो अपने भीतर की आंखों से ये सब देखा। अपने मन को उन्होंने बंधनमुक्त किया और उनका मन उड़ता चला गया रोहतांग दर्रे के ऊपर से। मन की आंखों से जो उन्होंने देखा, वो शायद शारीरिक यात्रा के ज़रिए संभव ही नहीं था। ...और जब एक बार उन्होंने मृत्यु का साक्षात् अनुभव कर लिया तो सोचिए ज़िंदगी को उन्होंने किस शानदार तरीके से जिया होगा। उनके लिए यह यात्रा चमत्कार से कम नहीं थी। 
ख़ुद को खोकर ख़ुद को खोजना 
पीको अय्यर कहते हैं, हम शुरू में ख़ुद को खोने के लिए यात्रा करते हैं और फिर ख़ुद को खोजने के लिए। यात्राओं से न सिर्फ़ हमारा दिल और आंखें खुली रहती हैं बल्कि हम दुनिया को बेहतर जान पाते हैं। यात्राओं का अर्थ स्वयं को पाना ही तो है। आत्मविश्लेषण के लिए मन के भीतर घूम आने से अच्छा विकल्प और कोई नहीं। इन यात्राओं से जो आत्मचिंतन, आत्मावलोकन और व्यापक अंतर्दृष्टि उपजती है, वह सोच को विराम देकर कहां संभव है! बुद्ध का कमंडल में कृष्णा सोबती की लेह यात्रा के अलौकिक अनुभव हैं। मैं गाड़ी से उतरकर टहलती हूं। फिर आगे बढ़कर नीचे देखती हूं। पहाड़ों से लगीं सिन्ध दरिया की छोटी बहनियां जन्सकार में मुक्त हो आराम से बह रही हैं। जाने कब से और जाने मैं भी यहां कब से हूं। एक लम्हा, एक युग। लगा, मैं अब मैं नहीं हूं- सीमान्तों के इस भूमिखंड पर कोई और ही खड़ी है। कुछ कदम पर नीचे देखती हूं, और हजारों साल पीछे जा पहुंचती हूं। हजारों-हजार वर्षों से पहले की पर्वत-श्रेणियां और उनके बीच में पहाड़ों से लगी बह रही जन्सकार-नीलाहटी छटा देती। ऊपर तिर रही हैं धूप की रुपहली लहरें और आसपास सब स्तब्ध है। मौन है। मैं नदी तल से मीलों ऊपर हूं कि पानी की तलछट आवाज यहां तक नहीं पहुंचती। मैं खड़ी-खड़ी किसी प्राचीन अन्तर्मन से अपने होने को अनुभव करती हूं। अपनी बात के अंत में कृष्णा सोबती जो कहती हैं, वह अपने मन के भीतर टहलने के असर को बखूबी बयां करती है। अपने अंतर्मन से वे अपने अस्तित्व को तलाशती हैं, वे ख़ुद को ढूंढ़ने जा निकलती हैं। 
आंतरिकता और आनंद का भंडार 
हम ख़ुशी के बहाने ढूंढते रहते हैं। कई बार अच्छा खाना खाकर ख़ुश होते हैं तो कभी ढेर सारी शॉपिंग करके। कभी मनपसंद संगीत सुनकर, तो कभी पसंदीदा फ़िल्म देखते हुए। कभी सैलून में जाकर रिलैक्स होते हैं तो कभी एक लंबी वॉक हमें ऊर्जा और प्रसन्नता से भर देती है। ये छोटे-छोटे पुरस्कार हैं जो हम गाहे-बगाहे ख़ुद को देते हैं। यात्रा भी तो एक पुरस्कार ही है। एक ऐसा पुरस्कार जिसका प्रभाव चिर-स्थाई है। हम किसी यात्रा के दौरान जो देखते हैं, महसूस करते हैं, आत्मसात करते हैं... वो हमारी जीवन भर की पूंजी हो जाती है। वो अनुभव जो हमने घर से निकलकर बटोरे वो हमारे भीतर जगह बना लेते हैं। महातीर्थ के अंतिम यात्री के लेखक बिमल डे एक यात्रा में वह चरम आनंद पा जाते हैं, जिसकी कामना मनुष्य जीवन भर करता रहता है। 
पहाड़ की दीवाल पर और भी चित्र थे। असंख्य देव-देवियों के चित्र व मूर्तियों को देखकर हम तृप्त हुए, वे हमें आशीर्वाद देते हुए लग रहे थे। बहुत दूर लासा के मठ व मंदिर दिख रहे थे, वह शहर इतनी दूर से किसी रहस्य-लोक की तरह लग रहा था। नदी के किनारे-किनारे और आगे जाकर हमें पुन: रुकना पड़ा, नदी के मध्य में वेदी बनाकर उस पर भगवान बुद्ध की विशाल मूर्ति स्थापित की गई थी। काले ग्रेनाइट पत्थर की वह शांत, सौम्य मूर्ति मानो समस्त बौद्ध दर्शन व धर्म की सजीव प्रतिमा थी। वहां आसपास दैत्याकार चट्टानें थीं जिन्हें नदी की तीव्र धारा हिला न सकी थी। लगता था कि नदी का प्रवाह और पत्थर के स्थायित्व की बीच वहां अनादि काल से संग्राम चलता आ रहा था। ऐसे स्थान में मूर्ति गढ़कर शायद कलाकार ने यह बताना चाहा है कि सदाचंचल संग्रामरत विश्व में जगतपिता महामुनि भगवान बुद्ध ही स्थिर हैं। सड़क पर लेटकर हमने इस मूर्ति को भी प्रणाम किया। आगे छोटे-छोटे चोरतेन थे, पताकाएं तो थी हीं। महातीर्थ के पथ में यात्रियों को यहां स्नान कर पूजा करनी पड़ती थी। अत: हम भी अपनी दूसरी अंजलि देने के लिए रुक गए। नीयांग नदी के प्रपात के पास हम प्रथम अंजलि दे आए थे। मुझे स्वयम् पर गर्व होने लगा था। उतनी दूर आ सका हूं, यही मेरा गर्व था। इसलिए नहीं कि पथ कठिन था, इसलिए कि ऐसी यात्रा में बहुत कम लोग आते हैं। मन में निश्चय था, तभी न मुझे यह पुरस्कार मिला। इस पुरस्कार का कोई भौतिक मूल्य भले न हो, आंतरिकता, पवित्रता और आनंद का भंडार तो मुझे मिल ही गया। 
सम्पूर्ण सृष्टि का हर इंसान एक यात्रा पर निकला हुआ है परन्तु यात्रा यात्रा में अंतर है। कोई अपनी मेहनत, सोच-विचार, दिल-दिमाग और कल्पना से इस यात्रा को चरम आनन्द से भरता चला जाता है तो कोई आलस्य, कुंठा, संकुचन और कल्पनाहीनता की वजह से इस यात्रा को असहनीय बना लेता है। सब-कुछ हम पर निर्भर करता है... एक सच्चे यात्री की तरह अनंत प्रसन्नचित बने रहें या अपनी यात्रा को बोझ बना लें! 

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के अप्रैल 2014, यात्रा विशेषांक में प्रकाशित)
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