Friday, March 30, 2012

अंत में

(इधर मृत्यु पर पढ़ते हुए सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता 
'अंत में' से गुज़रना हुआ. कविता के साथ वैन गॉग की 
कलाकृति 'डॉक्टर गैशेट' है. गॉग के आख़िरी वक़्त में 
गैशेट ने ही उनकी तीमारदारी की थी.)
अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता 
सुनना चाहता हूं 
एक समर्थ सच्ची आवाज़ 
यदि कहीं हो 

अन्यथा 
इससे पूर्व कि 
मेरा हर कथन 
हर मंथन 
हर अभिव्यक्ति 
शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए 
उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूं 
जो मृत्यु है 

'वह बिना कहे मर गया' 
यह अधिक गौरवशाली है 
यह कहे जाने से 
'कि वह मरने के पहले 
कुछ कह रहा था 
जिसे किसी ने सुना नहीं।'

Wednesday, March 21, 2012

विश्व कविता दिवस पर

(आज विश्व कविता दिवस है। इस उपलक्ष्य में कैलाश वाजपेयी 
की कविता 'विकल्प वृक्ष' और साथ में पॉल गॉगिन का चित्र.)
सुनते हैं कभी एक पेड़ था 
रोज़ लोग आकर 
दुखड़ा रोते उस पेड़ से 
तरह-तरह के लोग, दुख भी 
सबके किस्म-किस्म के 

एक दिन पेड़ के कोटर से कोई बोला 
'अंधेरे में आना 
अपना दुख यहीं बांध जाना 
उत्तर सबेरे मिल जाएगा।' 

लोग सारी रात आते ही आते चले गए 
सुबह बड़ी भीड़ थी 
पेड़ के नीचे सन्नाटा भी। 

ऊपर के कोटर से फिर वही आवाज़ 
उतरी, काफी से कहीं अधिक खुरदुरी- 
'हर दुख को पढ़ लो 
फिर आपस में अदल-बदल कर लो 
जिसे जो दुख अपने से ज़्यादा 
बेहतर लगे!' 

बड़ा गुलगपाड़ा मचा 
दोपहर तक सब भाग लिए 
एक भी विनिमय नहीं हुआ।

Monday, March 19, 2012

आग

("मेरे जैसे के भीतर कविता का कारखाना कभी बंद नहीं 
होता, न अवकाश, न हड़ताल। मैं पूरे वक्त का कवि हूं।"
चंद्रकांत देवताले की टिप्पणी के साथ उनकी कविता 
और मार्क शगाल की तस्वीर.)
पैदा हुआ जिस आग से 
खा जाएगी एक दिन वही मुझको 
आग का स्वाद ही तो 
कविता, प्रेम, जीवन-संघर्ष समूचा 
और मृत्यु का प्रवेश द्वार भी 
जिस पर लिखा- 
"मना है रोते हुए प्रवेश करना"

मैं एक साथ चाकू और फूल आग का 
आग की रौशनी और गंध में 
चमकता-महकता-विहंसता हुआ

याद हैं मुझे कई पुरखे हमारे 
जो ताज़िन्दगी बन कर रहे 
सुलगती उम्मीदों के प्रवक्ता 
मौजूद हैं वे आज भी 
कविताओं के थपेड़ों में 
आग के स्मारकों की तरह

इन पर लुढ़कता लपटों का पसीना 
फेंकता रहता है सवालों की चिंगारियां 
ज़िंदा लोगों की तरफ़।

Saturday, March 10, 2012

शव पिताजी

(प्रख्यात कवि वीरेन डंगवाल की कविता और एडवर्ड मुंच 
की कलाकृति द स्क्रीम.)
चार दिन की दाढ़ी बढ़ी हुई है 
उस निष्‍प्राण चेहरे पर 
कुछ देर में वह भी जल जाएगी
पता नहीं क्‍यों और किसने लगा दिए हैं
नथुनों पर रूई के फाहे 
मेरा दम घुट रहा है

बर्फ़ की सिल्‍ली से बहते पानी से लथपथ है दरी
फर्श लथपथ है
मगर कमरा ठण्‍डा हो गया है
कर्मठ बंधु-बांधव तो बाहर लू में ही
आगे के सरंजाम में लगे हैं

