चलने के लिए
जब खड़े हुए
तो जूतों की जगह
पैरों में
सड़कें पहन लीं
एक नहीं
दो नहीं
बदल-बदलकर
एक नहीं
दो नहीं
बदल-बदलकर
हज़ारों सड़कें
तंग ऊबड़-खाबड़
बहुत चौड़ी सड़कें
खूब चलें
खूब चलें
कि ज़िन्दगी के
नज़दीक आने को
नज़दीक आने को
बहुत मन होता है
वाक़ई! ज़िन्दगी से होती हुई
कोई सड़क ज़रूर जाती होगी
मैं कोई ऐसा जूता बनवाना चाहता हूं
मैं कोई ऐसा जूता बनवाना चाहता हूं
जो मेरे पैरों में ठीक-ठाक आए।
-विनोद कुमार शुक्ल
(Picture: 'Boots' by Van Gogh)
chalne ke liye... bhut khub...
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचना!
ReplyDeleteचलने के लिए
ReplyDeleteजब खड़े हुए
तो जूतों की जगह
पैरों में सड़कें पहन ली
विचारपरक कविता के लिए धन्यवाद....
बहुत सुन्दर कविता...
ReplyDelete