मन के भीतर की यात्रा अनवरत है। कहना कठिन है कि यह अंतर्यात्रा कब और कैसे शुरू होती है पर बाहर की यात्रा एक छोटे-से क़दम से शुरू हो जाती है। कभी, किसी अनजान जगह पर निरुद्देश्य भटकने से हम वो पा जाते हैं जो दस किताबें पढ़कर नहीं पाते। घूमना ख़ुद को खोजने जैसा है, ख़ुद को पाने जैसा है। घूमना ज़िंदगी से इश्क लड़ाने जैसा है। हम जब किसी सफर से लौटते हैं तो वैसे कहां रह जाते हैं, जैसे सफर पर निकलने से पहले थे। यात्राएं हमें जीवन के प्रति एक नई समझ, नई दृष्टि और नया अर्थ देती हैं। मोहम्मद की एक सूक्ति मुझे हमेशा याद आती है... ‘यह मत बताओ कि तुम कितने पढ़े-लिखे हो, बल्कि यह बताओ कि तुमने जीवन में कितनी यात्राएं की हैं।’ ज्ञान-वृद्धि और अनुभव-संचय के लिए यात्राएं यकीनन उतनी ही ज़रूरी हैं जितना किसी का उम्रदराज़ होना। यात्राओं में हम वो सीख पाते हैं, वो देख पाते हैं, जो कहीं जाए बिना अनुभव नहीं कर सकते। यात्राएं हमें भीतर से निखारती हैं, भीतर से समृद्ध करती हैं। यात्राएं हमारी दृष्टि व्यापक करती हैं। जीवन में छोटी-छोटी बातें, जिनमें फंसकर हम अक़सर अपना वक़्त ज़ाया करते हैं, वही बातें फिज़ूल, बेमानी लगने लगती हैं। यात्राएं हमें उदार बनाती हैं।
“मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ चीज़ है घुमक्कड़ी...” महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अविरत यात्राओं और चिन्तन के बाद ऐसा कहा होगा! यह शत-प्रतिशत सच है क्योंकि घुमक्कड़ी में हम सब कुछ-न-कुछ ज़रूर हासिल करते हैं। और इसमें भी दो राय नहीं कि विश्व के सभी महान यात्रियों ने हमारे समाज, देश और दुनिया को कहीं-न-कहीं परिष्कृत किया है। वो यात्री जो इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो गए, वो यात्री जो अपने अनुभवों से हमें लाभान्वित कर गए, वो यात्री जो हमारी स्मृतियों में रह गए... उन यात्रियों को समर्पित हमारी विकास यात्रा...
धर्म की खोज में यात्राएं
ह्वेन सांग बहुत छोटे थे जब उन्होंने अपने पिता के सामने बौद्ध भिक्षु बनने की इच्छा व्यक्त की थी। चीनी मूल के ह्वेन सांग ने 13 साल की उम्र में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। बौद्ध धर्म के मूल ग्रंथ में विसंगतियां और विरोधाभास देख उन्होंने भारत जाकर इस धर्म का अध्ययन करने की ठानी। ह्वेन सांग इससे पहले फाह्यान की भारत यात्रा के बारे में सुन चुके थे। बौद्ध धर्म में गहन रूचि और फाह्यान की यात्रा ने उत्कट प्रेरणा का काम किया और ह्वेन सांग निकल पड़े भारत की यात्रा पर। ताशकंद और समरकंद होते हुए वे पेशावर और फिर तक्षशिला पहुंचे। तक्षशिला में ह्वेन सांग की मुलाक़ात एक महायान भिक्षु से हुई और उन्होंने वहां दो साल रहकर बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। इस दौरान उन्होंने बौद्ध धर्म और अपनी यात्राओं के बारे में काफी कुछ लिखा। लाहौर, कश्मीर, जालंधर, कुल्लू, मथुरा, नेपाल, वाराणसी, पटना और बोध गया जैसे नगरों की ख़ाक छानते हुए ह्वेन सांग ने तत्कालीन भारतीय संस्कृति को क़रीब से जाना। नालंदा में ह्वेन सांग कई साल रहे और संस्कृत व बौद्ध दर्शन में दक्षता प्राप्त की। भारत प्रवास के दौरान एक विद्वान के रूप में ह्वेन सांग की ऐसी ख़्याति फैली कि राजा हर्षवर्धन ने उन्हें अपना संरक्षण दिया।
