Sunday, July 31, 2011

कोंकण किनारे इक ख़ूबसूरत पड़ाव

(आपने यूं तो कई समुद्र तट देखे होंगे लेकिन मैं जिस बीच के बारे में आपको बताने जा रही हूं वो अपने आप में अनूठा है। एक साफ-सुथरा तट, जहां सफेद मखमली रेत है और पारदर्शी पानी है और लोगों का हुजूम? अरे नहीं, वो बिल्कुल नहीं है। बहुत कम लोग हैं जो इस बीच से वाकिफ़ होंगे। यही वजह है कि गंदगी और भीड़ से यह आज भी अछूता है...)

मुम्बई की आपाधापी से दूर, कहीं सुक़ून भरा वक़्त बिताने का मन हुआ तो हमेशा की तरह पहले गोवा ज़हन में आया। लेकिन तभी गोवा में जुटे रहने वाले जमघट की तस्वीर उभरी और वहां जाने का उत्साह ठंडा पड़ गया। फिर शुरू हुई इंटरनेट पर खोजबीन। मुंबई के आस-पास कोई शांत जगह तलाशते हुए तारकरली पर नज़र जा ठहरी। नाम परिचित-सा लगा। तस्वीरें देखकर याद आया कि हमारे फिल्मकार मित्र परेश कामदार ने तारकरली का ज़िक्र किया था, जो हाल में वहां से लौटे थे।
लहलहाते खेतों, ख़ूबसूरत पहाड़ियों और सुरंगों के बीच से गुज़रती हुई ट्रेन हमें कुछ देर में कुडाल स्टेशन पहुंचाने वाली थी। कुडाल महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग ज़िले में है, जो कोंकण रेलवे पर है। यहां से तारकरली क़रीब 45 किलोमीटर दूर है। वैसे, तारकरली जाने के लिए कंकवली या सिंधुदुर्ग रेलवे-स्टेशन भी नज़दीक हैं, लेकिन कम ही ट्रेनें यहां रुकती हैं। इसलिए कुडाल बेहतर विकल्प है। कुडाल स्टेशन पर ऑटो-रिक्शा बहुतायत में हैं जो 350 से 400 रुपए में आपको तारकरली ले जाएंगे।
मछुआरों की बस्ती से
तारकरली के लिए रास्ता मालवण से होकर गुज़रता है। मालवण छोटा लेकिन ख़ूबसूरत क़स्बा है। सड़कें पतली व साफ-सुथरी हैं और ट्रैफिक न के बराबर। सड़क के दोनों तरफ छोटी-छोटी दुकानें हैं और ऊपर घर, जो कोंकणी शैली में बने हैं। यहां कदम रखते ही लगता है जैसे मछुआरों की किसी बस्ती में आ गए हों; हवा पर हावी मछलियों की गंध और जाल व टोकरी लेकर यहां-वहां घूमते मछुआरे। मालवण के ज्यादातर लोग मछुआरे हैं जिनकी कमाई मछलियों की बिक्री पर निर्भर है। आय के दूसरे साधन आम और काजू हैं। इनकी कोंकण क्षेत्र में अच्छी पैदावार है। आप यहां आएं तो आम व काजू ज़रूर खरीदें। आपने अलफांसो आम का नाम सुना है न? इसका घर मालवण में ही है। आप मालवण आकर हापुस आम मांग लीजिए.. यही अलफांसो है। रस से भरा और शाही मिठास वाला आम!!
तारकरली का ख़ूबसूरत तट
मालवण से तारकरली जाने वाला रास्ता बेहद ख़ूबसूरत है। लगता है गोवा के किसी इलाक़े में घूम रहे हों। यहां रहने वाले कोंकणी भी गोवा वालों की तरह ख़ुशमिजाज़ हैं। मेहमाननवाज़ी के मामले में भी आप इन्हें अव्वल पाएंगे। तारकरली में हमने महाराष्ट्र टूरिज़्म के रिज़ॉर्ट में चेक-इन किया। इंटरनेट पर बुकिंग करवा चुके थे इसलिए वहां पहुंचकर हमें ज़्यादा औपचारिकता नहीं निभानी पड़ी। मानसून के बावजूद रिज़ॉर्ट भरा हुआ था। हमारी ख़ुशकिस्मती थी कि हमें समुद्र के सामने वाला कमरा मिल गया। रिज़ॉर्ट में घूमते हुए लगा जैसे किसी जंगल में हों। क़ुदरत के इतने क़रीब आकर सफर की सारी थकान जाती रही। चारों तरफ सुरु (चीड़ से मिलता-जुलता वृक्ष) के लंबे, अनगिनत पेड़ और उनसे छनकर गिरती सूरज की रोशनी; दूसरी तरफ़ नज़र आया चमचमाता बीच जो रिज़ॉर्ट की शान बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा था। कुछ कदम चलते ही हम समुद्र-तट पर थे। सुनसान तट पर सफेद, मुलायम रेत बिछी थी जो धूप में चमकने पर और ख़ूबसूरत लग रही थी। मानसून का मौसम न हो तो यहां पानी बिल्कुल साफ होता है। इतना पारदर्शी कि आप समुद्र के कई फुट नीचे तक देख सकते हैं। इसमें दो राय नहीं कि तारकरली हमारे देश के सबसे ख़ूबसूरत तटों में से एक है। 
रिज़ॉर्ट में बने घर कोंकणी शैली के हैं। हर कमरे के बाहर नल की सुविधा है ताकि आप बीच से लौटकर फ्रेश हो सकें। अगर थक गए हों तो हैमक यानी पेड़ों से बंधे झूले में सुस्ता सकते हैं। यहां एक और चीज़ अच्छी लगी कि कमरों में बिस्तर सीमेंट के बने हुए हैं। ज़ाहिर है, उनकी मेन्टेनेंस की ज़रूरत नहीं पड़ती होगी, लेकिन कमरों की मेन्टेनेंस में कमी लगी। खाना ठीक है पर वो आपको रूम में नहीं बल्कि रेस्तरां जाने पर ही मिलेगा। बेहतरीन लोकेशन के कारण रिज़ॉर्ट की ये कमियां बहुत ज़्यादा नहीं खलतीं। आप यहां आएं तो एमटीडीसी की हाउसबोट में ठहरें, जो बेशक़ एक अलग अनुभव होगा।
जहां मिलती है सागर से नदी
मालवण से 14 किलोमीटर दूर देवबाग है। करली नदी के मुहाने पर बसा छोटा-सा गांव जहां क़ुदरत ज़्यादा मेहरबान लगती है। चारों तरफ सिर्फ़ हरियाली है। देवबाग में बोटिंग के बिना तारकरली का ट्रिप अधूरा है। हम जिस बोट में बैठे, उसका मल्लाह आशिक नाम का शर्मीला-सा लड़का था। आशिक कॉलेज में पढ़ता है और खाली वक़्त में अपने पिता की बोट चलाता है। वो हमें सुनामी आयलैंड दिखाने वाला था। बातों-बातों में पता चला कि गाना, तैराकी और सैलानियों को घुमाना आशिक के पसंदीदा काम हैं। बोट चलाते हुए आशिक ने हमें एक मराठी गाना सुनाया जिसे सुनकर अनायास
