(आजकल हर हिल-स्टेशन कमोबेश एक-सा ही लगता है। इसकी बड़ी वजह यह है कि ज़्यादातर हिल-स्टेशनों में व्यवसायीकरण हावी हो रहा है, और ये धीरे-धीरे अपना सौंदर्य खोते जा रहे हैं। कर्नाटक में एक ज़िला है कूर्ग, जहां जाने पर हिल-स्टेशनों के प्रति आपका नज़रिया बदल सकता है। कूर्ग एक अलग-थलग पहाड़ी इलाक़ा है जो अपनी संस्कृति और ख़ूबसूरती से कई नामी हिल-स्टेशनों को मात देता है। कहते हैं कि एक बार कूर्ग जाएं तो यह हमेशा आपके साथ रहता है। यह सौ फ़ीसदी सही है। यक़ीन नहीं होता तो चलिए मेरे साथ कूर्ग के सफ़र पर...)
कूर्ग के बारे में काफी सुना था। वक़्त की इजाज़त मिली तो कूर्ग जाने का ख़्याल ज़हन में आया और हमने मंगलौर तक की रेलवे टिकट बुक करा लीं। उत्तर भारत से कूर्ग पहुंचने के लिए मैसूर या मंगलौर नज़दीकी रेलवे स्टेशन हैं। हवाई-यात्रा से कूर्ग पहुंचना हो तो मंगलौर का बाजपे एयरपोर्ट सबसे क़रीब है। मंगलौर से कूर्ग की दूरी है 135 किलोमीटर। यहां से मडिकेरी तक की सीधी बसें मिल जाती हैं। मडिकेरी कूर्ग ज़िले का हेडक्वॉर्टर है। मंगलौर से बस में मडिकेरी पहुंचने में साढ़े 4 घंटे का वक़्त लगता है, क़रीब इतना ही वक़्त मैसूर से मडिकेरी पहुंचने में लगता है।
मडिकेरी है कूर्ग का दिल
मडिकेरी के कर्नाटक स्टेट ट्रान्सपोर्ट के बस स्टैन्ड से हमारा होटल 5 किलोमीटर की दूरी पर था। होटल पहुंचकर हम तरो-ताज़ा हुए और कुछ देर आराम करने के बाद टहलने निकल गए। इस दौरान हमने स्थानीय ऑटो-रिक्शा चालक त्यागराजन से बात की और उसे अगले दिन सुबह होटल में आने को कहा।
साफ-सुथरी आबो-हवा, पंछियों की चहचहाहट और होटल के कमरे में कुनकुनाती हुई धूप... मडिकेरी में यह ताज़ग़ी भरी सुबह थी। त्यागराजन हमें मडिकेरी के आस-पास कुछ ख़ास जगहों की सैर कराने वाला था। मडिकेरी कूर्ग का एक बड़ा इलाक़ा है, जिसे स्थानीय लोग मरकरा भी कहते हैं। हम सबसे पहले ओमकारेश्वर मंदिर पहुंचे, जहां घंटियों की गूंज और भगवान के दर्शन से दिन का आग़ाज़ हुआ। ओमकारेश्वर मंदिर की स्थापना हलेरी वंश के राजा लिंग राजेन्द्र द्वितीय ने 1829 ईसवी में की थी। मान्यता है कि लिंगराजेन्द्र ने काशी से शिवलिंग लाकर यहां स्थापित किया था। मंदिर में इस्लामिक स्थापत्य शैली की झलक मिलती है। प्रांगण में एक तालाब है, जिसमें कातला प्रजाति की मछलियां हैं। ये तालाब को गंदा होने से बचाती हैं। आप चाहें तो मछलियों को खाना खिला सकते हैं। पल भर के लिए पानी से उचक कर बाहर निकलतीं और खाना लेकर फिर पानी में गुम होतीं मछलियां... यह मज़ेदार नज़ारा है।
