Monday, April 23, 2012

अमिताभ में अ है, नकल में न है

(अमिताभ बच्चन की हिट फ़िल्मों 'डॉन' और 'अग्निपथ' के रीमेक ख़ास सफ़ल नहीं कहे जाएंगे। अब उनकी सुपरहिट फ़िल्म 'ज़ंजीर' का रीमेक बनाए जाने की ख़बर है। क्या यह ओरिजनल फ़िल्म जैसा जादू जगा पाएगा! एक विश्लेषण...)
सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने हाल में अपने ब्लॉग पर लिखा है कि फ़िल्म ज़ंजीर का रीमेक उनके लिए एक कॉम्प्लिमेंट है। अमिताभ इस फ़िल्म को दोबारा बनाए जाने को लेकर ख़ुश हैं। हालांकि उन्होंने यह भी कहा है कि रीमेक को लेकर उनकी कोई व्यक्तिगत राय नहीं है। अमिताभ कहते हैं कि, मैंने ज़ंजीर में बतौर कलाकार काम किया और मुझे इसका मेहनताना मिला, बस। फ़िल्म के रीमेक पर मेरी राय लेना ठीक नहीं होगा। मैं केवल अपनी शुभकामनाएं दे सकता हूं, और उम्मीद करता हूं कि यह रीमेक सफल हो।
निर्माता-निर्देशक प्रकाश मेहरा ने 1973 में अमिताभ को लेकर सुपरहिट ज़ंजीर बनाई थी। एंग्री यंगमैन की भूमिका में अमिताभ का जादू 39 बरस बाद भी बरकरार है। अमिताभ के अलावा एंग्री यंगमैन’ की छवि में किसी और को सोच पाना आज भी मुश्किल लगता है। 
नई ज़ंजीर से बंधेंगे दर्शक?
नज़रें ज़ंजीर के रीमेक पर टिकी हैं, जिसे बना रहे हैं निर्देशक अपूर्व लखिया। अपूर्व इससे पहले मुंबई से आया मेरा दोस्त, मिशन इस्तांबुल और शूटआउट एट लोखंडवाला जैसी फ़िल्मों का निर्देशन कर चुके हैं। दक्षिण के सुपरस्टार चिरंजीवी के पुत्र राम चरण तेजा मुख्य भूमिका में हैं। राम, तेलुगु सिनेमा के लोकप्रिय सितारे हैं। हिन्दी में यह उनकी पहली फ़िल्म है। जया के किरदार में प्रियंका चोपड़ा नज़र आएंगी। प्राण का शेर ख़ान वाला किरदार अर्जुन रामपाल निभाएंगे, वहीं प्रकाश राज और माही गिल भी अहम भूमिकाओं में हैं।
नहीं चला रीमेक का जादू
रीमेक बनाने वालों की पहली पसंद अमिताभ की फ़िल्में रही हैं। लेकिन अमिताभ की फ़िल्मों के रीमेक को दर्शकों ने हाथो-हाथ नहीं लिया क्योंकि वे अमिताभ के लॉयल फैन हैं। 
डॉन के सुपर-डुपर हिट गाने खाई के पान बनारस वाला में शाहरुख़ ख़ान अमिताभ के झटकों-लटकों के सामने फीके नज़र आए। डॉन के रीमेक के लिए शाहरुख ने भले जी-तोड़ मेहनत की, लेकिन अमिताभ तो अमिताभ ठहरे। उनके जूते में किसी और हीरो का फिट होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है।
अग्निपथ के रीमेक में  विजय दीनानाथ चौहान बनकर ऋतिक ने थोड़ी-बहुत तारीफ़ बटोरी, लेकिन अमिताभ का क़द नहीं छू सके। अमिताभ ने अग्निपथ के लिए अपनी आवाज़ पर ख़ास तवज्जो दी थी। दर्शकों के लिए इस फ़िल्म में अमिताभ का रूप अनोखा और अद्भुत था। अग्निपथ के बाद आज तक मिमिक्री आर्टिस्ट अमिताभ के विजय दीनानाथ चौहान वाले किरदार को अभिनीत कर तालियां बटोरते हैं। पर उसके उलट, रिमेक वो जलवा नहीं बिखेर पाई जो अग्निपथ ने बिखेरा था। नई अग्निपथआंशिक रूप से बेशक सफ़ल रही हो लेकिन फ़िल्म का एक भी संवाद याद रखने लायक नहीं लगा। 
फ़िल्म शोले के रीमेक का ज़िक्र बेमानी है। कहां शोले के गाने व संवाद, और कहां रामगोपाल वर्मा की बेहूदी आग’! ख़ुद रामगोपाल ट्विटर पर इसकी धज्जियां उड़ाते नज़र आए। शोले के जय को आग के बब्बन सिंह के रूप में दर्शक पचा नहीं पाए। यहां तक कि स्वयं अमिताभ भी आग को बुझने से नहीं रोक पाए। बेचारे दर्शकों के दिल जलाकर राख़ कर दिए रामू की आगने। और बॉक्स ऑफिस पर तो पानी भी नहीं मांगा फ़िल्म ने।  
नायक नहीं, महानायक
अमिताभ बच्चन को सदी का महानायक यूं ही नहीं कहते। अमिताभ उस दौर के नायक हैं जब बड़ा पर्दा लोगों के लिए बड़ी बात थी। अमिताभ की फ़िल्में लार्जर दैन लाइफ थीं। अपने प्रिय नायक के सुख-दुख के भागीदार दर्शक थियेटर से बाहर निकलकर भी बाहर नहीं आ पाते थे। वे देर तक मंत्रमुग्ध रहते थे। अमिताभ के निभाए जानदार किरदार ज़हन में रहते और शानदार डायलॉग ज़बान पर। अब हर हफ़्ते दो-चार नई फ़िल्में आती हैं और चली जाती हैं। न कहानी का पता चलता है, न किरदार का। ऐसे में रीमेक बनाने का रिस्क कहां तक ठीक है, यह दर्शक ही तय करेंगे। 
टीवी पर भी बेजोड़ 
