अंधेरा पसरा हुआ है
खिड़की के बाहर
घुप्प...
बियाबान है पूरी पहाड़ी
मद्धम एक लौ
दूर वीराने से निकल
और
हवा के थपेड़ों से
झूलने लगा है कमरे से सटा
देवदार का दरख़्त
मैं खिड़की बंद कर लेती हूं
...
...
भीतर एक शोर था
सन्नाटे में डूबकर
('लमही' के अप्रैल-जून 2011 अंक में प्रकाशित)
दूर वीराने से निकल
खेल रही है आंख-मिचौली
यहां-वहां भटक रही
नन्ही मशालों पर
जा अटकी हैं बोझिल नज़रें
जाने किस तलाश में है
टोली जुगनुओं की?
बेसुर कुछ आवाज़ें
तिलचट्टे और झींगुर की
यहां-वहां भटक रही
नन्ही मशालों पर
जा अटकी हैं बोझिल नज़रें
जाने किस तलाश में है
टोली जुगनुओं की?
बेसुर कुछ आवाज़ें
तिलचट्टे और झींगुर की
चीरे जा रही हैं
तलहटी में बिखरे सन्नाटे को
टिमटिमाते तारों ने
ओढ़ लिया है बादलों का लिहाफ़तलहटी में बिखरे सन्नाटे को
टिमटिमाते तारों ने
और
हवा के थपेड़ों से
झूलने लगा है कमरे से सटा
देवदार का दरख़्त
मैं खिड़की बंद कर लेती हूं
...
...
भीतर एक शोर था
सन्नाटे में डूबकर
शांत हो गया है जो।
-माधवी ('लमही' के अप्रैल-जून 2011 अंक में प्रकाशित)
बहुत ही सुन्दर और सशक्त
ReplyDeleteअहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां ॰॰॰॰ आपकी रचना की तारीफ को शब्दों के धागों में पिरोना मेरे लिये संभव नहीं
ReplyDeleteबहुत सुन्दर बिम्ब समायोजन
ReplyDeleteसुन्दर रचना
gd 1..................yashpal
ReplyDeleteआप सभी का बहुत शुक्रिया !!
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