Monday, September 12, 2011

पटाक्षेप

(मां के जन्मदिवस पर आज उन्हीं की लिखी कविता, 
जो 1981 में पंजाब की एक पत्रिका में शाया हुई थी.) 

पाण्डवो! 
तुम्हारे बौद्धिक शोषण से 
आज की द्रौपदी पूर्ण मुक्त है। 

उसकी नियति अब
लोपाद्रुमा, गार्गी, यशोधरा-सी न होकर 
सामर्थ्यपूर्ण नचिकेता की है 
जिसके पलायन या 
आक्रमण अभियान हेतु मार्ग 
पूर्ण प्रशस्त है। 

सूत्रधारो! 
बेहतर स्थिति यह होगी कि- 
फूहड़ दार्शनिकता की मवाद संभाले 
अपने वंचनापूर्ण संवादों 
नाटकीय प्रस्तुतीकरण 
और पूर्वाग्रह युक्त मंचन के 
प्रयासों को रहने दो। 

कहीं ऐसा न हो कि 
पात्रों से साज़िश कर 
दर्शक 
तुमसे बलात् पटाक्षेप करवाएं 
और क्षमा-याचना के लिए 
तुम्हें मजबूर कर दें।
-कीर्ति निधि शर्मा गुलेरी

Saturday, September 10, 2011

वेरा के लिए

(नाज़िम हिकमत की कविता जो उन्होंने 
वेरा तुल्याकोवा के लिए लिखी. वेरा, 
नाज़िम की पांचवीं और अंतिम पत्नी थीं.) 

आओ!- उसने कहा 
और ठहरो!- उसने कहा 
और मुस्कराओ!- उसने कहा 
और मर जाओ!- उसने कहा। 

मैं आया 
मैं ठहरा 
मैं मुस्कराया 
और मैं मर गया।

Thursday, September 1, 2011

रहने दो

(अशोक वाजपेयी की एक और कविता, साथ में 
मार्क शगाल का चित्र.)
उन्हें जाने दो 
एक के बाद एक 
सूर्य, तारे 
विपुल पृथ्वी 
सयाना आकाश 
अबोध फूल

मुझे रहने दो
अपने अंधेरे शून्य में 
अपने शब्दों के मौन में
अपने होने की निराशा में

मुझे रहने दो उपस्थित
आख़िरी अनुपस्थिति में।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...