फ़िल्में तो फ़िल्में, टीवी पर भी अमिताभ के सामने सारे सुपरस्टार फेल रहे। कौन बनेगा करोड़पति’ पर अमिताभ शो का आग़ाज़ करते थे और उधर गली-मोहल्ले सुनसान हो जाते थे। घंटे भर के लिए लोग टेलीविज़न सेट से ऐसे जा चिपकते जैसे गुड़ से मक्खियां। दिमाग पर ज़ोर डालने पर ही याद आता है कि कभी शाहरुख़ ख़ान ने भी केबीसी को होस्ट किया था। अमिताभ का जलवा ही ऐसा है, वे पूरी तरह हावी हो जाते हैं दर्शकों पर। उस दौर में एक टीवी कार्यक्रम में बतौर होस्ट आए गोविंदा भी दर्शकों को पसंद नहीं आए। सलमान ख़ान ने भी 'दस का दम' में थोड़ा दम भरा लेकिन टीवी पर बिग बी की शोहरत की बराबरी अभी तक नहीं कर पाए हैं।
बहरहाल ज़ंजीर पार्ट-टू को शुभकामनाएं। रीमेक फ़िल्मों ने अब तक निराश किया है। लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है और बच्चन साहब की तरह हम भी यही उम्मीद कर सकते हैं कि नई ज़ंजीर को कामयाबी मिले।
-माधवी

(अमर उजाला के मनोरंजन परिशिष्ट में 22 अप्रैल 2012 को प्रकाशित)

Friday, April 13, 2012

हम चाहें तो सब बदल सकते हैं

(वे शोख़, मासूम और फूल-सी दिखती हैं, लेकिन पर्दे पर उनकी परिपक्वता हैरान कर देती है। वे जितनी बिंदास और अल्हड़ हैं, अभिनय को लेकर उतनी ही संजीदा भी हैं। अलग लुक्स’  और ख़ास अभिनय शैली के लिए चर्चित इस अभिनेत्री का नाम कल्कि कोचलिन है। कल्कि की फ़िल्मी पारी की शुरुआत देव डी से हुई। पहली फ़िल्म से अपनी अदाकारी का लोहा मनवा चुकी कल्कि हर फ़िल्म के साथ असर छोड़ने में सफल रही हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री के अनुभव और निजी जीवन के बारे में कल्कि बेबाकी से बात करती हैं।)

आप अंग्रेज़ी थिएटर कर रही थीं, देव डी में ब्रेक कैसे मिला?
मैं मुम्बई में थिएटर और मॉडलिंग कर रही थी। यूटीवी के पास मेरा पोर्टफोलियो था और मुझे देव डी के ऑडिशन के लिए बुलाया गया। मैंने कास्टिंग डायरेक्टर से कहा कि मैं यह रोल नहीं कर पाऊंगी क्योंकि मेरी हिन्दी बहुत बुरी है। उन्होंने मुझे अंग्रेज़ी में स्क्रिप्ट दी। मेरा पहला ऑडिशन अंग्रेज़ी में हुआ और मैंने दो हफ़्ते बाद वही ऑडिशन हिन्दी में दिया। अनुराग कश्यप पहले मेरी तसवीरें देखकर रिजेक्ट कर चुके थे। अनुराग का कहना था कि मुझे मॉडल जैसी दिखने वाली नहीं बल्कि एक्टिंग करने वाली लड़की चाहिए। ऑडिशन देखकर उन्होंने मुझे फ़ोन किया और देव डी में काम करने को कहा।
देव डी’  में चंद्रमुखी का किरदार निभाना कैसा अनुभव कैसा रहा?
मुश्किल था, क्योंकि मेरी हिन्दी कमज़ोर थी। मैं पहली बार कैमरे के सामने थी और बहुत नर्वस थी। शूटिंग के दौरान अभय और अनुराग ने मेरी बहुत मदद की। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि मैं सहज रहूं। एक शॉट में 15 टेक लेने के लिए स्वतंत्र थी... मतलब मुझ पर किसी तरह का दबाव नहीं था। मुझे उस वक़्त यह नहीं पता था कि फ़िल्म इंडस्ट्री में किस तरह काम होता है। लेकिन मेरी इनोसेंस चंद्रमुखी के लिए अच्छी साबित हुई। 
पढ़ाई-लिखाई कहां हुई?
शुरुआती पढ़ाई ऊटी के इंटरनेशनल स्कूल से हुई। फिर थिएटर की पढ़ाई के लिए मैं इंग्लैंड चली गई। मैं ख़ुद को एक आम भारतीय समझती थी, लेकिन टीनएज तक आते-आते यह एहसास होने लगा था कि मैं अलग दिखती हूं, लोग मुझसे अलग व्यवहार करते हैं, मेरी ओर ज़्यादा देखते हैं।
हिन्दी कैसे सीखी?
मुम्बई आकर मैंने थोड़ी-बहुत हिन्दी बोलनी शुरू की। ऑटो वालों से बात करते वक़्त, खाना ऑर्डर करते समय या लोकल ट्रेन में सफ़र करते हुए हिन्दी बोलती थी। शॉपिंग करते हुए भी हिन्दी में बात करती थी जैसे... यह महंगा है’, नहीं चाहिए, मैं फिरंगी नहीं हूं। लेकिन हिन्दी सीखने की असल कवायद देव डी से हुई। मैं रोज़ सुबह हिन्दी वर्णमाला का अभ्यास करने लगी। इसके बाद भी मेहनत जारी रही, ख़ासकर ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा की शूटिंग के समय... क्योंकि ज़ोया चाहती थीं कि मेरी हिन्दी बेहतर हो। हिन्दी में सुधार लाने के लिए मैं लगातार कोशिश करती रही और अब भी कर रही हूं।
करिअर की शुरुआत में किस तरह की परेशानियां सामने आईं?
