(आपने यूं तो कई समुद्र तट देखे होंगे लेकिन मैं जिस बीच के बारे में आपको बताने जा रही हूं वो अपने आप में अनूठा है। एक साफ-सुथरा तट, जहां सफेद मखमली रेत है और पारदर्शी पानी है… और लोगों का हुजूम? अरे नहीं, वो बिल्कुल नहीं है। बहुत कम लोग हैं जो इस बीच से वाकिफ़ होंगे। यही वजह है कि गंदगी और भीड़ से यह आज भी अछूता है...)
मुम्बई की आपाधापी से दूर, कहीं सुक़ून भरा वक़्त बिताने का मन हुआ तो हमेशा की तरह पहले गोवा ज़हन में आया। लेकिन तभी गोवा में जुटे रहने वाले जमघट की तस्वीर उभरी और वहां जाने का उत्साह ठंडा पड़ गया। फिर शुरू हुई इंटरनेट पर खोजबीन। मुंबई के आस-पास कोई शांत जगह तलाशते हुए तारकरली पर नज़र जा ठहरी। नाम परिचित-सा लगा। तस्वीरें देखकर याद आया कि हमारे फिल्मकार मित्र परेश कामदार ने तारकरली का ज़िक्र किया था, जो हाल में वहां से लौटे थे।
लहलहाते खेतों, ख़ूबसूरत पहाड़ियों और सुरंगों के बीच से गुज़रती हुई ट्रेन हमें कुछ देर में कुडाल स्टेशन पहुंचाने वाली थी। कुडाल महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग ज़िले में है, जो कोंकण रेलवे पर है। यहां से तारकरली क़रीब 45 किलोमीटर दूर है। वैसे, तारकरली जाने के लिए कंकवली या सिंधुदुर्ग रेलवे-स्टेशन भी नज़दीक हैं, लेकिन कम ही ट्रेनें यहां रुकती हैं। इसलिए कुडाल बेहतर विकल्प है। कुडाल स्टेशन पर ऑटो-रिक्शा बहुतायत में हैं जो 350 से 400 रुपए में आपको तारकरली ले जाएंगे।
लहलहाते खेतों, ख़ूबसूरत पहाड़ियों और सुरंगों के बीच से गुज़रती हुई ट्रेन हमें कुछ देर में कुडाल स्टेशन पहुंचाने वाली थी। कुडाल महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग ज़िले में है, जो कोंकण रेलवे पर है। यहां से तारकरली क़रीब 45 किलोमीटर दूर है। वैसे, तारकरली जाने के लिए कंकवली या सिंधुदुर्ग रेलवे-स्टेशन भी नज़दीक हैं, लेकिन कम ही ट्रेनें यहां रुकती हैं। इसलिए कुडाल बेहतर विकल्प है। कुडाल स्टेशन पर ऑटो-रिक्शा बहुतायत में हैं जो 350 से 400 रुपए में आपको तारकरली ले जाएंगे।
मछुआरों की बस्ती से
तारकरली के लिए रास्ता मालवण से होकर गुज़रता है। मालवण छोटा लेकिन ख़ूबसूरत क़स्बा है। सड़कें पतली व साफ-सुथरी हैं और ट्रैफिक न के बराबर। सड़क के दोनों तरफ छोटी-छोटी दुकानें हैं और ऊपर घर, जो कोंकणी शैली में बने हैं। यहां कदम रखते ही लगता है जैसे मछुआरों की किसी बस्ती में आ गए हों; हवा पर हावी मछलियों की गंध और जाल व टोकरी लेकर यहां-वहां घूमते मछुआरे। मालवण के ज्यादातर लोग मछुआरे हैं जिनकी कमाई मछलियों की बिक्री पर निर्भर है। आय के दूसरे साधन आम और काजू हैं। इनकी कोंकण क्षेत्र में अच्छी पैदावार है। आप यहां आएं तो आम व काजू ज़रूर खरीदें। आपने अलफांसो आम का नाम सुना है न? इसका घर मालवण में ही है। आप मालवण आकर हापुस आम मांग लीजिए.. यही अलफांसो है। रस से भरा और शाही मिठास वाला आम!!
