Thursday, June 30, 2011

पुनर्जन्म

मैं रास्ते भूलता हूं 
और इसीलिए नए रास्ते मिलते हैं 

मैं अपनी नींद से निकलकर 
प्रवेश करता हूं 
किसी और की नींद में 
इस तरह पुनर्जन्म होता रहता है

एक ज़िन्दगी में 
एक ही बार पैदा होना 
और एक ही बार मरना 
जिन लोगों को शोभा नहीं देता 
मैं उन्हीं में से एक हूं

फिर भी नक्शे पर जगहों को 
दिखाने की तरह ही होगा 
मेरा जि़न्दगी के बारे में कुछ कहना 

बहुत मुश्किल है बताना 
कि प्रेम कहां था किन-किन रंगों में 
और जहां नहीं था प्रेम 
उस वक्त वहां क्या था

पानी, नींद और अंधेरे के भीतर 
इतनी छायाएं हैं और 
आपस में प्राचीन दरख़्तों की जड़ों की तरह 
इतनी गुत्थम-गुत्था 
कि एक-दो को भी निकाल कर 
हवा में नहीं दिखा सकता

जिस नदी में गोता लगाता हूं 
बाहर निकलने तक 
या तो शहर बदल जाता है 
या नदी के पानी का रंग 

शाम कभी भी होने लगती है 
और उनमें से एक भी दिखाई नहीं देता 
जिनके कारण चमकता है 
अकेलेपन का पत्थर। 
-चन्द्रकांत देवताले 

Wednesday, June 15, 2011

युवा कवि के नाम ख़त

"कोई भी व्यक्ति न तो तुम्हें सिखा सकता है, न तुम्हारी मदद कर सकता है- एक ही काम है जो तुम्हें करना चाहिए- अपने में लौट जाओ। उस कारण (केन्द्र) को ढूंढो जो तुम्हें लिखने का आदेश देता है। जांचने की कोशिश करो कि क्या इस बाध्यता ने अपनी जड़ें तुम्हारे भीतर फैला ली हैं? अपने से पूछो कि यदि तुम्हें लिखने की मनाही हो जाए तो क्या तुम जीवित रहना चाहोगे? तुम प्रकृति के निकट से निकटतम जाओ और उसका इस तरह बयान करो जैसे कि वह अब तक कोरी और अछूती है। रचयिता के लिए न तो दरिद्रता सच है न दरिद्र; न ही कोई स्थान निस्संग। अगर तुम्हें जेल की पथरीली दीवारों के अन्दर रख दिया जाए जो कि एकदम बहरी होती हैं और संसार की एक फुसफुसाहट तक को भीतर नहीं आने देतीं (तब भी तुम्हें कोई फर्क़ नहीं पड़ेगा) तुम्हारे पास अपना बचपन तो होगा... स्मृतियों की एक अमोल मंजूषा? अपना चित्त उस ओर ले जाओ। दूरगामी अतीत के रसातल में डूबी अपनी भावनाओं को उभारो! तुम्हारा व्यक्तित्व क्षमतावान बनेगा। एकान्त विस्तृत होकर एक ऐसा नीड़ बनाएगा, जहां तुम मन्द रोशनी में भी रह सकोगे; जहां दूसरों का पैदा किया शोर दूरी से गुज़रता निकल जाएगा। और अगर इस अन्तर्मुखता से, अपने भीतर से संसार में डूब जाने पर कविताएं स्वत: अवतरित होती हों तो तुम्हें कभी किसी से पूछना नहीं पड़ेगा कि वह अच्छी हैं या बुरी; न ही तुम्हें पत्रिकाओं के पीछे भागते रहना पड़ेगा; क्योंकि यह तुम्हारा नैसर्गिक ख़ज़ाना होगा, तुम्हारा अपना अन्तरंग अंश, तुम्हारी अपनी ही आवाज़। एक रचना तभी अच्छी होती है जब वह किसी अनिवार्यता में से उपजती है।" 
-राइनेर मारिया रिल्के 

(युवा कवि फ्रैंज़ काप्पुस के नाम रिल्के के चर्चित ख़तों में से एक का अंश, वागर्थ से साभार)

Saturday, June 11, 2011

सार्त्र की कब्र पर

 
सैकड़ों सोई हुई कब्रों के बीच 
वह अकेली कब्र थी 
जो ज़िन्दा थी 

कोई अभी-अभी गया था 
एक ताज़ा फूलों का गुच्छा रखकर 
कल के मुरझाए हुए फूलों की 
बगल में 

एक लाल फूल के नीचे 
मैट्रो का एक पीला-सा 
टिकट भी पड़ा था 
उतना ही ताज़ा 

मेरी गाइड ने हंसते हुए कहा 
वापसी का टिकट है 
कोई पुरानी मित्र रख गई होगी 
कि नींद से उठो 
तो आ जाना

मुझे लगा 
अस्तित्व का यह भी एक रंग है 
न होने के बाद

होते यदि सार्त्र 
क्या कहते इस पर 
सोचता हुआ होटल 
लौट रहा था मैं 
-केदारनाथ सिंह 

(Picture : 'The Kiss' by Gustav Klimt)

Tuesday, June 7, 2011

चलने के लिए

 
चलने के लिए 
जब खड़े हुए 
तो जूतों की जगह 
पैरों में 
सड़कें पहन लीं 

एक नहीं 
दो नहीं 
बदल-बदलकर 

हज़ारों सड़कें 
तंग ऊबड़-खाबड़ 
बहुत चौड़ी सड़कें 

खूब चलें 
कि ज़िन्दगी के 
नज़दीक आने को 
बहुत मन होता है 

वाक़ई! ज़िन्दगी से होती हुई 
कोई सड़क ज़रूर जाती होगी 

मैं कोई ऐसा जूता बनवाना चाहता हूं 
जो मेरे पैरों में ठीक-ठाक आए। 
-विनोद कुमार शुक्ल

(Picture: 'Boots' by Van Gogh)
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