मैं बैठा हूं या खड़ा हूं या सोच रहा हूं 
या सोच नहीं रहा हूं 
य र ल व श श व ल र य 
ऐसी कठिन उलटबांसी जीवन और शव की।

Saturday, March 3, 2012

सिनेमा को नए रंग दे रही स्त्रियां

सिनेमा महिलाओं के बस की बात नहीं है... साल 1913 में भारत में मोशन पिक्चर्स की शुरुआत के साथ इस धारणा ने भी पैठ बना ली थी। भारतीय सिनेमा पर यह पूर्वाग्रह लंबे समय तक हावी रहा। आलम यह था कि महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष निभाते। हालांकि, भारतीय सिनेमा के शैशवकाल में ही फ़िल्म मोहिनी भस्मासुर में एक महिला कमलाबाई गोखले ने अभिनय कर नई शुरुआत की, लेकिन सिनेमा अब भी महिलाओं के लिए दूर की कौड़ी थी। कमलाबाई, चरित्र अभिनेता विक्रम गोखले की परदादी थीं, जिन्होंने बाद में कई फ़िल्मों में पुरुष किरदार भी निभाए। सिनेमा में कमलाबाई का पदार्पण पुरुष-सत्ता के टूटने का आगाज़ तो था, लेकिन इसे अंजाम तक पहुंचने में देर लगी। फिर एक वक़्त ऐसा आया कि सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान दादा साहब फाल्के अवॉर्ड पहली बार एक महिला देविका रानी को मिला।
लाइट, कैमरा, एक्शन
फ्लैशबैक की बात छोड़ वर्तमान में आते हैं; अभिनय छोड़कर कैमरे के पीछे चलते हैं। शुरुआत फ़िल्म-निर्देशन से करें तो इस फेरहिस्त का पहला नाम जो ज़हन में कौंधता है वो सई परांजपे है। सई ऐसी फ़िल्मकार हैं जिनमें विविधता है, जिन्होंने अपने निर्देशन से हमेशा हैरान किया है। जादू का शंख, स्पर्श, चश्मेबद्दूर, कथा या दिशा सरीखी फ़िल्में इसकी बानगी हैं। सई की फ़िल्में आम जीवन को गहरे छूती हैं। इन फ़िल्मों में कहीं नहीं लगता कि हम वास्तविक जीवन से इतर कुछ देख-सुन रहे हैं। सिनेमा में योगदान के लिए सई परांजपे को 1996 में पद्मभूषण से नवाज़ा जा चुका है।
अगला नाम अपर्णा सेन का है। अपर्णा बंगाली सिनेमा की सशक्त अभिनेत्री रही हैं। एक अभिनेत्री केवल अभिनय के लायक होती है...., इस मिथक की धज्जियां अपर्णा ने निर्देशन की कमान संभालकर उड़ाईं। उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म 36 चौरंगी लेन से यह भी साबित कर दिया कि निर्देशन के मामले में महिलाएं कहीं कमतर नहीं। अपर्णा की परोमा’, ‘मिस्टर एंड मिसेज़ अय्यर’, ‘15 पार्क एवेन्यू’, द जैपनीज़ वाइफ़ और इति मृणालिनी जैसी नायाब फ़िल्में सिनेमा-प्रेमियों के सर चढ़कर बोलीं है। अपर्णा की हर आने वाली फ़िल्म का शिद्दत से इंतज़ार रहता है उनके प्रशंसकों को।
अब उस महिला की बात, जो न सिर्फ़ फ़िल्में बनाती है बल्कि फ़िल्मी कलाकारों को अपने इशारों पर भी नचाती है। वे सरोज खान के बाद इंडस्ट्री की लोकप्रिय कोरियोग्राफर हैं। यहां बात फ़राह खान की हो रही है जो एक अच्छी फ़िल्म निर्देशक भी हैं। फ़राह अपने ख़ास अंदाज़ और बेबाक शैली के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने मैं हूं ना और ओम शांति ओम जैसी फ़िल्मों से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। उनकी फ़िल्में व्यावसायिक स्तर पर भी अच्छी साबित हुई हैं। 
