(मैं दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार कर रही होती हूं कि एक ख़ूबसूरत महिला दरवाज़ा खोल गर्मजोशी से मुझे अंदर आने के लिए कहती है। प्यारी-सी मुस्कराहट के साथ इरशाद इस्तकबाल करते हैं। ख़ूबसूरत महिला इरशाद की पत्नी हैं। चाय की चुस्कियों के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू होता है। जितना सोचा था, इरशाद उससे कहीं ज़्यादा ज़हीन हैं। वे बड़ी सादगी से बात करते हैं, लेकिन बात की गहराई कहीं कम नहीं होती। लफ़्ज़ों से उनका ख़ास नाता है जो उनके गानों में बख़ूबी झलकता है।)
लिखने की शुरुआत कब और कैसे हुई?
लिखने की शुरुआत कब और कैसे हुई?
पांचवीं कक्षा में रहा हूंगा जब एक कविता लिखने की कोशिश की थी। ज़्यादा याद नहीं है पर बोल कुछ यूं थे... “मेरे बाबुल, मैं रात को नहीं आऊंगी; तेरी गलियां हैं बहुत सूनी, मैं आते-आते घबराऊंगी... ” तब मुझे बाबुल शब्द का मतलब नहीं पता था। यह मन से निकला कवितानुमा टुकड़ा था। मेरे भाई-बहन कई दिन तक इसे पढ़-पढ़ कर मुझे चिढ़ाते रहे। हम पंजाब के मलेरकोटला शहर में रहते थे। मैं आठ साल का था जब हमारे मोहल्ले में मनोज कुमार की फ़िल्म ‘बलिदान’ दिखाई जा रही थी। मैं और बड़ा भाई वो फ़िल्म देखकर लौट रहे थे, रास्ते में मैंने भाई से कहा कि फ़िल्म में एक टाइटल गीत होना चाहिए था, ‘यह बलिदान है...’ जैसा कुछ। बहुत किस्से हैं। मैं दिल की बात लिखने में माहिर था और माशाअल्लाह लिखाई भी अच्छी थी, सो कॉलेज में दोस्तों के लिए प्रेम-पत्र भी ख़ूब लिखे।
…कोई प्रेम-पत्र याद है?
बशीर साहब का एक शे’र मैं अक़सर हर चिट्ठी में शुमार कर दिया करता था। शे’र है... ‘जिस पर हमारी आंख ने मोती बिछाए रात भर, भेजा तुझे काग़ज़ वही, हमने लिखा कुछ भी नहीं।’ अब ज़माना और है। ई-मेल के ज़रिए ही मोहब्बत का इज़हार हो जाता है। लेकिन इसमें वो बात नहीं है, वो रूह नहीं है।
मलेरकोटला से आप चंडीगढ़ आए, फिर मुंबई। यह सफ़र कैसा रहा?
चंडीगढ़ आकर पंजाब विश्वविद्यालय से एमए और पीएचडी की। पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद ट्रिब्यून और जनसत्ता जैसे अख़बारों से जुड़ा। मैं फ़िल्म इंडस्ट्री में शिद्दत से आना चाहता था, लेकिन इस नज़रिए के साथ नहीं कि यहां आकर संघर्ष करूं। मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता हूं, लेकिन संघर्ष शब्द मेरे लिए बेमानी है। न ही संघर्ष की तथाकथित दिलचस्प कहानियां मुझे अच्छी लगती हैं। संघर्ष अच्छी चीज़ नहीं है, ख़ासकर फ़िल्म इंडस्ट्री में। आप अपने हक़ के लिए संघर्ष कर रहे हों तो वो बात समझ में आती है लेकिन यहां लोग संघर्ष को फेंटेसाइज़ करने लगते हैं। आपने संघर्ष करना है या नहीं, यह आपकी तहज़ीब, आपकी रणनीति तय करती है। आपकी सोच और रवैया बताता है कि आप किस तरह की ज़िंदग़ी बिताएंगे। संघर्ष के भुलावे में रहना आसान है, लेकिन यह तर्कसंगत नहीं है। मैं ज़मीनी हक़ीक़त में जीने वाला आदमी हूं। मैंने सोच लिया था कि कोई मुकाम हासिल करने के बाद ही मुंबई जाऊंगा। उन्हीं दिनों निर्देशक लेख टंडन शूटिंग के सिलसिले में चंडीगढ़ आए। उन्हें एक लेखक की दरकार थी। मैं रिपोर्टिंग में था और दिन में काफी वक़्त होता था मेरे पास। मेरी उनसे मुलाक़ात हुई। उन्हें मेरे लिखे डायलॉग पसंद आए और मुझे उनके साथ 22 दिन शूटिंग में काम करने का मौक़ा मिला। क़रीब 15 दिन का शूट बचा था जो मुंबई में होना था। लेख जी ने मुझे मुंबई चलने का न्योता दिया। इस तरह पहली बार जब मुंबई आया तब मेरे हाथ में काम था। शूट पूरा हुआ और मैं वापस चला गया। फिर एक बार मुंबई आया माहौल देखने के लिए, लेकिन 10-15 दिन में लौट गया। बाद में एक सीरियल के लिए डायलॉग लिखने का ऑफर मिला। काम मिल गया, तनख़्वाह भी अच्छी थी, सो 1 अप्रैल 2001 को मैं बोरिया-बिस्तर समेट मुंबई आ बसा।
बतौर गीतकार पहला गाना कौन सा था?
