Sunday, January 29, 2012

किला जो कहता है चार सदियों की दास्तां

(गोवा का नाम लेते ही बेशुमार रंगों से भरे समुद्र तटों की छवि ज़हन में उभरने लगती है। लेकिन सूरज, रेत और समंदर का मेल ही गोवा की तस्वीर मुकम्मल करने के लिए काफी नहीं। यहां की ऐतिहासिक विरासत भी ख़ुद में बहुत कुछ समेटे हुए है। इसी विरासत का हिस्सा है अग्वादा किला। इस बार गोवा जाना हुआ तो अग्वादा से रू-ब-रू होने का मौक़ा मिल गया।)

गोवा में 42वां अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव इफ्फी शुरू होने में एक दिन शेष था और हम वहां जाने के ख़याल से ही उत्साहित थे। रजिस्ट्रेशन महीना भर पहले हो चुका था। लखनऊ से मेरी दोस्त प्रतिभा भी पहुंच चुकी थी। यात्रा की रूपरेखा तैयार कर हमने मुंबई से गोवा के लिए उड़ान भरी। तक़रीबन 45 मिनट बाद खिड़की से बाहर झांका तो दूर-दूर तक पानी का सैलाब, रंग-बिरंगे घर और हरियाली नज़र आई। दृश्य देखते ही समझ आ गया कि हम गोवा पहुंचने वाले हैं। गोवा एयरपोर्ट पर कार्गो से आने वाले सूटकेस का इंतज़ार भी हमें भारी पड़ रहा था। एयरपोर्ट से बाहर आए तो इफ्फी के रंग-बिरंगे बैनर देखकर मन और मचल उठा। टैक्सी में गोवा की रौनक़ देखते हुए हम उत्तरी गोवा पहुंचे। यहां अरपोरा इलाके में हमारे ठहरने की व्यवस्था थी। अरपोरा, राजधानी पणजी से 15 किलोमीटर दूर है। इफ्फी पणजी में होने वाला था। आने-जाने में असुविधा न हो, इसलिए हमने दोपहिया वाहन किराए पर लिया और अगले पांच दिन के लिए निश्चिंत हो गए। 
इससे पहले कि आप कुछ सोचें, बता दूं कि मैं यहां इफ्फीकी नहीं बल्कि गोवा की ऐतिहासिक धरोहर की बात करने जा रही हूं। एक ऐसे किले की बात, जो देश के सबसे पुराने और संरक्षित किलों में से है। 
अग्वादा किला.. इसे देखने की हसरत जाने कब से थी! बिंदास माहौल और इफ्फी के ख़ुमार के बीच दिन जितनी तेज़ी से बीत रहे थे, यह इच्छा उतनी ही बलवती होती जा रही थी। इफ्फी से वक़्त चुराना आसान नहीं था, लेकिन पहली ही फ़ुर्सत में हमने अग्वादा किले का रुख़ कर लिया। 
इतिहास के गलियारों से
उत्तरी गोवा की बारदेज़ तहसील में है अग्वादा किला। यह अरपोरा से 8 किलोमीटर दूर है। अरपोरा से कैंडोलिम और सिन्क्वेरिम समुद्रतट की तरफ़ जाने वाली सड़क किले तक ले जाती है। फोर्ट रोड पर चहल-पहल भरे बाज़ार हैं, तो कई अच्छे विदेशी रेस्तरां और कैफे भी। बाज़ार पार करने के बाद हल्की चढ़ाई है। रास्ता थोड़ा घुमावदार हो जाता है, लेकिन ख़ूबसूरत नज़ारे यहां भी साथ नहीं छोड़ते। ट्रैफिक न के बराबर है और सड़क के दोनों तरफ झाड़ियां हैं। हम स्कूटर पर थे इसलिए अग्वादा पहुंचने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। 
अग्वादा पुर्तगाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- पानी का स्थल। मांडवी नदी के मुहाने पर बसा अग्वादा किला 1612 ईसवी में तैयार हुआ था। इसे पुर्तगालियों ने बनवाया था। हर किले की तरह इस किले का निर्माण भी दुश्मनों से सुरक्षा के लिए किया गया। लेकिन एक मक़सद और था- यूरोप से आने वाले जहाज़ों के लिए ताज़ा पानी मुहैया कराना। किले में पानी जमा रहे, इसके लिए यहां एक विशाल टंकी बनवाई गई। इसे संभालने के लिए 16 बड़े स्तंभों का प्रयोग किया गया। टंकी की भंडारण क्षमता कई लाख गैलन है। इसमें पानी एकत्र करने के लिए प्राकृतिक झरनों की मदद ली जाती थी। मज़े की बात है कि ये झरने किले के अंदर ही थे। 17वीं और 18वीं शताब्दी में दूर-दराज़ से आने वाले जहाज़ यहां रुकते और ताज़े पानी का स्टॉक लेकर आगे बढ़ जाते। यक़ीन नहीं होता कि सामान्य-सा दिखने वाला किला किसी ज़माने में पानी का इतना बड़ा स्रोत रहा होगा! किले के प्रांगण में प्रवेश करते हैं तो टंकी सामने दिखाई देती है। इस पर खड़े होकर चारों तरफ़ नज़र दौड़ाएं तो लगेगा जैसे लंबी आयताकार दीवार ने आपको घेरा हुआ है। एक कोने पर सफ़ेद रंग का लाइट हाउस तो दूसरे किनारे पर मांडवी नदी है। ये दोनों किले की ख़ूबसूरती में भरपूर इज़ाफ़ा करते हैं। एक स्थानीय महिला से पता चला कि फ़िल्म भूतनाथ की शूटिंग इसी किले में हुई थी। यहां परम शांति है और सुकून चाहने वालों के लिए किसी सौगात से कम नहीं है यह जगह। बाहरी छोर पर बैठी प्रतिभा आराम की मुद्रा में आ चुकी थी, लेकिन मैं थी कि निकल पड़ी किले का जायज़ा लेने के लिए। 
अग्वादा किले की बाहरी दीवार लगभग ढह चुकी है। अंदर की दीवारें मज़बूत हैं जो तीन तरफ़ से चौड़ी खाई से घिरी हैं। चौथा छोर नदी की तरफ़ खुलता है। किले की संरचना कुछ ऐसी है कि इसे दो भागों में बांट सकते हैं- एक ऊपरी और दूसरा निचला भाग। किले के ऊपरी हिस्से में पानी की टंकी, लाइट हाउस, बारूद रखने का कक्ष और बुर्ज हैं, जबकि निचला हिस्सा पुर्तगाली जहाजों की गोदी के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। ख़ास बात यह कि अग्वादा देश का एकमात्र किला है जिस पर किसी का आधिपत्य नहीं हो सका। यही वजह है कि पुर्तगाली किलों में अग्वादा सबसे अहम है। 
पुराने दीप स्तंभों में से एक
लाइट हाउस किला परिसर में है जो बाहर से ही दिखना शुरू हो जाता है। इसकी चार मंज़िलें हैं। वर्ष 1864 में पुर्तगाल से आने वाले जहाज़ों को दिशा दिखाने के लिए इसे बनवाया गया था। अगर कहा जाए कि किले की शान लाइट हाउस है तो ग़लत नहीं होगा। अग्वादा लाइट हाउस देश के सबसे पुराने लाइट हाउस में से है। हालांकि बहुत-से लोगों का मानना है कि यह एशिया का सबसे पहला दीप स्तंभ है। 1976 में इसका इस्तेमाल पूरी तरह से बंद कर दिया गया था।

