(मुंबई के जुहू इलाके में पहुंचकर किसी राहगीर से बंगला नंबर 22 का
पता पूछा तो उसने कहा... धर्मेन्द्र का बंगला? मैं कुछ पसोपेश में पड़ी क्योंकि अभय देओल का इंटरव्यू लेने निकली थी
और अभय ने जो पता एसएमएस किया था, उससे लगा था कि वो उनके ही घर का पता होगा, लेकिन वहां पहुंचकर पता चला कि बंगला केवल धर्मेन्द्र का नहीं, बल्कि पूरे देओल परिवार
का है, क्योंकि धर्मेन्द्र इन सबके ‘अपने’ हैं। इस दौर में जहां परिवार बिखर रहे हैं, वहीं यह एक ऐसा परिवार है, जो
अपनी जड़ें मज़बूती से जमाए हुए है। इस ख़ानदान की नई पीढ़ी के अगुवा हैं... अभय
देओल, जो धर्मेन्द्र के छोटे भाई अजीत देओल के पुत्र हैं। बड़े भाई सनी और बॉबी ने
जहां एक तरफ़ एक्शन को अपना हथियार बनाया, वहीं अभय ने शायद ही किसी फ़िल्म
में गुंडों की पिटाई करने वाला किरदार निभाया हो। वे थोड़े अलग किस्म के देओल हैं,
हटकर सोचते हैं, अलग तरह की फ़िल्में करते हैं और उनका यही अंदाज़ फ़िल्म
इंडस्ट्री में एक अलग पहचान बनाने का सबब बन गया है। एक स्निग्ध मुस्कान के साथ
अभय ने स्वागत किया और दिल से कीं, दिल की बातें...)
आपका जन्म मुंबई में हुआ और यहीं पले-बढ़े, किस
तरह की यादें जुड़ी हैं इस शहर से?
मैं
आम शहरी लड़कों की तरह हूं। हम गांव में पैदा हुए हों या शहर में, अंतर केवल सुविधाओं
और इन्फ्रास्ट्रक्चर में होता है। तकनीक और शिक्षा के स्तर पर हम थोड़े बेहतर होते
हैं, बस। बचपन सभी का एक-सा होता है। मेरा बचपन साधारण रूप से बीता। स्कूल-कॉलेज की
यादें और दोस्तों के साथ की गई मस्ती नहीं भूलती।
अभिनेता बनने का ख़याल कब और कैसे आया?
बचपन
से ही ख़ुद को बड़े परदे पर एक्टिंग करते देखना चाहता था। स्कूल में नाटकों
में हिस्सा लिया है। स्टेज पर मैं आत्मविश्वास से भरा लड़का था, जबकि पढ़ाई और दूसरी चीज़ों में औसत, लेकिन फ़िल्मों में आने से परहेज़ करता रहा, क्योंकि जो भी हमारे घर आता, वो यही
कहता कि बड़े होकर तो तुम एक्टर ही बनोगे। सिर्फ़ इसलिए एक्टर नहीं बनना चाहता
था क्योंकि मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि फ़िल्मी थी। जब 19 साल का हुआ तो यह बात गहरे
पैठ गई कि मैं फ़िल्मों के लिए ही बना हूं और यही एक काम है जो मैं ईमानदारी से कर
पाऊंगा।
देओल परिवार से होने के कारण करियर में कितनी मदद
मिली?
मेरी
पहली फ़िल्म ‘सोचा न था’ धर्मेन्द्र अंकल ने ही प्रोड्यूस की थी। जब इम्तियाज़ अली से मिला
और उन्होंने मुझे स्क्रिप्ट सुनाई तो मैंने उनसे कहा था कि यह कहानी सनी भैया को बहुत
पसंद आएगी। ऐसा हुआ भी। सनी भैया ने कहानी सुनते ही कहा कि इसका किरदार तो बिल्कुल
अभय जैसा है। फ़िल्म बनी और लोगों को पसंद आई। मुझे इससे ज़्यादा मदद क्या मिल
सकती थी!
‘सोचा
न था’ के बाद किस तरह की चुनौतियां सामने आईं?