ह्वेन सांग से जुड़ा एक किस्सा है। अपने साथ बौद्ध धर्म के हज़ारों ग्रंथ लिए ह्वेन सांग जब भारत से लौट रहे थे तो एक जगह उन्हें नदी पार करनी पड़ी। बहुत ज़्यादा भार के कारण नाव डोलने लगी। नाविक ने ह्वेन सांग को कुछ किताबें नदी में फेंकने को कहा ताकि भार कम हो। यह सुन ह्वेन सांग उदास हो गए। नाव में चित्रगुप्त और धर्मगुप्त नाम के दो भाई भी सवार थे। दोनों ह्वेन सांग के असमंजस को भांप गए और एक-दूसरे से आंखों-आंखों में इशारा कर नदी में कूद पड़े। इस तरह उन दो भाइयों ने दुर्लभ ज्ञान की रक्षा अपनी जान देकर की।
ह्वेन सांग की भारत यात्रा का वृत्तान्त 'सी-यू-की' में है। इस किताब में ह्वेन सांग की लगभग 138 देशों की यात्राओं का ज़िक्र है। चीन लौटकर ह्वेन सांग ने ‘एकमात्र चेतना मत’ की स्थापना की, जिसकी मुख्य अवधारणा है... ‘पूरा विश्व केवल मन की प्रतिछवि है।’
जिसका हर सफ़र लहरों पर था
तीसरी और अंतिम भारत यात्रा में जॉन तृतीय ने सन 1524 में उन्हें भारत का पुर्तगाली वायसराय नियुक्त किया। इतिहासकार मानते हैं कि भारत में अपने कार्यकाल के दौरान वास्को ने कई प्रशासनिक व्यवस्थाओं में सुधार किया। गोवा में वास्को के नाम पर ‘वास्को द गामा’ शहर की स्थापना की गई। वास्को की मृत्यु कोच्चि (कोचीन) में हुई, जहां से उनके शरीर को वापस पुर्तगाल ले जाया गया।
मुसाफ़िर जो कभी नहीं थका
13वीं शताब्दी के इस महान यात्री का पूरा नाम ‘अबु अब्दुल्ला मोहम्मद इब्न अब्दुल्ला अल लवाती अल तांजी इब्न बतूता’ है। मोरक्को के एक अमीर परिवार में जन्मे इब्न बतूता की यात्राओं की शुरुआत दिलचस्प है। इब्न बतूता जब 21 साल के थे तो हज के लिए मक्का गए। मोरक्को से मक्का तक की यात्रा लंबी थी, जिसमें कई महीने लग गए। लेकिन इस यात्रा में इब्न बतूता ने ऐसा रस पाया कि वे मक्का से वापस घर नहीं लौटे। वे अपना जीवन यात्राओं को समर्पित करने का निश्चय कर चुके थे। इस फ़ैसले के तहत इब्न बतूता ने हिन्दुस्तान का रुख़ भी किया। दिल्ली में मोहम्मद तुगलक के दरबार में उन्होंने कुछ समय के लिए काज़ी की नौकरी की। फिर मध्य भारत में मालवा होते हुए वे गोवा से मालदीव पहुंचे। वहां से श्रीलंका, चीन, पश्चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका और स्पेन के मुस्लिम इलाकों की यात्राएं कीं। उस दौर में ऐसी यात्राएं किसी के बूते की बात नहीं थी। 30 साल में 75000 मील से भी ज़्यादा का सफ़र तय किया इब्न बतूता ने। यहां तक कि उन्होंने अपने समकालीन यात्री मार्को पोलो का रिकॉर्ड भी तोड़ दिया। कई देश खंगालने के बाद इब्न बतूता मोरक्को लौटे, जहां उन्होंने अपनी आख़िरी सांसें लीं। इब्न बतूता की अनवरत यात्राओं से प्रभावित होकर मोरक्को के सुल्तान ने उनकी यात्राओं पर एक किताब निकाली। मूल अरबी में प्रकाशित इस किताब का अंगेज़ी अनुवाद ‘रिहला- माई ट्रैवल्स’ नाम से है। इसमें इब्न बतूता की यात्राओं का सिलसिलेवार ब्योरा है।
14वीं सदी की शुरुआत में बगदाद कैसा रहा होगा! इसका ज़िक्र इब्न बतूता की किताब में है- “फिर हमने अमन के घर और इस्लाम की राजधानी बगदाद की यात्रा की। यहां हिल्ला (इराक का एक शहर) की ही तरह दो पुल हैं, जिन पर लोग दिन-रात चहलकदमी करते हैं। बगदाद में गुसलखानों की कमी नहीं है, और उन्हें शानदार तरीके से बनाया गया है। गुसलखाने काले रंग से रंगे गए हैं, जिससे वे काले संगमरमर से दिखते हैं। काला रंग कुफा और बसरा शहरों के बीच से कहीं लाया गया है, जहां इसकी भरमार है।”
अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा
हिन्दी यात्रा साहित्य के जनक हैं केदारनाथ पांडेय, जो बौद्ध धर्म अपनाने के बाद राहुल सांकृत्यायन के नाम से जाने जाने लगे। राहुल सांकृत्यायन का बचपन अपने ननिहाल आज़मगढ़ में गुज़रा। राहुल के नाना फौजी रह चुके थे। नाना से फौजी जीवन की कहानियां और उनकी यात्राओं के अद्भुत किस्से सुन-सुन कर राहुल के भीतर एक यायावर जन्म ले चुका था। फिर राहुल ने एक शे’र पढ़ा, जिसने उनके जीवन की दिशा बदल डाली। शे’र था, ‘सैर कर दुनिया की गाफ़िल ज़िन्दगानी फिर कहां, ज़िन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां....’ इसे आत्मसात कर राहुल घर से निकल पड़े। जिज्ञासु प्रवृत्ति और वैराग्य ने उन्हें कहीं स्थिर नहीं रहने दिया। वे जीवन भर घुमक्कड़ रहे। यात्रा में हुए अनुभवों पर उन्होंने घुमक्कड़ शास्त्र लिख डाला। लद्दाख, श्रीलंका, ईरान, तिब्बत, इंग्लैण्ड, यूरोप, जापान और रूस जैसे देशों की यात्राओं का सिलसिला उनके जीवन के साथ ही समाप्त हुआ। राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा ‘मेरी जीवन यात्रा’ में यात्राओं के प्रति उनका प्रेम, जीवट और जिजीविषा दिखती है। यात्रा में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह किताब किसी धर्म ग्रंथ से कम नहीं। ‘अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा’ में महापंडित राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, “अमेरिका अधिकतर निर्जन-सा पड़ा था। एशिया के कूपमंडूकों को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आई कि जाकर वहां अपना झंडा गाड़ आते।”
राहुल सांकृत्यायन का मानना है कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। भावी घुमक्कड़ों के लिए राहुल कहते हैं, “कमर बांध लो भावी घुमक्कड़ो, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।”
यायावर जो रहेगा याद
सांकृत्यायन के बाद जिस भारतीय लेखक ने सर्वाधिक विश्व यात्राएं कीं, वे सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय हैं। मंगोलिया, रूस, रोमानिया, यूगोस्लाविया समेत यूरोप के कई देशों के भ्रमण के बाद अज्ञेय ने उत्तराखंड के कुमाऊं में डेरा डाल लिया। यही वजह है कि उनकी रचनाओं में कुमाऊं के प्राकृतिक सौंदर्य और परिवेश का ज़बरदस्त प्रभाव दिखता है। अज्ञेय के शब्दों में, “असाध्य वीणा अल्मोड़ा के झील-वनों में ही लिखी गई। कविता में प्रियंवद जो ध्वनियां याद करता है, वो बहुत कुछ कुमाऊं से जुडी ध्वनियां हैं। कुमाऊं का नाम नहीं लिया गया है, लेकिन वे आवाज़ें अधिकतर यहां सुनी गई हैं। चाहे वह पर्वतीय गांव के ढोलक की आवाज़ हो, चाहे झरने की धार की आवाज़ हो, चाहे पहाडों के टूटकर गिरने की आवाज़ हो, या फिर बिजली की गड़गड़ाहट की आवाज़।” अज्ञेय अलमोड़ा, बिनसर और नंदाकोट के नैसर्गिक सौन्दर्य से अभिभूत थे और उनका ज़्यादातर रचनाकर्म यहीं पर हुआ। ‘शेखर: एक जीवनी’ के कुछ अंश यहीं लिखे गए। अज्ञेय ने जीवन में जितनी भी यात्राएं कीं, उनका निचोड़ ‘एक बूंद सहसा उछली’ में है... “घुमक्कड़ी एक प्रवृत्ति ही नहीं, एक कला भी है। देशाटन करते हुए नये देशों में क्या देखा, क्या पाया, यह जितना देश पर निर्भर करता है उतना ही देखने वाले पर भी। एक नज़र होती है जिसके सामने देश भूगोल की किताब के नक्शे जैसे या रेल-जहाज़ के टाइम-टेबल जैसे बिछे रहते हैं; एक दूसरी होती है जिसके स्पर्श से देश एक प्राणवान प्रतिमा-सा आपके सामने आ खड़ा होता है- आप उसकी बोली ही नहीं, हृदय की धड़कन तक सुन सकते हैं।”