तारकरली का ख़ूबसूरत तट
मालवण से तारकरली जाने वाला रास्ता बेहद ख़ूबसूरत है। लगता है गोवा के किसी इलाक़े में घूम रहे हों। यहां रहने वाले कोंकणी भी गोवा वालों की तरह ख़ुशमिजाज़ हैं। मेहमाननवाज़ी के मामले में भी आप इन्हें अव्वल पाएंगे। तारकरली में हमने महाराष्ट्र टूरिज़्म के रिज़ॉर्ट में चेक-इन किया। इंटरनेट पर बुकिंग करवा चुके थे इसलिए वहां पहुंचकर हमें ज़्यादा औपचारिकता नहीं निभानी पड़ी। मानसून के बावजूद रिज़ॉर्ट भरा हुआ था। हमारी ख़ुशकिस्मती थी कि हमें समुद्र के सामने वाला कमरा मिल गया। रिज़ॉर्ट में घूमते हुए लगा जैसे किसी जंगल में हों। क़ुदरत के इतने क़रीब आकर सफर की सारी थकान जाती रही। चारों तरफ सुरु (चीड़ से मिलता-जुलता वृक्ष) के लंबे, अनगिनत पेड़ और उनसे छनकर गिरती सूरज की रोशनी; दूसरी तरफ़ नज़र आया चमचमाता बीच जो रिज़ॉर्ट की शान बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा था। कुछ कदम चलते ही हम समुद्र-तट पर थे। सुनसान तट पर सफेद, मुलायम रेत बिछी थी जो धूप में चमकने पर और ख़ूबसूरत लग रही थी। मानसून का मौसम न हो तो यहां पानी बिल्कुल साफ होता है। इतना पारदर्शी कि आप समुद्र के कई फुट नीचे तक देख सकते हैं। इसमें दो राय नहीं कि तारकरली हमारे देश के सबसे ख़ूबसूरत तटों में से एक है।
रिज़ॉर्ट में बने घर कोंकणी शैली के हैं। हर कमरे के बाहर नल की सुविधा है ताकि आप बीच से लौटकर फ्रेश हो सकें। अगर थक गए हों तो हैमक यानी पेड़ों से बंधे झूले में सुस्ता सकते हैं। यहां एक और चीज़ अच्छी लगी कि कमरों में बिस्तर सीमेंट के बने हुए हैं। ज़ाहिर है, उनकी मेन्टेनेंस की ज़रूरत नहीं पड़ती होगी, लेकिन कमरों की मेन्टेनेंस में कमी लगी। खाना ठीक है पर वो आपको रूम में नहीं बल्कि रेस्तरां जाने पर ही मिलेगा। बेहतरीन लोकेशन के कारण रिज़ॉर्ट की ये कमियां बहुत ज़्यादा नहीं खलतीं। आप यहां आएं तो एमटीडीसी की हाउसबोट में ठहरें, जो बेशक़ एक अलग अनुभव होगा।
जहां मिलती है सागर से नदी
मालवण से 14 किलोमीटर दूर देवबाग है। करली नदी के मुहाने पर बसा छोटा-सा गांव जहां क़ुदरत ज़्यादा मेहरबान लगती है। चारों तरफ सिर्फ़ हरियाली है। देवबाग में बोटिंग के बिना तारकरली का ट्रिप अधूरा है। हम जिस बोट में बैठे, उसका मल्लाह आशिक नाम का शर्मीला-सा लड़का था। आशिक कॉलेज में पढ़ता है और खाली वक़्त में अपने पिता की बोट चलाता है। वो हमें सुनामी आयलैंड दिखाने वाला था। बातों-बातों में पता चला कि गाना, तैराकी और सैलानियों को घुमाना आशिक के पसंदीदा काम हैं। बोट चलाते हुए आशिक ने हमें एक मराठी गाना सुनाया जिसे सुनकर अनायास ‘द ग्रेट गैम्बलर’ फिल्म के गाने ‘वो कश्ती वाला क्या गा रहा है…’ की याद आ गई। गाने व दिलक़श नज़ारे का लुत्फ़ उठाते हुए हम सुनामी आयलैंड पहुंचे। 