फ़िल्मों की ज़बान बदल गई है। पहले लोग साहित्यिक भाषा में बात करना पसंद करते थे, अब आम भाषा में बात करते हैं। गाली-गलौज तक होने लगा है। यही भाषा पर्दे पर भी सुनाई देती है। संवाद बातचीत में बदल गए हैं। आज का सिनेमा इसी कोशिश में है कि जो ज़बान असल ज़िंदगी में इस्तेमाल हो रही है, वही पर्दे पर भी सुनाई दे। मेरे ख़याल से यह सही भी है क्योंकि इसमें बनावट कम है। दर्शकों ने भी इसे हाथो-हाथ लिया है। अब भारी-भरकम संवादों वाली फ़िल्में शायद ही चल पाएं।
सिनेमा नए निर्देशकों के हाथ में
नए फ़िल्मकारों में मौलिकता है। मल्टीप्लेक्स होने की वजह से अब फ़िल्मों को बेहतर स्क्रीनिंग स्पेस भी मिलने लगा है। एक मल्टीप्लेक्स में चार-पांच स्क्रीन और एक दिन में एक फ़िल्म के दस-बारह शो हो जाते हैं। दूसरे, कॉर्पोरेट कंपनियों के फ़िल्म निर्माण क्षेत्र में उतरने से काफी कुछ बदला है। ये कंपनियां कहानी और कलाकार पर ध्यान देती हैं, बजाय इसके कि निर्देशक को फ़िल्म बनाने का तजुर्बा कितना है। निर्देशक भले ही नया हो, उसके पास विषय अच्छा है तो उसे लॉन्च करने में परहेज़ नहीं होता। आजकल नए फ़िल्मकार पूरी तैयारी के साथ निर्देशन में उतर रहे हैं। ज़्यादातर निर्देशक पहले से प्रशिक्षित हैं, उन्होंने सिनेमा की पढ़ाई की है और यह पढ़ाई उनकी फ़िल्मों में दिखती है।
रचनात्मक बदलाव का दौर
1970 के दशक में जब मैंने फ़िल्में बनानी शुरू कीं, तब कमर्शियल सिनेमा के तहत एक ही किस्म की फ़िल्में बनती थीं। हमने इस बात का पुरज़ोर विरोध किया भी। उस दौर की फ़िल्मों में सामाजिक संदेश नहीं होता था, सिर्फ़ मनोरंजन को ध्यान में रखकर फ़िल्में बनाई जाती थीं। अब मनोरंजन के साथ-साथ मक़सद भी है। यही वजह है कि फ़िल्में अच्छी बन पा रही हैं। अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, दिबाकर बैनर्जी और विक्रमादित्य मोटवानी जैसे फ़िल्मकार बेहतरीन काम कर रहे हैं। बंगाली, तमिल, तेलुगू और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में भी अच्छे निर्देशक हैं जो नए-नए विषयों पर काम कर रहे हैं। भारतीय फ़िल्म उद्योग में एक तरह का क्रिएटिव रिवाइवल हुआ है। संगीत के क्षेत्र में भी बदलाव आया है। अब युवा वर्ग गाने सुनता कम, उन पर थिरकता ज़्यादा है। गीत के बोल से ज़्यादा संगीत को तरजीह दी जाने लगी है। एआर रहमान जैसे काबिल संगीतकार भी इस बात पर ध्यान दे रहे हैं। मेरी फ़िल्म ‘ज़ुबेदा’ में रहमान ने बिल्कुल अलग संगीत दिया था, जिसमें ठुमरी थी। लेकिन अब रहमान भी मांग के मुताबिक काम कर रहे हैं। बाकी संगीतकारों के साथ भी यही है। इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि दर्शक जो मांग रहे हैं वही उन्हें मिल भी रहा है।
अपना दायित्व समझें
फ़िल्मों में सौंदर्य की अवधारणा भी बदली है। रोमांस की बात करूं तो अब फ़िल्मों में इसे बिंदास तरीके से पेश किया जाने लगा है। कामेच्छा जैसे विषय को पर्दे पर खुलकर लाया जा रहा है, ख़ासकर स्त्री की इच्छाओं को। पहले ऐसा नहीं था, फ़िल्मों में या तो रोमांस होता था या रेप। अपने व्यक्तित्व को लेकर महिलाएं पहले से ज़्यादा मुखर हुई हैं, और यह परिवर्तन सिनेमा में भी दिख रहा है।
पहले आदर्शवादी सिनेमा का दौर था, अब यथार्थवादी सिनेमा है। लेकिन ‘दबंग’ जैसी फ़िल्में भी बन रही हैं, जिनमें हिंसा है, नाच-गाना है और जो सोचने का मौक़ा नहीं देतीं। इतनी ज़्यादा हिंसा देखना कि उसके प्रति हम असंवेदी हो जाएं, यह ठीक नहीं है। सबकी अपनी-अपनी समझ है। जो है वो सही है लेकिन सीमा हमें ख़ुद तय करनी होगी।
आजकल एक्सपोज़र बहुत होने लगा है। ऐसे में निर्देशक का नैतिक दायित्व बनता है कि वो दर्शकों को फूहड़ता न परोसे। फ़िल्मकार को चाहिए कि वो स्वयं के लिए एक नीति तय करे। मैं यहां सेंसर बोर्ड की बात नहीं कर रहा हूं। सेंसर बोर्ड से पहले हमें यह तय करना है कि क्या ग़लत है और क्या सही।
-श्याम बेनेगल से बातचीत पर आधारित
(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट में 13 मई 2012 को प्रकाशित)
very nice....keep posting....
ReplyDeletenice
ReplyDeletesundar saakshatkaar !
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर
ReplyDeleteHe is one of my all time fav, should have talked more aisa laga shuru hone se pehle hi khatam ho gya!
ReplyDeleteLokesh, this's not an interview but a little chit-chat about the changing scenario in cinema. And while talking, the 'format' has been taken care of. For a detailed interview of Mr Benegal, keep watching this space!
DeleteBest.
ब्लाग पर आना सार्थक हुआ । काबिलेतारीफ़ है प्रस्तुति । बहुत सुन्दर बहुत खूब...बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteहम आपका स्वागत करते है..vpsrajput.in..
क्रांतिवीर क्यों पथ में सोया?
मेरे प्रिय डाईरेक्टरों में से एक हैं श्याम बेनेगल...और उनकी बातें भी कितनी सही हैं...
ReplyDeleteनये फिल्मकारों को सीख लेनी चाहिए इनसे!!
खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित
ReplyDeleteहै जो कि खमाज थाट का
सांध्यकालीन राग
है, स्वरों में कोमल निशाद
और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें
वर्जित है, पर हमने
इसमें अंत में पंचम
का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग
बागेश्री भी झलकता है...
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से
मिलती है...
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