ज़ोया अख़्तर असीम संभावनाओं से भरी हैं। रचनात्मकता भले उन्हें विरासत में मिली हो लेकिन केवल दो फ़िल्मों से वे ख़ुद को काबिल फ़िल्मकार के रूप में स्थापित कर चुकी हैं। लक बाय चांस' और ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा ऐसी फ़िल्में हैं जो शायद ज़ोया जैसी युवा महिला निर्देशक ही सोच-बुन सकती हैं। ज़ोया ने फ़िल्मों को एक नए विस्तार के साथ सामने रखा है, ख़ासकर रिश्तों के यथार्थ को। इस मामले में ज़ोया का कोई सानी नहीं। हाल में हुए फ़िल्मफेयर अवॉर्ड्स में उनकी फ़िल्म ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशन समेत सात पुरस्कार हासिल किए हैं।
मुंबई के सोफ़िया कॉलेज से अंग्रेज़ी साहित्य में ग्रेजुएट रीमा कागती ने पहली फ़िल्म हनीमून ट्रैवल्स प्राइवेट लिमिटेड से लोगों का दिल जीत लिया। एक निर्देशक के तौर पर रीमा को शूटिंग के दौरान कुछ दिक्कतें भले आईं लेकिन मेहनत और इच्छाशक्ति के बूते पर वे उनसे उबर भी गईं। रीमा के मुताबिक, शुरुआत में वो इतने सारे फ़िल्मी सितारों के साथ काम करने, उन्हें निर्देशित करने की कल्पना मात्र से आशंकित हो गई थीं। पहले दिन बोमन ईरानी और शबाना के साथ शूटिंग थी। वे घबराई हुई थीं लेकिन जल्द ही सब-कुछ ठीक हो गया। बतौर निर्देशक उनकी दूसरी फ़िल्म तलाश है। इसमें आमिर ख़ान, करीना कपूर और रानी मुखर्जी मुख्य भूमिकाओं में हैं। फ़िल्म की कहानी रीमा कागती और ज़ोया अख़्तर ने मिलकर लिखी है। 
कैंची है हथियार : मेघना अश्चित 
वीरें मुझे शुरू से आकर्षित करती थीं। चाहे कोई भी तवीर हो- फ़िल्मी सितारों की, खिलाड़ियों की या फिर विज्ञापन। अक्षरों से रची कहानियां पढ़ने की जगह मैं तवीरों में ही किसी कथा का सूत्र खोजा करती थी।
पत्रिकाओं से तवीरें काटकर उन्हें कई तरह से जोड़ती, कोलाज बनाती, और वो मेरे कमरे की दीवारों पर सजीं मुझसे बातें करतीं.... मेघना अश्चित मुस्कराते हुए बताती हैं। मेघना फ़िल्म एडिटर हैं। अनुपयुक्त हिस्सों की कांट-छांट कर फ़िल्म को सुघड़ व संपूर्ण रूप देने का काम करती हैं। वे कहती हैं कि उन्होंने या उनके परिवार में किसी ने नहीं सोचा था कि फ़िल्मों का संपादन जीविका का साधन भी हो सकता है। मेघना शान से कहती हैं कि वे चार बहनें हैं और उनके पिता ने सबको हमेशा स्वावलम्बी बने रहने की प्रेरणा दी है। फ़िल्मों के शौक़ ने मेघना को गोरखपुर से पुणे खींच लिया। यहां फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) से उन्होंने एडिटिंग की बारीक़ियां सीखीं। मेघना कहती हैं कि एफटीआईआई से एडिटिंग की पढ़ाई के बाद मैं मुंबई आ गई और फ़िल्म इंडस्ट्री ने बांहें फैलाकर मेरा स्वागत किया। मेघना के करियर की शुरुआत भट्ट कैंप की फ़िल्म नज़र से हुई जिसके बाद उन्होंने कृष, रंग दे बसंती और क्रेज़ी 4 जैसी फ़िल्मों का संपादन किया। फ़िल्म इंडस्ट्री के अनुभव पर मेघना कहती हैं कि मेरा स्त्री होना कभी मेरे काम या विकास के आड़े नहीं आया। फ़िल्म जगत में शोषण की कहानी आम है, लेकिन अगर आप काम जानते हैं तो इंडस्ट्री सर-आंखों पर बिठाती है। मुझे इंडस्ट्री से हमेशा स्नेह और सम्मान मिला है। यदि कहीं समस्या हुई भी तो वो वैचारिक स्तर पर भिन्नता के कारण ही हुई। मेघना फ़िलहाल लेखक व फ़िल्मकार ख़ालिद मोहम्मद के साथ डॉक्यूमेंटरी बना रही हैं।
