संगीत के ज़रिए बहुत कुछ बदला जा सकता है- लकी अली
बतौर संगीतकार मेरे
सफ़र की शुरुआत साल 1996 में मेरी पहली एलबम ‘सुनो’ से हुई। उस वक़्त संगीत के क्षेत्र में
इतने प्रयोग नहीं होते थे जितने अब होने लगे हैं। यह अच्छा भी है क्योंकि ख़ुद को
एक्सप्रेस करने की कला ज़रूरी है। लोगों के दिलों में क्या है, यह संगीत के ज़रिए
बख़ूबी बयां किया जा सकता है। आप बहुत कुछ कह सकते हैं और बहुत कुछ बदल सकते हैं।
जैसे-जैसे तकनीक का
विस्तार हो रहा है, वैसे-वैसे संगीत में
भी नए-नए प्रयोग होने लगे हैं। तकनीक की वजह से दुनिया सिमट गई है। संगीत में
पाश्चात्य प्रभाव दिख रहा है, नई सोच दिख रही है। मैं अलग-अलग संगीत सुनता हूं और सबको सुनकर
ख़ुद का संगीत बनाता हूं। संगीत रचने के लिए मुझे जीवन से प्रेरणा मिलती है। जो
इंसान दिल से काम करता है,
दिल
से गाता है या दिल से संगीत बनाता है, वो मुझे प्रभावित करता है। अच्छे संगीत
की रचना करना किसी एक शख़्स का काम नहीं है, बहुत सारे लोग मिलकर ही कुछ बेहतर बना
पाते हैं। अच्छे संगीतकार को यह बात समझनी चाहिए। वैसे भी हम नया कुछ नहीं रचते।
सात सुर पहले से हैं। हम पहले से मौजूद किसी चीज़ को अपने ढंग से पेश करते हैं, बस।
माता-पिता को बहुत
याद करता हूं। मेरे पिता महमूद जी ने इंडस्ट्री में बतौर संगीत निर्देशक बहुत-से
लोगों को ब्रेक दिया था...जैसे आर.डी. बर्मन, राजेश रोशन, बासु मनोहरी वगैरह।
लेकिन मैं ख़ुद इंडस्ट्री से इतना दूर हूं कि आजकल फ़िल्मी संगीत में क्या प्रयोग
हो रहे हैं,
इससे
बेख़बर हूं। ईमानदारी से कहूं तो फ़िल्मों में ज़्यादातर गाने यहां-वहां से कॉपी
किए जाते हैं। मगर कुछ लोग हैं जो मेहनत से अपना काम कर रहे हैं। उनके काम में
मौलिकता नज़र आती है।
ख़ाली वक़्त में मैं
ख़ूब पढ़ता हूं। इन दिनों चार्ल्स डुहिग की ‘पावर ऑफ हैबिट’ पढ़ रहा हूं। घूमने का बहुत शौक है। जब
भी तफ़रीह का मन होता है तो घूमने निकल पड़ता हूं।
संगीत की आत्मा ख़त्म हो गई है- सुष्मित बोस
घर में बचपन से ही
संगीत का माहौल देखा। मेरे बाबा सुनील बोस शास्त्रीय संगीतकार थे, वो ठुमरी गाते थे। घर
में अलाउद्दीन ख़ां और अमज़द अली ख़ां साहब जैसे बड़े संगीतकारों का जमावड़ा लगा
रहता था। नामचीन हस्तियों को सुनते-सुनते मैं बड़ा हुआ हूं।
संगीत में अब वो रस
नहीं रह गया है। बड़े ग़ुलाम अली ख़ां साहब, अमीर ख़ां साहब, अलाउद्दीन ख़ां साहब
के ज़माने की बात ख़त्म हो गई है। पहले संगीत पेशा नहीं बल्कि एक साधना होती थी।
संगीत ज़िंदगी का मक़सद होता था। अब शास्त्रीय संगीतकार इतने डरे हुए हैं कि ख़ुद
पाश्चात्य संगीतकारों के साथ काम करना चाहते हैं। शास्त्रीय संगीत की बात करूं तो आजकल
पांच मिनट का आलाप होता है और चालीस मिनट तक झाला दिखाते हैं। यह दौर व्यवसायीकरण
का है, जहां कला की जगह
कारीगरी ने ले ली है। लोग पैसों के लिए काम कर रहे हैं। संगीत की आत्मा ख़त्म हो
गई है।
मैंने ‘आय एम कलाम’ फ़िल्म में संगीत दिया था। फ़िल्में अब
सिर्फ़ निर्देशक का माध्यम नहीं रह गई हैं बल्कि निर्माता भी उनमें पूरी दिलचस्पी
दिखाने लगे हैं। उन्हें हर स्थिति पर एक गाना चाहिए जबकि कभी-कभी ख़ामोशी भी अपने
आप में संगीत का काम करती है। संगीत का मतलब अब नृत्य हो गया है।