मंदिर से निकलकर हम राजा की सीट (गद्दी) की तरफ बढ़े। हरे-भरे एक बाग के अंदर है राजा की ऐतिहासिक सीट। यह वो जगह है जहां कूर्ग के राजा अपनी शामें बिताया करते थे। पहाड़ियों, बादलों और धुंध के बीच सिमटे कूर्ग का दृश्य देखकर मन बाग-बाग होना तय है। अगर आप शाम के समय यहां आएं तो डूबते सूरज का लुत्फ़ लेना मत भूलिए। मडिकेरी में ऐतिहासिक महत्व की कई जगहें हैं और मडिकेरी किला उनमें से एक है। मुद्दुराजा ने इस किले का निर्माण करवाया था, जिसे बाद में टीपू सुल्तान ने दोबारा बनवाया। किले में एक पुरानी जेल, गिरिजाघर और मंदिर भी है। गिरिजाघर को म्यूज़ियम में तब्दील कर दिया गया है और किले के ज़्यादातर हिस्से में सरकारी दफ़्तर हैं। कुल मिलाकर यहां देखने लायक कुछ ख़ास नहीं है। प्रवेश-द्वार के पास दो हाथी खड़े हैं, मोर्टार से बने ये हाथी देखने में अच्छे लगते हैं। छोटे से म्यूज़ियम का चक्कर लगाकर हम किले से बाहर निकल आए।
मडिकेरी से क़रीब डेढ़ किलोमीटर दूर एक टीलेनुमा मैदान पर हैं राजा वीरराजेन्द्र और लिंगराजेन्द्र की क़ब्रगाहें। अगर आप इतिहास में दिलचस्पी रखते हैं या प्रकृति-प्रेमी हैं, तो आपको यह जगह पसंद आएगी। ख़ास बात यह है कि क़ब्रगाह के अंदर एक शिवलिंग बना हुआ है।
मडिकेरी से क़रीब डेढ़ किलोमीटर दूर एक टीलेनुमा मैदान पर हैं राजा वीरराजेन्द्र और लिंगराजेन्द्र की क़ब्रगाहें। अगर आप इतिहास में दिलचस्पी रखते हैं या प्रकृति-प्रेमी हैं, तो आपको यह जगह पसंद आएगी। ख़ास बात यह है कि क़ब्रगाह के अंदर एक शिवलिंग बना हुआ है।
कूर्ग में एबी वॉटरफॉल जाए बिना कूर्ग यात्रा अधूरी है। मडिकेरी से 8 किलोमीटर दूर यह जलप्रपात एक निजी कॉफी-एस्टेट के अंदर है। कॉफी, काली-मिर्च, इलायची और दूसरे कई पेड़-पौधे इस एस्टेट की शोभा बढ़ाते हैं। हरियाली और ढलान भरे रास्ते से उतरते हुए कल-कल करते झरने की आवाज़ सुनाई देने लगती है। कुछ क़दम चलने के बाद हम एबी वॉटरफॉल पहुंचते हैं, जिसके ठीक सामने है... हैंगिंग ब्रिज यानी झूलता हुआ पुल। पुल पर खड़े हो जाएं तो झरने से उड़कर आने वाले ठंडे-ठंडे छींटों का अनुभव लेकर देखिए। वैसे इस झरने को पूरे शबाब पर देखना हो तो मॉनसून से बेहतर समय कोई नहीं है।
पुल पर खड़े-खड़े बरबस ही छत्तीसगढ़ के चित्रकोट इलाक़े की याद आ गई। चित्रकोट अछूता जनजातीय इलाका है। यहां विशाल झरना है, जिसे भारत का नियाग्रा जलप्रपात भी कहते हैं।
पुल पर खड़े-खड़े बरबस ही छत्तीसगढ़ के चित्रकोट इलाक़े की याद आ गई। चित्रकोट अछूता जनजातीय इलाका है। यहां विशाल झरना है, जिसे भारत का नियाग्रा जलप्रपात भी कहते हैं।
...और भी बहुत कुछ
कूर्ग अंग्रेज़ों का दिया नाम है जिसे बदलकर कोडगु कर दिया गया है। यहां की भाषा है कूर्गी, जिसे स्थानीय लोग कोडवत्तक या कोडवा कहते हैं। मडिकेरी के अलावा कूर्ग के मुख्य इलाके विराजपेट, सोमवारपेट और कुशलनगर हैं। हमारे पारिवारिक मित्र श्याम पोनप्पा विराजपेट में रहते हैं। श्याम से मिलना था सो होटल से चैक-आउट कर हम विराजपेट की बस में सवार हो गए। विराजपेट मडिकेरी से 30 किलोमीटर दूर है और बस से वहां पहुंचने में 1 घंटा लगता है। कूर्ग में तफरीह के लिए जीप एक अच्छा साधन है। पहाड़ी इलाका होने के कारण जीप सुविधाजनक रहती है। लेकिन हम जितने दिन भी कूर्ग में रहे, स्थानीय बसों से ही आते-जाते रहे। किफ़ायती यात्रा का मज़ा जो दूना होता है!
