Sunday, May 27, 2012

करुणा

(भगवत रावत नहीं रहे. भगवत जी से असल परिचय तब हुआ जब 
उनके जाने की ख़बर मिली. अनूप सेठी के ब्लॉग पर उनके हिस्से के 
भगवत के बारे में जाना, समझा. जीवट से भरे भगवत जी ने जैसे 
मृत्यु पर विजय पा ली हो. यहां भगवत जी की कविता 'करुणा' के 
साथ उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि...) 

सूरज के ताप में कहीं कोई कमी नहीं
न चन्द्रमा की ठंडक में
लेकिन हवा और पानी में ज़रूर कुछ ऐसा हुआ है
कि दुनिया में
करुणा की कमी पड़ गई है 

इतनी कम पड़ गई है करुणा कि बर्फ़ पिघल नहीं रही
नदियां बह नहीं रहीं, झरने झर नहीं रहे
चिड़ियां गा नहीं रहीं, गायें रंभा नहीं रहीं

कहीं पानी का कोई ऐसा पारदर्शी टुकड़ा नहीं
कि आदमी उसमें अपना चेहरा देख सके
और उसमें तैरते बादल के टुकड़े से उसे धो-पोंछ सके

दरअसल पानी से होकर देखो
तभी दुनिया पानीदार रहती है
उसमें पानी के गुण समा जाते हैं
वरना कोरी आंखों से कौन कितना देख पाता है

पता नहीं
आने वाले लोगों को दुनिया कैसी चाहिए
कैसी हवा कैसा पानी चाहिए
पर इतना तो तय है
कि इस समय दुनिया को
ढेर सारी करुणा चाहिए।