अमेरीकी लोक गायक पीट सीगर और बॉब डेलन मेरे आदर्श हैं। बॉब डेलन के लिखने का तरीका अद्भुत है। बंगाल के
बाउल गायक भी पसंदीदा हैं। अपने बाबा की तरह रोज़ाना भारतीय शास्त्रीय संगीत का
रियाज़ करता हूं। आप मुझे इन सबका मिश्रण कह सकते हैं। सुबह रियाज़ के बाद लोगों
से मिलना-जुलना पसंद है। मैं बहुत मिलनसार हूं। लोक कलाकार हूं तो लोगों से जो
कहानियां सुनता हूं,
या
जो अख़बार में पढ़ता हूं,
वो
मुझ पर असर करता है। वही लिखता हूं और वही गाता हूं।
लोक संगीत से जुड़े रहना ज़रूरी- रब्बी शेरगिल
पश्चिमी सभ्यता का
प्रभाव इन दिनों हर चीज़ पर है। संगीत पर भी इसका असर साफ़ दिख रहा है। कुछ हद तक
इस प्रभाव से बचा भी नहीं जा सकता, क्योंकि यह आधुनिकता का एक आयाम है।
ज़रूरत संतुलन बनाने की है। संतुलन से प्रयोजन यह है कि जो हमारा लोक संगीत है उसे
दरकिनार न किया जाए। लोक संगीत यानी मूल संगीत से हमारा ज़मीनी रिश्ता है और ज़मीन
देश से पहले है। हमारी सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता से भी पुरानी मानी जाती है और
इसका जीवित रहना बहुत ज़रूरी है। हमारा भविष्य तभी उज्ज्वल हो सकता है जब हमने
अतीत से कुछ सीखा हो। अगर अतीत से हमारा नाता पूरी तरह टूट जाएगा तो आनी वाली कौम
गूंगी-बहरी हो जाएगी। हमारी आने वाली पीढ़ी चिंतन-मनन कर पाएगी या नहीं... ये कुछ
मूल सवाल हैं जो कला और साहित्य को ज़रूर पूछने चाहिए।
फ़िल्में अब व्यापार
बन गई हैं, और व्यापार में
मुनाफ़ा सर्वोपरि होता है। जब तक मुनाफ़ा सर्वोपरि रहेगा तब तक हमारे जीवन-मूल्य, हमारी सभ्यता, हमारे आदर्श पीछे
हटते जाएंगे। जितनी तेज़ी से हमारी जेबें भरी हैं, उतनी ही तेज़ी से हमारा संगीत पीछे छूटा
है। कला के मामले में हम ग़रीब होते जा रहे हैं। हमें किस दिशा में जाना है, यह हमें ही सोचना है।
जब मैं बड़ा हो रहा
था पैसा उस वक़्त भी ज़रूरी था, लेकिन ऐसी मारामारी कभी देखने को नहीं मिली। ऐसा नहीं लगता था
कि फलां महीने पैसे नहीं आएंगे तो घर में राशन कैसे आएगा। जैसे-जैसे महंगाई बढ़
रही है, वैसे ही कला और
अभिव्यक्ति से आदमी की सोच हटती जा रही है। हमारा देश एक तरह के नैतिक विभ्रम (मॉरल कन्फ्यूज़न) से गुज़र रहा है, इसे इस स्थिति से
बचाने के लिए जिस तरह का साहित्य रचा जाना चाहिए, जिस तरह का संगीत रचा जाना चाहिए, उसे रचने के लिए एक
सहज प्रकृति,
कुछ
समय और सोच चाहिए।
संगीतकारों से
ज़्यादा मैं अपने देश के साहित्यकारों से ज़्यादा प्रेरित हूं। शिव कुमार बटालवी, हरभजन सिंह और
प्रेमचंद की जीवनगाथाएं पढ़ता हूं तो समझ आता है कि किन मुश्किलात में इन्होंने
साहित्य रचना की है। ख़ाली वक़्त में मैं गिटार बजाने का अभ्यास करता हूं। हिमालय
बहुत पसंद है और कोशिश में हूं कि ज़्यादा-से-ज़्यादा वक़्त वहां बिता पाऊं।
इंडियन मेलडी अमर है- जावेद अली
संगीत के प्रति मेरा
रुझान बचपन से हो गया था। पिताजी शो किया करते थे। संगीत में मेरी दिलचस्पी देखते
हुए पिताजी ने मुझे उस्ताद मल्लू ख़ां साहब की शागिर्दगी में रख दिया। स्कूल में
होने वाले संगीत समारोहों में मैं हमेशा हिस्सा लिया करता। स्कूल में जब भी संगीत
की बात होती, सबसे पहले मेरा नाम
सामने आता। मैं ग़ुलाम अली ख़ां साहब का बहुत बड़ा प्रशंसक था। उनकी ग़ज़लें