सेंट्रल जेल भी
अब बात अग्वादा जेल की। किले के निचले भाग को, जो बाकी हिस्सों के मुक़ाबले बेहतर हालत में है, जेल में तब्दील कर दिया गया है। यह अब गोवा की सेन्ट्रल जेल है जिसमें नशीली दवाओं के कारोबार से जुड़े लोगों को रखा जाता है। सैलानियों को यहां आने की इजाज़त नहीं है। अग्वादा से क़रीब एक किलोमीटर पहले सिन्क्वेरिम तट है। बारदेज़ से आते हुए बाईं तरफ़ कई मोटरबोट हैं, जो डॉल्फिन पॉइंट जाने के लिए खड़ी रहती हैं। बोट में बैठकर डॉल्फिन्स के ऊपर आने का इंतज़ार अलग अनुभव देता है। पानी से उचककर जितनी तेज़ी से वो बाहर आती हैं, उतनी ही फुर्ती से गुम भी हो जाती हैं। यहीं किनारे पर आप सेन्ट्रल जेल देख सकते हैं। किले और लाइट हाउस का ऊपरी हिस्सा यहां से साफ़ नज़र आता है। अग्वादा जाने से पहले हम डॉल्फिन पॉइंट होकर आए थे। वहां एक ख़ूबसूरत बंगला भी देखने को मिला। मोटरबोट वाले ने बताया कि वो बंगला हीरा व्यापारी जिम्मी गज़दर का है। इस बंगले में ‘हसीना मान जाएगी समेत कई फ़िल्मों की शूटिंग हो चुकी है। 
अग्वादा किले के बंद होने का वक़्त हो चला था। प्रतिभा की ख़्वाहिश थी कि समंदर किनारे बैठ, सूरज को ढलते हुए देखा जाए। सूर्यास्त में ज़्यादा समय नहीं बचा था, इसलिए अग्वादा को हमने अलविदा कहा और अपने स्कूटर को कैंडोलिम बीच की दिशा में घुमा दिया।
जाने से पहले...
1. टैक्सी या निजी वाहन से जाना बेहतर है। गोवा में दोपहिया वाहन सबसे अच्छा विकल्प है। अपनी सुविधा के अनुसार स्कूटर या बाइक किराए पर ले सकते हैं। एक दिन का किराया लगभग 250 रुपए है जो दिसंबर के आख़िरी हफ़्ते में 500 रुपए तक हो जाता है। 
2. समुद्र तट से सटा होने के कारण उमस अपेक्षाकृत ज़्यादा है। पानी साथ लेकर चलें। किले के सामने खाने-पीने के कुछ स्टॉल हैं, लेकिन महंगे हैं। 
3. यहां जाने के लिए नवंबर से मार्च का समय अनुकूल है। 
4. तीखी धूप से बचने के लिए हैट साथ रखें। सन-स्क्रीन लोशन का प्रयोग भी कर सकते हैं। 
5. अग्वादा किला सप्ताह भर खुला रहता है और इसे देखने के लिए प्रवेश शुल्क नहीं है। 