द ग्रेट गैम्बलर फिल्म के गाने वो कश्ती वाला क्या गा रहा है…’ की याद आ गई। गाने व दिलक़श नज़ारे का लुत्फ़ उठाते हुए हम सुनामी आयलैंड पहुंचे। 2004 में आई सुनामी की वजह से यह आयलैंड उभरा था, इसीलिए स्थानीय लोग इसे सुनामी आयलैंड कहते हैं। क़ुदरत का एक और नमूना आप यहां देख सकते हैं- नदी और सागर का संगम। एक तरफ शांत बहती करली नदी तो दूसरी तरफ दहाड़ें मारता अरब सागर जैसे नदी को पूरी तरह अपने आगोश में ले लेना चाहता हो। नदी व सागर के बीच मौजूद टापू ऐसे लग रहा था मानो पानी में किसी ने रेत का बिस्तर बिछा रखा हो। आशिक ने बताया कि दीपावली के समय यहां उत्सव का माहौल होता है। उस दौरान टापू पर अस्थाई रेस्तरां खड़े किए जाते हैं और लोग दूर-दूर से यहां आते हैं। हमारा लौटने का बिल्कुल मूड नहीं था लेकिन तेज़ बारिश के आसार लगे और हमें उल्टे पांव भागना पड़ा। लौटते हुए एक दिलचस्प वाक़या हुआ। हमें पानी के अंदर कुछहलचल होती दिखाई दी। ध्यान से देखने पर एक काला-सा जीव नज़र आया। इस बीच नदी किनारे कुछ गांव वाले इकट्ठा हो गए थे, जो उसी तरफ इशारा करते हुए शोर मचा रहे थे। आशिक ने हमें बताया कि एक कछुआ भटककर नदी में आ गया है। यह बहुत बड़ा समुद्री कछुआ था। समुद्री कछुए खारे पानी में रहने के आदी होते हैं। नदी में आकर वो कछुआ शायद घायल हो गया था और ठीक से तैर नहीं पा रहा था। जाल की मदद से हमने उस कछुए को बाहर निकाला और बोट में डालकर वापस समुद्र में छोड़ आए। थोड़ी देर पहले संघर्ष करता एक कछुआ, अब लहरों में शान से हिचकोले खाता हुआ ओझल हो चुका था। उसे घर लौटता देख हमें बेहद ख़ुशी हुई।
एक रॉक गार्डन यहां भी 
देवबाग से हम मालवण के रॉक गार्डन पहुंचे। चंडीगढ़ के रॉक गार्डन की तरह यहां कलाकृतियां तो नहीं दिखती, लेकिन आराम से बैठकर समन्दर की लहरों का मज़ा लिया जा सकता है। समन्दर के बिल्कुल किनारे, चट्टान पर बने इस गार्डन का रख-रखाव अच्छा है। रॉक गार्डन से कुछ ही दूर श्री ब्रह्मानंद स्वामी की समाधि है। समाधि एक प्राचीन गुफा के अंदर बनी हुई है। बाहर एक तालाब है और आस-पास का इलाक़ा काफी शांति व सुक़ून भरा है। 
याद रहेगा मालवणी खाने का स्वाद
तारकरली लौटते समय हमारी मुलाक़ात अजीत भोगवेकर से हुई। अजीत पेशे से बस ड्राइवर हैं और तारकरली में छोटा-सा होटल भी चलाते हैं। उनके होटल का नाम गणपत प्रसाद है। शाकाहारी हो या मांसाहारी, गणपत में आपको हर तरह का भोजन मिलेगा। घर जैसा साफ-सुथरा और लज़ीज़ खाना- आप बेशक़ खाना चाहेंगे.. है न! वैसे, मालवण का ज़िक्र खाने के बिना अधूरा है। मालवणी मसालों से तैयार भोजन का स्वाद देर तक रहता है। ख़ास बात यह कि मालवणी खाना नारियल के बिना पूरा नहीं होता; तक़रीबन हर सब्ज़ी व दाल में इसका इस्तेमाल होता है। नारियल के अलावा मछली व चावल भी खाने में शामिल रहते हैं। अगर आप सी-फूड के शौकीन हैं तो यहां से निराश होकर नहीं लौटेंगे। सी-फूड में मछली, झींगे और केकड़े की कई किस्में यहां मिल जाएंगी। हमारे दिन की शुरुआत घावण-चटनी से हुई । घावण एक तरह की रोटी है जो चावलों से बनती है। इसे आमतौर पर नारियल और हरी मिर्च की चटनी के साथ परोसा जाता है। घावण-चटनी हमें काफी स्वाद लगी। इसके बाद कुछ खाने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई और तारकरली के बीच पर हम दिनभर बेफिक्री से सुस्ताते रहे।
कब शाम ढली और कब सूरज समन्दर में डूबा, पता ही नहीं चला। रिज़ॉर्ट से दो मिनट की दूरी पर गणपत होटल है। वहां से फोन पर डिनर का ऑर्डर देकर हम होटल की तरफ बढ़ गए। कुछ देर में ही भोजन तैयार मिला। मटकी दाल, नारियल-आलू-मेथी की भाजी, चावल, गरमा-गरम रोटियां और सोल कढ़ी से सजी मालवणी थाली.. देखते ही मुंह में पानी आ गया। सोल कढ़ी कोकम (महाराष्ट्र का मीठा फल) व नारियल के दूध से मिलकर बनती है, जो पाचक होती है। 
अरब सागर में इठलाता सिंधुदुर्ग
सिंधुदुर्ग यानि समुद्र पर बना किला। बड़ी शिलाओं व कई हज़ार किलो लोहे की छड़ों के सहारे पानी में खड़ी एक बेमिसाल इमारत, जिसे मराठा शासक शिवाजी ने सन् 1664 में बनवाया था। अरब सागर में 48 एकड़ में फैला यह किला देखने लायक है। किले के भीतर जाकर उसकी शान-ओ-शौक़त तो हम नहीं देख पाए लेकिन उससे जुड़े कई दिलचस्प किस्से सुनने को मिले। स्थानीय लोगों ने बताया कि किले की देख-रेख करने वाले किलेदारों की पीढ़ी के कुछ परिवार आज भी किले में रहते हैं। कठिन रहन-सहन और सुख-सुविधाओं के अभाव के बावजूद वो लोग वहीं रहना पसंद करते हैं। दो मुस्लिम परिवार भी हैं जिनकी ख़ास ड्यूटी है- शाम को प्रार्थना के समय नगाड़े बजाना। कहते हैं कि शिवाजी ने ख़ुद उनके पूर्वजों को यह काम सौंपा था जो बदस्तूर जारी है। किले में शिवाजी का मंदिर है जो उनके पुत्र राजाराम ने बनवाया था। शिवाजी का देश में यह इकलौता मंदिर है। मान्यता है कि किले में एक सुरंग है जो कई किलोमीटर लंबी है। समुद्र के अंदर से होती हुई यह सुरंग पास के गांव में निकलती है। 
समुद्र किनारे खड़े हम दूर से ही किले को एकटक निहारते रहे। अंदर जाने का कोई साधन नहीं था क्योंकि मानसून के दौरान किले में जाने की पाबंदी है। बोटवालों को सख़्त निर्देश है कि वहां किसी को न लेकर जाएं। सिंधुदुर्ग को अपलक देखते और इससे जुड़े रहस्यों के बारे में सोचते-सोचते, फिर से मालवण आने का निश्चय कर हम मुंबई लौट चले। 
जाने से पहले...
1. तारकरली जाने के लिए सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन कुडाल है जो कोंकण रेलवे का अहम स्टेशन है। स्टेशन से तारकरली जाने के लिए बसें तो हैं ही, ऑटो भी मिलते हैं। 
2. मालवण के लिए हर आधे घंटे में बस है। मालवण पहुंचकर तारकरली के लिए ऑटो करें तो सस्ता पड़ेगा। तारकरली यहां से सिर्फ़ 7 किलोमीटर दूर है। 
3. हवाई-मार्ग से जाना हो तो गोवा का डेबोलिम एयरपोर्ट सबसे नज़दीक है। 
4. स्नॉर्क्लिंग, स्कूबा डाइविंग और स्विमिंग का आनन्द लेना चाहते हैं तो मानसून में तारकरली आने से बचें। इस दौरान सिंधुदुर्ग किला और डॉल्फिन प्वायंट भी बंद रहते हैं। 
5. समुद्र-तटों पर लाइफ-गार्ड की व्यवस्था नहीं है इसलिए पानी के खेलों के दौरान सावधानी बरतें। 
6. गणेश चतुर्थी, रामनवमी और दीपावली पर मालवण की छटा देखते ही बनती है। बेहतर होगा यदि इन त्योहारों के समय जाने का प्रोग्राम बनाएं। 
7. तारकरली बीच पर किसी रिज़ॉर्ट में ठहरें ताकि अपने प्रवास का पूरा लुत्फ़ ले सकें। 
8. महाराष्ट्र में दो हाउसबोट हैं जो तारकरली में ही हैं। हाउसबोट में ठहरने के लिए महाराष्ट्र टूरिज़्म से संपर्क कर सकते हैं। इंटरनेट पर बुकिंग करा लें तो बेहतर है। 

