(दिल्ली का एक मोहल्ला... जहां लोग दिन-रात कारोबार में उलझे रहते, 9 को 99 बनाने की धुन में खोए रहते, वहां कोई था, जो अलग सपने बुन रहा था। सोते-जागते एक ही ख़्वाब उसे दिखाई देता, वो था फ़िल्म बनाना। सिनेमा उसका पहला प्यार था, और इस प्यार के पीछे वो शिद्दत से भागता रहा। आज वो एक कामयाब फ़िल्मकार है और हम उसे दिबाकर बैनर्जी के नाम से जानते हैं। दिबाकर की फ़िल्में ज़िंदग़ी से जुड़ी होती हैं और अपनी सनद दर्ज कराए बिना परदे से नहीं उतरतीं। बातचीत में पता चला कि सिनेमा ही उनके जीने का सबब है और यही एक काम है जिसे करते हुए वे आख़िरी सांस लेना चाहते हैं।)
बचपन के बारे में कुछ बताएं।
मेरा जन्म दिल्ली में करोल बाग में हुआ, बचपन वहीं बीता। करोल बाग के जिस इलाके में हम रहते थे, वो विस्थापितों की कॉलोनी थी। जब से होश संभाला, आस-पास सिर्फ़ कारोबार का माहौल देखने को मिला। हमारे घर की ऊपरी मंज़िल पर चमड़े की बेल्ट बनाने का काम होता था। तक़रीबन सभी दोस्तों के पिता किसी-न-किसी कारोबार से जुड़े हुए थे। वे दुकान या फिर कारखाने में काम करते। मैं उन अल्पसंख्यकों में से एक था, जिनके पिता नौकरीपेशा थे। कभी-कभी मैं कहता कि मेरे पिताजी भी दुकान चलाते हैं।
कोई ख़ास याद?
1974 में पिताजी ने टेलिविज़न खरीदा था। उन दिनों दूरदर्शन पर आने वाली हर फ़िल्म मैं बड़े शौक से देखता था। घर के सामने लिबर्टी सिनेमा था, वहां भी कई फ़िल्में देखीं। पहली फ़िल्म जो लिबर्टी थियेटर में देखी, वो ‘नया ज़माना’ थी। चार साल का था लेकिन बारिश में भीगती हुई पद्मा खन्ना का आइटम नंबर आज भी याद है।
फ़िल्मकार बनने का सपना कब देखा?
फ़िल्में देखना बचपन से ही शुरू कर दिया था। दसवीं या ग्यारहवीं में कहने लगा था कि फ़िल्में बनाऊंगा। हालांकि तब मैं आर्किटेक्ट भी बनना चाहता था और पत्रकार भी। उस उम्र में जो पेशे लुभावने लगते हैं, उन्हीं के बारे में सोचता था। लेकिन 12वीं के बाद पक्का फ़ैसला कर लिया था फ़िल्मकार बनने का।
करियर की शुरुआत कैसे हुई?
स्कूल की पढ़ाई ख़त्म होते ही मैं किसी ऐसे प्रोफेशनल कोर्स के बारे में सोचने लगा जो मेरे सपनों को पूरा करने में मदद करे। पुणे के फ़िल्म एंड टेलिवज़न इंस्टीट्यूट में दाख़िला लेना चाहता था लेकिन उसके लिए ग्रेजुएट होना पहली शर्त थी। फिर अहमदाबाद के नेशनल स्कूल ऑफ डिज़ाइन में दाख़िल हुआ लेकिन दो-ढाई साल में ऊबकर दिल्ली वापस आ गया। दिल्ली में एड एजेंसियों के साथ छोटे-मोटे काम करने लगा। एड फ़िल्में लिखते-लिखते फ्रीलांसिंग शुरू कर दी, तब तक मेरे पास एक अच्छी शो-रील तैयार हो गई थी। फिर एनआईडी के दो दोस्तों के साथ मिलकर ख़ुद की एड फ़िल्म कंपनी खोली। इत्तेफाक से यह फ़ैसला बहुत फायदेमंद साबित हुआ। नाम के साथ-साथ हमने पैसा भी ख़ूब कमाया। लेकिन एक दिन अचानक महसूस हुआ कि मैं 99 के फेर में फंस गया हूं, और मेरा असली सपना धूमिल पड़ता जा रहा है। कंपनी में अपना शेयर बेचकर मैंने मुंबई का रुख़ कर लिया।
मेरे पुराने मित्र व सहकर्मी जयदीप साहनी पहले से फ़िल्म लाइन में थे। एक दिन उनका फोन आया और उन्होंने कहा कि दिल्ली की पृष्ठभूमि पर एक फ़िल्म का ऑफर है, मैं कहानी लिखूंगा अगर तुम निर्देशन करोगे। यह मुंह-मांगी मुराद थी, मैंने बिना सोचे-समझे हां कर दी।
...किस तरह की चुनौतियां सामने आईं?
