Friday, February 24, 2012

हे महाजीवन

(प्रिय कवि सुकान्त भट्टाचार्य की कविता, मूल बांग्ला से 
अनुवाद नीलाभ द्वारा, और कविताएं यहां पढ़ी जा सकती हैं.) 
हे महाजीवन, अब और यह कविता नहीं
इस बार कठिन, कठोर गद्य लाओ

मिट जाए पद्य-लालित्य की झंकार
गद्य के कठोर हथौड़े से आज करो चोट 

चाहिए नहीं आज कविता की स्निग्धता 
कविता आज तुझे छुट्टी दी

भूख के राज्य में पृथ्वी गद्यमय है
पूर्णिमा का चांद जैसे झुलसी हुई रोटी है।

11 comments:

  1. वाह!!
    बेहतरीन भाव..

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  2. बहुत,बेहतरीन अच्छी प्रस्तुति, बधाई,.....

    MY NEW POST...आज के नेता...

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  3. आभार आपका, इतनी बेहतरीन कविता पढवाने के लिए!

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  4. यथार्थ को बयां करती हुई संवेदशील रचना ....

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  5. यथार्थ का बेहतरीन चित्रण।

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    Replies
    1. atul ji ki baat se sahmat.bahut hi sundar kavita hai..chahkar bhi swayam ka comment nahi likh pa rahi islie reply me comment kar rahi hu.samy mile to mere blog par aaiyega

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  6. भूख के राज्य में पृथ्वी गद्यमय है
    पूर्णिमा का चांद जैसे झुलसी हुई रोटी है।
    ओह! कितने सटीक विम्ब!!!

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  7. बेहतरीन कविता

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  8. बहुत कुछ बयान करती सुन्दर प्रस्तुति !

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