(दैनिक जागरण के 'यात्रा' परिशिष्ट में 29 जनवरी 2012 को प्रकाशित)

Saturday, January 21, 2012

पर घर न छूटे

(यात्रा से जुड़ी अदम्य इच्छाओं पर एक कविता, 
साथ में साल्वाडोर डाली का चित्र) 
अनगिन लालसाएं 
अनगिन यात्राओं की 

न कोई पर्वत छूटे 
न जंगल 
न दरिया 
न पठार 

बियाबान छूटे 
सागर 
न रेत 
न तलछट 

न दर्रा छूटे कोई
न कंदरा 
न घाटी 
न आकाश 

न उत्तर छूटे 
न दक्षिण 
न पूरब 
न पश्चिम 

न रंगीनी छूटे 
न वीरानगी 
न आनगी छूटे 
न रवानगी 

अनगिन लालसाएं 
अनगिन यात्राओं की 
कि धरती का 
कोई छोर छूटे 

पर घर न छूटे 
यह संभव कहां! 

('जनसंदेश टाइम्स' में 1 अप्रैल 2012 को प्रकाशित)

Saturday, January 14, 2012

मुझे ख़ुद से हैं बहुत-सी उम्मीदें

(मुंबई के महबूब स्टूडियो में पिछले दिनों दीपिका पादुकोण से मुलाक़ात हुई। दीपिका फ़िल्म देसी ब्वॉयज़ की प्रमोशन में व्यस्त थीं। कुछ देर इधर-उधर टहलने के बाद मैं स्टूडियो वापस आई तो वे सामने खड़ी थीं। गुफ़्तगू शुरू हुई, और दीपिका ने एक-एक कर दिल की सारी परतें खोल डालीं। होंठों पर मुस्कान और चेहरे पर सादगी के साथ दीपिका बताती हैं कि 20 साल की उम्र में वे मुंबई आ गई थीं। इंडस्ट्री में उनका कोई गॉडफादर नहीं था, इसके बावजूद पहली फ़िल्म में उन्हें शाहरुख़ ख़ान जैसे सितारे के साथ काम करने का मौक़ा मिला। कामयाबी का पहला पाठ लिखा जा चुका था, और बाद की सफ़लता सबके सामने है।)

