चार दिन की दाढ़ी बढ़ी हुई है
उस निष्प्राण चेहरे पर
कुछ देर में वह भी जल जाएगी
पता नहीं क्यों और किसने लगा दिए हैं
नथुनों पर रूई के फाहे
मेरा दम घुट रहा है
बर्फ़ की सिल्ली से बहते पानी से लथपथ है दरी
मेरा दम घुट रहा है
बर्फ़ की सिल्ली से बहते पानी से लथपथ है दरी
फर्श लथपथ है
मगर कमरा ठण्डा हो गया है
कर्मठ बंधु-बांधव तो बाहर लू में ही
आगे के सरंजाम में लगे हैं
मैं बैठा हूं या खड़ा हूं या सोच रहा हूं
या सोच नहीं रहा हूं
मैं बैठा हूं या खड़ा हूं या सोच रहा हूं
या सोच नहीं रहा हूं
य र ल व श श व ल र य
ऐसी कठिन उलटबांसी जीवन और शव की।
गहन भाव अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteला-जवाब कविता..
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका, इसे पोस्ट करने के लिए!
क्या गज़ब लिखा है..
ReplyDeleteअक्षरों का खेल! :)