‘सोचा न था’ से दो स्टार निकले... एक थे इम्तियाज़ अली और दूसरी आयशा टाकिया। मुझे ज़्यादा
ऑफर नहीं मिल रहे थे। फ़िल्म इंडस्ट्री में मुझे लेकर दिलचस्पी नहीं थी। जिन्हें दिलचस्पी
थी, वो मुझे थर्ड लीड के रोल ऑफर कर रहे थे। उनके बैनर बड़े थे लेकिन रोल छोटे थे।
एक तरह से इंडस्ट्री ने तय कर दिया था कि फ़ॉर्मूला फ़िल्में मेरे
लिए नहीं हैं और मुझे हीरो बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, अगर कोशिश करूंगा तो
फ्लॉप हो जाऊंगा। मेरी पहली दो फ़िल्में फ्लॉप हो चुकी थीं और मैंने सोचा क्यों न अब
अपनी पसंद का ही काम करूं। फिर मैंने ‘एक चालीस की लास्ट लोकल’ और ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ जैसी छोटे बजट की फ़िल्में
साइन कीं। यहीं से मेरी सफलता की शुरुआत हुई। मुझे समझ आ गया था कि मुझे कैसी
फ़िल्में करनी हैं।
आपने ज़्यादातर कम बजट की फ़िल्में की हैं, कोई पछतावा है?
आपने ज़्यादातर कम बजट की फ़िल्में की हैं, कोई पछतावा है?
एक
समय था जब मैं असफल एक्टर था। मेरे साथ काम करने या मुझे पैसे देने के लिए कोई तैयार
नहीं था। उस वक़्त मैंने पैसे को नहीं, अपनी सोच को महत्व दिया। मैं अलग सोचता था
और यह मानता था कि अगर अच्छा काम करूंगा तो पैसा अपने-आप आ जाएगा। अच्छा ही हुआ कि शुरुआत असफल रही, कम-से-कम इस वजह से मैं प्रयोग कर पाया। अपने किए पर
पछतावा नहीं है। लेकिन हां, अब पैसे के बारे में ज़रूर सोचता हूं।
जीवन का टर्निंग पॉइंट?
जब मैं
पढ़ाई के लिए लॉस एंजेलिस गया। इससे पहले मैं 18 साल तक मुंबई में संयुक्त परिवार
में, सुरक्षित वातावरण में रहा था। हमारा परिवार बहुत पारंपरिक है। मां का बहुत लाडला था मैं। लॉस एंजेलिस जाने के बाद पता चला कि मैं
अपने परिवार पर कितना निर्भर था और मेरा सामान्य ज्ञान कितना कम था। आर्थिक रूप से दूसरे छात्रों के मुकाबले मैं बेहतर स्थिति में था, लेकिन पढ़ाई के साथ-साथ काम भी
करता था ताकि अपने पैरों पर खड़ा हो सकूं। एडजस्ट करने में कुछ महीने लगे।
लेकिन मेरा असली विकास वहीं से शुरू हुआ। अब अच्छा-बुरा सब सामने था और मैं
हर चीज़ से ख़ुद जूझ रहा था। दुनिया कितनी बड़ी है, इसमें तरह-तरह
के लोग हैं, आत्मनिर्भर होना क्या होता है... यह सब मैंने वहीं जाकर सीखा।
अच्छा अभिनेता बनने के लिए क्या ज़रूरी है?
ईमानदारी।
यूं तो ज़िंदगी में हर काम के लिए ईमानदार होना ज़रूरी है, लेकिन एक अभिनेता में
यह गुण होना ही चाहिए। अगर अभिनेता ईमानदार है तो यह उसके अभिनय में नज़र आता है।
परदे पर कोई भी इमोशन दिखाने के लिए ईमानदार होना पहली शर्त है, चाहे वो ख़ुशी का
भाव हो या उदासी का। संवेदनशीलता भी ज़रूरी है। अगर आप संवेदनशील नहीं हैं तो आप अच्छे अभिनेता कभी नहीं बन सकते।
फ़िल्मों में नाच-गानों से परेहज़ की ख़ास वजह?
मैं
शुरू से ही इस धारणा के ख़िलाफ़ हूं कि फ़िल्म की सफ़लता के लिए उसमें नाच-गाना
होना ज़रूरी है। यह बात मेरी समझ से बाहर है कि अगर रोमांस है, कॉमेडी
है, ड्रामा है, लेकिन नाच-गाना नहीं है तो वो फ़िल्म हिट नहीं हो सकती। अच्छी
कहानी और अच्छे डायलॉग्स काफी होते हैं, किसी फ़िल्म की कामयाबी के लिए। ‘देव डी’ में गाने बैकग्राउंड में थे लेकिन फ़िल्म को अच्छा रिस्पॉन्स मिला। ‘ओए लक्की, लक्की ओए’ में भी ऐसा ही था। अच्छा
गीत-संगीत बेशक़ मनोरंजक होता है लेकिन आजकल फ़िल्मों में मनोरंजन के नाम पर गाने बेवजह
ठूंस दिए जाते हैं जिनसे कहानी का कोई मतलब नहीं होता।
आपको इंडस्ट्री में आठ साल हो गए हैं। इस दौरान
ख़ुद में क्या बदलाव देखते हैं?