मैं फ़िल्म इंडस्ट्री में नया था, इसके तौर-तरीकों से वाकिफ़ नहीं था लेकिन कहूंगा कि यह अच्छा ही हुआ। इसका फ़ायदा यह हुआ कि मैं अपने स्टाइल से शुरुआत कर सका।
जीवन का टर्निंग पॉइंट?
‘खोसला का घोंसला’ फ़िल्म बनकर तैयार थी लेकिन दो-ढाई साल तक रिलीज़ नहीं हुई। वो काफी बुरा दौर था। कोई काम हाथ में नहीं था, मैं फिर से सिफ़र बन गया था। लोगों से फ़ब्तियां सुनने को मिलती थीं लेकिन मैंने परवाह नहीं की। उस दौरान पत्नी ने भी बहुत साथ दिया, वो मुझे हमेशा यह समझाती रही कि सकारात्मक बने रहना ज़रूरी है। मैं एक अच्छे मनोचिकित्सक के पास भी गया, जिससे काफी मदद मिली। जीवन के उस मोड़ पर मैंने बहुत कुछ सीखा।
किस्मत पर कितना भरोसा है?
सबसे बड़ा कारक किस्मत ही है। मान लीजिए कि मेहनत ज़ीरो है। आप मेहनत करते हैं, एक ज़ीरो लग जाती है, थोड़ी और मेहनत करने पर एक और ज़ीरो लग जाती है। आप मेहनत करते जाते हैं और ज़ीरो लगती जाती हैं। एक दिन किस्मत ज़ीरो के आगे एक जोड़ देती है, और आप सफल हो जाते हैं। लेकिन, अगर कुछ न करें और यह सोच लें कि नसीब में होगा तो मिल जाएगा, तो ऐसा नहीं होता।
किसे आदर्श मानते हैं?
किसी एक को नहीं। हरेक इंसान से कुछ-न-कुछ सीखने में विश्वास रखता हूं।
जीवन में सकारात्मक सोच की क्या भूमिका है?
बहुत बड़ी भूमिका है। आधे खाली गिलास को आधा भरा हुआ देखना सकारात्मक सोच का ही कमाल है।
ख़ाली वक़्त में क्या करते हैं?
ऐसा कम होता है लेकिन जब भी ख़ाली वक़्त मिलता है तो कोई अच्छी किताब पढ़ना पसंद करता हूं। संगीत में विशेष रुचि है। स्केचिंग भी कर लेता हूं। बेटी के साथ वक़्त गुज़ारने में सुक़ून मिलता है। इसके अलावा भीड़-भाड़ वाले इलाक़ों में जाकर लोगों को ऑब्ज़र्व करने में बड़ा मज़ा आता है। असल भारत ऐसे गली-कूचों, कस्बों या मोहल्लों में ही दिखता है। वहां मैं दीवार की मक्खी बन जाता हूं और घंटों लोगों को ताकता हूं। जब दिल्ली में था तो बसों में सफ़र करता था, लोगों की बातें सुनने के लिए। लेकिन अब ऐसा कम होता है। गाड़ी में बैठकर पैदल चलने वालों की मानसिकता को नहीं समझा जा सकता।
नए ज़माने में क्या अच्छा लगता है?