सुन-सुनकर गाने का मेरा शौक़ बढ़ता चला गया। एक बार ग़ुलाम अली ख़ां दिल्ली आए हुए
थे। उनका पता ढूंढ़कर पिताजी मुझे उनसे मिलवाने ले गए। ख़ां साहब ने मुझे सुना और
पिताजी से कहा कि बच्चा बहुत हुनरमंद है। पिताजी ने कहा कि यह आपका शागिर्द बनना
चाहता है। उसके बाद गुलाम अली ख़ां जब भी दिल्ली आते, मैं उनके साथ रहता।
उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं प्लेबैक सिंगर
बनूंगा।
एक बार मैं कल्याणजी
भाई से मिलने के लिए मुंबई आया। उन्होंने कहा कि मुंबई तुम्हारे लिए बेहतर जगह है
और तुम्हें यहीं रहना चाहिए। उन्होंने मुझे मुंबई बुला लिया। फिर महसूस हुआ कि एक
कलाकार को किसी दायरे में सिमटकर नहीं रहना चाहिए, उसे हरफ़नमौला होना चाहिए; और प्लेबैक सिंगिंग ऐसी चीज़ है जिसमें
ग़ज़ल, कव्वाली, रोमांटिक या
क्लासिक... सब-कुछ गाने का मौक़ा मिलता है। इस तरह मैं प्लेबैक सिंगिंग में आ गया।
गानों पर पश्चिमी
प्रभाव दिखने लगा है। ऐसे गाने तुरंत हिट होते हैं। लेकिन यह बुरा नहीं है।
शास्त्रीय संगीत पर आधारित गानों की बात करें तो उनकी उम्र बेशक़ लंबी होती है।
इंडियन मेलडी की अपनी ख़ासियत है। लोग आज भी ‘देवदास’, ‘ताल’, ‘जोधा-अकबर’ के गाने सुनना पसंद करते हैं। अब जो
गाने बन रहे हैं,
उनमें
शायरी ख़त्म हो गई है। साधारण गाने बनते हैं, जिनमें तुकबंदी का इस्तेमाल ज़्यादा है।
लोग ऐसे गाने पसंद करने लगे हैं, जैसे ‘यूं तो प्रेमी
पचहत्तर हमारे,
ले
जा तू कर सतत्तर इशारे...।’
शास्त्रीय संगीत मेरी
पहली पसंद है। वैसे हर तरह का संगीत सुनने का शौक़ीन हूं। पश्चिमी गायकों में
व्हिटनी ह्यूस्टन और ब्रायन एडम्स बेहतरीन हैं। उस्ताद राशिद ख़ां, मशहूर ख़ां, ग़ुलाम अली ख़ां, पंडित जय चक्रवर्ती, मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, लता मंगेशकर और आशा
भोसले पसंदीदा हैं।
संगीतकारों में पहले जैसा माद्दा नहीं- कुमार सानू
संगीत के क्षेत्र में
कोई प्रयोग नहीं हो रहा। संगीतकार ‘ईज़ी मनी’ के लिए काम करने लगे हैं। संगीत में
प्रयोग का कोई फ़ायदा भी नहीं है। हम भारतीय हैं और हमें हिन्दुस्तानी संगीत ही
चाहिए। हम कुछ समय के लिए पाश्चात्य संगीत पसंद करते हैं, लेकिन घूम-फिर कर
हमें वापस यहीं आना है।
परिवर्तन होता है
होना भी चाहिए,
लेकिन
पुराना दौर लौटता ज़रूर है। आजकल संगीत पर पश्चिमी प्रभाव ज़्यादा इसलिए दिखाई दे
रहा है क्योंकि मीडिया को भी चार पैसे कमाने हैं। लेकिन इस दौड़ में हम यह नहीं
सोचते कि आने वाली पीढ़ी को हम क्या देकर जाने वाले हैं। कलाकार होने के नाते समाज
के प्रति हमारा उत्तरदायित्व बनता है। गानों में अश्लीलता या फूहड़ता होगी तो समाज
पर भी उसका असर होगा।
फ़िल्म निर्माताओं को
निर्देशकों पर भरोसा नहीं रह गया है, निर्देशक संगीतकारों पर विश्वास नहीं कर
पा रहे हैं। यही कारण है कि एक फ़िल्म में कई-कई संगीतकार काम करने लगे हैं। अब
किसी फ़िल्म में छह गाने हैं, तो उन पर एक नहीं बल्कि छह अलग-अलग संगीतकार काम करते हैं। यह
शर्म की बात है। पहले संगीतकारों में एक फ़िल्म को अकेले संभालने का माद्दा था।
जतिन-ललित, नदीम-श्रवण, अनु मलिक और
आनंद-मिलिंद इसके उदाहरण हैं। अब वो हुनर कम है।
मुझे पश्चिमी संगीत
बहुत ज़्यादा नहीं भाता। लेकिन एक-दो गायक पसंद हैं, जैसे एल्विस प्रेस्ले और सेलेन डियॉन।