कूर्ग से आप कुछ अच्छी ख़रीददारी कर सकते हैं जैसे- कॉफी, काली मिर्च, इलायची और शहद वगैरह। ये सभी चीज़ें उम्दा क़िस्म की हैं और ठीक दाम पर मिल जाती हैं। मौसम हो तो कूर्ग के संतरे ज़रूर खाएं। यूं तो कूर्ग का मौसम साल भर सुहावना रहता है लेकिन मॉनसून के दौरान यहां आने से बचना चाहिए। अक्तूबर से अप्रैल तक उपयुक्त समय है।
मांसाहार के शौक़ीन हैं तो कूर्ग आपके लिए मुफ़ीद जगह है। यहां क़दम-क़दम पर मांस की दुकानें हैं। लोग ज़्यादातर मांसाहारी हैं और चिकन, मटन के अलावा पोर्क यानी सूअर का मांस भी शौक़ से खाते हैं। कूर्गी लोग मूल रूप से क्षत्रिय हैं। माना जाता है कि कूर्गी यूनान के महान राजा सिकन्दर की सेना के वंशज हैं। विराजपेट से काकाबे गांव की तरफ जाते हुए हमें सेना के एक रिटायर्ड अधिकारी मिल गए। उन्होंने बताया कि भारतीय सेनाओं में ज़्यादातर अधिकारी और जवान कूर्ग से ही हैं। एक दशक पहले तक कूर्ग के हर घर से एक सदस्य भारतीय सेना में ज़रूर भर्ती होता था। एक और दिलचस्प बात पता चली कि कूर्ग के लोगों को बंदूक रखने के लिए लाइसेंस की ज़रूरत नहीं होती।
मांसाहार के शौक़ीन हैं तो कूर्ग आपके लिए मुफ़ीद जगह है। यहां क़दम-क़दम पर मांस की दुकानें हैं। लोग ज़्यादातर मांसाहारी हैं और चिकन, मटन के अलावा पोर्क यानी सूअर का मांस भी शौक़ से खाते हैं। कूर्गी लोग मूल रूप से क्षत्रिय हैं। माना जाता है कि कूर्गी यूनान के महान राजा सिकन्दर की सेना के वंशज हैं। विराजपेट से काकाबे गांव की तरफ जाते हुए हमें सेना के एक रिटायर्ड अधिकारी मिल गए। उन्होंने बताया कि भारतीय सेनाओं में ज़्यादातर अधिकारी और जवान कूर्ग से ही हैं। एक दशक पहले तक कूर्ग के हर घर से एक सदस्य भारतीय सेना में ज़रूर भर्ती होता था। एक और दिलचस्प बात पता चली कि कूर्ग के लोगों को बंदूक रखने के लिए लाइसेंस की ज़रूरत नहीं होती।
होम-स्टे अच्छा विकल्प
कूर्ग में किसी होटल में ठहरने की बजाए होम-स्टे को तरजीह दें। भीड़-भड़क्के से दूर, प्रकृति के बीच एक घर में आप बेशक़ वक़्त बिताना चाहेंगे। ख़ासतौर से जब उस घर में लज़ीज़ खाने के साथ तमाम सुविधाएं भी मिलें। हाथ-मुंह धोने के लिए गर्म पानी और भूख लगने पर मनचाहा खाना.. क्या बात है! और ख़ुद खाना बनाने का मन है तो रसोई आपके लिए तैयार है। सैर का मूड हो तो पास ही कॉफी के बाग़ान हैं। होम-स्टे में हर छोटी-छोटी ज़रूरत का ख़्याल रखा जाता है। आपसे घर के एक सदस्य की तरह ही व्यवहार किया जाता है। तो होटल की बजाए होम-स्टे चुनें... है न यह अच्छा आयडिया?