2004 में आई सुनामी की वजह से यह आयलैंड उभरा था, इसीलिए स्थानीय लोग इसे सुनामी आयलैंड कहते हैं। क़ुदरत का एक और नमूना आप यहां देख सकते हैं- नदी और सागर का संगम। एक तरफ शांत बहती करली नदी तो दूसरी तरफ दहाड़ें मारता अरब सागर… जैसे नदी को पूरी तरह अपने आगोश में ले लेना चाहता हो। नदी व सागर के बीच मौजूद टापू ऐसे लग रहा था मानो पानी में किसी ने रेत का बिस्तर बिछा रखा हो। आशिक ने बताया कि दीपावली के समय यहां उत्सव का माहौल होता है। उस दौरान टापू पर अस्थाई रेस्तरां खड़े किए जाते हैं और लोग दूर-दूर से यहां आते हैं। हमारा लौटने का बिल्कुल मूड नहीं था लेकिन तेज़ बारिश के आसार लगे और हमें उल्टे पांव भागना पड़ा। लौटते हुए एक दिलचस्प वाक़या हुआ। हमें पानी के अंदर कुछहलचल होती दिखाई दी। ध्यान से देखने पर एक काला-सा जीव नज़र आया। इस बीच नदी किनारे कुछ गांव वाले इकट्ठा हो गए थे, जो उसी तरफ इशारा करते हुए शोर मचा रहे थे। आशिक ने हमें बताया कि एक कछुआ भटककर नदी में आ गया है। यह बहुत बड़ा समुद्री कछुआ था। समुद्री कछुए खारे पानी में रहने के आदी होते हैं। नदी में आकर वो कछुआ शायद घायल हो गया था और ठीक से तैर नहीं पा रहा था। जाल की मदद से हमने उस कछुए को बाहर निकाला और बोट में डालकर वापस समुद्र में छोड़ आए। थोड़ी देर पहले संघर्ष करता एक कछुआ, अब लहरों में शान से हिचकोले खाता हुआ ओझल हो चुका था। उसे घर लौटता देख हमें बेहद ख़ुशी हुई।
मालवण से 14 किलोमीटर दूर देवबाग है। करली नदी के मुहाने पर बसा छोटा-सा गांव जहां क़ुदरत ज़्यादा मेहरबान लगती है। चारों तरफ सिर्फ़ हरियाली है। देवबाग में बोटिंग के बिना तारकरली का ट्रिप अधूरा है। हम जिस बोट में बैठे, उसका मल्लाह आशिक नाम का शर्मीला-सा लड़का था। आशिक कॉलेज में पढ़ता है और खाली वक़्त में अपने पिता की बोट चलाता है। वो हमें सुनामी आयलैंड दिखाने वाला था। बातों-बातों में पता चला कि गाना, तैराकी और सैलानियों को घुमाना आशिक के पसंदीदा काम हैं। बोट चलाते हुए आशिक ने हमें एक मराठी गाना सुनाया जिसे सुनकर अनायास ‘द ग्रेट गैम्बलर’ फिल्म के गाने ‘वो कश्ती वाला क्या गा रहा है…’ की याद आ गई। गाने व दिलक़श नज़ारे का लुत्फ़ उठाते हुए हम सुनामी आयलैंड पहुंचे। 2004 में आई सुनामी की वजह से यह आयलैंड उभरा था, इसीलिए स्थानीय लोग इसे सुनामी आयलैंड कहते हैं। क़ुदरत का एक और नमूना आप यहां देख सकते हैं- नदी और सागर का संगम। एक तरफ शांत बहती करली नदी तो दूसरी तरफ दहाड़ें मारता अरब सागर… जैसे नदी को पूरी तरह अपने आगोश में ले लेना चाहता हो। नदी व सागर के बीच मौजूद टापू ऐसे लग रहा था मानो पानी में किसी ने रेत का बिस्तर बिछा रखा हो। आशिक ने बताया कि दीपावली के समय यहां उत्सव का माहौल होता है। उस दौरान टापू पर अस्थाई रेस्तरां खड़े किए जाते हैं और लोग दूर-दूर से यहां आते हैं। हमारा लौटने का बिल्कुल मूड नहीं था लेकिन तेज़ बारिश के आसार लगे और हमें उल्टे पांव भागना पड़ा। लौटते हुए