लोग मुझे विदेशी समझकर अक़सर यह पूछते थे कि मुझे भारत कैसा लगता है। चुनींदा लोगों को मालूम था कि मैं हिन्दुस्तान में पैदा हुई हूं और यहीं पली-बढ़ी हूं। मेरे हिन्दी न बोल पाने की वजह से लोगों को ग़लतफ़हमी होती थी। सबसे पहले यह साबित करना था कि मैं भारतीय हूं। एक्टिंग में ख़ुद को प्रूव करना था। लोग सोचते थे कि मैं अभिनय को लेकर गंभीर नहीं हूं, कोई रोल मिल गया है जिसे मैं मज़े के लिए कर रही हूं। 
थिएटर और फ़िल्मों में क्या अंतर पाती हैं?
दोनों काफी अलग हैं। थिएटर मेरा पहला प्यार है क्योंकि इसमें एक्टिंग ज़्यादा चुनौतीपूर्ण है। थिएटर लाइव है, दर्शक सामने होते हैं, आप दूसरा टेक नहीं ले सकते। थिएटर में मेहनत है, लेकिन पैसा नहीं है। फ़िल्मों में कई बार स्क्रिप्ट पढ़े बिना काम चल जाता है, सेट पर जाओ और शूटिंग शुरू। अच्छी बात यह है कि फ़िल्मों में डिस्कवर करने के लिए बहुत कुछ है, रिसर्च का काम होता है। फ़िल्मों के लिए ज़्यादा अनुशासन की ज़रूरत है। 
किस तरह के रोल करना चाहती हैं?
मुझे लगता है, लोगों की धारणा बनने लगी है कि मैं सिर्फ़ गंभीर रोल करना चाहती हूं... जबकि ऐसा नहीं है। अच्छा एक्टर वही है जो ख़ुद को किसी दायरे में न बंधने दे। मैं हर तरह का रोल करने में सक्षम हूं, भले ही कॉमेडी क्यों न हो। लेकिन मुझे पता है कि मैं आइटम नंबर करूं तो अच्छी नहीं लगूंगी।
ख़ाली वक़्त में क्या करती हैं?
किताबें पढ़ती हूं, फ़िल्में देखती हूं। ट्रेकिंग पसंद है। मौक़ा मिलते ही पहाड़ों पर जाती हूं। यह भूलकर कि मैं ग्लैमर की दुनिया से जुड़ी हूं, दिल खोलकर मस्ती करती हूं। मुझे घूमने-फिरने का बहुत शौक़ है।
कहां-कहां घूम चुकी हैं?
हाल में तुर्की से लौटी हूं। बहुत ख़ूबसूरत देश है। तुर्की और हमारे देश में काफी समानता है। वहां की ज़बान में र्दू के शब्द हैं, जो पकड़ में आ जाते हैं। तुर्की का संगीत और खाना लाजवाब है। लोगों का रवैया बहुत अच्छा है, वो आज़ाद ख़याल हैं। तुर्की पूरब और पश्चिम का शानदार मिश्रण है, उस देश ने नए मूल्यों को सहजता से अपनाया है। भारतीयों के पास यह कला नहीं है। हमें इस बात का गर्व नहीं है कि हम भारतीय हैं, न हमें यह स्वीकारना आता है कि भारतीय आधुनिक और खुले दिमाग के हो सकते हैं।
बचपन के दिन याद आते हैं?
पहला रोल याद करती हूं तो हंसी आती है। मैं छह साल की थी और एक नाटक में भेड़ का रोल कर रही थी। मेरा काम सिर्फ़ बा-बा की आवाज़ निकालना था। अभिनय के अलावा, पुदुचेरी की याद भी बहुत आती है। वहां काफी समय मिल जाता था... पढ़ने के लिए, दोस्तों से मिलने-जुलने के लिए, प्रकृति के बीच समय गुज़ारने के लिए। मुंबई में इन सब चीज़ों के लिए वक़्त नहीं निकाल पाती।
किस्मत पर कितना भरोसा है?
मुझे नहीं लगता कि सब पूर्वनिर्धारित है। हम अपनी तक़दीर ख़ुद बनाते हैं। किस्मत का हवाला देकर बैठे रहने से कुछ नहीं होता। हम चाहें तो सब कर सकते हैं, सब बदल सकते हैं। 
ख़ुद में क्या अच्छा लगता है?
सकारात्मक रवैया। मैं आधे ख़ाली गिलास को आधा भरा हुआ मानती हूं। जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है लेकिन हमें आशावादी बने रहना चाहिए। निराश होकर रोना आसान है लेकिन यह जीने का सही ढंग नहीं है।
और क्या पसंद नहीं है?
हमेशा कुछ-न-कुछ करते रहना चाहती हूं। जब तक काम करती हूं तब तक ठीक है, लेकिन ख़ाली होते ही बेचैन हो जाती हूं। मुझे लगने लगता है कि जीवन बर्बाद हो रहा है। मेरे ख़याल से मुझे थोड़ा धैर्य रखने की ज़रूरत है। यहां तक कि छुट्टियां बिताने कहीं बाहर जाती हूं तो भी शांति से नहीं बैठ पाती।
आने वाले पांच साल में ख़ुद को कहां देखती हैं?
एक्टिंग करते हुए। मेरा सबसे बड़ा सपना है कि आज से पचास साल बाद भी मैं अगर ज़िंदा हूं तो आप मुझे एक्टिंग करते हुए ही पाएं।
खाने में क्या पसंद है?
खाने की बहुत शौकीन हूं। मुझे लगता है कि भारतीय खाना विश्व में सर्वश्रेष्ठ है। दक्षिण भारतीय होने के कारण वहां का खाना अच्छा लगता है। कश्मीरी भोजन पसंद है, यखनी और मटन के नाम से मुंह में पानी आ जाता है। बंगाली खाना अच्छा लगता है। जब किसी नई जगह जाती हूं तो स्थानीय भोजन ज़रूर चखती हूं।
...खाना बनाती भी हैं?