महातीर्थ का अंतिम यात्री
हाल में किसी मित्र के घर उनकी किताबों का संग्रह देखते हुए नज़र एक किताब पर जा अटकी। सबसे पहले किताब के कवर ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, फिर उसका नाम पढ़ा तो किताब पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। जल्द लौटाने की शर्त पर वो किताब मैं घर ले आई। यात्रा पर ऐसी अद्भुत किताब अरसे बाद मिली, और इसे पढ़ते हुए मैंने बीसीयों बार अपने मित्र का शुक्रिया अदा किया। किताब का नाम ‘महातीर्थ के अंतिम यात्री’ है, लेकिन दुर्गम हिमालय का चप्पा-चप्पा छान चुके लेखक बिमल डे इसे भिखमंगे की डायरी कहते हैं।
साल 1956 में जब तिब्बत का द्वार पर्यटकों के लिए बंद हो चुका था और भारत के साथ तिब्बत का सम्पर्क लगभग टूट चुका था, उन्हीं दिनों, बिना किसी तैयारी के, बिमल डे घर से भागे और नेपाली तीर्थयात्रियों के एक दल में शामिल होकर ल्हासा जा पहुंचे। उस समय बिमल डे की उम्र मात्र पंद्रह वर्ष थी। यात्रियों के जत्थे में वे मौनी बाबा बनकर शामिल हुए और महीनों तक दुरूह यात्रा करते रहे। ल्हासा पहुंचकर उन्होंने तीर्थयात्रियों का दल छोड़ा और अकेले ही कैलाश मानसरोवर की ओर कूच कर गए। ‘महातीर्थ के अंतिम यात्री’ इसी रोमांचक यात्रा का विस्तृत विवरण है। तिब्बत के रोज़मर्रा के जीवन और कैलाश का ऐसा दिलचस्प लेखा हिन्दी की किसी दूसरी किताब में शायद ही मिले।
कोलकाता में जन्मे बिमल डे की यात्रा यहीं ख़त्म नहीं होती। वे भू-पर्यटक हैं। एक साधारण साइकिल पर 230 हज़ार किलोमीटर की यात्रा कर चुके हैं। उनकी ‘विश्व यात्रा’ का आगाज़ तब हुआ था जब उनकी जेब में महज़ कुछ रुपए थे। बिमल डे के यात्रा संस्मरण जितने रूमानी हैं उतने ही रोंगटे खड़े कर देने वाले भी। बिमल लिखते हैं, “वह अनजान पहाड़ी नदी, जो विघ्न बनकर सामने अड़ गई थी, मुझे जीवन रहस्य के गीत सुना रही थी और कुछ ही पल में मेरी सखी बन गई थी। उसके किनारे-किनारे मैं और भी उत्तर की ओर चला। एक घंटा चलने के बाद नदी की गहराई कम हो गई, अब उसे चलकर लांघना संभव था। मैंने कपड़े और जूते उतार कर हाथ में ले लिए और सावधानी से नदी में उतरा। किन्तु पानी में पांव डालते ही लगा कि बरफ़ का पुतला बन गया हूं, मेरे पांव वहीं जम गए हैं। किसी तरह कूदकर फिर तट पर आ गया। कुछ और आगे बढ़ा होता तो शायद मैं उस पानी से जीवित निकल ही न पाता। मुझे साधुबाबा की याद आई। उन्होंने कहा था कि तिब्बत का पानी बहुत ठंडा है, उस पानी में एकाएक उतरोगे तो ठंड से वहीं दम तोड़ दोगे। इसलिए कहीं भी नदी-नाला पार करते समय पहले पानी लेकर शरीर पर तेल की तरह मलना चाहिए, इससे शरीर जब उस ठंड को सहने लगे तो उसके बाद ही पानी में उतरना चाहिए।”
-माधवी
(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के अप्रैल 2012 'यात्रा विशेषांक' में प्रकाशित, चित्र गूगल से)
-माधवी
(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के अप्रैल 2012 'यात्रा विशेषांक' में प्रकाशित, चित्र गूगल से)
उत्तम लेखन.............
