Sunday, August 1, 2010

मुझे नहीं परवाह

कुछ जली, कुछ बुझी 
कुछ जड़, कुछ चेतन
थमी-सी कुछ, कुछ रौ में हूं मैं

एक-भाव की क़वायद में
ख़ुद के हूं ख़िलाफ़ मैं

मुखर, कभी मौन हूं
सोच के झंझावात में 
विचारशून्य
अजनबी, मैं परस्त कौन हूं

ग़मग़ीन किसी बात पर
ख़ुश-ख़याली में हर बात पर

सर्द कभी, कभी गरम
तल्ख़ कभी, कभी नरम 

भाव मन के सारे 
मौसमों के मानिंद 
क्यों हैं आजकल।
-माधवी

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