आपका जन्म डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में हुआ, हिन्दुस्तान कब आईं? 
11 महीने की थी जब हम डेनमार्क से बंगलुरु शिफ्ट हुए। वहां सोफिया हाई स्कूल और माउंट कार्मल कॉलेज से पढ़ाई की। बचपन में खूब बैडमिंटन खेलती थी, फिर नेशनल लेवल पर भी खेलना शुरू किया। 15 साल की थी जब बोर्ड की परीक्षा के लिए ब्रेक लिया, तभी सोच लिया था कि मुझे बैडमिंटन में करियर नहीं बनाना है। टेलीविज़न पर मिस इंडिया और मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता बड़े शौक से देखती थी। मेरा रुझान मॉडलिंग और एक्टिंग में था इसलिए मुंबई आ गई।
मॉडलिंग में पहला ब्रेक कैसे मिला?
मॉडलिंग के ऑफर बचपन से ही आने लगे थे। स्कूल-कॉलेज में जब भी फैशन शो होता तो मुझे उसमें हिस्सा लेने के लिए कहा जाता। उसी दौरान कुछ विज्ञापन फ़िल्में कीं। पहली एड फ़िल्म लिरिल साबुन के लिए थी। उसके बाद क्लोज़-अप, डाबर और लिम्का के लिए विज्ञापन किए। हिमेश रेशमिया के म्यूज़िक वीडियो में काम किया। अब तक कई अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के लिए विज्ञापन कर चुकी हूं।
ग्लैमर की दुनिया में हर कोई सफल हो, यह ज़रूरी नहीं। जब मुंबई आईं तो ऐसा कोई संशय मन में था?
मुझे अच्छी तरह मालूम था कि मुझे क्या करना है, बहुत अच्छा कर पाऊंगी, यह नहीं पता था। मैं चुपचाप अपना काम करती रही, और पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। हिमेश रेशमिया के म्यूज़िक वीडियो में देखकर फ़राह ख़ान ने मुझे अपनी फ़िल्म में लेने का फ़ैसला किया।
आपके पिता प्रकाश पादुकोण बैडमिंटन के बड़े खिलाड़ी रहे हैं। मॉडलिंग और एक्टिंग का पेशा चुनने पर उनका क्या रुख़ था?
उन्होंने हमेशा मुझ पर भरोसा किया और मेरा उत्साह बढ़ाया। वे कहते थे कि तुम्हें वही करना चाहिए जिसमें तुम्हारी दिलचस्पी है। बहुत-से माता-पिता ऐसे हैं, जो चाहते हैं कि उनके बच्चे वही करें जो उन्हें कहा जाए। या फिर उनकी इच्छा होती है कि उनके अधूरे सपनों को बच्चे पूरा करें। लेकिन पापा ने अपनी पसंद हम पर कभी नहीं थोपी, उन्होंने खुले दिल से बच्चों की पसंद को समझा और स्वीकारा।
परिवार में और कौन-कौन है?
मां, जो पर्यटन व्यवसाय से जुड़ी रही हैं। वे कोपेनगेहन में एयर इंडिया के ग्राउंड स्टाफ में थीं। हिन्दुस्तान लौटने के बाद मां घर से ट्रैवल एजेंसी चलाने लगीं। पापा की बैडमिंटन अकादमी है, जिसकी शाखाएं कई शहरों में हैं। छोटी बहन अनीषा, गोल्फ खेलती है।
आप फ़िल्मी पृष्ठभूमि से नहीं हैं, इस वजह से करियर में क्या मुश्किलें आईं?
मेरे सामने अलग चुनौतियां थीं। जब बैडमिंटन खेलती थी तो लोग मेरी तुलना पापा से किया करते थे। मॉडलिंग शुरू की तो वे रास्ता भी आसान नहीं था। इंडस्ट्री में मेरा कोई गॉडफादर नहीं था। लोग समझते हैं कि फ़िल्म इंडस्ट्री आसान जगह है। लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि आप लंबे और ख़ूबसूरत हैं तो काम मिल ही जाएगा। यहां पूरे समर्पण, मेहनत और ज़िम्मेदारी से काम करना पड़ता है। दो साल मॉडलिंग के बाद मेरे पास फ़िल्मों के ऑफर आने लगे। चाहती तो बहुत पहले काम शुरू कर सकती थी लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैं अच्छे ऑफर का इंतज़ार करती रही। इस तरह पहली ही फ़िल्म में मुझे शाहरुख़ ख़ान के साथ काम करने का मौक़ा मिला।
