(यात्रा से जुड़ी अदम्य इच्छाओं पर एक कविता,
साथ में साल्वाडोर डाली का चित्र)
साथ में साल्वाडोर डाली का चित्र)
अनगिन लालसाएं
अनगिन यात्राओं की
न कोई पर्वत छूटे
न जंगल
न दरिया
न पठार
न बियाबान छूटे
न सागर
न रेत
न तलछट
न दर्रा छूटे कोई
न कंदरा
न घाटी
न आकाश
न उत्तर छूटे
न दक्षिण
न पूरब
न पश्चिम
न रंगीनी छूटे
न वीरानगी
न आनगी छूटे
न रवानगी
अनगिन लालसाएं
अनगिन यात्राओं की
कि धरती का
कोई छोर न छूटे
पर घर न छूटे
सुन्दर सृजन , सुन्दर भावाभिव्यक्ति.
ReplyDeleteplease visit blog.
कुछ छूटता कहाँ ?
ReplyDeleteछोड़ना पड़ता है
अच्छी रचना
घर ही तो छूट जाता है .... फिर सबकुछ इर्द गिर्द होकर भी दूर होता जाता है ...
ReplyDeleteवाह …………कितनी गहरी बात कह दी।
ReplyDeletejeevan bhi yaatra hai..kai patthaar..kai pahaad..kai saagar paar karne padte hain..jeevan ki ghaati mein gehre utar ke dekho to baaki ki yaatraayein maamooli lagne lagti hain..
ReplyDeleteघर और उसकी यादें तो हर सफर में साथ रहती हैं ... छूटती नहीं ...
ReplyDeleteजो घर फूंके आपणो चले हमारे साथ।
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना.... यही सच है...
ReplyDeleteबहुत खूब.......
ReplyDeleteकुछ पाया तो क्या???कुछ खोया भी तो!!!
अनगिन लालसाएं
ReplyDeleteअनगिन यात्राओं की
कि धरती का
कोई छोर न छूटे
चाहे जो भी छूटे,पर घर न छूटे....
माधवी जी,...वाह बहुत खूब,सार्थक अभिव्यक्ति सुंदर रचना,बेहतरीन पोस्ट....
ReplyDeletenew post...वाह रे मंहगाई...
बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeletebilkul ....prabhavshali rachana.
ReplyDelete`हजारों ख्वाहिशें ऐसी...`
ReplyDeleteइतना सब कुछ न छोड़ने की चाह में घर ही छूट जाता है ..गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteरश्मि प्रभा जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ ...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना
ReplyDeleteGyan Darpan
..
Shri Yantra Mandir
कितना छूट चुका
ReplyDeleteकितना छूट रहा है
सब कुछ छूट जायेगा
एक दिन शायद
या फिर छूट जाऊंगा
मैं?
बहुत खूब...
ReplyDeleteवाह बहुत खूब
ReplyDeleteअनगिन लालसाएं
अनगिन यात्राओं की
कि धरती का
कोई छोर न छूटे
चाहे जो भी छूटे,पर घर न छूटे...............
पर ऐसा होना संभव कहाँ ...दोनों में से एक का ही साथ रहेगा ..घर या लालसाएं.......चुनना हमको ही हैं ...आभार
bahut hi gahan rachna...
ReplyDeleteLoved it!
ReplyDeleteये कविता पढ़ कर ग़ालिब का शेर -" बहुत निकली मेरे अरमान फिर भी कम निकले..." याद आ गया....पढ़ कर अच्छा लगा-
ReplyDeleteराजू पटेल.
सुन्दर..बहुत सुन्दर कवितायें!! :)
ReplyDeleteसॉरी, कवितायें नहीं..कविता :)
ReplyDeleteमाधवी जी , हम जिस दुनियॉ में जी रहे हैं उसका नाम ही मृत्युलोक है , यहॉ से तो सब कुछ छोड कर जाना पडेगा पर चूँकि हम घर से बँधी हैं , हमें घर से विशेष लगाव होता है । सुन्दर कविता , बधाई ।
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