ReplyDeleteबात समझ आई........अब निकलना पड़ेगा किसी लंबी.... यात्रा पर.......
अनु
शुक्रिया अनु जी. ज़रूर जाइए और लौटकर अपने अनुभव भी बांटिए.
Deleteबढ़िया लेख,बहुत सुंदर प्रस्तुति,....
ReplyDeleteMY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: मै तेरा घर बसाने आई हूँ...
MY RECENT POST...फुहार....: दो क्षणिकाऐ,...
धन्यवाद, धीरेन्द्र जी.
Deleteवाह क्या बात है!!!
ReplyDeleteशुक्रिया.
Deleteबेहतरीन भाव ...
ReplyDeleteधन्यवाद.
Deleteमाधवी जी अहा जिंदगी पत्रिका में आपका लेख पढ़ा और कल्की कोचलिन का इंटरव्यू भी। दोनों आर्टिकल बहुत शानदार हैं। अहा जिंदगी बेहतरीन पत्रिका है और मैं इसका नियमित पाठक हूं। तहेदिल से शुक्रिया।
ReplyDeleteयुवराज नेगी
युवराज जी, आपका बहुत शुक्रिया.
DeleteMadhavi ji aapka ye article waqai laajawaab tha, padhna shuru kiya to padhti chali gayi, aapke likhne ka style padhnewaalon ko apne mein baandhkar rakh leta hai, aapke is aticle ko aapke naam ke saath kya apne blog mein shaamil kar sakti hoon, mujhe blogs ke samunder se moti ikatthe karne ka shaq hai , aur aapka article ek gem hai
ReplyDeleteरीना जी, मेरी मेहनत सफल हुई. आपको लेख पसंद आया है, इसे ब्लॉग पर ज़रूर डालिए. मुझे ख़ुशी होगी.
Deleteआभार एवं शुभकामनाएं.
बहुत खूब माधवी जी....अत्यन्त सरस गद्य के साथ विलक्षण संदेश भी और रोचक जानकारियाँ भी.....यह संयोग ही है कि एक आलेख जो मैं इस वक्त लिख रहा हूँ उसमें ह्वेनसांग को ऐसी ही आत्मीयता से याद किया है.
ReplyDeleteशुक्रिया, विमलेन्दु जी. ह्वेन सांग की यात्राएं, उनके किस्से बड़े दिलचस्प हैं. उम्मीद है आपका लिखा जल्द पढ़ने को मिलेगा.
DeleteInteresting article...:)
ReplyDeleteshuruaat mein aapne yaatra ke baare mein bahut sahi kaha hai ki ghumna khud ko khojne jaisa hai, khud ko paane jaisa hai..
aur baaki itne mahaan logon ke baare mein aapne bataya, post kaafi khoobsurat ban gayi hai :)
बहुत-बहुत शुक्रिया :)
Deleteआपका आभार.
ReplyDeletepadhkar achchha laga! ek baar mere blog par bhi padhaarne ki kripa karein
ReplyDeleteजी, शुक्रिया.
DeleteMaine Abhi Bimal Da ki kitab padhi nahi magar jald hi wo padhunga.
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