…‘ओम शांति ओम से पहले आप कन्नड़ फ़िल्म ऐश्वर्या में काम कर चुकी थीं। पहली हिन्दी फ़िल्म पाकर कैसा लगा?
फ़राह ख़ान ने जब मुझसे कहा कि तुम मेरी फ़िल्म ओम शांति ओम में शाहरुख़ ख़ान के साथ काम करोगी तो मुझे विश्वास नहीं हुआ। फिर वे मुझे शाहरुख़ से मिलाने उनके घर लेकर गईं। मुझे याद है, उस वक़्त शाहरुख़ के घर का इंटीरियर सफ़ेद रंग का था। सफ़ेद फ़र्श, सफ़ेद पर्दे और सफ़ेद सोफ़ा... सब-कुछ सफ़ेद था और संयोग से मैंने भी सफ़ेद रंग की सलवार-कमीज़ पहनी हुई थी। मैं  सोफ़े के कोने पर सहमी-सी बैठी थी कि शाहरुख़ आए। उन्होंने मेरी पीठ थपथपाकर रिलैक्स होने को कहा। लेकिन मैं इतनी ज़्यादा नर्वस थी कि उनसे आंखें नहीं मिला पा रही थी। फिर शाहरुख़ और फ़राह मेरे रोल और लुक को लेकर डिस्कस करने लगे। मुझे तब भी यक़ीन नहीं हो रहा था कि मैं इतनी बड़ी फ़िल्म में काम करने जा रही हूं। शूटिंग के दौरान भी सबने मेरी बहुत मदद की। शाहरुख़ की यही कोशिश थी कि मैं सहज रहूं। वे मुझे हमेशा कहते थे कि ओम शांति ओम तुम्हारी फ़िल्म है। पहली फ़िल्म में अगर मैं अच्छा काम कर पाई हूं तो उसका सारा श्रेय शाहरुख़ को जाता है।
किसे आदर्श मानती हैं?
पापा को। उन्होंने कितना नाम कमाया है, अपने देश के लिए ही नहीं, अंतरार्राष्ट्रीय स्तर पर भी! इसके बावजूद वे साधारण इंसान हैं। विनम्रता और सादगी का जीता-जागता उदाहरण हैं। लोग उनके कायल हैं। मैं पापा की तरह सफल होना चाहती हूं। उनकी तरह सरल और सहज रहना चाहती हूं। 
ओम शांति ओम फ़िल्म ने सुर्खियां बटोरीं और बॉलीवुड में आपका स्वागत शानदार ढंग से हुआ। परिवार की प्रतिक्रिया क्या रही?
पहले किसी को विश्वास नहीं हुआ। मेरा परिवार खेलों से जुड़ा रहा है। हम इंडस्ट्री में किसी को नहीं जानते थे, फिर भी मुझे इतना बड़ा ब्रेक मिला। ज़ाहिर है सब बहुत ख़ुश हुए। पहली ही फ़िल्म में मुझे सराहा गया, यह बड़ी बात है। किसी भी काम में परिवार का सहयोग मायने रखता है और मैं ख़ुश हूं कि मुझे मेरे परिवार का सहारा मिला।
किसे अपना सबसे बड़ा आलोचक मानती हैं?
ख़ुद को। उसके बाद मेरा परिवार मेरा सबसे बड़ा और सच्चा आलोचक है।
सफलता के लिए क्या ज़रूरी है?
अपने काम को मन से करना ज़रूरी है। अगर आपके अंदर अपने काम को लेकर पैशन नहीं है तो आप अच्छे अदाकार नहीं बन सकते। कुछ भी करें लेकिन उसमें जोश और जुनून दिखना चाहिए। किसी किरदार को निभाने के लिए उसमें डूब जाना ज़रूरी है।
किस काम में सबसे ज़्यादा ख़ुशी मिलती है?
अपने काम में। इसके अलावा, तब मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं होता, जब मैं दूसरे लोगों को ख़ुश कर पाती हूं। और जब भी अपने परिवार से मिलती हूं। वे ख़ुश होते हैं तो मुझे भी ख़ुशी मिलती है।
बचपन की कोई याद?
अब चूंकि अपने परिवार के साथ नहीं रहती, सब बंगलुरु में हैं और मैं यहां, मुंबई में। परिवार के साथ जितना भी वक़्त बिताया है, या जब भी हमने साथ बैठकर खाना खाया है, अक़सर वही याद आता है।
कोई अधूरी ख़्वाहिश?
बहुत सारी हैं। असल में, अभी यह सवाल पूछना ठीक नहीं है। अगर आप मेरे करियर के अंत में पूछेंगी तो मैं इसका सही जवाब दे पाऊंगी।
सबसे बड़ा सपना क्या है?
अच्छी फ़िल्में करूं, और लोगों का मनोरंजन करती रहूं। अभी बहुत कुछ हासिल करना बाकी है, इसके लिए दिल से कोशिश कर रही हूं।