पुरुष और स्त्री की समानता। दोनों के बीच का भेद कम हो रहा है, महिलाओं को आर्थिक आज़ादी मिल रही है, यकीकन यह अच्छा बदलाव है। दूसरा, इंटरनेट आने से बहुत फायदा हुआ है। ज्ञान का बहुत बड़ा भंडार हमारे सामने है। छत्तीसगढ़ के किसी सुदूर गांव में बैठा बच्चा भी इंटरनेट पर आइज़ैक न्यूटन के बारे में जान सकता है, गुरुत्वाकर्षण का नियम कैसे काम करता है, उसका वीडियो देख सकता है। यह क्रांति पहले नहीं थी।
एक अच्छा निर्देशक होने के लिए क्या गुण होने चाहिए?
ईगो या अहम का होना ज़रूरी है। मैं यहां सकारात्मक ईगो की बात कर रहा हूं। एक निर्देशक का अहम बहुत बड़ा होना चाहिए ताकि साथ काम करने वाले लोग आपके विज़न को समझें, सोच और नज़रिए को समझें। निपुण होना अलग बात है, उसमें ऊंच-नीच होती रहती है। बड़ी बात यह है कि जो निर्देशक की सोच है वो स्क्रीन पर भी दिखनी चाहिए, और यह ईगो से संभव है।
सफलता के लिए क्या ज़रूरी है?
अगर आपकी पृष्ठभूमि अच्छी है, आर्थिक नींव मज़बूत है तो समझिए कि आधी जंग आप जीत गए। दूसरा, अच्छी शिक्षा ज़रूरी है। विडंबना यह है कि हम विदेशी भाषा के पूरी तरह अधीन हैं। उस भाषा में बात करते हैं तो आपका स्तर ऊंचा माना जाता है, विषय चाहे कितना भी फूहड़ क्यों न हो। हिन्दी में बात करने में हम ख़ुद को छोटा महसूस करते हैं, यह सोच नुकसानदायक है। इससे व्यक्तित्व में खोखलापन आता है। इसके अलावा सही नज़रिए के साथ चलना भी ज़रूरी है। आत्मविश्वास होना चाहिए, घमंड नहीं। घमंडी न बनकर दिमाग खुला रखें ताकि हमेशा कुछ नया सीखने को मिल सके। फिर आपका भाग्य है। किस्मत के हाथ में बहुत-कुछ है, वही सब तय करती है।
सफलता को किस तरह सहेजकर रखा जा सकता है?
सफलता को सहेजकर नहीं रखना चाहिए। संभालकर रखने से वो पूंजी बन जाती है। सफलता को भुला देना बेहतर है, इससे काम में नयापन बना रहता है।
कोई अधूरी ख्वाहिश?
काश, मैं ड्राइव कर सकता! ड्राइविंग सीखना चाहता हूं। मुझे घूमने-फिरने का बहुत शौक है लेकिन गाड़ी न चला पाने की वजह से ड्राइवर हमेशा साथ रखना पड़ता है। अगर ड्राइविंग सीख लूं तो शायद जीवन में नया मोड़ आ जाए।
अपनी किस ख़ूबी से प्यार है?
अपने अंदर तो ख़ामियां-ही-ख़ामियां दिखती हैं। मैं अपने लिए अहम नहीं हूं, मेरा काम मेरे लिए ज़्यादा अहम है और मैं ख़ुद से ज़्यादा मुख़ातिब नहीं होता। हां, एक ख़ूबी है, हर इंसान से कुछ-न-कुछ नया सीखने या जानने की कोशिश करता हूं।
दिनचर्या क्या रहती है?
एडिटिंग या शूटिंग के दिनों की बात छोड़ दें तो सुबह 7 बजे तक उठ जाता हूं। बेटी इरा के साथ वक़्त गुज़ारना अच्छा लगता है। 10 बजे तक ऑफिस पहुंचता हूं। घर से दफ्तर नज़दीक ही है। काम के बाद शाम को सीधे घर लौटता हूं। दोस्त बहुत ज़्यादा नहीं है। पार्टियों में भी नहीं जाता। एक बुरी आदत है, कई बार देर रात तक इंटरनेट खंगालता हूं। मुझे लगता है कि एक यही वक़्त होता है जब मैं फ़िल्मों के अलावा दुनिया भर का ज्ञान बटोर सकता हूं। लेकिन कई बार इतना डूब जाता हूं कि वक़्त का होश नहीं रहता। सोने में 2 या 3 बज जाते हैं, फिर सुबह भी देर से होती है।
ख़ुद में क्या बदलाव लाना चाहते हैं?