ख़ाली वक़्त में अंग्रेज़ी फ़िल्में देखता हूं। रोमांटिक फ़िल्में अच्छी नहीं
लगतीं। एक्शन, थ्रिलर, हॉरर और साइंस फिक्शन
का शौकीन हूं। बेटियों के साथ वक़्त गुज़ारना अच्छा लगता है। मेरी दोनों बेटियों
ने अंग्रेज़ी संगीत की तालीम ली है। दोनों पियानो भी बहुत अच्छा बजाती हैं।
संगीत से प्यारा कुछ नहीं- पीनाज़ मसानी
मेरे पिताजी को संगीत
से बहुत लगाव है। घर में गाने-बजाने का माहौल था। बहुत छोटी थी जब पिताजी और अंकल
के साथ गाड़ी में कहीं जा रही थी। मैंने गाना गाया और अंकल ने मुझे एक रुपया नज़र
किया था। वहीं से मेरी गायकी की शुरुआत हुई, और यक़ीन हुआ कि मैं भी गा सकती हूं।
बचपन में कोई अच्छा गाना सुनती थी तो मेरी आंखों में आंसू आ जाते थे।
संगीत में हो रहे
प्रयोगों को मैं बुरा नहीं मानती। नई कोशिश नहीं करेंगे तो कैसे जानेंगे कि क्या
अच्छा है और क्या बुरा। यह प्रयोग का दौर है। लेकिन इस सबके साथ संगीत की रूह
ख़त्म नहीं होनी चाहिए। अब बहुत कम ऐसे गाने मिलते हैं जिन्हें सुनते हुए आप मगन
हो जाएं। गीत-संगीत की कला में बदलाव आ गया है। आजकल पहले धुन बना दी जाती है, गाने बाद में बनाए
जाते हैं। ग़ज़लों की बात करूं तो हम ग़जल को सुनकर उसे ट्यून करते हैं। ऐसा नहीं
होता कि ट्यून हो और ग़ज़ल बैठा दी जाए।
मेरे आईपॉड पर आपको
हर किस्म का संगीत मिल जाएगा। इस दुनिया में संगीत से प्यारा कुछ नहीं है। कन्सर्ट
वगैरह के सिलसिले में ख़ूब घूमना हो जाता है, इसलिए ख़ाली वक़्त घर पर या दोस्तों के
साथ गुज़ारना पसंद करती हूं। अपनी गुरु मधुरानी को बहुत याद करती हूं। जब बाहर
जाती हूं तो पिताजी को मिस करती हूं। और कोई जीवन में नहीं है
जिसे मिस करूं।
इबादत का दूसरा नाम गायकी- कुणाल गांजावाला
किसी भी मूल चीज़ में
जब बदलाव आता है तो यह तय नहीं होता कि लोग उसे स्वीकार करेंगे या नहीं। ए.आर.
रहमान ने जब फ़िल्म ‘रोजा’ में संगीत के साथ प्रयोग किए तो लोगों
ने उसे हाथो-हाथ लिया। उससे पहले भी रहमान कुछ-न-कुछ नया कर रहे होंगे, लेकिन रहमान के
संगीतकार बनने से लेकर ए.आर. रहमान बनने के सफ़र के बीच के समय के बारे में हम
नहीं जानते। बीच का यह समय प्रयोग का होता है जब बदलाव अपनी पुख़्ता शक्ल में न
होकर धीरे-धीरे जड़ें जमा रहा होता है। विशाल भारद्वाज ‘ओंकारा’
के साथ संगीत में जो बदलाव लेकर आए, वो उनकी हर आने वाली फ़िल्म के साथ
पुख़्ता होता गया। इन दिनों संगीत में जो प्रयोग हो रहे हैं, वो अच्छे भी हैं और
नहीं भी। डिमांड और सप्लाई की बात है। जैसी मांग होगी, वैसा ही संगीत बनेगा।
पिछले कुछ सालों में
मनोरंजन की परिभाषा तेज़ी से बदली है। अब हर चीज़ को ‘लाउड’
तरीके से पेश करने का चलन है। संगीत का वातावरण बदला है। अब लोग ख़ासकर नई पीढ़ी
चिल्ल-पौं वाले गाने पसंद करने लगी है। गानों में मधुरता व सौम्यता कम और
शोर-शराबा ज़्यादा है। जो सहमापन और कम में ज़्यादा कह देने की ख़ासियत पुराने गानों
में थी, वो अब नहीं है। अब
गानों में अश्लीलता है। ‘भीगे होंठ तेरे’ गाने के बोल भी एडल्ट थे, लेकिन इसे जिस तरीके
से मैंने गाया उसमें अश्लीलता नहीं दिखी। गाना पेश करने के कई ढंग हैं। किसी गाने
को आप मोहब्बत और इबादत के साथ गाते हैं तो उसकी रंगत कुछ और हो जाती है। मेरे हर