(दैनिक जागरण के 'यात्रा' परिशिष्ट में 31 जुलाई 2011 को प्रकाशित)

Friday, July 22, 2011

लोर्का की एक अधूरी कविता

मैं सोना चाहता हूं 
मैं सो जाना चाहता हूं

ज़रा देर के लिए 
पल भर, एक मिनट 
शायद एक पूरी शताब्दी 

लेकिन 
लोग यह जान लें 
कि मैं मरा नहीं हूं 

कि मेरे होठों पर चांद की अमरता है 
कि मैं पछुआ हवाओं का अजीज़ दोस्त हूं 
कि
कि मैं अपने ही आंसुओं की 
घनी छांह हूं। 
-फेदेरिको गार्सिया लोर्का

Friday, July 8, 2011

दिल की नज़र से देखें दुनिया

"संसार की प्रत्येक वस्तु ख़ूबसूरत है।" कन्फ्यूशियस के इस वचन से बहुत से लोग सहमत होंगे। लेकिन ज़रूरी नहीं कि इससे एकमत होने वालों में आप भी शामिल हों। सबकी अपनी सोच है, अपना नज़रिया है। आपमें से किसी को सुबह ख़ूबसूरत लगती होगी तो किसी को ढलती शाम। किसी को रौनक़ अच्छी लगती होगी तो किसी को एकान्त। किसी को मांस-मछली पसन्द है तो कोई शाकाहारी होने में अच्छा महसूस करता है। कोई जीवनभर किताबों में खोया रहता है तो किसी के लिए जीवन की किताब ही सर्वोपरि है। 
बस इक नज़र चाहिए
ब्यूटी लाइज़ इन द आईज़ ऑफ बिहोल्डर। ख़ूबसूरती देखने वाले की नज़र में होती है। कहते हैं लैला ख़ूबसूरत नहीं थी। रंग से काली थी, आकर्षक नहीं थी। लेकिन मजनूं की नज़र में लैला दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत औरत थी। अब सोचने वाली बात है कि मजनूं को आख़िर लैला में ऐसा क्या नज़र आया कि वो उसके प्यार में पड़ गया। चेहरा-मोहरा न सही, लैला का दिल यकीनन ख़ूबसूरत होगा। वो मन से सुन्दर होगी। तभी तो मजनूं जीवन भर लैला-लैला करता रहा। लैला-मजनूं से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा है। मजनूं बचपन से ही लैला का दीवाना था। एक रोज़ मजनूं ने तख़्ती पर लैला लिख दिया। इस पर मौलवी साहब ने मजनूं से कहा कि यह क्या लिख रहा है, ख़ुदा का नाम लिख। मजनूं ने पूछा कि ख़ुदा कौन है। मौलवी का उत्तर था.. लाइला यानि अल्लाह। मजनूं बोला, मैं भी तो वही लिख रहा हूं, कहां कोई फर्क़ है। आप लाइला कहते हैं, मैं लाइला (लैला) कहता हूं। मेरा महबूब यानी लैला ही मेरा ख़ुदा है। इस पर ख़ुदा ने फरिश्तों के हाथ पैग़ाम भेजा कि मजनूं को बुलाया जाए। मजनूं उन फरिश्तों से बोला कि अगर ख़ुदा मुझे देखना चाहता है तो मैं भला उसके पास क्यों जाऊं। उसे ज़रूरत है तो लैला बनकर वो मेरे पास आ जाए। 
...उनके दिल तक जाना था
प्रेम-प्रसंग की बात चली है तो मिस्र की मल्लिका क्लियोपेट्रा का ज़िक्र लाज़िमी है। हज़ारों दिलों पर राज करने वाली क्लियोपेट्रा का कद छोटा था। वो दिखने में भी ख़ूबसूरत नहीं थी, ऐसा इतिहासकार कहते हैं। पिता की मृत्यु के बाद क्लियोपेट्रा ने अपने भाई के साथ मिलकर मिस्र का राज संभाला। यही वक़्त था जब रोम का राजा जूलियस सीज़र क्लियोपेट्रा पर रीझ गया। जूलियस की मौत के बाद रोम का सेनापति मार्क अंतोनी क्लियोपेट्रा के जीवन में आया। क्लियोपेट्रा मेधावी थी और अच्छी वाणी की मल्लिका भी। क्लियोपेट्रा का व्यवहार कौशल ही होगा जिसके दम पर उसने छोटी उम्र में ही बड़े-बड़े लोगों को अपना मुरीद बना लिया। यह अंदरूनी ख़ूबसूरती है, जिसका जादू एक बार चढ़े तो ताउम्र नहीं उतरता। बाहरी सौन्दर्य मूमेन्टरी है। आज है तो कल नहीं। कोई कितना ही सुन्दर क्यों न हो, वक़्त का तकाज़ा एक रोज़ बूढ़ा कर देता है। जिल्द पर झुर्रियां पड़ जाती हैं। लेकिन मन ख़ूबसूरत है तो उम्र बढ़ने के साथ यह ख़ूबसूरती और निखरती है। मन निर्मल है तो आप हमेशा सुन्दर दिखते हैं। भीतरी सौन्दर्य की ख़ासियत ही है कि वो समूचे व्यक्तित्व में झलकता है। लेकिन मन कुटिल हो तो कालिख़ चेहरे पर नज़र आती है।
बाहरी ख़ूबसूरती की उम्र कम होती है। सच्चा प्रेम करने वाले यह जानते हैं। शायर हस्तीमल हस्ती ने भी ख़ूब कहा है, "जिस्म की बात नहीं थी, उनके दिल तक जाना था.. लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है।" असल प्रेम तो दिल से दिल का है। और किसी के दिल तक पहुंचना आसान कहां! यह मशक्कत भरा काम है। 
ब्यूटी इज़ स्किन डीप
मधुबाला या महारानी गायत्री देवी किसे ख़ूबसूरत नहीं लगती होंगी। इसमें दो राय नहीं कि वो ख़ूबसूरत थीं। लेकिन अच्छे नैन-नक़्श और बेदाग़ त्वचा का होना ही मुक़म्मल ख़ूबसूरती नहीं। यक़ीकन, मधुबाला और गायत्री देवी से ज़्यादा सुन्दर पत्थर तोड़ती वो औरत है जो पसीने से लथपथ है। जो अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए रात-दिन मेहनत करती है। जो आजीवन संघर्ष करती है लेकिन हार नहीं मानती। मदर टेरेसा भी ख़ूबसूरत हैं, जिन्होंने पूरी ज़िंदगी दूसरों की सेवा में होम कर दी। कितना जीवट रहा होगा उस महिला में। मदर टेरेसा का झुर्रियों से भरा चेहरा जब भी आंखों के सामने आता है तो मिस वर्ल्ड या मिस यूनिवर्स की ख़ूबसूरती फीकी लगती है। सुन्दर लगते हैं कृशकाय-से महात्मा गांधी भी, जिन्होंने कभी सत्याग्रह आंदोलन छेड़ा था। ख़ूबसूरत लगते हैं अन्ना हज़ारे जो पांच दिन तक अनशन पर बैठे रहे, इसलिए कि उन्हें भ्रष्टाचार गवारा नहीं था। अब आप ही सोचिए कि ऐसी ख़ूबसूरत हस्तियों के सामने किसी ग्रीक गॉड की क्या बिसात होगी। 