और सकारात्मक बनना चाहता हूं। जीवन से अपेक्षाएं कम करना चाहता हूं। जितनी कम अपेक्षाएं होंगी उतनी संतोष की भावना बढ़ेगी।
...किस तरह की अपेक्षाएं?
जैसे और बड़ा घर, और गाड़ियां, और पैसा पाने की अपेक्षा। मैं ख़ुद को समेटकर रखना चाहता हूं ताकि जीवन सरल बने, जटिल नहीं। दूसरा, नियमित व्यायाम करना चाहता हूं। अभी तो फिट हूं लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ेगी, वर्जिश की ज़रूरत होगी। एक निजी समस्या है, मेरे पांव के तलवे कुछ कमज़ोर हैं सो ज़्यादा देर तक चल नहीं सकता। मुझे पैदल चलना बहुत अच्छा लगता है तो पैरों में बदलाव चाहता हूं।
ख़ुशी के क्या मायने हैं?
दिन भर में कोई एक पल, जिसमें चेहरे पर मुस्कुराहट है और आप ख़ुद से संतुष्ट हैं, वही है ख़ुशी। वरना इंसान हर वक़्त यही सोचता रहता है कि मुझे यह नहीं मिला, वो नहीं मिला।
ईश्वर पर कितना यकीन है?
पारंपरिक दृष्टि से मैं नास्तिक हूं। पूजा-पाठ नहीं करता, न ही ईश्वर की कोई ठोस छवि है मेरे मन में। कभी-कभी यह लगता है कि हम मनुष्यों से ऊपर, अलग कोई शक्ति है जो हमें जोड़ती है, एक-दूसरे से हमारा नाता बनाए रखती है। काम कर रहा होता हूं तब कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब लगता है कि मैं किसी अदृश्य सत्ता से जुड़ गया हूं। धर्म से ज़्यादा कर्म में यक़ीन रखता हूं।
सबसे बड़ा सपना?
काम करते-करते दम तोड़ना। सबसे बड़ा सपना है कि मेरी फ़िल्म 99 फ़ीसदी शूट हो चुकी हो और लोग अचानक देखें कि मैं जा चुका हूं। इस तरह सुक़ून से मरना चाहता हूं।
आने वाले पांच साल में ख़ुद को कहां देखते हैं?
कहीं नहीं। मुझे कुछ फर्क़ नहीं पड़ता कि मैं आने वाले सालों में कहां पहुंचता हूं। फ़िल्में बनाते रहना चाहता हूं, बस।
जीवन का अर्थ?
खोज। जीवन का अर्थ जिस दिन पता चल जाएगा, उस दिन जीने का सबब ख़त्म हो जाएगा। जीवन का मतलब ही एक निरंतर खोज है।
कौन-सी जगह है जहां बार-बार जाना चाहेंगे?
राजस्थान, गोवा और केरल। गोवा अकसर जाना होता है क्योंकि वहां हमारा एक घर है।
दिबाकर बैनर्जी फ़िल्में क्यों बनाते हैं?
पता नहीं। लेकिन यही वो काम है जो मरते दम तक करना चाहूंगा।
'शंघाई' अगली फ़िल्म है, इसके बारे में कुछ बताएं।
एक औसत भारतीय के मानस पटल पर शंघाई की जो छवि है, उसी के इर्द-गिर्द फ़िल्म की कहानी घूमती है। ऊंची इमारतें, बड़े-बड़े मॉल, चौड़ी सड़कें और द्रुत गति से भागती गाड़ियां... रातो-रात शंघाई बनने की होड़ में हमारे देश में क्या हो रहा है, यह दिखाने की कोशिश है। तीन मुख्य किरदार हैं- एक आईएसएस अधिकारी, जो भारत के शासन तंत्र का उदाहरण है। एक लड़की, जो आधी भारतीय है और आधी ब्रिटिश; उसे भारत से प्यार है और वो यहीं रहना चाहती है, बावजूद इसके कि यह देश उसे नकारता है। तीसरा किरदार एक छोटे-से शहर के वीडियो पार्लर का सड़कछाप वीडियोग्राफर है। उस शहर में स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन बन रहा है, यहीं से ‘शंघाई’ की कहानी आगे बढ़ती है।
भविष्य की योजना?