कन्सर्ट में आज भी लोग सबसे पहले इसी गाने की फ़रमाइश करते हैं।
कम गायकों को मौक़ा
मिलता है कि वो किसी व्यक्ति विशेष के प्रभाव या इमेज से बाहर निकल पाएं। बहुत-से
लोग हैं जो किशोर कुमार के स्कूल से सीखकर आए हैं और वही लेबल या तख़्ती उनकी पहचान
बन गई है। वो कभी मौलिक नहीं हो पाए। मैं ख़ुशकिस्मत हूं कि मुझ पर किसी का प्रभाव
नहीं पड़ा, या मुझे किसी दूसरे
गायक की तरह नहीं गाना पड़ा। मैंने हमेशा अपने तरीके से गाया है। हालांकि इस वजह
से मुझे संघर्ष भी बहुत करना पड़ा, लेकिन आख़िर मैं अपनी पहचान बना पाया।
इन दिनों ख़ुद को और परिवार को थोड़ा वक्त दे रहा हूं। फ़िल्मों में गाना कम कर
दिया है। बड़ी वजह यह है कि आजकल एक गाना कई गायकों से गवाकर देखा जाता है। मेरी
पहली शर्त होती है कि जो गाना मुझसे गवाया जा रहा है, उसे रखा जाए।
फास्ट-फूड जैसा हो गया है संगीत- उदित नारायण
आजकल फास्ट-फूड का
ज़माना है। संगीत भी फास्ट-फूड की तरह हो गया है। अचानक कोई गाना आता है, सुपरहिट होता है और
छह महीने बाद वो गाना मुश्किल से कहीं सुनाई देता है। लेकिन जितने भी उतार-चढ़ाव आ
जाएं, हमारे संगीत में जो
निर्मलता और सच्चापन है,
जो
माधुर्य है,
वो
अमर रहेगा। के.एल. सहगल,
मोहम्मद
रफ़ी, तलत महमूद या लता जी
ने सालों पहले जो गाने गाए,
उन्हें
सुनकर आज भी दिल पर वही असर होता है, वही सुक़ून मिलता है। वो गाने बार-बार
सुनने की इच्छा होती है। ऐसा नहीं है कि अब अच्छा काम होना बंद हो गया है, लेकिन बदलाव इतनी
तेज़ी से हो रहे हैं कि कुछ स्थिर नहीं रह पा रहा है। फ़िल्मों के साथ भी ऐसा है।
पहले सिनेमा हॉल में फ़िल्मों की सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली के बोर्ड लगते थे।
अब मल्टीप्लेक्स आ गए हैं। कौन-सी पिक्चर कब लगती है, कब उतर जाती है, पता नहीं चलता।
रोमांटिक गायक हूं
इसलिए रोमांटिक गाने सुनना ज़्यादा पसंद करता हूं। बचपन से मोहम्मद रफ़ी का फैन
हूं। जब ‘आराधना’ फ़िल्म आई तब से किशोर कुमार का प्रशंसक
भी हो गया। शास्त्रीय संगीत में भीमसेन जोशी, किशोरी अमोनकर, बेगम अख़्तर, पंडित जसराज और
शिव-हरी जी को चाव से सुनता हूं। विदेशी संगीत भी पसंद है। माइकल जैक्सन, एल्विस प्रेस्ले, मेडोना, शकीरा और ब्रिटनी
स्पीयर्स अच्छे लगते हैं।
ख़ाली वक्त पत्नी और
बेटे आदित्य के साथ बिताता हूं। बिहार में अपने गांव जाकर सबसे मिलने का दिल होता
है। पहले हर छह महीने में वहां जाकर लोगों के सुख-दुख में शामिल होता था, लेकिन पिछले कुछ
सालों से जाना कम हो गया है। अपने जन्मस्थान, अपनी मिट्टी से जुड़ा रहना चाहता हूं।
अपने लिए सब जीते हैं,
लेकिन
जितनी मेरी हैसियत है,
उसके
हिसाब से थोड़ा-बहुत परोपकार करता रहना चाहता हूं। ईश्वर के आशीर्वाद से जीवन में
बहुत नाम कमाया है। एक और दिली इच्छा है कि जब तक हूं, इस आशीर्वाद को निभाता रहूं। अपनी
आवाज़, अपनी गायकी और संगीत
से लोगों के दिलों पर छाप छोड़ता रहूं और उन्हें ख़ुश करता रहूं।
सुगम संगीत से भरपूर फ़िल्म का इंतज़ार है- रेमो फर्नान्डिस
जब से होश संभाला है, संगीत तब से मेरे
जीवन का हिस्सा रहा है। बचपन में हमेशा कुछ-न-कुछ गाता-बजाता रहता था। पांच
साल का था जब माउथ ऑर्गन और मराकास (एक लैटिन अमेरिकी
वाद्ययंत्र) बजाना शुरू कर दिया