Tuesday, May 15, 2012

अब यथार्थ के करीब है सिनेमा-श्याम बेनेगल

फ़िल्मों की ज़बान बदल गई है। पहले लोग साहित्यिक भाषा में बात करना पसंद करते थे, अब आम भाषा में बात करते हैं। गाली-गलौज तक होने लगा है। यही भाषा पर्दे पर भी सुनाई देती है। संवाद बातचीत में बदल गए हैं। आज का सिनेमा इसी कोशिश में है कि जो ज़बान असल ज़िंदगी में इस्तेमाल हो रही है, वही पर्दे पर भी सुनाई दे। मेरे ख़याल से यह सही भी है क्योंकि इसमें बनावट कम है। दर्शकों ने भी इसे हाथो-हाथ लिया है। अब भारी-भरकम संवादों वाली फ़िल्में शायद ही चल पाएं।
सिनेमा नए निर्देशकों के हाथ में
नए फ़िल्मकारों में मौलिकता है। मल्टीप्लेक्स होने की वजह से अब फ़िल्मों को बेहतर स्क्रीनिंग स्पेस भी मिलने लगा है। एक मल्टीप्लेक्स में चार-पांच स्क्रीन और एक दिन में एक फ़िल्म के दस-बारह शो हो जाते हैं। दूसरे, कॉर्पोरेट कंपनियों के फ़िल्म निर्माण क्षेत्र में उतरने से काफी कुछ बदला है। ये कंपनियां कहानी और कलाकार पर ध्यान देती हैं, बजाय इसके कि निर्देशक को फ़िल्म बनाने का तजुर्बा कितना है। निर्देशक भले ही नया हो, उसके पास विषय अच्छा है तो उसे लॉन्च करने में परहेज़ नहीं होता। आजकल नए फ़िल्मकार पूरी तैयारी के साथ निर्देशन में उतर रहे हैं। ज़्यादातर निर्देशक पहले से प्रशिक्षित हैं, उन्होंने सिनेमा की पढ़ाई की है और यह पढ़ाई उनकी फ़िल्मों में दिखती है। 
रचनात्मक बदलाव का दौर
1970 के दशक में जब मैंने फ़िल्में बनानी शुरू कीं, तब कमर्शियल सिनेमा के तहत एक ही किस्म की फ़िल्में बनती थीं। हमने इस बात का पुरज़ोर विरोध किया भी। उस दौर की फ़िल्मों में सामाजिक संदेश नहीं होता था, सिर्फ़ मनोरंजन को ध्यान में रखकर फ़िल्में बनाई जाती थीं। अब मनोरंजन के साथ-साथ मक़सद भी है। यही वजह है कि फ़िल्में अच्छी बन पा रही हैं। अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, दिबाकर बैनर्जी और विक्रमादित्य मोटवानी जैसे फ़िल्मकार बेहतरीन काम कर रहे हैं। बंगाली, तमिल, तेलुगू और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में भी अच्छे निर्देशक हैं जो नए-नए विषयों पर काम कर रहे हैं। भारतीय फ़िल्म उद्योग में एक तरह का क्रिएटिव रिवाइवल हुआ है। संगीत के क्षेत्र में भी बदलाव आया है। अब युवा वर्ग गाने सुनता कम, उन पर थिरकता ज़्यादा है। गीत के बोल से ज़्यादा संगीत को तरजीह दी जाने लगी है। एआर रहमान जैसे काबिल संगीतकार भी इस बात पर ध्यान दे रहे हैं। मेरी फ़िल्म ज़ुबेदा में रहमान ने बिल्कुल अलग संगीत दिया था, जिसमें ठुमरी थी। लेकिन अब रहमान भी मांग के मुताबिक काम कर रहे हैं। बाकी संगीतकारों के साथ भी यही है। इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि दर्शक जो मांग रहे हैं वही उन्हें मिल भी रहा है।
अपना दायित्व समझें
फ़िल्मों में सौंदर्य की अवधारणा भी बदली है। रोमांस की बात करूं तो अब फ़िल्मों में इसे बिंदास तरीके से पेश किया जाने लगा है। कामेच्छा जैसे विषय को पर्दे पर खुलकर लाया जा रहा है, ख़ासकर स्त्री की इच्छाओं को। पहले ऐसा नहीं था, फ़िल्मों में या तो रोमांस होता था या रेप। अपने व्यक्तित्व को लेकर महिलाएं पहले से ज़्यादा मुखर हुई हैं, और यह परिवर्तन सिनेमा में भी दिख रहा है।
पहले आदर्शवादी सिनेमा का दौर था, अब यथार्थवादी सिनेमा है। लेकिन दबंगजैसी फ़िल्में भी बन रही हैं, जिनमें हिंसा है, नाच-गाना है और जो सोचने का मौक़ा नहीं देतीं। इतनी ज़्यादा हिंसा देखना कि उसके प्रति हम असंवेदी हो जाएं, यह ठीक नहीं है। सबकी अपनी-अपनी समझ है। जो है वो सही है लेकिन सीमा हमें ख़ुद तय करनी होगी।
आजकल एक्सपोज़र बहुत होने लगा है। ऐसे में निर्देशक का नैतिक दायित्व बनता है कि वो दर्शकों को फूहड़ता न परोसे। फ़िल्मकार को चाहिए कि वो स्वयं के लिए एक नीति तय करे। मैं यहां सेंसर बोर्ड की बात नहीं कर रहा हूं। सेंसर बोर्ड से पहले हमें यह तय करना है कि क्या ग़लत है और क्या सही। 
-श्याम बेनेगल से बातचीत पर आधारित 

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट में 13 मई 2012 को प्रकाशित)