कभी-कभार। वैसे तो घर में भारतीय खाना बनता है लेकिन जब मैं रसोई में होती हूं तो नए प्रयोग करती हूं। एप्पल पाई और कीश(Quiche) बहुत बढ़िया बना लेती हूं। चायनीज़ खाना भी अच्छा बनाती हूं। 
कोई दिलचस्प वाक़या? 
ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा में एक गाना है... सूरज की बांहों में, जिसमें हम सब नाच रहे हैं। शूट से पहले मैंने ज़ोया से कहा कि प्रैक्टिस के लिए मुझे ज़्यादा वक़्त चाहिए क्योंकि मुझे नाचना बिल्कुल नहीं आता। ज़ोया ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। शूट शुरू हुआ और मैं एक भी स्टेप ठीक से नहीं कर पा रही थी जबकि ऋतिक, कटरीना और बाकी सब बहुत अच्छा नाच रहे थे। ज़ोया ने मुझसे कहा कि तुम जैसा चाहो, वैसा नाचो... और मैंने अजीब डांस किया। ज़ोया हंसने लगीं, और उन्होंने मुझसे वादा लिया कि जब उनकी शादी होगी तो मैं उसमें डांस करूंगी। 
आपका सबसे बड़ा आलोचक कौन है?
अनुराग (कश्यप) मेरे सबसे बड़े आलोचक हैं। कोई स्क्रिप्ट लिखती हूं तो अनुराग को दिखाती हूं। एक आलोचक के तौर पर वे काफी कठोर हैं, लेकिन अच्छे सुझाव देते हैं।
कोई अधूरी इच्छा?
मैं पढ़ाई के लिए न्यूयॉर्क जाना चाहती थी लेकिन दाख़िला नहीं मिला। न्यूयॉर्क में थिएटर का माहौल ग़ज़ब का है। वहां नए कलाकारों और लेखकों के पास स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए बहुत अवसर हैं।
परिवार में कौन-कौन है?
माता-पिता, जो फ्रेंच मूल के हैं। मेरे पिता छोटे जहाज़ डिज़ाइन करते हैं। मां अभी रिटायर हुई हैं, वो ऑलियॉन्स फ्रॉन्से (Alliance Française) में फ्रेंच पढ़ाती थीं। बड़ा भाई चेन्नै में है और कार कंपनी में काम करता है।
अनुराग से शादी का फ़ैसला कब लिया?
देव डी के बाद मैं फिर से थिएटर करने लगी। एक दिन अनुराग ने मुझे फ़ोन किया और डिनर पर चलने को कहा। मैंने उन्हें मना कर दिया। एक डायरेक्टर जो तलाकशुदा है, उम्र में बड़ा है और मुझे इस तरह फ़ोन कर रहा है... ये सोचकर मैं डरी हुई थी। मैं जहां रिहर्सल करती थी, अनुराग वहां रोज़ आते और एक ही बात कहते कि मेरे साथ डिनर पर चलो। आख़िर मैं उनके साथ डिनर पर गई, उस दिन से सब कुछ बदल गया।
हमारी एक बात मिलती-जुलती है कि हम दोनों ईमानदार हैं। अनुराग बहुत स्पष्टवादी हैं। वे लोगों के लिए बदलते नहीं... जो कैमरे के सामने हैं, वही पीछे हैं।
शादी को लेकर माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया थी?
वे बहुत ख़ुश थे। पूछते रहते थे कि तुम दोनों कब शादी कर रहे हो। ख़ासतौर से मेरी मां। वे चाहती थीं कि मैं जल्द शादी करूं और सज-धजकर मंडप में बैठूं। मां की इच्छा के अनुसार हमने ऊटी में परंपरागत आर्यसमाज शैली से विवाह रचाया।
अनुराग की क्या बात पसंद नहीं है?
अनुराग बहुत ज़िद्दी हैं, बिल्कुल बच्चे की तरह। उनके काम की आलोचना करती हूं तो वे कहते हैं कि तुम्हें इस इंडस्ट्री के बारे में कुछ मालूम नहीं है, मैं यहां बीस साल से हूं। अनुराग से कुछ कहती हूं तो उनका पहला रिएक्शन होता है... नहीं, लेकिन दो दिन बाद वही काम अपने-आप कर लेते हैं।
सेट पर अनुराग किस तरह पेश आते हैं?
अनुराग के साथ काम करने में मज़ा आता है। सेट पर वे हमेशा ऊर्जा से भरे रहते हैं। हालांकि मैं कई बार घबरा जाती हूं क्योंकि वे बहुत इम्प्रोवाइज़ करते हैं। मैं बहुत मेहनत से अपनी लाइनें याद करती हूं, और अचानक अनुराग बोलते हैं कि यह सीन नहीं करना है। अच्छी बात यह है कि अनुराग एक्टर्स पर दबाव नहीं डालते।
अनुराग से शादी के बाद जीवन में क्या अंतर आया है?
मैं शांत हो गई हूं। ज़िंदगी में जब प्यार साथ होता है तो आप भटकना बंद कर देते हैं। आपके अंदर अपने-आप स्थिरता आ जाती है। इससे पहले वक़्त भागते हुए बीता। इंग्लैंड से थिएटर की पढ़ाई के दौरान अकेली थी और मुझे सब कुछ अपने दम पर करना था। मेरी पहली नौकरी इंग्लैंड में लगी, पहला बॉयफ्रेंड वहीं था, बहुत सारे दोस्त भी थे। इंग्लैंड में सीखने को बहुत-कुछ मिला लेकिन वहां मेरा दिल नहीं लगा। मैंने अपने देश लौटने का फ़ैसला किया जो जीवन का टर्निंग पॉइंट है।
फ़िल्मों में बोल्ड सीन किस तरह दिए?