एक दिलचस्प वाक़या हुआ। हमें पानी के अंदर कुछहलचल होती दिखाई दी। ध्यान से देखने पर एक काला-सा जीव नज़र आया। इस बीच नदी किनारे कुछ गांव वाले इकट्ठा हो गए थे, जो उसी तरफ इशारा करते हुए शोर मचा रहे थे। आशिक ने हमें बताया कि एक कछुआ भटककर नदी में आ गया है। यह बहुत बड़ा समुद्री कछुआ था। समुद्री कछुए खारे पानी में रहने के आदी होते हैं। नदी में आकर वो कछुआ शायद घायल हो गया था और ठीक से तैर नहीं पा रहा था। जाल की मदद से हमने उस कछुए को बाहर निकाला और बोट में डालकर वापस समुद्र में छोड़ आए। थोड़ी देर पहले संघर्ष करता एक कछुआ, अब लहरों में शान से हिचकोले खाता हुआ ओझल हो चुका था। उसे घर लौटता देख हमें बेहद ख़ुशी हुई।
एक रॉक गार्डन यहां भी
देवबाग से हम मालवण के रॉक गार्डन पहुंचे। चंडीगढ़ के रॉक गार्डन की तरह यहां कलाकृतियां तो नहीं दिखती, लेकिन आराम से बैठकर समन्दर की लहरों का मज़ा लिया जा सकता है। समन्दर के बिल्कुल किनारे, चट्टान पर बने इस गार्डन का रख-रखाव अच्छा है। रॉक गार्डन से कुछ ही दूर श्री ब्रह्मानंद स्वामी की समाधि है। समाधि एक प्राचीन गुफा के अंदर बनी हुई है। बाहर एक तालाब है और आस-पास का इलाक़ा काफी शांति व सुक़ून भरा है।
देवबाग से हम मालवण के रॉक गार्डन पहुंचे। चंडीगढ़ के रॉक गार्डन की तरह यहां कलाकृतियां तो नहीं दिखती, लेकिन आराम से बैठकर समन्दर की लहरों का मज़ा लिया जा सकता है। समन्दर के बिल्कुल किनारे, चट्टान पर बने इस गार्डन का रख-रखाव अच्छा है। रॉक गार्डन से कुछ ही दूर श्री ब्रह्मानंद स्वामी की समाधि है। समाधि एक प्राचीन गुफा के अंदर बनी हुई है। बाहर एक तालाब है और आस-पास का इलाक़ा काफी शांति व सुक़ून भरा है।
याद रहेगा मालवणी खाने का स्वाद
तारकरली लौटते समय हमारी मुलाक़ात अजीत भोगवेकर से हुई। अजीत पेशे से बस ड्राइवर हैं और तारकरली में छोटा-सा होटल भी चलाते हैं। उनके होटल का नाम गणपत प्रसाद है। शाकाहारी हो या मांसाहारी, गणपत में आपको हर तरह का भोजन मिलेगा। घर जैसा साफ-सुथरा और लज़ीज़ खाना- आप बेशक़ खाना चाहेंगे.. है न! वैसे, मालवण का ज़िक्र खाने के बिना अधूरा है। मालवणी मसालों से तैयार भोजन का स्वाद देर तक रहता है। ख़ास बात यह कि मालवणी खाना नारियल के बिना पूरा नहीं होता; तक़रीबन हर सब्ज़ी व दाल में इसका इस्तेमाल होता है। नारियल के अलावा मछली व चावल भी खाने में शामिल रहते हैं। अगर आप सी-फूड के शौकीन हैं तो यहां से निराश होकर नहीं लौटेंगे। सी-फूड में मछली, झींगे और केकड़े की कई किस्में यहां मिल जाएंगी। हमारे दिन की शुरुआत घावण-चटनी से हुई । घावण एक तरह की रोटी है जो चावलों से बनती है। इसे आमतौर पर नारियल और हरी मिर्च की चटनी के साथ परोसा जाता है। घावण-चटनी हमें काफी स्वाद लगी। इसके बाद कुछ खाने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई और तारकरली के बीच पर हम दिनभर बेफिक्री से सुस्ताते रहे।