अब
काफी सुरक्षित महसूस करने लगा हूं। मेरा आत्मविश्वास भी बढ़ा है। मैं उन सभी लोगों
का तहे-दिल से शुक्रग़ुज़ार हूं जिन्होंने मेरा साथ दिया है और मेरे काम को पसंद
किया है। बचपन में मैं शर्मीला और डरपोक लड़का था। मेरे अंदर आत्मविश्वास की काफी
कमी थी। लेकिन अब मेरे अंदर से डर निकल गया है। पूरा डर नहीं निकला है, हम सबके
थोड़े-बहुत डर होते ही हैं, लेकिन मैं अब नॉर्मल हो गया हूं।
सफलता के क्या मायने हैं?
सफ़लता आनी-जानी चीज़ है। सफ़लता को सिर पर चढ़ने देंगे तो यह अपने बोझ से आपको ज़मीन पर
ले आएगी। आप सफ़ल हैं तो सहज रहें, नहीं हैं तो भी सहज रहें। इंसान को सफ़लता के
लिए नहीं, संतुष्टि के लिए काम करना चाहिए। जैसे ही आप संतुष्ट नज़र आएंगे, जीवन
के हर मोड़ पर आप अपने-आप को सफ़ल इंसान ही पाएंगे।
आपके लिए सिनेमा का क्या अर्थ है?
आपके लिए सिनेमा का क्या अर्थ है?
मेरे
जीवन का अटूट हिस्सा है सिनेमा। मेरे लिए इसके वही मायने हैं जो मायने मेरी
ज़िंदगी के हैं। जैसे ज़िंदगी में ख़ुशी, ग़म, गुस्सा, निराशा और संतुष्टि के भाव
होते हैं, वैसे ही भाव मैं सिनेमा में भी महसूस करता हूं। अगर मुझे कुछ बोलना हो, निकालना
हो या दिखाना हो तो ये मैं सिर्फ़ फ़िल्म के ज़रिए कर सकता
हूं। सिनेमा मेरा प्रेरणास्रोत है।
अनुराग कश्यप आपकी तुलना जॉनी डैप से करते हैं...
वो ऐसा कहते हैं तो ज़रूर कोई बात होगी। जब मैंने ‘देव डी’ का आयडिया लिखा था तब मैंने भी अनुराग के बारे में ही सोचा था। मुझे पता
था कि यह फ़िल्म अनुराग ही बना पाएंगे। अनुराग बहुत मौलिक हैं। वे वही फ़िल्में
बनाते हैं जिनमें उनका विश्वास है। इस मामले में अनुराग कभी कोई समझौता
नहीं कर सकते, चाहे आपको फ़िल्म अच्छी लगे या न लगे।
दिबाकर बैनर्जी के साथ काम करना कैसा अनुभव रहा?
बहुत
अच्छा तजुर्बा रहा। हम दोनों अच्छे दोस्त हैं। एक अभिनेता के तौर पर मेरी ख़ासियत
और मेरी कमज़ोरियों को दिबाकर जानते हैं। मैं भी जानता हूं कि बतौर निर्देशक
उन्हें क्या चाहिए। हम दोनों में अच्छी ट्यूनिंग है।
किस्मत या भाग्य पर कितना भरोसा है?
किस्मत
और भाग्य... ये दोनों अलग चीज़ें हैं मेरे लिए। मैं मानता हूं कि किस्मत में जो
लिखा है, वो होना ही है, लेकिन हमारा भाग्य हमारे हाथ में होता है। मेरी किस्मत में शायद यह लिखा था कि मैं
अभिनेता बनूंगा। पर मैं अच्छा अभिनेता कहलाऊंगा या बुरा अभिनेता, यह मेरे हाथ में
है। मेरी लगन, मेहनत और समझ तय करेगी कि मेरे भाग्य में कितना अच्छा अभिनेता
होना है।
किस काम में सबसे ज़्यादा सुकून मिलता है?
एक्टिंग
में। भविष्य में फ़िल्में प्रोड्यूस और डायरेक्ट करना चाहता हूं।
एक्टिंग के अलावा क्या पसंद है?
मुझे
कुत्ते बहुत पसंद हैं। तीन बार काटा भी है कुत्तों ने, लेकिन कुत्ता ऐसा प्राणी है
जो आपकी आंखों में देखकर अपने वफ़ादार होने का सबूत दे देता है। हमारे घर में
कुत्ते ज़रूर नज़र आएंगे आपको। इसके अलावा, म्यूज़िक सुनना अच्छा लगता है। घूमना
बहुत पसंद है। डीप सी डायविंग अच्छी लगती है।
जब शूट पर नहीं होते, तब क्या करते हैं?