मैं पूर्वाग्रह के साथ एक्टिंग करने से बचती हूं। देव डी की चंद्रमुखी मेरे लिए कोई वेश्या नहीं बल्कि एक ऐसी युवती थी जिसका परिवार उसे नकार चुका था। मुझे उस लड़की की मानसिकता को समझना था जिसका मुसीबत के समय सब साथ छोड़ जाते हैं। दैट गर्ल इन येलो बूट्स में मेरा रोल ऐसी युवती का था जिससे मैं कनेक्ट कर पा रही थी। कोई रोल करते हुए अगर अपने जीवन में झांकती हूं और कहीं-न-कहीं उससे रिलेट कर पाती हूं तो आसानी होती है। 
फ़िल्म शंघाई में किस तरह का रोल है?
शंघाई भारतीय राजनीति पर केंद्रित फ़िल्म है। इसमें शालिनी का किरदार निभा रही हूं, जो एक छात्रा और राजनीतिक कार्यकर्ता है। 
आपके लिए सिनेमा का क्या अर्थ है?
सिनेमा कहानी कहने का एक माध्यम है। कहानी, जो आपको सोचने पर मजबूर करे। मेरे लिए यह इंसानों को समझने का ज़रिया है। सिनेमा हमारी सोच और नज़रिए को विस्तार देता है। फ़िल्मों में हम अलग-अलग किरदारों के बारे में जानने की कोशिश करते हैं, जबकि असल जीवन में लोगों को बिना जाने-समझे उनके बारे में क़यास लगाते हैं।
ऐसी कौन-सी जगह है, जहां बार-बार जाना चाहती हैं?
भारत का हर कोना घूमना चाहती हूं। वैसे मुझे कश्मीर बहुत पसंद है, ख़ासतौर से गुलमर्ग। हिमाचल और राजस्थान बार-बार जाना चाहती हूं। उत्तर-पूर्व और लद्दाख जाने की दिली इच्छा है। मुझे फाइव-स्टार होटलों में रहना पसंद नहीं है। दूर-दराज़ के इलाक़ों में जाती हूं तो यह कोशिश रहती है कि मैं किसी स्थानीय के घर जाकर खाना खाऊं। हालांकि, यह आजकल थोड़ा मुश्किल हो गया है क्योंकि लोग मुझे पहचानने लगे हैं।
...और विदेश में?
पेरिस, बहुत ख़ूबसूरत शहर है और मेरे कुछ दोस्त भी हैं वहां। इसके अलावा कनाडा पसंद है। यह साफ-सुथरा और ख़ूबसूरत देश है, लोग ख़ुशमिजाज़ हैं।
जीवन दर्शन क्या है?
हर दिन कुछ-न-कुछ सीखना। इस बात की कोशिश करना कि आने वाला दिन आज से बेहतर हो।
किसे आदर्श मानती हैं?
माता-पिता को। उनके पास पैसा नहीं था, परिवार नहीं था और वे बंजारों की तरह भटकते थे। हिन्दुस्तान से प्यार हुआ तो यहीं बस गए। अब दोनों शांत हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन बेफ़िक्री से बिताया। लेकिन अब उन्हें संतुष्ट देखती हूं तो ख़ुशी होती है।
एक्टिंग के क्षेत्र में डेनियल डे-लुईस मेरे आदर्श हैं। वे एक असाधारण कलाकार हैं। किसी किरदार को निभाने से पहले जी-तोड़ मेहनत करते हैं।
पाठकों के लिए संदेश?
लोगों को बिना जाने-समझे उनका आकलन न करें। प्रसन्न रहने की कोशिश करें। दूसरे लोग क्या कर रहे हैं, इसके बजाय अपने काम पर ध्यान दें।
प्रिय किताबें?
शेक्सपियर मेरे पसंदीदा हैं। विक्रम सेठ की ए सूटेबल बॉय और ऑस्कर वाइल्ड की द पिक्चर ऑफ डोरियन ग्रे पसंद है। जीवनियां और दर्शन की किताबें पढ़ना अच्छा लगता है। स्वामी विवेकानन्द और श्री अरबिंदो की किताबें ख़ूब पढ़ती हूं।
प्रिय फ़िल्में?
गुरु दत्त की प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम, केतन मेहता की मिर्च-मसाला और मुज़फ्फर अली की उमराव जान पसंदीदा फ़िल्में हैं। विदेशी फिल्मों में मार्सेल कार्ने की लेसॉन्फॉ दु पारादी (Les Infants du Paradis)। यह 1950 के दशक की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म है। मार्टिन स्कारसेज़ी की द रेजिंग बुल और टैक्सी ड्राइवर पसंदीदा हैं। मिशेल गोंड्री की एटर्नल सनशाइन ऑफ द स्पॉटलैस माइंड पसंद है।
प्रिय गाने?
पुराने हिन्दी गाने। संगीतकार माइकी मैकलीयरी (Mikey Mccleary) की एलबम द बारटेंडर बेहद पसंद है। उन्होंने पुराने गानों को नए म्यूज़िक के साथ बेहतरीन ढंग से पेश किया है।
प्रिय अभिनेता?
इरफ़ान। रणबीर कपूर भी अच्छे हैं, रॉक स्टार में उन्होंने कमाल का काम किया है। अभिनेत्रियों में तब्बू पसंद है। प्रियंका चोपड़ा बेहतरीन अभिनेत्री हैं और अपने काम से हमेशा हैरान करती हैं।
मुंबई में प्रिय जगह?
पृथ्वी थिएटर। वहां अक़सर जाती हूं, नाटक देखने।
जीवन का अर्थ?
जीवन एक पाठशाला है। जैसे हम स्कूल में सीखते हैं, वैसे ही ज़िंदगी में भी रोज़ाना कुछ-न-कुछ सीखने को मिलता है।
कल्कि नाम किसने रखा?