और फ़िल्म बनाना। ऐसी फ़िल्म, जिसे बनाना चाहूं, न कि जो मुझे बनानी पड़े।
आपकी प्रिय किताबें?
बहुत-सी हैं लेकिन जिन पुस्तकों ने मुझ पर सबसे ज़्यादा असर डाला, वो हैं- जोसेफ कैम्पबेल की ‘ओरिएन्टल’, ‘ऑक्सीडेंटल’ और ‘प्रिमिटिव’ माइथॉलॉजी, ये तीनों अलग-अलग किताबें हैं। आरनोल्ड टॉयनबी की ‘स्टडी ऑफ हिस्ट्री’ भी पसंदीदा है। बंगाली साहित्य ख़ूब पढ़ा है। शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय की ‘मानव ज़मीन’ बेहद पसंद है। हिन्दी किताबें अब फिर से पढ़ना शुरू करूंगा।
प्रिय फ़िल्में?
एक फ़िल्म मैं बार-बार देखता हूं वो है- मार्टिन स्कॉर्सेसी की ‘रेजिंग बुल’। इसके अलावा इटली की फ़िल्म ‘गोमोरा’ बहुत पसंद है, इसके निर्देशक मातिओ गैरोन हैं। भारतीय सिनेमा में सत्यजीत रे की सारी फ़िल्में पसंद हैं। केतन मेहता की ‘भावनी भवाई’ और ‘मिर्च-मसाला’ बहुत पसंद हैं। श्याम बेनेगल की ‘मंथन’, विशाल भारद्वाज की ‘मक़बूल’ और अनुराग कश्यप की ‘ब्लैक फ्राइडे’ अच्छी फ़िल्में हैं।
प्रिय शहर?
दिल्ली, जहां पैदा हुआ, पला-बढ़ा। इस शहर के ज़र्रे-ज़र्रे से मेरा नाता है।
मुंबई में प्रिय जगह?
परेल शिवड़ी, जहां मैं रहता हूं। यह मुंबई का बहुत पुराना इलाक़ा है। यहां दो भारत एक-दूसरे से मुख़ातिब हैं। एक वो भारत, जिसमें आलीशान फ्लैट व बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं और दूसरा जो हमारे घर के सामने नज़र आता है। एक बहुत बड़ा स्लम। इस बस्ती के ज़रिए अपनी 20 मंज़िली इमारत में बैठकर मैं दीवाली, नवरात्र, होली और गणेश उत्सव मना लेता हूं।
प्रिय गज़लें?
गज़लों का ख़ास शौक नहीं है। बचपन में मेरी बहन ग़ालिब और मेहंदी हसन की गज़लें गाया करती थी जो मन को भाती थीं। मल्लिका पुखराज के गाने भी टीवी पर ख़ूब सुनते थे। अहमद फराज़ की गज़ल ‘रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ’ अच्छी लगती है।
प्रिय अभिनेता?
पुराने अभिनेताओं में बलराज साहनी और मोती लाल पसंद हैं, वो सहज अभिनय करते थे। मौजूदा अभिनेताओं में एक कलाकार ऐसा है जो स्क्रीन पर जब भी आता है, कुछ-न-कुछ कमाल कर के ही जाता है, वो इरफान खान है। अभल देओल भी एक सशक्त अभिनेता हैं, हर बार अपने अभिनय से अचम्भित करते हैं। अभय में एक गहराई है, जो फ़िल्म-दर-फ़िल्म और गहराती जाती है। अभिनेत्रियों में अनुष्का शर्मा लाजवाब हैं। उनकी अभिनय क्षमता का मैं बहुत कायल हूं। माधुरी दीक्षित और तब्बू बेहतरीन अदाकाराओं में से हैं। मैं मानता हूं कि तब्बू को उनकी क्षमता के अनुसार प्रयोग नहीं किया गया। पुरानी अभिनेत्रियों में गीता बाली और नूतन का फैन हूं।
पाठकों के लिए कोई संदेश?
टेलीविज़न कम देखिए और पढ़िए ज़्यादा। किताबों से नाता कभी नहीं छूटना चाहिए। किताबें जीवन के प्रति एक नई समझ पैदा करती हैं।
(दैनिक भास्कर समूह की पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के दिसम्बर 2011 अंक में प्रकाशित)