जो प्यार करेगा, प्यारा कहलाएगा 
खलील जिब्रान कहते हैं कि "हर वो हृदय जो प्यार करता है, ख़ूबसूरत है।" बात सोलह आने सच है। प्यार से भरा दिल ख़ुशियों का पुलिंदा है। दिल ख़ुश हो तो सारा जहां ख़ुशनुमा लगता है। पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' पढ़ी होगी आपने। कहानी का नायक लहना सिंह जंग में लड़ते हुए मरणासन्न है। कहते हैं मृत्यु से पहले स्मृति साफ हो जाती है। लहना के सामने भी बरसों पुरानी यादें जीवंत हो उठी हैं। फ्लैशबैक में वो सारी बातें याद आ रही हैं जो उस छोटी सी लड़की से हुई थीं। तेरी कुड़माई हो गई?”.. धत्.. देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू.. इस लड़की से लहना प्यार करने लगा था। लहना अब जिस पलटन में सिपाही है उसका सूबेदार, बचपन की उसी सखी का पति है। सूबेदारनी लहना से अपने पति व पुत्र की प्राणरक्षा की गुहार लगाती है तो वो उसकी कही बात का मोल अपनी जान देकर रखता है। आख़िरी सांस लेते हुए भी वो मुस्करा रहा है। उसका दिल प्रेम व त्याग से भरा है। कितना ख़ूबसूरत किरदार है लहना। 
सृजन में है सुंदरता
लियोनार्दो द विंची की मोनालिसा को कौन नहीं जानता। जिसकी ख़ूबसूरत मुस्कान ने उसे विश्व-विख्यात कर दिया। मोनालिसा को जब भी देखती हूं, चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है। यही सृजन की ख़ूबसूरती है। मेरे लिए सफ़ेद दाढ़ी वाले मिर्ज़ा ग़ालिब ख़ूबसूरत हैं जिनकी उम्दा शायरी दिल तक पहुंचती है। आबिदा परवीन ख़ूबसूरत हैं जो बेहतरीन गायकी से रूह को सुक़ून पहुंचाती हैं। बाबा रामदेव ख़ूबसूरत हैं, जिन्होंने योग-विद्या से लोगों को स्वस्थ रहना सिखाया है। रैम्प पर इठलाते लम्बे-लम्बे, सिक्स पैक वाले मॉडलों से ज़्यादा ख़ूबसूरत लगता है नाटे क़द का दुबला-सा चार्ली चैपलिन, जिसने बचपन में बेशक बुरा वक़्त देखा लेकिन बड़े होकर दुनियाभर को हंसाया। चार्ली ने एक बार कहा था, "मैं बरसात में भीगते हुए रोता हूं ताकि कोई मेरे आंसू न देख सके।" अपनी हंसी-ठिठोली से लोगों के दिलों पर राज करने वाला वो आदमी कितना अकेला होगा, कितनी करुणा छिपी होगी उसके भीतर और कितना अच्छा इनसान होगा वो। 
हर शै में ख़ूबसूरती 
फूलों में अवसाद हरने का गुण है। रंग-बिरंगे फूल देख मन प्रफुल्लित हो जाता है, रोम-रोम खिल उठता है। यही फूलों का नूर है। फूल ही क्यों, प्रकृति के कण-कण में ख़ूबसूरती है। पेड़-पौधे, नदियां, झरने व पहाड़ सुन्दर हैं। बारिश और बर्फ़ का गिरना सुन्दर है। चांद की घटती-बढ़ती कलाएं अद्वितीय हैं। सूरज का उगना-डूबना अलौकिक है। समन्दर ख़ूबसूरत है, उसकी लहरों का आना-जाना ख़ूबसूरत है। कितना अच्छा लगता है इनके साथ वक़्त बिताना, इन्हें निहारते रहना। सारी उदासी छूमंतर हो जाती है, नई ऊर्जा भर जाती है। क़ुदरत में बड़ी क़ुव्वत, बड़ी ख़ूबसूरती है।  
तिनका-तिनका जोड़ रही चिड़िया को घोंसला बनाते हुए देखना मनोहर है। कबतूरों को दाने खिलाना संतोष देता है। ज़रूरतमंद की मदद करने से ख़ुशी मिलती है। दृष्टिहीन को सड़क पार करवाने में सुक़ून मिलता है। वैसे ही, जैसे किसी भूखे जानवर को रोटी और प्यासे पंछी को पानी देने पर मिलता है। ख़ूबसूरती इसमें है। उसमें नहीं कि आप कैसे कपड़े पहनते हैं या कैसे बाल बनाते हैं। कौन-सी कार में घूमते हैं और कौन-सा परफ्यूम लगाते हैं। असल ख़ूबसूरती बाहर नहीं बल्कि भीतर, हमारे मन में है। ख़ूबसूरती सादगी में है, एक मुस्कराहट में है। निष्कपट व निर्मल होने में है, जैसे कोई बच्चा होता है। इसीलिए बच्चों का सौन्दर्य अप्रतिम है। इसीलिए बच्चे सबके प्रिय होते हैं और वो हमेशा ख़ूबसूरत लगते हैं। इसीलिए हमारा दिल भी बच्चा हो जाना चाहता है। अमेरीकी कवि वॉल्ट व्हिटमैन कहते हैं कि ज़िन्दा रहना चमत्कार है। यह सोच तर्कसंगत है। हम जीवित हैं, स्वस्थ हैं तो इससे बड़ी कोई नियामत नहीं। इससे ज़्यादा ख़ूबसूरत कुछ नहीं। जीवन निसंदेह विलक्षण है। ज़िंदग़ी बेशक़ ख़ूबसूरत है। मैं मानती हूं कि ज़िंदग़ी को बच्चा बनकर जिया जाए तो यह और ख़ूबसूरत हो जाती है। और अर्थपूर्ण लगती है। आप क्या कहते हैं?  
-माधवी 