फ़िल्मों के चुनाव में आपके पिता कोई मशविरा देते हैं?
बिल्कुल। मैं उनसे रोज़ाना फोन पर बात करती हूं। अपने हर फ़ैसले के बारे में उनको बताती हूं, उनकी राय लेती हूं। मेरे माता-पिता दूर रहकर भी क़रीब हैं। वे मेरा और मेरे करियर का पूरा ख़याल रखने की कोशिश करते हैं। फ़िल्म लाइन के बाहर होने का कारण पापा मुझे बेहतर सलाह दे पाते हैं। उन्हें पता है कि मेरे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। हालांकि फ़िल्म इंडस्ट्री में मुझे काफी वक़्त हो गया है इसलिए अब मैं सही फ़ैसले ले पाने में सक्षम हूं। मेरे पिता मेरी आय का हिसाब रखते हैं।
किस्मत पर कितना यक़ीन है?
कहीं-न-कहीं हम सब किस्मत पर विश्वास करते हैं। लेकिन मेहनत न हो तो किस्मत जैसी कोई चीज़ काम नहीं करती। कठिन मेहनत करके ही भाग्य पर भरोसा कर सकते हैं। बिना कुछ किए, घर बैठे-बैठे किस्मत पर यक़ीन करना फिज़ूल है।
ख़ुद में क्या अच्छा लगता है?
पता नहीं। हां, यह ज़रूर है कि मैं काफी व्यवस्थित हूं। मुझे हर काम योजनाबद्ध तरीके से करना पसंद है।
...और ख़ुद में क्या बदलाव लाना चाहती हैं?
मैं बहुत भावुक और संवेदनशील हूं। हालांकि बहुत-से लोग कहते हैं कि यह अच्छी बात है पर शायद मुझे थोड़ा और मज़बूत होने की ज़रूरत है।
अपने काम से संतुष्ट हैं?
मैं अपनी शर्तों पर जीने वाली लड़की हूं। ख़ुद से बहुत ज़्यादा उम्मीदें हैं मुझे। मैंने अपने लिए कुछ लक्ष्य तय कर रखे हैं जो हासिल करने हैं। मैं बहुत महत्वाकांक्षी हूं और ऐसा कम होता है जब अपने काम से मैं संतुष्ट होती हूं।
आपकी नज़र में आधुनिक स्त्री की परिभाषा क्या है?
जोखिम लेने वाली, आत्मविश्वास से भरी आत्मनिर्भर महिला। जो ख़ुद को अभिव्यक्त कर सके, अपनी बात रख सके। ख़ुशी की बात यह है कि अब महिलाएं ऐसा कर पाने में सक्षम सिद्ध हो रही हैं और हर मुश्किल को पार कर आगे आ रही हैं।
ख़ाली वक़्त में क्या करती हैं?
बंगलुरु चली जाती हूं। वहां मुझे माता-पिता और बहन के साथ वक़्त गुज़ारना अच्छा लगता है। संगीत सुनना पसंद है। खाना बनाना भी बहुत अच्छा लगता है।
...किस तरह का खाना बनाती हैं?
हर तरह का खाना बना लेती हूं लेकिन सबसे ज़्यादा पसंद है... बेकिंग। मैं कुकीज़, चॉकलेट और केक बहुत अच्छे बनाती हूं।
खाने में क्या पसंद है?
दक्षिण भारत का खाना बहुत पसंद है। दरअसल मुझे खाने का बहुत शौक़ है इसलिए हर तरह का खाना अच्छा लगता है।
फिट रहने के लिए क्या करती हैं?
नियमित रूप से योगा करती हूं। मेरे लिए फिटनेस का मतलब सिर्फ़ पतला दिखना नहीं है। अंदर से भी स्वस्थ रहना ज़रूरी है इसलिए अपनी डाइट का ख़ास ख़याल रखती हूं। सुबह पौष्टिक नाश्ता करती हूं ताकि दिन भर ऊर्जा बनी रहे। फल ख़ूब खाती हूं, भारी और गरिष्ठ भोजन नहीं करती। कोशिश रहती है कि रात को चावल या मांसाहार न लूं।
अपना जन्मदिन किस तरह मनाती हैं?
दिन की शुरुआत मंदिर जाकर करती हूं। पार्टियां बहुत ज़्यादा पसंद नहीं हैं। शूटिंग न हो तो परिवार के साथ दिन बिताना पसंद करती हूं।
कौन-सी जगह है, जहां बार-बार जाना चाहती हैं?
बंगलुरु, अपने घर। इसके अलावा उत्तर भारत में घूमना चाहती हूं। वहां ट्रैकिंग भी करना चाहती हूं। उत्तर भारत में कई जगह जाने की इच्छा है। वहां के ढाबों पर खाने का बहुत मन है। ऐसा नहीं है कि मैंने ढाबे पर कभी नहीं खाया, लेकिन सुना है कि उत्तर भारत के ढाबों की बात ही कुछ अलग है।
