Saturday, September 11, 2010

दो यात्राएं

(हाल में कूर्ग से लौटी हूं। कर्नाटक के वेस्टर्न घाट्स 
में प्यारा-सा हिल-स्टेशन, जो अलग-थलग संस्कृति 
और ख़ूबसूरती लिए है। यात्रा-वृत्तांत लिख रही हूं, 
जल्द पोस्ट करूंगी। लेकिन कूर्ग का हैंगओवर है कि 
उतरता ही नहीं, इधर विष्णु जी की यह कविता पढ़ 
मन और हरा हो गया है।)

मैं एक यात्रा में
एक और यात्रा करता हूं
एक जगह से 
एक और जगह पहुंच जाता हूं

कुछ और लोगों से मिलकर 
कुछ और लोगों से मिलने चला जाता हूं
कुछ और पहाड़ों कुछ और नदियों को देख
कुछ और पहाड़ों कुछ और नदियों पर 
मुग्ध हो जाता हूं

इस यात्रा में मेरा कुछ ख़र्च नहीं होता
जबकि वहां मेरा कोई मेज़बान भी नहीं होता
इस यात्रा में मेरा कोई सामान नहीं खोता
पसीना बिल्कुल नहीं आता
न भूख लगती है, न प्यास
कितनी ही दूर चला जाऊं
थकने का नाम नहीं लेता

मैं दो यात्राओं से लौटता हूं
और सिर्फ़ एक का टिकट 
फाड़कर फेंकता हूं।

-विष्णु नागर के संग्रह 'घर के बाहर घर' से

2 comments:

  1. माधवी जी, दैनिक जागरण में केरल पर आपका यात्रा-वृत्तांत पढ़ा था. केरल का इतना रंगीन और विविध चित्रण काबिल-ए-तारीफ़ है. कूर्ग पर आपके लेख का इंतज़ार है, मुझे और मेरे परिवार को भी.

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  2. sunder................yash

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