कल्कि विष्णु का अवतार है। मां ने मेरा नाम रखा है। उन्हें यक़ीन है कि मैं दुनिया बदल सकती हूं। 

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के अप्रैल 2012 अंक में प्रकाशित)

Wednesday, April 4, 2012

प्राणवान प्रतिमा की तरह उनसे मिली दुनिया

मन के भीतर की यात्रा अनवरत है। कहना कठिन है कि यह अंतर्यात्रा कब और कैसे शुरू होती है पर बाहर की यात्रा एक छोटे-से क़दम से शुरू हो जाती है। कभी, किसी अनजान जगह पर निरुद्देश्य भटकने से हम वो पा जाते हैं जो दस किताबें पढ़कर नहीं पाते। घूमना ख़ुद को खोजने जैसा है, ख़ुद को पाने जैसा है। घूमना ज़िंदगी से श्क लड़ाने जैसा है। हम जब किसी सफर से लौटते हैं तो वैसे कहां रह जाते हैं, जैसे सफर पर निकलने से पहले थे। यात्राएं हमें जीवन के प्रति एक नई समझ, नई दृष्टि और नया अर्थ देती हैं। मोहम्मद की एक सूक्ति मुझे हमेशा याद आती है... यह मत बताओ कि तुम कितने पढ़े-लिखे हो, बल्कि यह बताओ कि तुमने जीवन में कितनी यात्राएं की हैं।ज्ञान-वृद्धि और अनुभव-संचय के लिए यात्राएं यकीनन उतनी ही ज़रूरी हैं जितना किसी का उम्रदराज़ होना। यात्राओं में हम वो सीख पाते हैं, वो देख पाते हैं, जो कहीं जाए बिना अनुभव हीं कर सकते यात्राएं हमें भीतर से निखारती हैं, भीतर से समृद्ध करती हैं। यात्राएं हमारी दृष्टि व्यापक करती हैं। जीवन में छोटी-छोटी बातें, जिनमें फंसकर हम अक़सर अपना क़्त ज़ाया करते हैं, वही बातें फिज़ूल, बेमानी लगने लगती हैं। यात्राएं हमें उदार बनाती हैं।
मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ चीज़ है घुमक्कड़ी... महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अविरत यात्राओं और चिन्तन के बाद ऐसा कहा होगा! यह शत-प्रतिशत सच है क्योंकि घुमक्कड़ी में हम सब कुछ-न-कुछ ज़रूर हासिल करते हैं। और इसमें भी दो राय नहीं कि विश्व के सभी महान यात्रियों ने हमारे समाज, देश और दुनिया को कहीं-न-कहीं परिष्कृत किया है। वो यात्री जो इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो गए, वो यात्री जो अपने अनुभवों से हमें लाभान्वित कर गए, वो यात्री जो हमारी स्मृतियों में रह गए... उन यात्रियों को समर्पित हमारी विकास यात्रा...
धर्म की खोज में यात्राएं
ह्वेन सांग बहुत छोटे थे जब उन्होंने अपने पिता के सामने बौद्ध भिक्षु बनने की इच्छा व्यक्त की थी। चीनी मूल के ह्वेन सांग ने 13 साल की उम्र में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। बौद्ध धर्म के मूल ग्रंथ में विसंगतियां और विरोधाभास देख उन्होंने भारत जाकर इस धर्म का अध्ययन करने की ठानी। ह्वेन सांग इससे पहले फाह्यान की भारत यात्रा के बारे में सुन चुके थे। बौद्ध धर्म में गहन रूचि और फाह्यान की यात्रा ने उत्कट प्रेरणा का काम किया और ह्वेन सांग निकल पड़े भारत की यात्रा पर। ताशकंद और समरकंद होते हुए वे पेशावर और फिर तक्षशिला पहुंचे। तक्षशिला में ह्वेन सांग की मुलाक़ात एक महायान भिक्षु से हुई और उन्होंने वहां दो साल रहकर बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। इस दौरान उन्होंने बौद्ध धर्म और अपनी यात्राओं के बारे में काफी कुछ लिखा। लाहौर, कश्मीर, जालंधर, कुल्लू, मथुरा, नेपाल, वाराणसी, पटना और बोध गया जैसे नगरों की ख़ाक छानते हुए ह्वेन सांग ने तत्कालीन भारतीय संस्कृति को क़रीब से जाना। नालंदा में ह्वेन सांग कई साल रहे और संस्कृत व बौद्ध दर्शन में दक्षता प्राप्त की। भारत प्रवास के दौरान एक विद्वान के रूप में ह्वेन सांग की ऐसी ख़्याति फैली कि राजा हर्षवर्धन ने उन्हें अपना संरक्षण दिया। 
ह्वेन सांग से जुड़ा एक किस्सा है। अपने साथ बौद्ध धर्म के हज़ारों ग्रंथ लिए ह्वेन सांग जब भारत से लौट रहे थे तो एक जगह उन्हें नदी पार करनी पड़ी। बहुत ज़्यादा भार के कारण नाव डोलने लगी। नाविक ने ह्वेन सांग को कुछ किताबें नदी में फेंकने को कहा ताकि भार कम हो। यह सुन ह्वेन सांग उदास हो गए। नाव में चित्रगुप्त और धर्मगुप्त नाम के दो भाई भी सवार थे। दोनों ह्वेन सांग के असमंजस को भांप गए और एक-दूसरे से आंखों-आंखों में इशारा कर नदी में कूद पड़े। इस तरह उन दो भाइयों ने दुर्लभ ज्ञान की रक्षा अपनी जान देकर की।
ह्वेन सांग की भारत यात्रा का वृत्तान्त 'सी-यू-की' में है। इस किताब में ह्वेन सांग की लगभग 138 देशों की यात्राओं का ज़िक्र है। चीन लौटकर ह्वेन सांग ने एकमात्र चेतना मत की स्थापना की, जिसकी मुख्य अवधारणा है... पूरा विश्व केवल मन की प्रतिछवि है
जिसका हर सफ़र लहरों पर था