धुन की पक्की : स्नेहा खानवलकर 
जद्दन बाई (नरगिस की मां), सरस्वती देवी और उषा खन्ना के बाद स्नेहा खानवलकर का नाम महिला संगीतकारों में सर्वोपरि है। इंदौर से मुंबई आई स्नेहा बताती हैं कि मैंने ग्वालियर घराने से संगीत की विधिवत शिक्षा ली है। संगीत मेरी रगों में है, लेकिन इसे करियर बनाने का ख़याल मुझे देर से आया। देर आयद दुरुस्त आयद की कहावत चरितार्थ करते हुए स्नेहा ने इंडस्ट्री में मुकाम हासिल करने में ज़्यादा वक़्त नहीं लिया। 
बतौर संगीतकार उनके करियर की शुरुआत 2007 में रामगोपाल वर्मा की फ़िल्म गो से हुई। इसके बाद स्नेहा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। धुनों से खेलते हुए अलग अंदाज़ का संगीत गढ़ना स्नेहा की ख़ूबी है। ओए लक्की लक्की ओए, लव सेक्स और धोखा और भेजा फ्राई-2 जैसी फ़िल्मों में संगीत दे चुकी स्नेहा, अनुराग कश्यप की फ़िल्म गैंग ऑफ वासीपुर में काम रही हैं। वे प्रयोगधर्मी हैं और आंचलिक संगीत को नए तेवर में ढालना बख़ूबी जानती हैं। संगीत की प्रामाणिकता का ख़याल भी रखती हैं।
फ़िल्मों की आवाज़ : जिस्सी माइकल
सिल्वर स्क्रीन पर नज़र आने वाली फ़िल्म के पीछे ढेरों विधाएं छिपी हैं। ऐसी ही एक विधा साउंड डिज़ाइनिंग है। किसी फ़िल्म के लिए साउंड उतनी ही ज़रूरी है जितना कि लेखन, निर्देशन, अभिनय, कैमरा या फिर मेकअप। साउंड डिज़ाइनिंग से मतलब किसी फ़िल्म का साउंड ट्रैक बनाने से है। फ़िल्म में जो भी आवाज़ आप सुनते हैं, उसे रिकॉर्ड करना ज़रूरी होता है। रिकॉर्डिंग के बाद उस आवाज़ को सही जगह और सही वॉल्यूम में डालना होता है। काम तकनीक के हिसाब से और निर्देशक की मांग के अनुरूप हो रहा है या नहीं, इस बात का ख़याल रखना होता है। चाहे डायलॉग्स हों या लड़ाई के किसी दृश्य में लात-घूंसों की आवाज़... फ़िल्म में सुनाई देने वाली ये सारी आवाज़ें एक साउंड डिज़ाइनर की देन हैं।
साउंड डिज़ाइनर जिस्सी माइकल अपने सफ़र को याद करती हैं, मैं केरल के एक गांव में पैदा हुई और वहीं पली-बढ़ी। अब मुंबई जैसे महानगर में रहकर काम कर रही हूं। पहली बार इस शहर में आई थी तो इसकी चकाचौंध ने मुझे हैरान कर दिया था। लेकिन मैं अपना लक्ष्य कभी नहीं भूली। उस वक़्त मेरे आस-पास मेरी तरह कई दूसरी लड़कियां थीं जो देश के अलग-अलग हिस्सों से आकर मुंबई में मंज़िल तलाश रही थीं। उन्हें देखकर मेरा हौसला दूना हो जाता। मुझे अच्छी तरह याद है कि एफटीआईआई में एक प्रोफेसर ने मुझसे कहा था कि फ़िल्म इंडस्ट्री तुम्हारे लिए नहीं है। तुमने यहां दाख़िला लेकर सीट ख़राब की है। जल्द तुम्हारी शादी होगी, बच्चे होंगे और तुम काम करना बंद कर दोगी। इस बात को 15 साल हो चुके हैं लेकिन मैं आज भी काम कर रही हूं और अपने काम में माहिर हूं।