(दैनिक भास्कर की पत्रिका 'अहा ज़िंदग़ी' के जुलाई 2011 अंक में प्रकाशित)

Thursday, July 7, 2011

सुखमय जीवन

(पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की 128वीं जयंती पर उनकी कहानी 'सुखमय जीवन'... जो साल 1911 में 'भारत मित्र' में शाया हुई थी।) 

(1) 
परीक्षा देने के पीछे और उसका फल निकलने के पहले दिन किस बुरी तरह बीतते हैं, यह उन्हीं को मालूम है, जिन्हें उन्हें गिनने का अनुभव हुआ है। सुबह उठते ही परीक्षा से आज तक कितने दिन गए, यह गिनते हैं और फिर 'कहावती आठ हफ्ते' में कितने दिन घटते हैं, यह गिनते हैं। कभी-कभी उन आठ हफ्तों पर कितने दिन चढ़ गए, यह भी गिनना पड़ता है। खाने बैठे हैं और डाकिये के पैर की आहट आई- कलेजा मुंह को आया। मुहल्ले में तार का चपरासी आया कि हाथ-पांव कांपने लगे। न जागते चैन, न सोते-सुपने में भी यह दिखता है कि परीक्षक साहब आठ हफ्ते की लंबी छुरी लेकर छाती पर बैठे हुए हैं।
मेरा भी बुरा हाल था। एल-एल.बी. का फल अबकी और भी देर से निकलने को था- न मालूम क्या हो गया था, या तो कोई परीक्षक मर गया था, या उसको प्लेग हो गया था। उसके पर्चे किसी दूसरे के पास भेजे जाने को थे। बार-बार यही सोचता था कि प्रश्नपत्रों की जांच किए पीछे सारे परीक्षकों और रजिस्ट्रारों को भले ही प्लेग हो जाए, अभी तो दो हफ्ते माफ करें। नहीं तो परीक्षा के पहले ही उन सबको प्लेग क्यों न हो गया? रात-भर नींद नहीं आई थी, सिर घूम रहा था, अखबार पढ़ने बैठा कि देखता क्या हूं कि लिनोटाइप की मशीन ने चार-पांच पंक्तियां उल्‍टी छाप दी हैं। बस, अब नहीं सहा गया- सोचा कि घर से निकल चलो; बाहर ही कुछ जी बहलेगा। लोहे का घोड़ा उठाया कि चल दिए। 
तीन-चार मील जाने पर शांति मिली। हरे-हरे खेतों की हवा, कहीं पर चिड़ियों की चहचह और कहीं कुओं पर खेतों को सींचते हुए किसानों का सुरीला गाना, कहीं देवदार के पत्तों की सोंधी बास और कहीं उनमें हवा का सीं-सीं करके बजना- सबने मेरे चित्त को परीक्षा के भूत की सवारी से हटा लिया। बाइसिकिल भी गजब की चीज है। न दाना मांगे, न पानी, चलाए जाइए जहां तक पैरों में दम हो। सड़क में कोई था ही नहीं, कहीं-कहीं किसानों के लड़के और गांव के कुत्ते पीछे लग जाते थे। मैंने बाइसिकिल को और भी हवा कर दिया। सोचा कि मेरे घर सितारपुर से पंद्रह मील पर कालानगर है- वहां की मलाई की बरफ अच्छी होती है और वहीं मेरे मित्र रहते हैं, वे कुछ सनकी हैं। कहते हैं कि जिसे पहले देख लेंगे, उससे विवाह करेंगे। उनसे कोई विवाह की चर्चा करता है तो अपने सिद्धांत के मंडन का व्याख्यान देने लग जाते हैं। चलो, उन्हीं से सिर खाली करें।
खयाल-पर-खयाल बंधने लगा। उनके विवाह का इतिहास याद आया। उनके पिता कहते थे कि सेठ गनेशलाल की एकलौती बेटी से अबकी छुट्टियों में तुम्हारा ब्याह कर देंगे। पड़ोसी कहते थे कि सेठजी की लड़की कानी और मोटी है और आठ ही वर्ष की है। पिता कहते थे कि लोग जलकर ऐसी बातें उड़ाते हैं; और लड़की वैसी हो भी तो क्या, सेठजी के कोई लड़का है नहीं; बीस-तीस हजार का गहना देंगे। मित्र महाशय मेरे साथ-साथ डिबेटिंग क्लबों में बाल-विवाह और माता-पिता की जबरदस्ती पर इतने व्याख्यान झाड़ चुके थे कि अब मारे लज्जा के साथियों में मुंह नहीं दिखाते थे। क्योंकि पिताजी के सामने चीं करने की हिम्मत नहीं थी। व्यक्तिगत विचार से साधारण विचार उठने लगे। हिन्दू-समाज ही इतना सड़ा हुआ है कि हमारे उच्च विचार कुछ चल ही नहीं सकते। अकेला चला भाड़ नहीं फोड़ सकता। हमारे सद्विचार एक तरह के पशु हैं, जिनकी बलि माता-पिता की जिद और हठ की वेदी पर चढ़ाई जाती है। ...भारत का उद्धार तब तक नहीं हो सकता-।
 
