Monday, March 19, 2012

आग

("मेरे जैसे के भीतर कविता का कारखाना कभी बंद नहीं 
होता, न अवकाश, न हड़ताल। मैं पूरे वक्त का कवि हूं।"
चंद्रकांत देवताले की टिप्पणी के साथ उनकी कविता 
और मार्क शगाल की तस्वीर.)
पैदा हुआ जिस आग से 
खा जाएगी एक दिन वही मुझको 
आग का स्वाद ही तो 
कविता, प्रेम, जीवन-संघर्ष समूचा 
और मृत्यु का प्रवेश द्वार भी 
जिस पर लिखा- 
"मना है रोते हुए प्रवेश करना"

मैं एक साथ चाकू और फूल आग का 
आग की रौशनी और गंध में 
चमकता-महकता-विहंसता हुआ

याद हैं मुझे कई पुरखे हमारे 
जो ताज़िन्दगी बन कर रहे 
सुलगती उम्मीदों के प्रवक्ता 
मौजूद हैं वे आज भी 
कविताओं के थपेड़ों में 
आग के स्मारकों की तरह

इन पर लुढ़कता लपटों का पसीना 
फेंकता रहता है सवालों की चिंगारियां 
ज़िंदा लोगों की तरफ़।

9 comments:

  1. जीवन का कटु सत्य है.... जिससे आपने अवगत कराया है....

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  2. बहुत सुंदर भाव अभिव्यक्ति,बेहतरीन सटीक रचना,......

    MY RESENT POST... फुहार....: रिश्वत लिए वगैर....

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  3. बहुत सुंदर शब्दों का संयोजन बधाई

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  4. अच्छी रचना........आभार

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  5. इन पर लुढ़कता लपटों का पसीना
    फेंकता रहता है सवालों की चिंगारियां
    ज़िंदा लोगों की तरफ़।
    bahut sahi dil ko chhune wali rachna

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  6. सुन्दर प्रभावी रचना..

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  7. सुन्दर..!
    ब्लॉग फोल्लो कर रही हूँ
    कभी पधारिये ..
    kalamdaan.blogspot.in

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