कैमरे की नज़र से : नेहा पार्ती 
सिनेमा का हर वो क्षेत्र जो पहले पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में था, अब महिलाओं से गुलज़ार है। मसलन फोटोग्राफी या सिनेमेटोग्राफी जहां अब सिर्फ़ कैमरामैन नहीं, कैमरावूमन भी हैं। महिलाएं बेझिझक कैमरा उठाए अपने सपनों को साकार करने में लगी हैं। दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज से मास कम्यूनिकेशन में ग्रेजुएट नेहा पार्ती मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में सिनेमेटोग्राफर हैं। एफटीआईआई से कोर्स के बाद नेहा ने बतौर सहायक अपने करियर की शुरुआत की। 
नेहा कहती हैं कि फोटोग्राफी का शौक उन्हें बचपन से था और
फ़िल्में भी ख़ूब देखती थी। दोनों का मेल उन्हें इस पेशे में ले आया। नेहा अब तक 'फना', 'सांवरिया', 'गजनी', 'रब ने बना दी जोड़ी', 'फिराक़', 'माई नेम इज़ ख़ान', 'अनजाना-अनजानी' जैसी फ़िल्मों में सिनेमेटोग्राफी के हुनर दिखा चुकी हैं। बतौर कैमरावूमन वे फ़िल्म 'रा.वन' में भी काम चुकी हैं। यशराज बैनर की 'मुझसे फ्रैंडशिप करोगे' में नेहा ने स्वतंत्र रूप से कैमरा संचालित किया है। नेहा को इंडस्ट्री में काम करते हुए सात साल हो गए हैं। बकौल नेहा, इस दौरान उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला। उनसे कई ग़लतियां भी हुईं, लेकिन एक पेशेवर के तौर पर उन्होंने उन ग़लतियों से सबक लेकर आगे बढ़ने में यक़ीन रखा।
सितारों से आगे जहां और भी है...
कहते हैं, हर कामयाब पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है। जिस तरह से सिनेमा उद्योग के हर क्षेत्र में महिलाएं अपना वर्चस्व कायम कर रही हैं, उसे देखकर लगता है कि धीरे-धीरे यह कहावत अपना रूप कुछ यूं बदल लेगी कि लोग कहेंगे, हर कामयाब फ़िल्म के पीछे एक महिला का हाथ होता है। आज शायद ही कोई ऐसी फ़िल्म यूनिट हो जिसमें कोई महिला अहम भूमिका न निभा रही हो। फिर चाहे यह रोल कैमरे के सामने हो या कैमरे के पीछे। कैमरे के आगे तो महिलाओं के बिना किसी कहानी की कल्पना बेमानी है ही, कैमरे के पीछे भी अलग-अलग विधाओं में महिलाएं बाज़ी मार रही हैं। एक महिला जब किसी फ़िल्म का निर्देशन करती है तो उसमें जाने-अनजाने उसका अपना दृष्टिकोण झलकता है। विश्व की बेहतरीन महिला फ़िल्म निर्देशकों के सिनेमा में एक अलग सोच उभरकर आई है। उनकी फ़िल्मों ने दर्शकों को एक अलग रंग दिया है, जो शायद पुरुष निर्देशित फ़िल्मों में अछूता रहा है। एक दौर था जब महिलाएं पुरुषों के पद्चिन्हों पर चलने की कोशिश करती थीं क्योंकि उन्हें जन्म से ही ऐसा करने को कहा जाता था। समय बदला है और ज़माने की सोच बदली है। अब महिलाएं अपने क़दमों के निशान छोड़ रही हैं और सामने ला रही हैं एक नया सिनेमा
-माधवी 

('अहा ज़िंदगी' पत्रिका के मार्च 2012 'स्त्री विशेषांक' में प्रकाशित, देविका रानी का चित्र गूगल से)
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