Saturday, May 12, 2012

सबसे पहले मां

आपको संसार की सबसे सुखी एवं संतुष्ट महिला से मिलना हो तो क्या करेंगे...? कुछ ज़्यादा नहीं... बस अपने आस-पास नज़र दौड़ानी होगी आपको। अपनी कोख में एक अजन्मा जीव लिए मां बनने के सफ़र पर निकली किसी स्त्री या अपनी गोद में किलकारियां मारते नवजात को निहारती मां का चेहरा देख लीजिए। वहां जो दमक आपको नज़र आएगी, वो कहीं और तलाशे भी नहीं मिलेगी। वो दमक सुख की है... मातृत्व-सुख की दमक। एक जीवन की रचना करने का अलौकिक सुख! मां बनकर एक तरह से ईश्वर के समकक्ष हो जाने का सुख!
किसी भी महिला के लिए जीवन का सबसे बड़ा सुख है मातृत्व। कहा भी जाता है कि एक स्त्री जब तक मातृत्व-सुख नहीं भोग लेती, उसका स्त्रीत्व अधूरा है। यह कुदरत की वो नियामत है जो स्त्री को पूर्णता देती है। इसीलिए मां बनने की कामना हर स्त्री में होना स्वाभाविक है- चाहे वो घरेलू नारी हो या कामकाजी महिला; पत्थर तोड़ती औरत हो या कोई मशहूर हस्ती। कोई महिला चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, जीवन में एक समय ऐसा आता है जब मां बनने की उत्कट इच्छा के आगे उसका स्वयं का बस नहीं चलता और एक संतान के बिना उसे दुनिया की हर सुख-सुविधा कम लगने लगती है, हर ख़ुशी अधूरी लगने लगती है। 
बेटी के लिए फ़िल्मों को टा-टा 
मिस वर्ल्ड रह चुकी ऐश्वर्या राय जब अभिषेक बच्चन से विवाह बंधन में बंधीं तो उस वक्त वो अपने करियर के शीर्ष पर थीं। और शादी के करीब चार साल बाद जब यह पता चला कि ऐश्वर्या मां बनने वाली हैं, उस वक्त वो मधुर भंडारकर की बड़े बजट की फ़िल्म 'हीरोइन' में मेन लीड निभा रही थीं। फ़िल्म के कई अहम दृश्यों की शूटिंग भी हो चुकी थी। लेकिन ऐश्वर्या ने मां बनने के अपने फ़ैसले को प्राथमिकता दी, और फ़िल्म से अलग हो गईं। मातृत्व की राह पर चलने से पहले दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकारा- 'मैं ईश्वर के इस सबसे बड़े उपहार को पाने के लिए लालायित हूं।' आज ऐश्वर्या एक प्यारी-सी बच्ची की मां हैं और उनका अधिकतर समय बच्ची की देख-रेख में ही गुज़रता है। शायद ही कोई ऐसा समारोह हो जिसमें वो अपनी बेटी के बिना नज़र आती हों। 
बच्चों पर ज़्यादा ध्यान 
ऐश्वर्या की तरह काजोल, करिश्मा कपूर व लारा दत्ता ने भी अपने चकाचौंध भरे करियर को किनारे रखते हुए मातृत्व सुख हासिल किया। काजोल अपने बेटे युग के लिए पूरा वक्त देती हैं। युग अभी 2 साल का है, जबकि उनकी बेटी न्यासा 9 साल की हो चुकी है। काजोल ने 2003 में फ़िल्मों की मुख्यधारा से किनारा कर, बेटी के बड़ा होने के बाद कुछ फ़िल्में कीं, लेकिन अब उनका अधिकतर समय बेटे को समर्पित है। मिस यूनिवर्स रही लारा दत्ता भी काजोल की राह पर हैं। इस साल जनवरी में मां बनी लारा का पूरा ध्यान अपनी बेटी सायरा पर है, फ़िल्में उनकी प्राथमिकता सूची में फिलहाल नहीं हैं। करिश्मा भी 'डेंजरस इश्क' के ज़रिये फ़िल्मों में तब जाकर वापसी कर रही हैं, जब उनकी बेटी समायरा 7 साल की है और बेटा कियान 2 साल का हो चुका है। 
किस्से और भी
फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोज़ी की पत्नी एवं टॉप मॉडल रह चुकी कार्ला ब्रूनी का उदाहरण बताता है कि मातृत्व सुख हासिल करने के लिए एक महिला क्या-क्या जतन करती है। फरवरी 2008 में सरकोज़ी से शादी के करीब तीन साल बाद तक कार्ला मां नहीं बन सकी थीं। दिसंबर 2010 में यह युगल भारत-भ्रमण के लिए आया तो फतेहपुर सीकरी में कार्ला ने सलीम चिश्ती की दरगाह पर जाकर संतान लिए मन्नत मांगी। करीब 400 बरस पहले यहीं पर अकबर ने स्वयं चिश्ती पीर से संतान-सुख की मन्नत मांगी थी जिसके बाद उनके यहां तीन संतानें हुई थीं। कार्ला की मन्नत पूरी हुई और वे पिछले साल अक्तूबर में मां बनीं। 
ममत्व लुटा रही हैं 
किसी नवजात को बांहों में उठाने और उस पर ममता लुटाने की इच्छा कितनी उत्कट होती है, इसका उदाहरण उन शख्सियतों से मिल जाता है जिन्होंने बगैर शादी किए बच्चों को गोद लिया। अपनी व्यस्तताओं के चलते वे मां बनने का समय नहीं निकाल पा रहे हों, लेकिन मातृत्व की इच्छा को उन्होंने बच्चे गोद लेकर पूरा किया। ऐसी शख्सियतों में सबसे बड़ा उदाहरण हॉलीवुड की सुपरस्टार एंजेलिना जोली का है। जोली खुद मां बनने से पहले दो बच्चे गोद ले चुकी थीं। आज उनके पास तीन अपने बच्चे और तीन गोद लिए बच्चे हैं, और वो उन पर अपना स्नेह लुटाती नज़र आती हैं। 
बिनब्याहे मातृत्व सुख का एहसास लेने वाली महिलाओं में दो बड़ी भारतीय शख्सियतें भी हैं। अभिनेत्री रवीना टंडन ने साल 2004 में शादी करने से पहले 1995 में पूजा व छाया नाम की दो बच्चियों को गोद लिया था। हालांकि, ये दोनों बच्चियां उस वक्त 11 व 8 साल की थीं। शादी के बाद रवीना ने दो बच्चों को जन्म दिया। उनकी बड़ी बेटी रशा 7 साल की और बेटा रणबीर 5 साल का है। रवीना की तरह मिस यूनिवर्स रही अभिनेत्री सुष्मिता सेन ने भी दो बच्चियों को गोद लिया है। हालांकि सुष्मिता का नाम रणदीप हुडा और मुदस्सर अजीज़ से जुड़ा रहा है, पर बात शादीशुदा ज़िंदगी शुरू करने तक नहीं पहुंच सकी। लेकिन यह मुद्दा उन्हें मातृत्व का एहसास कराने से नहीं रोक सका। साल 2000 में उन्होंने रेनी नामक बच्ची गोद ली। दो साल पहले उन्होंने तीन महीने की एक अन्य बच्ची को गोद लिया, जिसे उन्होंने अलीसा नाम दिया है। सुष्मिता अपने इस मातृत्व से बेहद खुश हैं और अक्सर अपनी दोनों बेटियों के साथ घूमने निकलती हैं। 
मां से बढ़कर कुछ नहीं 
बेशक, मातृत्व का सुख किसी भी महिला के लिए दुनिया का सबसे खूबसूरत नज़राना है, लेकिन कामकाजी ख़ासकर कॉरपोरेट सेक्टर में काम करने वाली महिलाओं में यह धारणा घर करती जा रही है कि करियर पहले और मातृत्व की ज़िम्मेदारी बाद में। वैसे इस आधुनिक सोच के पीछे झांका जाए तो भी अमूमन एक मां की ही सोच दिखाई देती है। आज के अनिश्चितता भरे माहौल में महिलाएं ये सोचने लगी हैं कि वो पहले खुद को सेटल कर लें, अच्छी तरह कमा लें, ताकि बच्चे होने पर उनके पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी बेहतर ढंग से निभाई जा सके। अपनी भावी संतान के अच्छे भविष्य के लिए वे मातृत्व सुख को टाल रही हैं, लेकिन वंचित नहीं हो रहीं। क्योंकि आज भी मां का रिश्ता सबसे बढ़कर है। 