कावेरी नदी का उद्गम स्थल तलकावेरी
भागमंडला हमारा अगला पड़ाव था। भागमंडला में तीन नदियों का संगम है... ये नदियां हैं कावेरी, कनिका और सुज्योति। यहां पहुंचने के लिए बेहतर है कि आप कोई टैक्सी कर लें। भागमंडला, हिन्दुओं के लिए धार्मिक महत्व की जगह है। साथ ही शिव का प्राचीन भागंदेश्वर मंदिर है। केरल शैली में बना यह मंदिर काफी ख़ूबसूरत लगता है। भागमंडला में ठहरने के लिए कर्नाटक टूरिज़्म का यात्री निवास सस्ती जगह है और अच्छी भी। यहीं से 
इगुथप्पा ईष्ट देव
ऊंची और सुनसान सड़क पर दौड़ती हुई टैक्सी हमें इगुथप्पा मंदिर ले आई। कोडव लोगों के इष्टदेव इगुथप्पा यानी शिव का मंदिर। कूर्गी भाषा में इगु का मतलब है खाना, और थप्पा का मतलब है देना। इगुथप्पा यानी भोजन देने वाला देव। इस मंदिर का निर्माण राजा लिंगराजेन्द्र ने 1810 ईसवी में करवाया था। मंदिर के पुजारी लव से देर तक बातचीत हुई। उन्होंने बताया कि कोडव लोगों के लिए कावेरी अगर जीवनदायिनी मां हैं तो इगुथप्पा उनके पालक हैं। प्रसाद के रूप में मंदिर में रोज़ाना भोजन की व्यवस्था है। किसी भी ज़रूरी कर्मकांड से पहले स्थानीय लोग यहां आकर अपने ईष्टदेव से आशीर्वाद लेना नहीं भूलते।
हम भी इगुथप्पा का आशीर्वाद लेकर चेलवरा फॉल की तरफ़ बढ़ गए। चेलवरा कूर्ग के ख़ूबसूरत झरनों में से है। यह विराजपेट से क़रीब 16 किलोमीटर दूर है। एक तंग पगडंडी से होते हुए चेलवरा फॉल पहुंचा जाता है। अगर मॉनसून के वक़्त यहां आएं तो थोड़ी सावधानी बरतें। बारिशों में यह रास्ता फ़िसलनभरा होता है। चेलवरा फॉल से 2 किलोमीटर आगे चोमकुंड की पहाड़ी है। यहां आप बेहतरीन सनसेट देख सकते हैं।
एशिया में सबसे बड़ा कॉफी उत्पादक
सुबह से मूसलाधार बारिश हो रही थी। दोपहर बाद बारिश रुकी लेकिन हमने कहीं बाहर जाने की बजाय अपने मित्र श्याम के कॉफी एस्टेट में घूमना बेहतर समझा। यह फ़ैसला अच्छा साबित हुआ क्योंकि उस दिन कैलपोढ (Kailpodh) था। कैलपोढ हथियारों का त्योहार है। बड़ा त्योहार होने के कारण इस दिन सभी बाज़ार बंद रहते हैं। कैलपोढ के मौक़े पर लोग अपने हथियारों की साफ़-सफ़ाई और पूजा करते हैं। श्याम ने कॉफी और इसकी खेती से जुड़ी कई दिलचस्प जानकारियां हमें दीं। दुनिया में 3 देश कॉफी के बड़े उत्पादक हैं... ब्राज़ील, वियतनाम और भारत। भारत में कॉफी की खेती की शुरुआत कूर्ग से हुई थी, और यह एशिया का सबसे ज़्यादा कॉफी उत्पादन करने वाला इलाक़ा है।
मोबाइल फोन में बजते वालगा संगीत का आनन्द लेती हुई मैं वापस जा रही थी... ख़राब सड़कें, अच्छी शिक्षा व्यवस्था का अभाव और सरकारी उपेक्षा के बावजूद कूर्ग की शान-ओ-शौक़त में कोई कमी नहीं दिखती। कूर्ग की बेशुमार ख़ूबसूरती और लोगों का जज़्बा देखकर आप भी इसके क़ायल हुए बिना न रह पाएंगे!
(दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 26 सितम्बर' 2010 को प्रकाशित)
the best thing tht can be done by madhavi......keep it up
ReplyDeleteMuch thanks !
ReplyDeleteसुन्दर जानकारी। जनरल के ऐम करियप्पा भी कूर्गी ही थे।
ReplyDeleteExcellent article. Keep writing such kind of info on
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