कोई-कोई दिन कितना
अलसाया हुआ होता है
सुस्त, निठल्ला
नाकाम-सा
लेकिन मैं
कुछ न करते हुए भी
काम कर रही होती हूं
जैसे
बिस्तर पर लेटे
करवटें बदलना
कई सौ बार
यादों की पैरहन उधेड़
सिल लेना उसमें
ख़ुद को
अरसा पुराने ख़्वाबों को
नए डिज़ाइन में
बुनने की कोशिश करना
फैंटेसी फ्लाइट में
बिना सीट बैल्ट के बैठना
हिचकोले खाना जमकर
टाइम-अप के डर से
फिर नीचे उतर आना
बिना सीट बैल्ट के बैठना
हिचकोले खाना जमकर
टाइम-अप के डर से
फिर नीचे उतर आना
ज़हन में कुलबुलाते
उच्छृंखल विचारों पर
नकेल डालना ताकि
सब-कुछ बना रहे
ऐसा ही
ख़ूबसूरत
बहुत सारे काम बाकी हैं
और आंखें उनींदी हो चली हैं
शाम का धुंधलका भी
छा गया है बाहर।
-माधवी
great...u have become a poet...great going.
ReplyDeleteअति सुंदर...अगली आमद का इंतज़ार रहेगा.
ReplyDeletegd 1..............yash..
ReplyDeleteThank you !
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