लिखने को बहुत कुछ था
लिखने बैठी तो कुछ नहीं
है मुश्किल
खटखटाते रहना
खटखटाते रहना
दरवाज़े उलझे मन के
परत-दर-परत
बेधड़क
बेधड़क
है मुश्किल
जवाब न मिलने पर
घुस जाना ज़बरन
निकालना ख़यालों की
निकालना ख़यालों की
दो-चार क़तरन
और चिपका देना
किसी सफ़्हे पर
साफ़गोई से
और चिपका देना
किसी सफ़्हे पर
साफ़गोई से
है मुश्किल
बेतरतीब, बेअदब लफ्ज़ों को
समझा-बुझाकर
सभ्य बनाना और
पहना देना ख़याली जामा
सभ्य बनाना और
पहना देना ख़याली जामा
नफ़ासत के साथ
है मुश्किल
बनाना क़ाबिल
उस क़तरे को इतना
कि हर्फ़ों में सिमटा
लांघ जाए वो
लांघ जाए वो
वक़्त, मुल्क और
सरहदों को
सरहदों को
है मुश्किल लिखना
उससे भी मुश्किल है
उससे भी मुश्किल है
लिखना ख़ुद को
मुश्किलें हज़ार हैं
कोशिशें पुरज़ोर।
('लमही' के अप्रैल-जून 2011 अंक में प्रकाशित)
वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब
ReplyDeleteबेहद ख़ूबसूरत और उम्दा
bahut khoob Madhavi ji...........me to fan ho gaya apka
ReplyDeletebahoot khoob madhavi...yunhi likhti raho..
ReplyDeleteबेहतरीन रचना.... आखिरी पंक्तियाँ आशावादिता की राह सुझातीं.....
ReplyDeleteसुंदर लिखा माधवी
स्रजन की नयी परिभाषा , सुंदर रचना , बधाई
ReplyDeleteशुक्रिया.. सभी का !!
ReplyDeleteaapke naam se Shri Chandradhar Sharma 'Guleri' ji ki mahak aayi.. kavita auron se alag lagi aur sundar bhi. badhaai..
ReplyDeletebahut achhe..............yashpal.
ReplyDeletebahut khoob...............yashpal
ReplyDeletenice poem and nice blog !
ReplyDeleteआज पहली बार आपके ब्लाग पर आया। अच्छा लगा। सृजनात्मक भविष्य के लिए ढेरों शुभकामनाएं...!
ReplyDeleteअंदाज़ इ बयान कह रहा है, दुनिया को बड़े करीब से देखा है.
ReplyDeleteधन्यवाद दीपक, जगदीश और यशपाल जी !
ReplyDeleteउदय प्रकाश जी, उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया !!
ReplyDeleteमासूम जी, आभार ।
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