Thursday, December 22, 2011

रेत के शिल्प में घर

(इधर हाल में गौतम चटर्जी को पढ़ने का अवसर मिला. उनकी 
कविताओं में जीवन के प्रति जिजीविषा, मृत्यु बोध और दर्शन
की छाप जितनी गहन है, उतनी ही सरल है उनकी भाषा. 
फिलहाल एक प्रिय कविता, साथ में साल्वाडोर डाली का 
चित्र.)

घर से निकलता हूं तो 
घर शुरू होता है 

घर लौटता हूं तो 
घर छूटता है 

एक घर पेड़ पर 
एक घर आसमान पर 
एक घर मेरे पास 
एक घर तुम्हारे पास 

चलूं तो घर 
बैठूं तो घर 
रुकूं तो घर 
देखूं तो घर 

अद्भुत! 
सिर्फ़ 
घर में ही घर नहीं। 

(गौतम चटर्जी ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रपौत्र हैं.)

15 comments:

  1. ... प्रशंसनीय रचना - बधाई

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  2. विरक्त होता मन या सत्य से रूबरू होता मन !

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  3. प्रभावी और बेहतरीन रचना ...

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  4. बिल्‍कुल सही कहा है ... ।

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  5. Bahut achha laga gautam chatterji ko padhna!!

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  6. बहुत सशक्त और सटीक प्रस्तुति....

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  7. बहुत बढ़िया कविता है। मैं भी बहुत प्रभावित हुआ था इसे पढ़कर।

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  8. बेहतरीन अभिवयक्ति.....

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  9. pille pade hue panno me chipi huee hariyaali hoti hai purane pustak aur kavitaae..utkrusht rachnao se hame avagat kara dene ke liye aapka dhanyavaad :)

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  10. bahut sundar.
    ghar ghar nahee rahe
    makaan ho gaye
    dil ke darwaaze chhote
    gharon ke darwaaze bade ho gaye

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  11. भई बहुत सुन्दर प्रस्तुति वाह!

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  12. बहुत खूबसूरत! शेयर करने के लिए धन्यवाद

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