फिस्‌स्‌स्‌! एकदम अर्श से फर्श पर गिर पड़े। बाइसिकिल की फूंक निकल गई। कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। पंप साथ नहीं था और नीचे देखा तो जान पड़ा कि गांव के लड़कों ने सड़क पर ही कांटों की बाड़ लगाई है। उन्हें भी दो गालियां दीं पर उससे तो पंक्चर सुधरा नहीं। कहां तो भारत का उद्धार हो रहा था और कहां अब कालानगर तक इस चरखे को खैंच ले जाने की आपत्ति से कोई निस्तार नहीं दिखता। पास के मील के पत्थर पर देखा कि कालानगर यहां से सात मील है। दूसरे पत्थर के आते-आते मैं बेदम हो लिया था। धूप जेठ की, और कंकरीली सड़क, जिसमें लदी हुई बैलगाड़ियों की मार से छह-छह इंच शक्कर की-सी बारीक पिसी हुई सफेद मिट्टी बिछी हुई। काले पेटेंट लेदर के जूतों पर एक-एक इंच सफेद पॉलिश चढ़ गई। लाल मुंह को पोंछते-पोंछते रूमाल भीग गया और मेरा सारा आकार सभ्य विद्वान का-सा नहीं, वरन्‌ सड़क कूटने वाले मजदूर का-सा हो गया। सवारियों के हम लोग इतने गुलाम हो गए कि दो-तीन मील चलते ही छठी का दूध याद आने लगता है! 

(2)  
'बाबूजी, क्या बाइसिकिल में पंक्चर हो गया है?'
एक तो चश्मा, उस पर रेत की तह जमी हुई, उस पर ललाट से टपकती हुई पसीने की बूंदें, गर्मी की चिढ़ और काली रात की-सी लम्बी सड़क- मैंने देखा ही नहीं था कि दोनों ओर क्या है। यह शब्द सुनते ही सिर उठाया, तो देखा कि एक सोलह-सत्रह वर्ष की कन्या सड़क के किनारे खड़ी है।
 
''हां, हवा निकल गई है और पंक्चर भी हो गया है। पंप मेरे पास है नहीं। कालानगर कुछ बहुत दूर तो है ही नहीं- अभी जा पहुंचता हूं।''
अंत का वाक्य मैंने सिर्फ ऐंठ दिखाने के लिए कहा था। मेरा जी जानता था कि पांच मील, पांच सौ मील के-से दिख रहे थे।
 
"इस सूरत से तो आप कालानगर क्या कलकत्ते पहुंच जाएंगे। जरा भीतर चलिए, कुछ जल पीजिए। आपकी जीभ सूखकर तालू से चिपट गई होगी। चाचाजी की बाइसिकिल में पंप है और हमारा नौकर गोविंद पंक्चर सुधारना भी जानता है।''
"नहीं, नहीं- " 
"नहीं, नहीं, क्या, हां, हां!" 
यों कहकर बालिका ने मेरे हाथ से बाइसिकिल छीन ली और सड़क के एक तरफ हो ली। मैं भी उसके पीछे चला। देखा कि एक कंटीली बाड़ से घिरा बगीचा है, जिसमें एक बंगला है। यहीं पर कोई 'चाचाजी' रहते होंगे, परंतु यह बालिका कैसी- 
मैंने चश्मा रूमाल से पोंछा और उसका मुंह देखा। पारसी चाल की एक गुलाबी साड़ी के नीचे चिकने काले बालों से घिरा हुआ उसका मुखमंडल दमकता था और उसकी आंखें मेरी ओर कुछ दया, कुछ हंसी और कुछ विस्मय से देख रही थीं। बस, पाठक! ऐसी आंखें मैंने कभी नहीं देखी थीं। मानो वे मेरे कलेजे को घोलकर पी गईं। एक अद्भुत कोमल, शांत ज्योति उनमें से निकल रही थी। कभी एक तीर में मारा जाना सुना है? कभी एक निगाह में हृदय बेचना पड़ा है? कभी तारामैत्रक और चक्षुमैत्री नाम आए हैं? मैंने एक सेकंड में सोचा और निश्चय कर लिया कि ऐसी सुंदर आंखें त्रिलोकी में न होंगी और यदि किसी स्त्री की आंखों को प्रेम-बुद्धि से कभी देखूंगा तो इन्हीं को।
"आप सितारपुर से आए हैं। आपका नाम क्या है?" 
"मैं जयदेवशरण वर्मा हूं। आपके चाचाजी-" 
"ओ-हो, बाबू जयदेवशरण वर्मा, बी.ए.; जिन्होंने 'सुखमय जीवन' लिखा है! मेरा बड़ा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए! मैंने आपकी पुस्तक पढ़ी है और चाचाजी तो उसकी प्रशंसा बिना किए एक दिन भी नहीं जाने देते। वे आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न होंगे; बिना भोजन किए आपको न जाने देंगे और आपके ग्रंथ के पढ़ने से हमारा परिवार-सुख कितना बढ़ा है, इस पर कम से कम दो घंटे तक व्याख्यान देंगे।" 
