Saturday, November 13, 2010

मुश्किलें हज़ार हैं

लिखने को बहुत कुछ था
लिखने बैठी तो कुछ नहीं

है मुश्किल 
खटखटाते रहना
दरवाज़े उलझे मन के
परत-दर-परत 
बेधड़क

है मुश्किल
जवाब न मिलने पर
घुस जाना ज़बरन 
निकालना ख़यालों की
दो-चार क़तरन 
और चिपका देना 
किसी सफ़्हे पर 
साफ़गोई से

है मुश्किल
बेतरतीब, बेअदब लफ्ज़ों को
समझा-बुझाकर 
सभ्य बनाना और 
पहना देना ख़याली जामा
नफ़ासत के साथ

है मुश्किल
बनाना क़ाबिल
उस क़तरे को इतना
कि हर्फ़ों में सिमटा 
लांघ जाए वो
वक़्त, मुल्क और 
सरहदों को

है मुश्किल लिखना 
उससे भी मुश्किल है
लिखना ख़ुद को

मुश्किलें हज़ार हैं
कोशिशें पुरज़ोर। 

('लमही' के अप्रैल-जून 2011 अंक में प्रकाशित)

15 comments:

  1. वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब
    बेहद ख़ूबसूरत और उम्दा

    ReplyDelete
  2. bahut khoob Madhavi ji...........me to fan ho gaya apka

    ReplyDelete
  3. bahoot khoob madhavi...yunhi likhti raho..

    ReplyDelete
  4. बेहतरीन रचना.... आखिरी पंक्तियाँ आशावादिता की राह सुझातीं.....
    सुंदर लिखा माधवी

    ReplyDelete
  5. स्रजन की नयी परिभाषा , सुंदर रचना , बधाई

    ReplyDelete
  6. शुक्रिया.. सभी का !!

    ReplyDelete
  7. aapke naam se Shri Chandradhar Sharma 'Guleri' ji ki mahak aayi.. kavita auron se alag lagi aur sundar bhi. badhaai..

    ReplyDelete
  8. bahut achhe..............yashpal.

    ReplyDelete
  9. bahut khoob...............yashpal

    ReplyDelete
  10. आज पहली बार आपके ब्लाग पर आया। अच्छा लगा। सृजनात्मक भविष्य के लिए ढेरों शुभकामनाएं...!

    ReplyDelete
  11. अंदाज़ इ बयान कह रहा है, दुनिया को बड़े करीब से देखा है.

    ReplyDelete
  12. धन्यवाद दीपक, जगदीश और यशपाल जी !

    ReplyDelete
  13. उदय प्रकाश जी, उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया !!

    ReplyDelete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...