ज़िंदगी का फ़लसफ़ा क्या है?
ख़ुश रहना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। आप दुनिया के सबसे दौलतमंद इंसान हैं लेकिन बुनियादी तौर पर ख़ुश नहीं हैं तो सब बेमानी है।
आने वाले 5 साल में आप ख़ुद को कहां देखती हैं?
इसी इंडस्ट्री में, अच्छी फ़िल्मों में काम करते हुए। बहुत सारे अभिनेता और निर्देशक हैं जिनके साथ फ़िल्में करना चाहती हूं। मैं ख़ुद को एक बेहद सफल इंसान के रूप में देखना चाहूंगी लेकिन दिली ख़्वाहिश यही है कि लोग मुझे हमेशा एक अच्छे इंसान के रूप में याद रखें।
शूटिंग से जुड़ा कोई दिलचस्प वाकया साझा करना चाहेंगी?
हम लंदन में देसी बॉयज की शूटिंग कर रहे थे। लंदन के जिस हिस्से में शूटिंग चल रही थी, वहां हिन्दुस्तानी काफी तादाद में हैं। एक दिन अनुपम खेर के साथ मेरा शूट था। एक महिला हमारे पास आई और बोली कि आप यहां कई दिन से शूटिंग कर रहे हो, बुरा न मानो तो क्या मैं आपके लिए घर का खाना ला सकती हूं? और अगले दिन वे हमारे लिए अपने हाथ से बना खाना लेकर आईं। शूटिंग में अक़सर हमें बाहर का ही खाना पड़ता है लेकिन उस दिन सबको बहुत अच्छा लगा। यह घटना मैं कभी नहीं भूल सकती।
फ़िल्म बचना हसीनो के गाने ख़ुदा जाने की शूटिंग में भी बहुत मज़ा आया। इस गाने की शूटिंग इटली में हुई थी। गाने में एक शॉट है जब मैं घूमती हूं और बहुत सारे कबूतर उड़ते हैं। मुझे कबूतरों से डर लगता है लेकिन उनके लिए मेरी बांहों पर दाने रखे जाते थे और हर शॉट से पहले क़रीब 25-30 कबूतर मुझ पर आ बैठते। इस दृश्य को फ़िल्माने में काफी मुश्किल हुई। कुछ खरोंचें भी आईं लेकिन वे एक अच्छा अनुभव रहा। इस गाने को 10 दिन तक इटली की अलग-अलग जगह फ़िल्माया गया था। एक गाने के लिए शायद ही कोई इतना घूमा हो। लोकेशन्स इतनी ख़ूबसूरत थीं कि वक़्त कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। अगर यह गाना नहीं होता तो मैं शायद ऐसी जगहों से अनजान रहती। वे लोकेशन्स इतनी प्यारी हैं कि मैं वहां हनीमून मनाना चाहूंगी। 
...शादी कब कर रही हैं?
फिलहाल नहीं। अभी करियर पर ही पूरा ध्यान है मेरा।
सबसे अच्छा कॉम्पलिमेंट कब और किसने दिया है?
हुसैन (मक़बूल फ़िदा हुसैन) साहब ने। उनसे लंदन में मुलाक़ात हुई थी। हुसैन जी ने मुझे देखकर कहा कि तुम्हारी आंखों में मुझे आकाश, तारे और पूरा ब्रह्माण्ड नज़र आ गया।
अपने बारे में ऐसी बात बताएं जो कोई नहीं जानता।
मैं बहुत साधारण इंसान हूं। सादी चीज़ें पसंद हैं। और हां, मैं चॉकलेट्स की दीवानी हूं।
आपकी प्रिय किताबें?
मैं ज्यादा नहीं पढ़ती। पढ़ने से ज़्यादा मुझे संगीत सुनना पसंद है।
किस तरह का संगीत?
किशोर कुमार, मोहम्मद रफी, शान और सोनू निगम को सुनना पसंद है। अंग्रेज़ी गाने भी ख़ूब सुनती हूं।
पसंदीदा फ़िल्में?
दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे और हॉलीवुड की विक्की क्रिस्टीना बार्सिलोना’, जिसके निर्देशक वुडी एलन हैं।
प्रिय शहर?
आगरा।
...और विदेश में?
फ्रेंच रिविएरा, जो फ्रांस के दक्षिण-पूर्व में एक ख़ूबसूरत समुद्री किनारा है।
पसंदीदा परिधान?
मुझे साड़ी पहनना बहुत पसंद है। यह हिन्दुस्तान का पारंपरिक पहनावा है और मेरे ख़याल से दुनिया में इससे अच्छा परिधान नहीं है।
प्रिय राजनेता?
राहुल गांधी, वे युवाओं के प्रतिनिधि हैं।
जीवन का अर्थ?
ख़ुश रहना और ख़ुशियां बांटना। 

