कुछ जली, कुछ बुझी
कुछ जड़, कुछ चेतन
कुछ जड़, कुछ चेतन
थमी-सी कुछ, कुछ रौ में हूं मैं
एक-भाव की क़वायद में
ख़ुद के हूं ख़िलाफ़ मैं
मुखर, कभी मौन हूं
सोच के झंझावात में
विचारशून्य
विचारशून्य
अजनबी, मैं परस्त कौन हूं
ग़मग़ीन किसी बात पर
ख़ुश-ख़याली में हर बात पर
सर्द कभी, कभी गरम
तल्ख़ कभी, कभी नरम
भाव मन के सारे
मौसमों के मानिंद
क्यों हैं आजकल।
-माधवी
bahut achhi..........yash
ReplyDeleteधन्यवाद आपका !
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