(अमर उजाला की पत्रिका रूपायन में 11 मई 2012 को प्रकाशित)

Wednesday, May 9, 2012

कुश्ती देखकर आए थे प्रोड्यूसर-दारा सिंह

मेरे लिए कुश्ती अहम थी। फ़िल्मों में काम करने में कोई रूचि नहीं थी, मुझे ज़बरदस्ती लाया गया था फ़िल्मों में। मुझे याद है कि एक बार सुबह-सुबह कोई आदमी मेरे घर आकर बोला कि मैं फ़िल्म-प्रोड्यूसर हूं और मुझे फ़िल्म बनानी है। मैंने कहा, ज़रूर बनाओ फ़िल्म। उसने कहा कि फ़िल्म में वो मुझे लेना चाहता है। मुझे बहुत हंसी आई क्योंकि हम फ़िल्में नहीं देखते थे, उनमें काम करना तो दूर की बात थी। हमारे समय में फ़िल्म देखना बदमाशों का काम समझा जाता था। प्रोड्यूसर ने मुझे समझाया कि फ़िल्म के डायरेक्टर ने मुझे कुश्ती लड़ते हुए कहीं देखा था और वो चाहते थे कि मैं उनकी फ़िल्म में पहलवान का रोल करूं। सुना था कि पहलवानों का बुढ़ापा अच्छा नहीं होता तो मैंने यह सोचकर फ़िल्म के लिए हां कर दी कि शायद बुढ़ापे में यही काम आए। 
ख़ुशकिस्मती से फ़िल्म हिट हो गई। फिर बहुत काम आने लगा लेकिन मेरा मक़सद कुश्ती में वर्ल्ड चैम्पियन बनने का था इसलिए मैं फ़िल्मकारों को अपने हिसाब से डेट्स देता था।
शुरू-शुरू में मेरी आवाज़ डब की जाती थी क्योंकि मेरी ज़बान में पंजाबियत थी, अब भी है। उस वक्त ऊर्दू ज़बान की अहमियत थी इसलिए मैंने उर्दू बोलना सीखा। अभिनय की बारीकियां नहीं पता थीं, वो सीखने की कोशिश की, निर्देशन भी सीखा। आज मैं जो कुछ भी हूं, कुश्ती और ऊपर वाले की मेहरबानी से हूं। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे पहलवान के रूप में पहले याद करें। 
सिनेमा के दौर की बात करें तो उस वक्त लोगों में सब्र ज़्यादा था। लोग न-नुकुर किए बिना एक-दूसरे की बात मान लेते थे। अब काम करने वाले बहुत ज़्यादा हैं, कोई किसी का इंतज़ार नहीं करता। 
हमारे ज़माने में सब-कुछ सहज था। कलाकार कम थे, फ़िल्में भी कम बनती थीं। हफ़्ते में मुश्किल से एकाध फ़िल्म आती थी, और उस फ़िल्म का सबको इंतज़ार रहता था। आजकल एक दिन में कई-कई फ़िल्में रिलीज़ होती हैं। कौन-सी फ़िल्म है, डायरेक्टर कौन है... यही याद रखना मुश्किल हो गया है। 
नई फ़िल्मों में हो-हल्ला ज़्यादा है, लाउडनेस है, लेकिन हो सकता है कि अब इस उम्र में मुझे ऐसा लगने लगा है। नौजवानों को यह महसूस नहीं होता होगा शायद। मैं मानता हूं कि आजकल फ़िल्मों में पहले से ज़्यादा मनोरंजन है पर इसके साथ-साथ कहानी भी होनी चाहिए। 
-दारा सिंह से बातचीत पर आधारित

(अमर उजाला में 8 मई 2012 को प्रकाशित)

Wednesday, May 2, 2012

यात्री

(अज्ञेय की कविता 'यात्री' से एक अंश, और 
एस एल हलदनकर की 'ग्लो ऑफ होप'.)
मंदिर से, तीर्थ से, यात्रा से
हर पग से, हर सांस से
कुछ मिलेगा, अवश्य मिलेगा 

पर उतना ही, जितने का
तू है अपने भीतर से दानी।
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