था। छठे साल में बैंजो और सातवें साल में यूकलेली (हवाई द्वीप का गिटार) बजाने लगा
था। लेकिन संगीत को करियर बनाने के बारे में तब सोचा जब 18 साल का हुआ। उस वक़्त
मैं आर्किटेक्चर का कोर्स कर रहा था जिसे मैंने अनमने ढंग से पूरा किया और उसके
बाद धीरे-धीरे संगीत में डूबता चला गया।
मुझे हाइब्रिड चीज़ें
पसंद हैं। हाइब्रिड लोग पसंद हैं। मेरे बेटे इंडो-फ्रेंच हैं। मिश्रण हमेशा
दिलचस्प होता है। संगीत में भी फ्यूज़न अच्छा लगता है। संगीतकारों को नए-नए प्रयोग
करते रहना चाहिए। मैंने पहला प्रयोग साल 1977 में किया था, जब अपने गिटार को
मैंने इस तरह ट्यून किया कि वो सितार जैसा सुनाई दे। फिर अपने दो दोस्तों के साथ
मिलकर ‘स्ट्रीट’ नाम से बैंड बनाया। इस बैंड में हम
मुंबई की गलियों और रेलगाड़ियों में गाने-बजाने वाले लोगों के साथ गाते थे।
मौजूदा संगीत में
आत्मा नहीं है,
लेकिन
यह स्थिति ज़्यादा देर तक नहीं रहने वाली है। उम्मीद है कि हमें जल्द कोई ऐसी
फ़िल्म देखने को मिलेगी जिसमें भरपूर सुगम संगीत होगा, और इस नएपन के कारण
फ़िल्म को बहुत पसंद भी किया जाएगा। एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ तो लंबे समय तक
बरक़रार रहेगा।
इन दिनों एक ही
फ़िल्म में कई-कई संगीतकार काम रहे हैं। पश्चिम में यह तकनीक दशकों पहले अपना ली
गई थी, तो ज़ाहिर है हमें भी
कभी-न-कभी उनकी नक़ल करनी ही थी। लेकिन अगर फ़िल्म निर्देशक समझदार है और इतना
संवेदनशील है कि वो तर्क और रुचि के आधार पर अलग-अलग गाने तथा संगीत निर्देशक चुन
सके, न कि सिर्फ़ इसलिए कि
उसे ऐसा करना है,
तो
यह फ़िल्म के लिए अच्छा फ़ॉर्मूला साबित हो सकता है।
अब एकरस गानों का दौर है- सोनू निगम
बचपन में माता-पिता
को गाते हुए सुन-सुनकर मैंने गाना सीखा। चार साल का था जब पिताजी के साथ पहली बार
स्टेज पर गाना गाया। उसके बाद शादियों और पार्टियों में गाने का सिलसिला चलता रहा।
18 साल की उम्र में फ़िल्मों में गाने की हसरत लिए मैं मुम्बई आया। यहां आने से
पहले मोहम्मद ताहिर से चार-पांच महीने संगीत सीखा। साल 1997 में मुंबई में उस्ताद
ग़ुलाम मुस्तफ़ा ख़ां से तालीम ली।
तकनीक का असर अब
संगीत पर भी दिखने लगा है। नई-नई मशीनें और सॉफ्टवेयर आ गए हैं। ऐसे सॉफ्टवेयर हैं, जो सुर में न गाने
वाले को भी सुरीला बना देते हैं। इसका कुप्रभाव उन गायकों पर होता है जो रियाज़
करते हैं और संगीत को गहनता से लेते हैं। इससे मनोबल भी टूटता है क्योंकि कोई भी
कुछ भी गा रहा है। सकारात्मक दृष्टि से देखें तो इस तकनीक की वजह से अब बहुत लोग
गा पा रहे हैं। लेकिन नकारात्मक पहलू यह है कि जो सही मायने में गायक हैं उन्हें
उनका पूरा हक़ नहीं मिलता।
पहले फ़िल्मों में हर
तरह के गीत होते थे,
जैसे
‘हम काले हैं तो क्या
हुआ दिलवाले हैं’, ‘सुख के सब साथी, दुख में न कोई’, ‘अपनी आज़ादी को हम
हरगिज़ मिटा सकते नहीं...’। अब इस तरह के गानों
पर ध्यान नहीं दिया जाता। सब ‘कैची’ गाने चाहते हैं।
पिछले चार-पांच साल से एकरस गाने बन रहे हैं। आज का समाज तेज़ रफ़्तार हो चुका है, तो शायद यही ठीक भी
है। आजकल सबको विभिन्नता चाहिए। इसलिए एक फ़िल्म के लिए कई-कई गाने बनते हैं और
फिर उनका चयन होता है। म्यूज़िक कंपनियां भी ज़ोर डालती हैं कि उन्हें गाना नहीं
रिंगटोन चाहिए,
