(नसरीन मुन्नी कबीर विदेश
में पली-बढ़ीं लेकिन उनका दिल भारत के लिए धड़कता रहा। लंदन में रहकर वे भारतीय
फ़िल्में देखतीं और हिन्दी गाने सुनतीं। पढ़ाई के
लिए यूरोप गईं तो वहां भी यह सिलसिला बरक़रार रहा। सिनेमा की पढ़ाई के बाद नसरीन लंदन
लौट आईं। उन्हें ब्रिटिश फ़िल्म इंस्टीट्यूट' में ‘गवर्नर’ नियुक्त किया गया। लेकिन भारत और सिनेमा के प्रति
प्यार उन्हें बार-बार हिन्दुस्तान खींचकर लाता रहा। नसरीन भारतीय सिनेमा से जुड़ी हस्तियों
पर कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बना चुकी हैं और किताबें लिख चुकी हैं। ब्रिटेन और
यूरोप में भारतीय सिनेमा का परचम लहराने वाली नसरीन हाल में भारत आईं तो ‘अहा ज़िंदगी’ के लिए उन्होंने ख़ास बातचीत की।)
मेरा जन्म हैदराबाद का है। बहुत छोटी थी जब
माता-पिता इंग्लैंड जाकर बस गए थे। तब से लंदन में ही हूं। लंदन बहुत ख़ूबसूरत शहर
है। यहां काम करने में मज़ा आता है। कला-प्रदर्शनी हो या रंगमंच- सब-कुछ बेहतरीन है।
सीखने और करने के लिए बहुत कुछ है यहां। लंदन सांस्कृतिक रूप से काफी समृद्ध है। यूं
तो मेरे जीवन का ज़्यादातर हिस्सा लंदन में गुज़रा है, लेकिन पैरिस में भी मैंने 18 साल बिताए हैं। मेरी पढ़ाई
पैरिस में ही हुई है।
सिनेमा में मास्टर्स करने के बाद मैंने फ्रांस के नामी निर्देशक रॉबर्ट
ब्रेसों को जॉइन किया। रॉबर्ट की फ़िल्म ‘फोर नाइट्स ऑफ ए ड्रीमर’ में बतौर सहायक काम किया। रॉबर्ट फिक्शन फ़िल्मों के बादशाह थे। उनके साथ काम
करने के दौरान मुझे समझ आ गया था कि मैं उस फिक्शन को गढ़ने
में अच्छी नहीं हूं, जो फ़िल्मों के लिए
ज़रूरी है। फ़िल्मों में एक अलग ही दुनिया रचनी पड़ती है। ऐसी दुनिया जो वास्तव
में नहीं है, लेकिन वास्तव लगनी चाहिए। मैं समझ गई थी कि मैं असल घटनाओं को ‘रिकॉर्ड’ करने में बेहतर हूं। इसीलिए मैंने डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाने की ठानी।
जल्द समझ आ गया कि फिल्में मेरे बस की नहीं
लंदन में मैंने हिन्दुस्तानी फ़िल्में ख़ूब देखीं। भारत से मेरा ताल्लुक भारतीय
खाने और भारतीय सिनेमा के कारण बरक़रार रहा, यह मेरे लिए बड़ी बात थी। विदेश में रह रहे लाखों
हिन्दुस्तानियों की तरह मैं भी हिन्दी गाने सुना करती
थी... ख़ासतौर से पचास और साठ के दशक के
गाने, जो लाजवाब थे। फिर मैंने सोचा कि क्यों न भारतीय फ़िल्मों पर ही रिसर्च करूं।
शुरुआत हुई यूरोपीय देशों में भारतीय सिनेमा
समारोह आयोजित करने से। इसी कड़ी में मैंने 1983 और 1985 में पैरिस के ‘जॉर्ज पॉम्पिदू सेंटर’ में भारतीय सिनेमा के महत्वपूर्ण समारोह कराए।
1982 में जब यूनाइटेड किंगडम में ‘चैनल 4’ टेलीविज़न की शुरुआत हुई तो मुझे उसमें बतौर सिनेमा
सहायक काम करने का प्रस्ताव मिला। तब से ‘चैनल 4’ के साथ ही हूं। मैं
इस चैनल के लिए भारतीय फ़िल्म शृंखला का आयोजन करती
हूं। ‘चैनल 4’ पर हर साल 20 भारतीय फ़िल्में दिखाई जाती हैं।
डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की बात करूं तो कह सकती हूं
कि वृत्त-चित्र और ‘चैनल 4’ के लिए भारतीय फ़िल्मों का आयोजन मेरी उपलब्धि रही है। वैसे फ़िल्मों में मैंने हर तरह का
काम किया है। ‘चैनल 4’ के लिए हिन्दी सिनेमा पर कई सीरीज़ बना चुकी हूं,
जैसे- ‘मूवी महल’, ‘इन सर्च ऑफ गुरु दत्त’, अमिताभ बच्चन के जीवन पर आधारित ‘फॉलो दैट स्टार’ और लता मंगेशकर पर एक सीरीज़ जो छह भागों में है। इसके अलावा शाहरुख़ पर भी
वृत्त-चित्र बना चुकी हूं- ‘द इनर एंड आउटर वर्ल्ड ऑफ शाहरुख़ खान’।
वृत्त-चित्र का निर्माण किसी भी हस्ती के जीवन को ‘रिकॉर्ड’ करने का शानदार ज़रिया है। गुरु दत्त और लता मंगेशकर ऐसी हस्तियां हैं
जिन्होंने हमारे सांस्कृतिक जीवन को गहरे प्रभावित किया है। इन महान कलाकारों की
जीवनगाथा सुनकर फ़िल्म बनाना मेरे लिए फ़ख्र की
बात है।
हर कलाकार में है कुछ अलग बात
वृत्त चित्र बनाने के दौरान मेरा रुझान सिनेमा पर किताबें लिखने की तरफ़ हुआ। मैंने जावेद अख़्तर और लता
मंगेशकर के जीवन पर किताबें लिखीं। ए.आर. रहमान की जीवनी भी लिखी। ये सब किताबें
बातचीत पर आधारित हैं। गुरु दत्त की जीवनी पर भी काम कर चुकी हूं। गुरु दत्त से
मैं कभी नहीं मिली, लेकिन उन पर काम करने का अनुभव अलग ही था। वे रहस्यमयी इंसान
थे। उनके व्यक्तित्व में कई परतें थीं शायद इसीलिए उनकी फ़िल्मों का जादू अब तक
बरक़रार है। उनकी फ़िल्में हर पीढ़ी से संवाद स्थापित करने में सक्षम हैं।
काम के दौरान जिन हस्तियों से भी मैं मिली, सबके
साथ बहुत मजा आया। हालांकि सब अनुभव एक-दूसरे से अलग रहे। लता मंगेशकर गज़ब की
महिला हैं। वे हाज़िरजवाब और ज़िंदादिल हैं। उनके साथ बैठकर महसूस होता है कि आप
एक कमाल की प्रतिभा के साथ हैं। अमिताभ बच्चन ऐसे संजीदा इंसान हैं जिनके
व्यक्तित्व में कई रंग हैं। अमिताभ को फ़िल्माते समय वे पूरी टीम के साथ खुले
स्वभाव से पेश आते रहे। उन्हें मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और मुकुल आनन्द के साथ
काम करते हुए देखने में बड़ा मज़ा आया। हमने 1989 में उन पर वृत्त-चित्र बनाया था।
उस दौरान वे जहां भी जाते, जनता सब-कुछ भूलकर
उन्हें घेरे रहती। मेरे ख़याल से भारतीय सिनेमा में इतना बड़ा सितारा दोबारा शायद
ही देखने को मिले। ए.आर. रहमान विनम्र हैं, क़ाबिलियत कूट-कूट कर भरी है उनमें।
सबसे प्यारी बात यह है कि वे ईमानदार हैं। रहमान बहुत शांत लेकिन मज़ाकिया हैं। वे
आपको कभी भी हंसा सकते हैं। शाहरुख़ खान जोशीले हैं। जब हम लोग शाहरुख़ पर फ़िल्म
बना रहे थे तो वे हमसे काफी घुल-मिल गए थे। कैमरे के पीछे काम करने वाले लोगों के
साथ वे बहुत आदर से पेश आते हैं। किसी तकनीशियन से कैसे बात करनी है, यह शाहरुख़
बख़ूबी जानते हैं। वे अपने फैन्स के साथ बहुत सलीके से पेश आते हैं। इसीलिए उनके
प्रशंसक उन्हें इतना प्यार करते हैं। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान सहज और सक्रिय