पुर्तगाली अन्वेषक वास्को द गामा अपनी समुद्री यात्राओं के लिए मशहूर हैं। वास्को द गामा ने चार जहाज़ी बेड़ों के साथ लिस्बन से कूच किया और दक्षिण अफ्रीका के केप ऑफ गुड होप अंतरीप से होते हुए भारत पहुंचे। वास्को से पहले किसी ने इतनी लंबी समुद्री यात्रा नहीं की थी, न ही कोई समुद्री रास्ते द्वारा यूरोप से भारत पहुंचने के बारे में कल्पना कर पाया था। पुर्तगाल से भारत के बीच समुद्री रास्ते की खोज वास्को द गामा की देन है। वास्को एक नहीं बल्कि तीन बार इस रास्ते से भारत पहुंचे।
तीसरी और अंतिम भारत यात्रा में जॉन तृतीय ने सन 1524 में उन्हें भारत का पुर्तगाली वायसराय नियुक्त किया। इतिहासकार मानते हैं कि भारत में अपने कार्यकाल के दौरान वास्को ने कई प्रशासनिक व्यवस्थाओं में सुधार किया। गोवा में वास्को के नाम पर वास्को द गामा शहर की स्थापना की गई। वास्को की मृत्यु कोच्चि (कोचीन) में हुई, जहां से उनके शरीर को वापस पुर्तगाल ले जाया गया।
मुसाफ़िर जो कभी नहीं थका
13वीं शताब्दी के इस महान यात्री का पूरा नाम अबु अब्दुल्ला मोहम्मद इब्न अब्दुल्ला अल लवाती अल तांजी इब्न बतूता है। मोरक्को के एक अमीर परिवार में जन्मे इब्न बतूता की यात्राओं की शुरुआत दिलचस्प है। इब्न बतूता जब 21 साल के थे तो हज के लिए मक्का गए। मोरक्को से मक्का तक की यात्रा लंबी थी, जिसमें कई महीने लग गए। लेकिन इस यात्रा में इब्न बतूता ने ऐसा रस पाया कि वे मक्का से वापस घर नहीं लौटे। वे अपना जीवन यात्राओं को समर्पित करने का निश्चय कर चुके थे। इस फ़ैसले के तहत इब्न बतूता ने हिन्दुस्तान का रुख़ भी किया। दिल्ली में मोहम्मद तुगलक के दरबार में उन्होंने कुछ समय के लिए काज़ी की नौकरी की। फिर मध्य भारत में मालवा होते हुए वे गोवा से मालदीव पहुंचे। वहां से श्रीलंका, चीन, पश्चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका और स्पेन के मुस्लिम इलाकों की यात्राएं कीं। उस दौर में ऐसी यात्राएं किसी के बूते की बात नहीं थी। 30 सा में 75000 मील से भी ज़्यादा का सफ़र तय किया इब्न बतूता ने। यहां तक कि उन्होंने अपने समकालीन यात्री मार्को पोलो का रिकॉर्ड भी तोड़ दिया। कई देश खंगालने के बाद इब्न बतूता मोरक्को लौटे, जहां उन्होंने अपनी आख़िरी सांसें लीं। इब्न बतूता की अनवरत यात्राओं से प्रभावित होकर मोरक्को के सुल्तान ने उनकी यात्राओं पर एक किताब निकाली। मूल अरबी में प्रकाशित इस किताब का अंगेज़ी अनुवाद रिहला- माई ट्रैवल्स नाम से है। इसमें इब्न बतूता की यात्राओं का सिलसिलेवार ब्योरा है।
14वीं सदी की शुरुआत में बगदाद कैसा रहा होगा! इसका ज़िक्र इब्न बतूता की किताब में है- फिर हमने अमन के घर और इस्लाम की राजधानी बगदाद की यात्रा की। यहां हिल्ला (इराक का एक शहर) की ही तरह दो पुल हैं, जिन पर लोग दिन-रात चहलकदमी करते हैं। बगदाद में गुसलखानों की कमी नहीं है, और उन्हें शानदार तरीके से बनाया गया है। गुसलखाने काले रंग से रंगे गए हैं, जिससे वे काले संगमरमर से दिखते हैं। काला रंग कुफा और बसरा शहरों के बीच से कहीं लाया गया है, जहां इसकी भरमार है।
अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा 
हिन्दी यात्रा साहित्य के जनक हैं केदारनाथ पांडेय, जो बौद्ध धर्म अपनाने के बाद राहुल सांकृत्यायन के नाम से जाने जाने लगे। राहुल सांकृत्यायन का बचपन अपने ननिहाल आज़मगढ़ में गुज़रा। राहुल के नाना फौजी रह चुके थे। नाना से फौजी जीवन की कहानियां और उनकी यात्राओं के अद्भुत किस्से सुन-सुन कर राहुल के भीतर एक यायावर जन्म ले चुका था। फिर राहुल ने एक शेर पढ़ा, जिसने उनके जीवन की दिशा बदल डाली। शेर था, सैर कर दुनिया की गाफ़िल ज़िन्दगानी फिर कहां, ज़िन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां.... इसे आत्मसात कर राहुल घर से निकल पड़े। जिज्ञासु प्रवृत्ति और वैराग्य ने उन्हें कहीं स्थिर नहीं रहने दिया। वे जीवन भर घुमक्कड़ रहे। यात्रा में हुए अनुभवों पर उन्होंने घुमक्कड़ शास्त्र लिख डाला। लद्दाख, श्रीलंका, ईरान, तिब्बत, इंग्लैण्ड, यूरोप, जापान और रूस जैसे देशों की यात्राओं का सिलसिला उनके जीवन के साथ ही समाप्त हुआ। राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा मेरी जीवन यात्रा में यात्राओं के प्रति उनका प्रेम, जीवट और जिजीविषा दिखती है। यात्रा में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह किताब किसी धर्म ग्रंथ से कम नहीं। अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा में महापंडित राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, मेरिका अधिकतर निर्जन-सा पड़ा था। एशिया के कूपमंडूकों को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं कि जाकर वहां अपना झंडा गाड़ आते