कब शाम ढली और कब सूरज समन्दर में डूबा, पता ही नहीं चला। रिज़ॉर्ट से दो मिनट की दूरी पर गणपत होटल है। वहां से फोन पर डिनर का ऑर्डर देकर हम होटल की तरफ बढ़ गए। कुछ देर में ही भोजन तैयार मिला। मटकी दाल, नारियल-आलू-मेथी की भाजी, चावल, गरमा-गरम रोटियां और सोल कढ़ी से सजी मालवणी थाली.. देखते ही मुंह में पानी आ गया। सोल कढ़ी कोकम (महाराष्ट्र का मीठा फल) व नारियल के दूध से मिलकर बनती है, जो पाचक होती है। अरब सागर में इठलाता सिंधुदुर्ग
सिंधुदुर्ग यानि समुद्र पर बना किला। बड़ी शिलाओं व कई हज़ार किलो लोहे की छड़ों के सहारे पानी में खड़ी एक बेमिसाल इमारत, जिसे मराठा शासक शिवाजी ने सन् 1664 में बनवाया था। अरब सागर में 48 एकड़ में फैला यह किला देखने लायक है। किले के भीतर जाकर उसकी शान-ओ-शौक़त तो हम नहीं देख पाए लेकिन उससे जुड़े कई दिलचस्प किस्से सुनने को मिले। स्थानीय लोगों ने बताया कि किले की देख-रेख करने वाले ‘किलेदारों’ की पीढ़ी के कुछ परिवार आज भी किले में रहते हैं। कठिन रहन-सहन और सुख-सुविधाओं के अभाव के बावजूद वो लोग वहीं रहना पसंद करते हैं। दो मुस्लिम परिवार भी हैं जिनकी ख़ास ड्यूटी है- शाम को प्रार्थना के समय नगाड़े बजाना। कहते हैं कि शिवाजी ने ख़ुद उनके पूर्वजों को यह काम सौंपा था जो बदस्तूर जारी है। किले में शिवाजी का मंदिर है जो उनके पुत्र राजाराम ने बनवाया था। शिवाजी का देश में यह इकलौता मंदिर है। मान्यता है कि किले में एक सुरंग है जो कई किलोमीटर लंबी है। समुद्र के अंदर से होती हुई यह सुरंग पास के गांव में निकलती है।
समुद्र किनारे खड़े हम दूर से ही किले को एकटक निहारते रहे। अंदर जाने का कोई साधन नहीं था क्योंकि मानसून के दौरान किले में जाने की पाबंदी है। बोटवालों को सख़्त निर्देश है कि वहां किसी को न लेकर जाएं। सिंधुदुर्ग को अपलक देखते और इससे जुड़े रहस्यों के बारे में सोचते-सोचते, फिर से मालवण आने का निश्चय कर हम मुंबई लौट चले।
2. मालवण के लिए हर आधे घंटे में बस है। मालवण पहुंचकर तारकरली के लिए ऑटो करें तो सस्ता पड़ेगा। तारकरली यहां से सिर्फ़ 7 किलोमीटर दूर है।
3. हवाई-मार्ग से जाना हो तो गोवा का डेबोलिम एयरपोर्ट सबसे नज़दीक है।
4. स्नॉर्क्लिंग, स्कूबा डाइविंग और स्विमिंग का आनन्द लेना चाहते हैं तो मानसून में तारकरली आने से बचें। इस दौरान सिंधुदुर्ग किला और डॉल्फिन प्वायंट भी बंद रहते हैं।
5. समुद्र-तटों पर लाइफ-गार्ड की व्यवस्था नहीं है इसलिए पानी के खेलों के दौरान सावधानी बरतें।
6. गणेश चतुर्थी, रामनवमी और दीपावली पर मालवण की छटा देखते ही बनती है। बेहतर होगा यदि इन त्योहारों के समय जाने का प्रोग्राम बनाएं।
7. तारकरली बीच पर किसी रिज़ॉर्ट में ठहरें ताकि अपने प्रवास का पूरा लुत्फ़ ले सकें।
(दैनिक जागरण के 'यात्रा' परिशिष्ट में 31 जुलाई 2011 को प्रकाशित)
जाने से पहले...