इंसान थे। सिर्फ़ संगीत नहीं, उनकी मौजूदगी भी धन्य कर देने वाली थी। ऐसे कम लोग
होते हैं जो इतने हुनरमंद होने पर भी गुरूर नहीं करते, कामयाबी को सर पर नहीं
चढ़ने देते। खान साहब में नम्रता थी जो महान कलाकारों की ख़ासियत रही है। गुरु
दत्त और बिस्मिल्लाह खान पर बनाए गए वृत्त-चित्रों को मैं अब तक अपना सबसे अच्छा
काम मानती हूं।
फिल्मी पत्रकारिता के लिए शोध ज़रूरी है
किसी चीज़ को लेकर जुनून हो तो उस तक पहुंचने के तरीके
हम ढूंढ़ ही लेते हैं। फ़िल्मों के साथ भी ऐसा
ही है। ‘डायलॉग बुक्स’ में जो बातचीत है वो हिन्दी, उर्दू, रोमन हिन्दी या अंग्रेज़ी अनुवाद में है।
ऐसा प्रयोग पहली बार हुआ है। जिन फ़िल्मों पर मैंने काम किया है वो ‘मुगल-ए-आज़म’, ‘आवारा’, ‘मदर इंडिया’ और ‘प्यासा’ जैसी सदाबहार फ़िल्में हैं। मेरी नई ‘डायलॉग बुक’ बिमल रॉय की फ़िल्म ‘देवदास’ पर है।
मेरे ख़याल से किसी चरित्र को समझने के लिए ‘डायलॉग’ की बहुत बड़ी भूमिका होती है। सिनेमा-प्रेमियों तक फ़िल्म का मूल भाव
पहुंचाना ‘डायलॉग’ से ही संभव है। यह वाकई शानदार तरीका है। अनुवाद
के कारण भाषा की समस्या भी आड़े नहीं आती। मुझे ख़ुशी है कि मेरी ‘डायलॉग बुक्स’ हॉवर्ड, टोक्यो और पैरिस के विश्वविद्यालयों में हिन्दी और उर्दू पढ़ाने के
काम में लाई जा रही हैं।
इस क्षेत्र में बड़ी चुनौती यह है कि आप सवाल सही
पूछ रहे हैं या नहीं। जिस व्यक्ति-विशेष पर आप काम कर रहे हैं, उसे विश्वास में
लेना ज़रूरी है। गहन शोध भी चाहिए ताकि वो आपसे खुलकर बात कर सके। ज़रा सोचिए,
जिसने फ़िल्म इंडस्ट्री में बरसों गुज़ारे हों, उसके लिए एक-एक बात याद रखना कितना
मुश्किल है। यह पूरी तरह आप पर निर्भर है कि आप उसे कितना और क्या याद दिला पाते
हैं।
हिंदी सिनेमा के पास निर्देशक हैं, पटकथा नहीं
हिन्दी
सिनेमा के पास मणिरत्नम, दिबाकर बैनर्जी और विशाल भारद्वाज जैसे सशक्त फ़िल्मकार
हैं। ये निर्देशक शानदार कहानियां सुनाते हैं, लेकिन बिल्कुल अलग अंदाज़ में।
महिलाओं में मेरी पसंदीदा फ़िल्म निर्देशक फ़राह
खान हैं। ‘तीसमार खां’ तो नहीं लेकिन मुझे उनकी ‘ओम शांति ओम’ और ‘मैं हूं ना’ फ़िल्में काफी पसंद आईं। फ़राह मनमोहन देसाई की
शैली की फ़िल्में बनाती हैं। वे फ़िल्मों के अलावा गानों का निर्देशन भी अच्छा कर
लेती हैं। उनकी कोरियोग्राफी बेहतरीन है। गानों में नई ऊर्जा भरना कोई उनसे सीखे।
मुझे फ़राह की आने वाली फ़िल्मों का इंतज़ार है।
अच्छा फ़िल्मकार होने के लिए ज़रूरी है अच्छा
किस्सागो होना। साथ ही यह जानना कि उन किस्सों को दृश्यों में किस तरह उतारा जाए।
अच्छे फ़िल्मकार को यह इल्म होना ज़रूरी है। फिर, अच्छा अभिनय करवाना और अच्छे
अभिनय की परख भी उतनी ही ज़रूरी है। निर्देशक ही वो आख़िरी इंसान है जो शॉट को ओके
करता है। इसलिए जब तक निर्देशक में समझ नहीं होगी तब तक अच्छी फ़िल्म बनना
नामुमकिन है। फ़िल्म बनाते हुए तुरंत फ़ैसले लेने की क्षमता होनी चाहिए। इसके