राहुल सांकृत्यायन का मानना है कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। भावी घुमक्कड़ों के लिए राहुल कहते हैं, कमर बां लो भावी घुमक्कड़ो, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है
यायावर जो रहेगा याद
सांकृत्यायन के बाद जिस भारतीय लेखक ने सर्वाधिक विश्व यात्राएं कीं, वे सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय हैं। मंगोलिया, रूस, रोमानिया, यूगोस्लाविया समेत यूरोप के कई देशों के भ्रमण के बाद अज्ञेय ने उत्तराखंड के कुमाऊं में डेरा डाल लिया। यही वजह है कि उनकी रचनाओं में कुमाऊं के प्राकृतिक सौंदर्य और परिवेश का ज़बरदस्त प्रभाव दिखता है। अज्ञेय के शब्दों में, असाध्य वीणा अल्मोड़ा के झील-वनों में ही लिखी गई। कविता में प्रियंवद जो ध्वनियां याद करता है, वो बहुत कुछ कुमाऊं से जुडी ध्वनियां हैं। कुमाऊं का नाम नहीं लिया गया है, लेकिन वे आवाज़ें अधिकतर यहां सुनी हैं। चाहे वह पर्वतीय गांव के ढोलक की आवाज़ हो, चाहे झरने की धार की आवाज़ हो, चाहे पहाडों के टूटकर गिरने की आवाज़ हो, या फिर बिजली की ड़गड़ाहट की आवाज़। अज्ञेय अलमोड़ा, बिनसर और नंदाकोट के नैसर्गिक सौन्दर्य से अभिभूत थे और उनका ज़्यादातर रचनाकर्म यहीं पर हुआ। शेखर: एक जीवनीके कुछ अंश यहीं लिखे गए। अज्ञेय ने जीवन में जितनी भी यात्राएं कीं, उनका निचोड़ एक बूंद सहसा उछली में है... घुमक्कड़ी एक प्रवृत्ति ही नहीं, एक कला भी है। देशाटन करते हुए नये देशों में क्या देखा, क्या पाया, यह जितना देश पर निर्भर करता है उतना ही देखने वाले पर भी। एक नज़र होती है जिसके सामने देश भूगोल की किताब के नक्शे जैसे या रेल-जहाज़ के टाइम-टेबल जैसे बिछे रहते हैं; एक दूसरी होती है जिसके स्पर्श से देश एक प्राणवान प्रतिमा-सा आपके सामने खड़ा होता है- आप उसकी बोली ही नहीं, हृदय की धड़कन तक सुन सकते हैं
महातीर्थ का अंतिम यात्री
हाल में किसी मित्र के घर उनकी किताबों का संग्रह देखते हुए नज़र एक किताब पर जा अटकी। सबसे पहले किताब के कवर ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, फिर उसका नाम पढ़ा तो किताब पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। जल्द लौटाने की शर्त पर वो किताब मैं घर ले आई। यात्रा पर ऐसी अद्भुत किताब अरसे बाद मिली, और इसे पढ़ते हुए मैंने बीसीयों बार अपने मित्र का शुक्रिया अदा किया। किताब का नाम महातीर्थ के अंतिम यात्री है, लेकिन दुर्गम हिमालय का चप्पा-चप्पा छान चुके लेखक बिमल डे इसे भिखमंगे की डायरी कहते हैं।
साल 1956 में जब तिब्बत का द्वार पर्यटकों के लिए बंद हो चुका था और भारत के साथ तिब्बत का सम्पर्क लगभग टूट चुका था, उन्हीं दिनों, बिना किसी तैयारी के, बिमल डे घर से भागे और नेपाली तीर्थयात्रियों के एक दल में शामिल होकर ल्हासा जा पहुंचे। उस समय बिमल डे की उम्र मात्र पंद्रह वर्ष थी। यात्रियों के जत्थे में वे मौनी बाबा बनकर शामिल हुए और महीनों तक दुरूह यात्रा करते रहे। ल्हासा पहुंचकर उन्होंने तीर्थयात्रियों का दल छोड़ा और अकेले ही कैलाश मानसरोवर की ओर कूच कर गए। महातीर्थ के अंतिम यात्री इसी रोमांचक यात्रा का विस्तृत विवरण है। तिब्बत के रोज़मर्रा के जीवन और कैलाश का ऐसा दिलचस्प लेखा हिन्दी की किसी दूसरी किताब में शायद ही मिले।
कोलकाता में जन्मे बिमल डे की यात्रा यहीं ख़त्म नहीं होती। वे भू-पर्यटक हैं। एक साधारण साइकिल पर 230 हज़ार किलोमीटर की यात्रा कर चुके हैं। उनकी विश्व यात्रा का आगाज़ तब हुआ था जब उनकी जेब में महज़ कुछ रुपए थे। बिमल डे के यात्रा संस्मरण जितने रूमानी हैं उतने ही रोंगटे खड़े कर देने वाले भी। बिमल लिखते हैं, वह अनजान पहाड़ी नदी, जो विघ्न बनकर सामने अड़ गई थी, मुझे जीवन रहस्य के गीत सुना रही थी और कुछ ही पल में मेरी सखी बन गई थी। उसके किनारे-किनारे मैं और भी उत्तर की ओर चला। एक घंटा चलने के बाद नदी की गहराई कम हो गई, अब उसे चलकर लांघना संभव था। मैंने कपड़े और जूते उतार कर हाथ में ले लिए और सावधानी से नदी में उतरा। किन्तु पानी में पांव डालते ही लगा कि बरफ़ का पुतला बन गया हूं, मेरे पांव वहीं जम गए हैं। किसी तरह कूदकर फिर तट पर आ गया। कुछ और आगे बढ़ा होता तो शायद मैं उस पानी से जीवित निकल ही न पाता। मुझे साधुबाबा की याद आई उन्होंने कहा था कि तिब्बत का पानी बहुत ठंडा है, उस पानी में एकाएक उतरोगे तो ठंड से वहीं दम तोड़ दोगे। इसलिए कहीं भी नदी-नाला पार करते समय पहले पानी लेकर शरीर पर तेल की तरह मलना चाहिए, इससे शरीर जब उस ठंड को सहने लगे तो उसके बाद ही पानी में उतरना चाहिए।” 
-माधवी
  
(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के अप्रैल 2012 'यात्रा विशेषांक' में प्रकाशित, चित्र गूगल से)
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