मेरे लिए कुश्ती अहम थी। फ़िल्मों में काम करने में कोई रूचि नहीं थी, मुझे ज़बरदस्ती लाया गया था फ़िल्मों में। मुझे याद है कि एक बार सुबह-सुबह कोई आदमी मेरे घर आकर बोला कि मैं फ़िल्म-प्रोड्यूसर हूं और मुझे फ़िल्म बनानी है। मैंने कहा, ज़रूर बनाओ फ़िल्म। उसने कहा कि फ़िल्म में वो मुझे लेना चाहता है। मुझे बहुत हंसी आई क्योंकि हम फ़िल्में नहीं देखते थे, उनमें काम करना तो दूर की बात थी। हमारे समय में फ़िल्म देखना बदमाशों का काम समझा जाता था। प्रोड्यूसर ने मुझे समझाया कि फ़िल्म के डायरेक्टर ने मुझे कुश्ती लड़ते हुए कहीं देखा था और वो चाहते थे कि मैं उनकी फ़िल्म में पहलवान का रोल करूं। सुना था कि पहलवानों का बुढ़ापा अच्छा नहीं होता तो मैंने यह सोचकर फ़िल्म के लिए हां कर दी कि शायद बुढ़ापे में यही काम आए।
ख़ुशकिस्मती से फ़िल्म हिट हो गई। फिर बहुत काम आने लगा लेकिन मेरा मक़सद कुश्ती में वर्ल्ड चैम्पियन बनने का था इसलिए मैं फ़िल्मकारों को अपने हिसाब से डेट्स देता था।
शुरू-शुरू में मेरी आवाज़ डब की जाती थी क्योंकि मेरी ज़बान में पंजाबियत थी, अब भी है। उस वक्त ऊर्दू ज़बान की अहमियत थी इसलिए मैंने उर्दू बोलना सीखा। अभिनय की बारीकियां नहीं पता थीं, वो सीखने की कोशिश की, निर्देशन भी सीखा। आज मैं जो कुछ भी हूं, कुश्ती और ऊपर वाले की मेहरबानी से हूं। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे पहलवान के रूप में पहले याद करें।
सिनेमा के दौर की बात करें तो उस वक्त लोगों में सब्र ज़्यादा था। लोग न-नुकुर किए बिना एक-दूसरे की बात मान लेते थे। अब काम करने वाले बहुत ज़्यादा हैं, कोई किसी का इंतज़ार नहीं करता।
शुरू-शुरू में मेरी आवाज़ डब की जाती थी क्योंकि मेरी ज़बान में पंजाबियत थी, अब भी है। उस वक्त ऊर्दू ज़बान की अहमियत थी इसलिए मैंने उर्दू बोलना सीखा। अभिनय की बारीकियां नहीं पता थीं, वो सीखने की कोशिश की, निर्देशन भी सीखा। आज मैं जो कुछ भी हूं, कुश्ती और ऊपर वाले की मेहरबानी से हूं। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे पहलवान के रूप में पहले याद करें।
सिनेमा के दौर की बात करें तो उस वक्त लोगों में सब्र ज़्यादा था। लोग न-नुकुर किए बिना एक-दूसरे की बात मान लेते थे। अब काम करने वाले बहुत ज़्यादा हैं, कोई किसी का इंतज़ार नहीं करता।
हमारे ज़माने में सब-कुछ सहज था। कलाकार कम थे, फ़िल्में भी कम बनती थीं। हफ़्ते में मुश्किल से एकाध फ़िल्म आती थी, और उस फ़िल्म का सबको इंतज़ार रहता था। आजकल एक दिन में कई-कई फ़िल्में रिलीज़ होती हैं। कौन-सी फ़िल्म है, डायरेक्टर कौन है... यही याद रखना मुश्किल हो गया है।
नई फ़िल्मों में हो-हल्ला ज़्यादा है, लाउडनेस है, लेकिन हो सकता है कि अब इस उम्र में मुझे ऐसा लगने लगा है। नौजवानों को यह महसूस नहीं होता होगा शायद। मैं मानता हूं कि आजकल फ़िल्मों में पहले से ज़्यादा मनोरंजन है पर इसके साथ-साथ कहानी भी होनी चाहिए।
-दारा सिंह से बातचीत पर आधारित
(अमर उजाला में 8 मई 2012 को प्रकाशित)
बढ़िया लगा दारा सिंह जी के साथ मुलाकात का वर्णन और उनके विचार .
ReplyDeleteachha laga pad ke ,shandar kalakar the dara singh
ReplyDeletenice to know about Dara Singh ji ...!
ReplyDeleteshubhkamnayen ...!!
अच्छी लगी ये बातचीत !
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