जब शूट पर नहीं होते, तब क्या करते हैं?
मैं दुनिया का सबसे आलसी इंसान हूं। खाली वक़्त मिलता है तो टीवी देखकर सो
जाता हूं।
खाने में क्या पसंद है?
पंजाबी
खाना। इसके अलावा जापानी और इटैलियन भोजन पसंदीदा है।
ख़ुद को फिट रखने के लिए क्या करते हैं?
ज़्यादातर
योग, स्विमिंग और 'क्राव मगा' करता हूं। 'क्राव मगा' इज़रायली मार्शल आर्ट का एक फॉर्म है। पहले वेट-लिफ्टिंग नहीं करता था,
लेकिन अब शुरू कर दिया है।
घर में कौन-कौन है?
बहुत
सारे लोग हैं... माता-पिता, ताया-तायी, सनी और बॉबी भैया, उनकी पत्नियां और
बच्चे।
सबसे बड़ा सपना क्या है?
दिल
से चाहता हूं कि पूरी दुनिया में शांति कायम हो। देश की ग़रीबी ख़त्म हो जाए। जब सड़कों पर बच्चों को भीख मांगते हुए देखता हूं तो बहुत तकलीफ़ होती है। एक
तरफ़ हमारा देश तरक्की कर रहा है और दूसरी तरफ़ गोदामों में पड़ा अन्न सड़ रहा है।
उस अन्न को गरीबों में बराबर बांटा जाए तो भुखमरी की नौबत नहीं आएगी। कम-से-कम
भोजन और पानी जैसी बुनियादी ज़रूरतों में भ्रष्टाचार न हो। लोगों को राशन
कार्ड आसानी से मिल जाएं... यही सपना है मेरा।
पर्यावरण के प्रति आप काफी संवेदनशील हैं, इसके
बारे में कुछ बताएं।
मैं ‘ग्रीनपीस’, ‘बटरफ्लाइज़’ और ‘वीडियो वॉलन्टियर्स’ जैसी संस्थाओं से जुड़ा हुआ
हूं। ‘वीडियो वॉलन्टियर्स’ का काम करने का तरीका काफी
अलग है। स्टालिन नाम के एक शख़्स हैं, जो भारतीय मूल के हैं। अमेरिकन पत्नी
जेसिका के साथ मिलकर वे समाज के अलग-अलग तबके के लोगों को ख़ास तरह का प्रशिक्षण देते
हैं। स्टालिन और उनकी टीम लोगों को तीन मिनट की शॉर्ट फ़िल्म बनाना सिखाती है।
लोगों को कैमरा हैंडल करना और एडिटिंग सिखाई जाती है। लोग जब ये सब सीख जाते हैं
तो उन्हें प्रोड्यूसर कहकर बुलाया जाता है। ये प्रोड्यूसर उन मुद्दों पर फ़िल्म बनाते
हैं, जो उनके समाज को प्रभावित कर रहे होते हैं। फिर शूट की गई फ़िल्में स्थानीय
प्रशासन को दिखाई जाती हैं। अच्छी बात यह है कि ज़्यादातर मामलों में कार्रवाई
होती है। महाराष्ट्र, पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में इसका असर दिख रहा है। ‘वीडियो वॉलन्टियर्स’ निहत्थे लोगों को अपने हक़ के
लिए लड़ने का हथियार देता है, कैमरे के रूप में। समाज में कुछ परिवर्तन होता है तो
मुझे ख़ुशी मिलती है। बदलाव समाज में सकारात्मकता की भावना का विस्तार करता है। यही कारण है कि 'वीडियो वॉलन्टियर्स' जैसी कोशिशें मुझे प्रभावित करती हैं।
अपनी किस ख़ूबी से प्यार है?
अपनी किस ख़ूबी से प्यार है?