स्त्री के सामने उसके नैहर की बड़ाई कर दें और लेखक के सामने उसके ग्रंथ की। यह प्रिय बनने का अमोघ मंत्र है। जिस साल मैंने बी.ए. पास किया था उस साल कुछ दिन लिखने की धुन उठी थी। लॉ कॉलेज के फर्स्ट ईयर में सेक्शन और कोड की परवाह न करके एक 'सुखमय जीवन' नामक पोथी लिख चुका था। समालोचकों ने आड़े हाथों लिया था और वर्ष-भर में सत्रह प्रतियां बिकी थीं। आज मेरी कदर हुई कि कोई उसका सराहने वाला तो मिला। 
इतने में हम लोग बरामदे में पहुंचे, जहां पर कनटोप पहने, पंजाबी ढंग की दाढ़ी रखे एक अधेड़ महाशय कुर्सी पर बैठे पुस्तक पढ़ रहे थे। बालिक बोली-
"चाचाजी, आज आपके बाबू जयदेवशरण वर्मा बी.ए. को साथ लाई हूं। इनकी बाइसिकिल बेकाम हो गई है। अपने प्रिय ग्रंथकार से मिलाने के लिए कमला को धन्यवाद मत दीजिए, दीजिए उनके पंप भूल आने को!" 
वृद्ध ने जल्दी ही चश्मा उतारा और दोनों हाथ बढ़ाकर मुझसे मिलने के लिए पैर बढ़ाए।
"कमला, जरा अपनी माता को तो बुला ला। आइए बाबू साहब, आइए। मुझे आपसे मिलने की बड़ी उत्कंठा थी। मैं गुलाबराय वर्मा हूं। पहले कमसेरियट में हेड क्लर्क था। अब पेंशन लेकर इस एकांत स्थान में रहता हूं। दो गौ रखता हूं और कमला तथा उसके भाई प्रबोध को पढ़ाता हूं। मैं ब्रह्मसमाजी हूं; मेरे यहां परदा नहीं है। कमला ने हिंदी मिडिल पास कर लिया है। हमारा समय शास्त्रों के पढ़ने में बीतता है। मेरी धर्मपत्नी भोजन बनाती और कपड़े सी लेती है; मैं उपनिषद् और यागवासिष्ठ का तर्जुमा पढ़ा करता हूं। स्कूल में लड़के बिगड़ जाते हैं, प्रबोद को इसीलिए घर पर पढ़ाता हूं।" 
इतना परिचय दे चुकने पर वृद्ध ने श्वास लिया। मुझे इतना ज्ञान हुआ कि कमला के पिता मेरी जाति के ही हैं। जो कुछ उन्होंने कहा था, उसकी ओर मेरे कान नहीं थे- मेरे कान उधर थे, जिधर से माता को लेकर कमला आ रही थी। 
"आपका ग्रंथ बड़ा ही अपूर्व है। दांपत्य सुख चाहने वालों के लिए लाख रुपए से भी अनमोल है। धन्य है आपको! स्त्री को कैसे प्रसन्न रखना, घर में कलह कैसे नहीं होने देना, बाल-बच्चों को क्योंकर सच्चरित्र बनाना, इन सब बातों में आपके उपदेश पर चलने वाला पृथ्वी पर ही स्वर्ग-सुख भोग सकता है। पहले कमला की मां और मेरी कभी-कभी खटपट हो जाया करती थी। उसके खयाल अभी पुराने ढंग के हैं। पर जब से मैं रोज भोजन के पीछे उसे आध घंटे तक आपकी पुस्तक का पाठ सुनाने लगा हूं, तब से हमारा जीवन हिण्डोले की तरह झूलते-झलते बीतता है।" 
मुझे कमला की मां पर दया आई, जिसको वो कूड़ा-करकट रोज़ सुनना पड़ता होगा। मैंने सोचा कि हिंदी के पत्र-संपादकों में यह बूढ़ा क्यों न हुआ? यदि होता तो आज मेरी तूती बोलने लगती। 
"आपको गृहस्थ-जीवन का कितना अनुभव है! आप सब कुछ जानते हैं! भला, इतना ज्ञान कभी पुस्तकों में मिलता है? कमला की मां कहा करती थी कि आप केवल किताबों के कीड़े हैं, सुनी-सुनाई बातें लिख रहे हैं। मैं बार-बार यह कहता था कि इस पुस्तक के लिखने वाले को परिवार का खूब अनुभव है। धन्य है आपकी सहधर्मिणी! आपका और उसका जीवन कितने सुख से बीतता होगा! और जिन बालकों के आप पिता हैं, वे कैसे बड़भागी हैं कि सदा आपकी शिक्षा में रहते हैं; आप जैसे पिता का उदाहरण देखते हैं।" 
कहावत है कि वेश्या अपनी अवस्था कम दिखाना चाहती है और साधु अपनी अवस्था अधिक दिखाना चाहता है। भला, ग्रंथकार का पद इन दोनों में किसके समान है? मेरे मन में आई कि कह दूं कि अभी मेरा पचीसवां वर्ष चल रहा है, कहां का अनुभव और कहां का परिवार? फिर सोचा, ऐसा कहने से ही मैं वृद्ध महाशय की निगाहों से उतर जाऊंगा और कमला की मां सच्ची हो जाएगी कि बिना अनुभव के छोकरे ने गृहस्थ के कर्तव्य-धर्मों पर पुस्तक लिख मारी है। यह सोचकर मैं मुस्करा दिया और ऐसी तरह मुंह बनाने लगा कि वृद्ध समझा कि अवश्य मैं संसार-समुद्र में गोते मारकर नहाया हुआ हूं। 