('अहा ज़िंदगी' पत्रिका के जनवरी 2012 अंक में प्रकाशित)

Monday, January 9, 2012

स्मृतियों में पहाड़

(कांगड़ा-धर्मशाला में बर्फ़बारी हुई है और मैं यहां मुंबई में तस्वीरें देख-देख चहक रही हूं. फिलहाल कोई दूसरा विकल्प है भी नहीं. बचपन में बड़े-बड़े ओले पड़ते हुए कई बार देखे वहां, लेकिन बर्फ़ 35 साल बाद गिरी है. काश, इस नज़ारे का लुत्फ़ ले पाती! मिसिंग दैट व्हाइट चार्म!!)
 
धौलाधार की पहाड़ियों पर 
बर्फ़ झरी है बरसों बाद 
और कई सौ मील दूर 
स्मृतियों में 
पहाड़ जीवंत हो उठे हैं 

कहीं भी जाओ 
पीछा नहीं छोड़ते पहाड़ 
संग चलते हैं 
जीवन भर  

वही हिम
वही उजास
वही उल्लास

स्मृतियों में उदात्त पहाड़
स्मृतियों में धवल चांदनी
स्मृतियों में निरभ्र शांति 

मैं संतृप्त रहने की चेष्टा में हूं 
स्मृतियों का शोर जारी है। 

('जनसंदेश टाइम्स' में 1 अप्रैल 2012 को प्रकाशित)
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...