ताकि
लोग उसे फ़ोन पर लगाएं और उनकी आमदनी हो।
इंडस्ट्री में मेरे
प्रेरणास्रोत मोहम्मद रफ़ी,
लता
मंगेशकर और अमिताभ बच्चन हैं। महात्मा गांधी के विचारों से बहुत प्रभावित रहा हूं।
हाल में ओशो को सुनना-पढ़ना शुरू किया है। वो बहुत गहरी बातें कह गए हैं जो शायद
सबकी समझ में नहीं आ पातीं। शायद इसीलिए वो विवादास्पद भी हैं। लेकिन ओशो से अच्छा
जीवन-दर्शन कहीं नहीं मिलता।
मुझे घूमना बहुत पसंद
है। वक़्त मिलने पर एंबी वैली चला जाता हूं। पिछले दिनों हिमालय गया था। मां के
बहुत क़रीब हूं। इन दिनों उनकी तबीयत अच्छी नहीं है। जब उनके आस-पास नहीं होता तो
उन्हें बहुत ज़्यादा मिस करता हूं। मेरे माता-पिता और बेटा नेवान मेरी लाइफ-लाइन
हैं।
प्रयोग होते रहने चाहिए- एहसान नूरानी
संगीत उसी पल आपकी
ज़िंदगी में शुमार हो जाता है जब आप जज़्बाती तौर पर इससे जुड़ते हैं। छह साल का
था जब कुछ धुनें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। तो कह लीजिए कि बचपन से संगीत
मेरे जीवन का हिस्सा है। ज़्यादातर ‘ब्लूज़’ संगीत सुनता हूं।
संगीत की दुनिया में
मुझे किसी की कमी महसूस नहीं होती। इंसान को कमी उनकी महसूस होती है जो नहीं रहते।
हेमंत कुमार,
पंचम
दा, जिमी हेन्ड्रिक्स और
जॉन कोलट्रेन जैसे संगीतकार एक भरी-पूरी विरासत हमारे लिए छोड़ गए हैं, और वो विरासत है उनका
संगीत। ये लोग अपने संगीत से आज भी जिंदा हैं।
संगीत वो माध्यम है
जिसमें नित नए प्रयोग संभव हैं... चाहे वो कई तरह के संगीत को मिलाकर या नए
वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल से नया संगीत तैयार करना हो, या संगीत के नए रूपों
की रचना करना हो। इसका जो भी नतीज़ा निकले- अच्छा या बुरा- हमेशा आनंद देता है, क्योंकि असल में कुछ
नया रचने का अनुभव ही अपने-आप में आनंददायक है। प्रयोग किए जाने की ज़रूरत है और
यह होता रहना चाहिए।
भारतीय फ़िल्मों पर
पाश्चात्य संगीत का बेहद गहरा असर है। पर मुझे लगता है कि यह असर गीतों की
प्रोडक्शन और इनमें इस्तेमाल होने वाले इन्स्ट्रूमेन्टेशन पर ज्यादा है, बजाय कि हमारी धुनों
पर। धुनें कमाबेश अच्छी ही होती हैं, चाहे वो भारतीय हों या कि पाश्चात्य।
हिंदी फ़िल्मों के गीत-संगीत की धुनों पर भारतीय संगीत का असर रहेगी ही, क्योंकि हिंदी को
अंग्रेजी की तरह तोड़-मरोड़ कर आप नहीं बोल सकते। नौशाद जैसे संगीतकारों ने भी
अपने गीतों में पाश्चात्य ऑर्केस्ट्रा और अरेंजमेंट्स का उपयोग किया। भारतीय
श्रोता अब टीवी, रेडियो या इंटरनेट
पर दुनियाभर का संगीत सुनता है, तो संगीत उद्योग को लोगों की ज़रूरतों को पूरा तो करना ही
पड़ेगा।
मुझे फ़िल्में और दस्तावेज़ी फ़िल्में
देखना पसंद है। मैं गिटार बजाता हूं और इसमें लगातार बेहतर होने की कोशिश करता
रहता हूं। इंटरनेट पर भी ख़ूब वक्त बिताता हूं। यूएफओ को लेकर बहुत उत्साहित रहता
हूं और उन कई ब्लॉग्स का हिस्सा हूं जो इस विषय पर काम कर रहे हैं।
हिन्दुस्तानी बड़े सुरीले लोग हैं- इरशाद कामिल
संगीत कहीं-न-कहीं हर
इंसान की ज़िंदगी का हिस्सा होता है। जो लोग इसे महसूस कर लेते हैं वो गीतकार, संगीतकार या गायक बन
जाते हैं, और जो महसूस नहीं कर
पाते वो भी गाते-गुनगुनाते ज़रूर हैं, चाहे घर में गाएं। मुझे इस बात का एहसास