1. तारकरली जाने के लिए सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन कुडाल है जो कोंकण रेलवे का अहम स्टेशन है। स्टेशन से तारकरली जाने के लिए बसें तो हैं ही, ऑटो भी मिलते हैं। 2. मालवण के लिए हर आधे घंटे में बस है। मालवण पहुंचकर तारकरली के लिए ऑटो करें तो सस्ता पड़ेगा। तारकरली यहां से सिर्फ़ 7 किलोमीटर दूर है।
3. हवाई-मार्ग से जाना हो तो गोवा का डेबोलिम एयरपोर्ट सबसे नज़दीक है।
4. स्नॉर्क्लिंग, स्कूबा डाइविंग और स्विमिंग का आनन्द लेना चाहते हैं तो मानसून में तारकरली आने से बचें। इस दौरान सिंधुदुर्ग किला और डॉल्फिन प्वायंट भी बंद रहते हैं।
5. समुद्र-तटों पर लाइफ-गार्ड की व्यवस्था नहीं है इसलिए पानी के खेलों के दौरान सावधानी बरतें।
6. गणेश चतुर्थी, रामनवमी और दीपावली पर मालवण की छटा देखते ही बनती है। बेहतर होगा यदि इन त्योहारों के समय जाने का प्रोग्राम बनाएं।
7. तारकरली बीच पर किसी रिज़ॉर्ट में ठहरें ताकि अपने प्रवास का पूरा लुत्फ़ ले सकें।
8. महाराष्ट्र में दो हाउसबोट हैं जो तारकरली में ही हैं। हाउसबोट में ठहरने के लिए महाराष्ट्र टूरिज़्म से संपर्क कर सकते हैं। इंटरनेट पर बुकिंग करा लें तो बेहतर है।
(दैनिक जागरण के 'यात्रा' परिशिष्ट में 31 जुलाई 2011 को प्रकाशित)
इसके बारे में तो आज के दैनिक जागरण में यात्रा संस्मरण में भी लिखा है।
ReplyDeleteअब तो लग रहा है, कि यहाँ पर भी जाना ही होगा।
ReplyDeleteआपने बहुत अच्छी जगह की अच्छी तरह से सैर कराई बहुत-बहुत धन्यवाद...आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 01-08-2011 को चर्चामंच http://charchamanch.blogspot.com/ पर सोमवासरीय चर्चा में भी होगी। सूचनार्थ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर यात्रा प्रसंग!
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा जानकारी मै इसे बुकमार्क कर रहा हूं आप को कोटी कोटी शन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही रोचक संस्मरण पूरी जानकारी देता हुआ ...
ReplyDeleteयहाँ तो जाना ही पड़ेगा ...!!
आभार आपका ..इस जानकारी के लिए.....!!
सुंदर प्रसंग...
ReplyDeleteअभी तक तो मैं आपको खासकर दैनिक जागरण के यात्रा पेज पर ही पढता था। आज आपका ब्लॉग भी मिल गया। बडी खुशी हुई।
ReplyDeleteकल 02/08/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
माफ कीजयेगा पिछले कमेन्ट मे तारीख गलत हो गयी थी
रत्नागिरि, गणपति पुळे तक गया,पर यहाँ नहीं पहुंचा।
ReplyDeleteफ़िर कभी टूर बनाते हैं।
अच्छी पोस्ट, आभार
बहुत ही सुन्दर पोस्ट बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें |
ReplyDeleteवाह बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteमाधवी के लिखे यात्रा प्रसंग पढ़ना वहाँ हो आने के बराबर है.
ReplyDeleteसुन्दर यात्रा करवाई ! :-)
बहुत कुशलता से लिखा है यात्रा संस्मरण ... ऐसा लगा की हर दृश्य सामने उपस्थित हो गया है ..
ReplyDeleteआपने तो पूरी यात्रा करा दी……………अद्भुत संस्मरण्।
ReplyDeleteआपने अपने पोस्ट के माध्यम से तो सैर करा ही दिया है . हम भी रत्नागिरी जाने कि जरुर कोशिश करेंगे. जाने वालों के लिए तो आपने सारी उपयोगी जानकारी दे ही दी है.
ReplyDeleteAtisundar...ghar baithe-baithe puri yatra kar le...dhanyawaad....
ReplyDeleteaabhar..
welcome to my blog..
Suresh Kumar
http://sureshilpi-ranjan.blogspot.com
बहुत ही ख़ूबसूरत ढंग से लिखा है...यात्रा वृत्तांत..
ReplyDeleteसबकुछ आँखों के समक्ष सजीव होता सा लगा...
bahut hi sundar drashya uspar aapki kalam ke bhav....sone par suhaga.......
ReplyDeleteयात्रा-वृतांत अच्छा लगा. इससे पहले वाली पोस्ट में लोर्का की कविता भी बहुत अच्छी लगी. यदि आप अपने ब्लॉग का फॉर्मेट थोड़ा सुधर दें तो यह और पठनीय हो जायेगा. पाठक ज्यादा सहूलियत महसूस करेंगे...शुभकामनाएं...
ReplyDeleteआभार.. आप सभी का...
ReplyDelete