अपने व्यक्तित्व की किसी
ख़ूबी से मुझे प्यार नहीं है। मुझमें ऐसा कुछ नहीं है, जो बहुत चमत्कृत या प्रभावित करने वाला हो। वैसे, ईमानदारी के साथ कहूं तो इस सवाल का जवाब दूसरे लोग बेहतर दे
सकते हैं। हां, यब बात सच है कि मुझे संगीत का संग्रह करना बहुत पसंद है, जो मेरे व्यक्तित्व को थोड़ा विशिष्ट ज़रूर बनाना है। मुझे हर तरह का संगीत सुनना अच्छा लगता है, जैसे रॉक, जैज़ और अल्टरनेटिव।
ज़्यादातर पाश्चात्य संगीत सुनना पसंद है। नए गाने भी अच्छे लगते हैं। हिन्दी
फ़िल्मों में ‘रॉकस्टार’ के गाने बहुत पसंद आए। पाकिस्तानी संगीत बेमिसाल है। अपने देश में एक
बात थोड़ी अखरती है कि यहां फ़िल्मों के अलावा संगीत का विस्तार बहुत कम है और एक
आम भारतीय केवल फ़िल्मी संगीत को ही संगीत समझता है। ऐसा होना ठीक नहीं है। हमारे समाज में लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत समेत विभिन्न विधाओं के प्रति रुचि बढ़नी ही चाहिए और इस काम में हमें सहभागिता के लिए तैयार रहना चाहिए।
...और ख़ुद में क्या बदलाव लाना चाहते हैं?
मेरी
प्रवृत्ति ऐसी है कि कभी मैं बहुत ख़ुश रहता हूं और कभी बहुत उदास। एक पल मैं गुस्से
में होता हूं तो दूसरे ही पल शांत हो जाता हूं। अपने भावों को लेकर तटस्थ नहीं हूं
मैं। हर मनोभाव में अति करता हूं।
भारत में कौन-सी जगह पसंद है?
गोवा में घर बना रहा हूं। हिमाचल प्रदेश, ख़ासकर मनाली बहुत पसंद है। केरल भी
पसंदीदा है।
...और विदेश में?
स्पेन और न्यूयॉर्क।
ख़ुशी की परिभाषा क्या है?
स्पेन और न्यूयॉर्क।
ख़ुशी की परिभाषा क्या है?
संतुष्ट
होना। संतुष्टि ही असली ख़ुशी है।
मुंबई में प्रिय जगह?
मेरा घर।
प्रिय किताबें?
मुंबई में प्रिय जगह?
मेरा घर।
प्रिय किताबें?
यान
मार्टल की ‘लाइफ ऑफ
पाई’ और चक पालाहनियक (Chuck
Palahniuk) की ‘चोक’।
प्रिय फिल्में?
'डॉ. स्ट्रेंजलव', 'फुल मेटल जेकेट', 'चिल्ड्रन ऑफ हेवन', और 'टॉक टू हर'। हिन्दी फ़िल्मों में 'चुपके-चुपके', 'शोले', और ‘घायल’।
आने
वाली फ़िल्में?
‘सिन्ग्युलेरिटी’, ‘चक्रव्यूह’ और ‘रांझणा’।
आपका जीवन दर्शन क्या है?
आपका जीवन दर्शन क्या है?
कोई
एक नहीं, बहुत सारे दर्शन हैं। फिलहाल दिमाग में है कि जियो और जीने दो।
पाठकों के लिए कोई संदेश?
ख़ुद के प्रति ईमानदार रहें। ज़िंदगी बहुत छोटी है, इसे
हंसी-ख़ुशी और प्रेम-भाव से बिताएं। अपने लिए जिएं, लेकिन दूसरों के लिए भी जीना सीखें।
(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के अक्तूबर 2012 अंक में प्रकाशित)
Very Nice Talk.Thanks 4 sharing.
ReplyDeleteReally nice!
ReplyDeleteIf time permits visit my blog
www.bhukjonhi.blogspot.com
very nice madhavi ji..mujhe janakar bahot khushi hui ki aap guleri ji ki parpoti hai, hamere class 6 ya 7 th me unaki kahani thi usane kaha tha ,,,,unaki ye kahani mujhe bahot pasand hai.....
ReplyDeleteHi Madhavi ji,
ReplyDeleteThe interview is too good and it features real Abhay Deol... I think he is being very honest. Good luck to Abhay Deol
and good luck to you too!! The piece of interview and questions are also very honest and modest.
I liked his role in 'Zindagi Na Milegi Dobara'... I watched that in Dehradun and I think he fits the character and he does a splendid job. And yeah, the interview is also very honest...
Keep up the good work & commitment, both of you!!!
Tashi Wangchuk
San Francisco
Loved the interview.By far one the best and most informed interviewer I've come across. Thanks for this.
ReplyDeleteThanks for this beautiful piece of writing. By far the best interview, script, informed questioning and pacing and placing of dialogues. Loved it Madhavi ji. Abhay as usual is THE BEST
ReplyDeleteGood interview.
ReplyDeleteHe is the only one who has a very close resemblance to Dharmender.