तब हुआ जब मैं बहुत छोटा था। मुझे अचानक कविताएं और नाटक आकर्षित करने लगे थे। यह
आकर्षण मिलकर कब संगीत से जुड़ गया और संगीत से जुड़कर यह कैसे गीतों में ढलने लगा, बताना मुश्किल है। यह एक प्रक्रिया का
हिस्सा था। लेकिन संगीत के साथ मेरा रिश्ता सिर्फ़ शब्दों का है।
हमारे फ़िल्मी
गीत-संगीत में क्षेत्रीयता का दख़ल होता जा रहा है। चाहे वो पंजाब का लोक संगीत हो, उत्तर-प्रदेश का, या फिर बिहार या
गुजरात का... जब क्षेत्रीयता राष्ट्रीय स्तर पर आ रही है तो राष्ट्र भी
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना चाहेगा। इन दिनों ध्वनि के स्तर पर, लयकारी के स्तर पर, रॉक और फोक का मेल हो रहा है। इस तरह के
प्रयोग काबिले-तारीफ़ हैं। रही बात गानों में अश्लीलता की, तो इसके प्रति हम कुछ
देर के लिए आकर्षित हो सकते हैं, लेकिन हम यह कतई नहीं चाहते कि वो हमारे जीवन का या भाषा का
हिस्सा बने। अश्लील या फूहड़ गाने बनाना ख़ुद पर कम विश्वास वाले लोगों का प्रयास
लगता है। जिनका चारित्रिक उत्थान नहीं हुआ है, उनकी यह कोशिश होती
है कि किसी भी तरह लोगों के सामने आ जाएं।
आज भले ही हम
हारमोनियम पर नहीं गिटार पर गाने बना रहे हैं, लेकिन मेलडी हमारे हाथ से छूटी नहीं है, और न ही छूटेगी
क्योंकि हिन्दुस्तानी बड़े सुरीले लोग हैं, सुरों को पसंद करने
वाले लोग हैं। यहां मोहल्ले में कोई सब्ज़ी बेचने वाला आवाज़ लगाता है तो वो भी
सुर में लगाता है। विदेशी हमारा संगीत बहुत पसंद करते हैं। पंडित रविशंकर, उस्ताद ज़ाकिर हुसैन
और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया विदेशों में लोकप्रिय हैं क्योंकि ऐसी कलाएं विदेशियों
के पास नहीं है।
मेरा प्रेरणास्रोत
मेरा पिछला गाना होता है क्योंकि मैं हमेशा अपना गाना पिछले गाने से बेहतर करने की
कोशिश करता हूं। पुराने लेखकों में या दूसरे चेहरों में अपनी प्रेरणा नहीं ढूंढ
पाता। बाहर तलाश करने के बनिस्बत प्रेरणा अंदर से ढूंढी जानी चाहिए। भीतर से
प्रेरणा लेंगे तो वो स्थाई होगी क्योंकि बाहरी प्रेरणा वक्त के साथ धुंधली पड़
सकती है। अंदर से ऊर्जा और शक्ति मिलती है तो आप ख़ुद-ब-ख़ुद बेहतर होना चाहते
हैं।
मैं 50 और 60 के दशक
को बहुत मिस करता हूं और उसमें अपने न होने को मिस करता हूं। अगर मैं उस युग में
पैदा हुआ होता तो शायद कुछ और बेहतर कर सकता था, और
बेहतर लोगों के साथ उठ-बैठकर कुछ और अच्छा लिख सकता था, या और बेहतर इंसान बन
सकता था।
(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के दिसम्बर 2012, संगीत विशेषांक में प्रकाशित)
(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के दिसम्बर 2012, संगीत विशेषांक में प्रकाशित)
संगीत की विभिन्न हस्तियों के विचार पढ़कर बहुत अच्छा लगा..... बड़ी मेहनत से सबको एक लेख में समाहित कर दिया है आपने.. सुष्मित बोस के बारे में जानकर खुशी हुई... आभार
ReplyDeleteमनीषा
ये तो संजो के रखने लायक पोस्ट है...बहुत अच्छी लगी..
ReplyDeleteलगभग सभी लोगों का मानना है की संगीत में अब पहले जैसा मेलोडी नहीं है...और ये सच भी है...ज़्यादातर कैची गाने बनने लगे हैं अब जो की अच्छा तो बिलकुल नहीं है..
वेस्टर्न म्यूजिक में कुमार सानु की तरह ही मुझे सेलिन डियोन बहुत ज्यादा पसंद हैं...मैं फैन हूँ उनका! :)