अलावा अच्छे निर्देशक के लिए अच्छा एडिटर होना ज़रूरी है।
क्वालिटी की बात करें तो पाश्चात्य और
भारतीय सिनेमा के बीच आज भी ज़मीन-आसमान का फर्क़ है। हिन्दी सिनेमा का सबसे कमज़ोर पक्ष उसकी पटकथा है।
हिन्दी फ़िल्मों की पटकथा में मौलिकता नहीं है।
एडिटिंग में कई ख़ामियां हैं। एडिटिंग या तो बहुत चालू होती है या फिर घिसी-पिटी
लीक पर। लेकिन मैं फिर कहूंगी कि यह परिवर्तन का समय है। भारतीय सिनेमा में नए
प्रयोग हो रहे हैं। नए फ़िल्मकार ख़ुद को साबित कर सकें, इसके लिए उन्हें समय और
मौक़ा मिलना चाहिए।
ईरानी सिनेमा बेहद पसंद है
ख़ाली वक्त में मुझे फ़िल्में देखना पसंद है, ख़ासतौर
से यूरोप और हॉलीवुड की फ़िल्में। ईरान का सिनेमा भी बहुत पसंद है। ईरानी फ़िल्म ‘ए सेपरेशन’ कमाल की फ़िल्म है। इसके अलावा ‘द आर्टिस्ट’ भी मेरी पसंदीदा
है। यह साइलेंट फ़िल्म है लेकिन इसे देखकर समझ में आता है कि कहने का ढंग अच्छा हो
तो कैसे एक साधारण कहानी भी असाधारण बन जाती है।
जब भी भारत आती हूं, यहां से लौटने का मन नहीं
करता। यहां आकर बहुत सुक़ून मिलता है मुझे। दरअसल मुझे भारत की ज़िंदादिली पसंद
है। यह देश बख़ूबी बताता है कि जीवन में कितने विविध रंग हैं। आर्थिक परेशानी के
बावजूद यहां लोग पूरे उत्साह के साथ जीते हैं, एक-दूसरे का सम्मान करते हैं।
चलते-चलते
जन्मदिन: 19 मई 1949
भारत में पसंदीदा
जगह: मुंबई और केरल
पसंदीदा किताबें: सादिक हिदायत की ‘द ब्लाइंड आउल’
पसंदीदा फ़िल्में: ‘प्यासा’ और ‘द थर्ड मैन’
पसंदीदा निर्देशक: गुरु दत्त और बिली वाइल्डर
पसंदीदा गाने: ‘ये रात ये चांदनी फिर कहां’ और ‘अभी न जाओ छोड़कर’
पसंदीदा अभिनेता/अभिनेत्री: दिलीप कुमार, नरगिस
अवॉर्ड: कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में ‘वूमन अचीवमेंट अवॉर्ड’
कोई पुरानी याद: पुरानी हिन्दी फ़िल्में और ‘बीटल्स’ के गाने
जीवन का टर्निंग
पॉइंट: जब मैंने भारतीय
सिनेमा पर रिसर्च का काम शुरू किया। लगा कि मुझे जीवन में एक उद्देश्य मिल गया है।
(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के अगस्त 2013 अंक में प्रकाशित)
सुन्दर समीक्षात्मक लेख नसरीन जी को शुभकामना और साक्षात्कार के लिए आपको प्रणाम
ReplyDeletenasreen ji ke baare mein jaan na achha laga..jaankaari se bhara hua interview..shukriyaa unse mulaakaat karvaane kaa!!
ReplyDeleteनसरीन जी के बारे में सुन रखा था, इतना डिटेल में जानने को पहली बार मिला। उनके निजी विचार और फिल्म जगत को लेकर उनका पक्ष जानने और समझने लायक है। आभार.......
ReplyDeleteयुवराज नेगी
Nasreen munni ji ki movie mahal series ke kuch parts dekha hai maine..aur In search of guru dutt to kai kai baar!!!
ReplyDeleteबेहतरीन साक्षात्कार...! भारतीय सिनेमा के दस्तावेजीकरण के लिए नसरीन बहुत कुछ कर रही हैं, उनके बारे में इतने विस्तार से जानना बहुत रोचक लगा।
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