(3) 
वृद्ध ने उस दिन मुझे जाने नहीं दिया। कमला की माता ने प्रीति के साथ भोजन कराया और कमला ने पान लाकर दिया। न मुझे अब कालानगर की मलाई की बरफ याद रही और न सनकी मित्र की। चाचाजी की बातों में फी सैकड़े सत्तर तो मेरी पुस्तक और उसके रामबाण लाभों की प्रशंसा थी, जिसको सुनते-सुनते मेरे कान दुख गए। फी सैकड़ा पचीस वह मेरी प्रशंसा और मेरे पति-जीवन और पितृ-जीवन की महिमा गा रहे थे। काम की बात बीसवां हिस्सा थी, जिससे मालूम पड़ा कि अभी कमला का विवाह नहीं हुआ, उसे अपनी फूलों की क्यारी को संभालने का बड़ा प्रेम है, वह 'सखी' के नाम से 'महिला-मनोहर' मासिक पत्र में लेख भी दिया करती है। 
सायंकाल को मैं बगीचे में टहलने निकला। देखता क्या हूं कि एक कोने में केले के झाड़ों के नीचे मोतिये और रजनीगंधा की क्यारियां हैं और कमला उनमें पानी दे रही है। मैंने सोचा कि यही समय है। आज मरना है या जीना है। उसको देखते ही मेरे हृदय में प्रेम की अग्नि जल उठी थी और दिन-भर वहां रहने से वह धधकने लग गई थी। दो ही पहर में मैं बालक से युवा हो गया था। अंगरेजी महाकाव्यों में, प्रेममय उपन्यासों में और कोर्स के संस्कृत नाटकों में जहां-जहां प्रेमिका-प्रेमी का वार्तालाप पढ़ा था, वहां-वहां का दृश्य स्मरण करके वहां-वहां के वाक्यों को घोख रहा था, पर यह निश्चय नहीं कर सका कि इतने थोड़े परिचय पर भी बात कैसे करनी चाहिए। अंत को अंगरेजी पढ़ने वाली धृष्टता ने आर्यकुमार की शालीनता पर विजय पाई और चपलता कहिए, बेसमझी कहिए, ढीठपन कहिए, पागलपन कहिए, मैंने दौड़कर कमला का हाथ पकड़ लिया। उसके चेहरे पर सुर्खी दौड़ गई और डोलची उसके हाथ से गिर पड़ी। मैं उसके कान में कहने लगा- 
"आपसे एक बात कहनी है।" 
"क्या? यहां कहने की कौन-सी बात है?" 
"जब से आपको देखा है तब से-" 
"बस, चुप करो। ऐसी धृष्टता!" 
अब मेरा वचन-प्रवाह उमड़ चुका था। मैं स्वयं नहीं जानता था कि मैं क्या कर रहा हूं, पर लगा बकने- "प्यारी कमला, तुम मुझे प्राणों से बढ़कर हो; प्यारी कमला, मुझे अपना भ्रमर बनने दो। मेरा जीवन तुम्हारे बिना मरुस्थल है, उसमें मंदाकिनी बनकर बहो। मेरे जलते हुए हृदय में अमृत की पट्टी बन जाओ। जब से तुम्हें देखा है, मेरा मन मेरे अधीन नहीं है। मैं तब तक शांति न पाऊंगा जब तक तुम-" 
कमला जोर से चीख उठी और बोली- "आपको ऐसी बातें कहते लज्जा नहीं आती? धिक्कार है आपकी शिक्षा को और धिक्कार है आपकी विद्या को! इसी को आपने सभ्यता मान रखा है कि अपरिचित कुमारी से एकांत ढूंढकर ऐसा घृणित प्रस्ताव करें। तुम्हारा यह साहस कैसे हो गया? तुमने मुझे क्या समझ रखा है? 'सुखमय जीवन' का लेखक और ऐसा घृणित चरित्र! चुल्लू-भर पानी में डूब मरो। अपना काला मुंह मत दिखाओ। अभी चाचाजी को बुलाती हूं।" 
मैं सुनता जा रहा था। क्या मैं स्वप्न देख रहा हूं? यह अग्नि-वर्षा मेरे किस अपराध पर? तो भी मैंने हाथ नहीं छोड़ा। कहने लगा,"सुनो कमला, यदि तुम्हारी कृपा हो जाए, तो सुखमय जीवन-" 
"देखा तेरा सुखमय जीवन! आस्तीन के सांप! पापात्मा!! मैंने साहित्य-सेवी जानकर और ऐसे उच्च विचारों का लेखक समझकर तुझे अपने घर में घुसने दिया और तेरा विश्वास और सत्कार किया था। *प्रच्छन्नपापिन्! *वकदाम्भिक! *बिड़ालव्रतिक! मैंने तेरी सारी बातें सुन ली हैं।" चाचाजी आकर लाल-लाल आंखें दिखाते हुए, क्रोध से कांपते हुए कहने लगे- "शैतान, तुझे यहां आकर मायाजाल फैलाने का स्थान मिला। ओफ! मैं तेरी पुस्तक से छला गया। पवित्र जीवन की प्रशंसा में फार्मों के फार्म काले करने वाले, तेरा ऐसा हृदय! कपटी! विष के घड़े-" 
उनका धाराप्रवाह बंद ही नहीं होता था, पर कमला की गालियां और थीं और चाचाजी की और। मैंने भी गुस्से में आकर कहा, "बाबू साहब, जबान संभालकर बोलिए। आपने अपनी कन्या को शिक्षा दी है और सभ्यता सिखाई है, मैंने भी शिक्षा पाई है और कुछ सभ्यता सीखी है। आप धर्म-सुधारक हैं। यदि मैं उसके गुण और रूपों पर आसक्त हो गया, तो अपना पवित्र प्रणय उसे क्यों न बताऊं? पुराने ढर्रे के पिता दुराग्रही होते सुने गए हैं। आपने क्यों सुधार का नाम लजाया है?" 
"तुम सुधार का नाम मत लो। तुम तो पापी हो। 'सुखमय जीवन' के कर्ता होकर-" 
"भाड़ में जाए 'सुखमय जीवन'! उसी के मारे नाकों दम है!! 'सुखमय जीवन' के कर्ता ने क्या शपथ खा ली है कि जनम-भर क्वांरा ही रहे? क्या उसके प्रेमभाव नहीं हो सकता? क्या उसमें हृदय नहीं होता?" 
"हें, जनम-भर क्वांरा?" 
"हें काहे की? मैं तो आपकी पुत्री से निवेदन कर रहा था कि जैसे उसने मेरा हृदय हर लिया है वैसे यदि अपना हाथ मुझे दे तो उसके साथ 'सुखमय जीवन' के उन आदर्शों को प्रत्यक्ष करूं, जो अभी तक मेरी कल्पना में हैं। पीछे हम दोनों आपकी आज्ञा मांगने आते। आप तो पहले ही दुर्वासा बन गए।" 
"तो आपका विवाह नहीं हुआ? आपकी पुस्तक से तो जान पड़ता है कि आप कई वर्षों के गृहस्थ-जीवन का अनुभव रखते हैं। तो कमला की माता ही सच्ची थीं।" 
इतनी बातें हुई थीं, पर न मालूम क्यों मैंने कमला का हाथ नहीं छोड़ा था। इतनी गर्मी के साथ शास्त्रार्थ हो चुका था, परंतु वह हाथ जो क्रोध के कारण लाल हो गया था, मेरे हाथ में ही पकड़ा हुआ था। अब उसमें सात्विक भाव का पसीना आ गया था और कमला ने लज्जा से आंखें नीची कर ली थीं। विवाह के पीछे कमला कहा करती है कि न मालूम विधाता की किस कला से उस समय मैंने तुम्हें झटककर अपना हाथ नहीं खैंच लिया। मैंने कमला के दोनों हाथ खैंचकर अपने हाथों के सम्पुट में ले लिए (और उसने उन्हें हटाया नहीं!) और इस तरह चारों हाथ जोड़कर वृद्ध से कहा- 
"चाचाजी, उस निकम्मी पोथी का नाम मत लीजिए। बेशक, कमला की मां सच्ची हैं। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक पहचान कर सकती हैं कि कौन अनुभव की बातें कर रहा है और कौन गप्पे हांक रहा है। आपकी आज्ञा हो तो कमला और मैं दोनों सच्चे सुखमय जीवन का आरंभ करें। दस वर्ष पीछे मैं जो पोथी लिखूंगा, उसमें किताबी बातें न होंगी, केवल अनुभव की बातें होंगी।" 
वृद्ध ने जेब से रूमाल निकालकर चश्मा पोंछा और अपनी आंखें पोंछीं। आंखों पर कमला की माता की विजय होने के क्षोभ के आंसू थे, या घर बैठी पुत्री को योग्य पात्र मिलने के हर्ष के आंसू, राम जाने। 
उन्होंने मुस्कराकर कमला से कहा, "दोनों मेरे पीछे-पीछे चले आओ। कमला! तेरी मां ही सच कहती थी।" वृद्ध बंगले की ओर चलने लगे। उनकी पीठ फिरते ही कमला ने आंखें मूंदकर मेरे कंधे पर सिर रख दिया। 

*जिसके पाप ढके हुए हों
*बगुले की तरह छल करने वाला
*बिल्ली की तरह व्रत रखने वाला

Monday, July 4, 2011

उधेड़बुन

छत पर कोने में
टंगी मकड़ी 
देखती रही मुझे 
और मैं उसे 

किसी उधेड़बुन में 
रहे देर तक दोनों 

अन्तर बस इतना 
वो बुन रही थी जाल 
और मैं जीवन। 
-माधवी
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