जसपिंदर नरूला की एक एलबम आई थी...‘रब्बा’, जिसे टाइम्स म्यूज़िक ने रिलीज़ किया था। संगीत अमर-उत्पल की जोड़ी वाले अमर हल्दीपुर का था। एलबम में सूफ़ियाना अंदाज़ के कुल आठ पंजाबी गाने थे। और ये आठों गाने मैंने लिखे थे। बतौर गीतकार ‘रब्बा’ मेरी पहली एलबम है। और सबसे पहला गाना, जो मैंने फ़िल्म के लिए रिकॉर्ड किया, वो ‘सोचा न था’ का टाइटल गीत था।
अच्छा गीतकार होने के लिए क्या ज़रूरी है?
कम-से-कम किसी एक ज़बान में माहिर होना ज़रूरी है। ख़याल सबके ज़हन में आते हैं। गीतकार या कवि वो होता है जो उन विचारों को न सिर्फ़ बाहर ला सके बल्कि सही ढंग से पेश भी कर पाए। अभिव्यक्ति के लिए सबसे ज़रूरी तत्व भाषा व शब्द हैं। अगर आप सही भाषा और शब्दों के साथ ख़ुद को अभिव्यक्त नहीं कर पाते तो बेशक़ कितना भी अच्छा सोचते हों, आप लेखक नहीं बन सकते। फ़िल्म ‘रॉकस्टार’ में मैंने लिखा भी है कि ‘जो भी मैं कहना चाहूं, बर्बाद करें अल्फ़ाज़ मेरे’।
प्रेरणा-स्रोत कौन है?
अपना प्रेरणा-स्रोत मैं ख़ुद हूं। मुझे लगता है जो बाहर प्रेरणा ढूंढते हैं, वो किसी व्यक्ति विशेष को अपनी मंज़िल मानकर चलने लगते हैं। लेकिन किसी बाहरी स्रोत को प्रेरणा मान आप कैसे और कब तक अच्छा लिख सकते हैं? आप मक़बूल हो जाएं, मशहूर हो जाएं, उसके बाद का पैमाना क्या होगा? मसलन प्रेमचंद की कहानियों को लीजिए। कितनी भी अच्छी कहानियां हों, लेकिन कोई पैमाना नहीं है जो मुझे बताएगा कि अब आप प्रेमचंद के स्तर तक पहुंच गए हैं। अच्छे-बुरे की पहचान लेखक को होती ही है। मेरे ख़याल से मुक़ाबला ख़ुद से होना चाहिए।
सबसे बड़ा आलोचक किसे मानते हैं?
दिमाग को। मैं लिखता दिल से हूं लेकिन दिमाग उसकी बखियां उधेड़ देता है। ऐसा मेरे साथ अक़सर होता है। कई बार बहुत कुछ सोच रहा होता हूं लेकिन काग़ज़ पर नहीं उतार पाता, बिना लिखे छोड़ देता हूं। ज़िंदगी की जद्दोज़हद में, काम करते हुए, लोगों से मिलते हुए अगर कई दिन बाद भी वो लाइनें दिमाग में रह जाती हैं तो महसूस होता है कि कुछ अच्छा है, लिख लेना चाहिए।
किस गाने को लिखने में सबसे ज़्यादा वक़्त लगा है?
रॉकस्टार का गाना ‘हवा-हवा’ लिखने में 10 दिन लग गए। इस गाने की कॉम्पोज़ीशन आम गानों के अंतरे-मुखड़े से अलग थी। रहमान साहब ने जब वो कॉम्पोज़ीशन दी थी तो उसमें कुछ साउंड्स थीं। इम्तियाज़ ने मुझसे कहा कि साउंड्स की वजह से गाना बहुत अच्छा लग रहा है, इन्हें रखे रखो। लेकिन साउंड्स ऐसी थीं कि उनसे मिलते-जुलते शब्द ढूंढना मुश्किल हो रहा था। एक चेक लोक कथा है, ‘स्लीपी जॉन’, इस कहानी को भी गाने में पिरोना था। कहानी यह है कि एक रानी रोज़ रात को कहीं जाती है और 12 जूते घिसकर आती है। राजा सोचता रहता है कि रानी रोज़ आख़िर कहां जाती है। रानी नाच के लिए जाती थी, और वहां इतना नाचती थी कि उसके जूते घिस जाते। राजा को जब यह पता चला तो उसने रानी से सवाल किया। रानी बोली कि सोने की ये दीवारें मुझे रास नहीं आ रहीं और मैं इनसे मुक्त होना चाहती हूं। ख़ुद को आज़ाद करना चाहती हूं। यह पूरी कहानी मुझे गाने में उतारनी थी, साउंड्स भी बचानी थीं। उस पर लोक कथा भी इतनी सरल रखनी थी कि लोगों को समझ आ सके। इसके अलावा राजा, रानी और ख़बरी के चरित्र भी शब्दों के ज़रिए डेवलप करने थे। उस गाने को आप ध्यान से सुनें तो पाएंगे कि राजा की भाषा बिल्कुल अलग है और रानी की अलग। राजा और रानी की ज़बान सुनकर ही आप समझ जाएंगे कि दोनों की शख़्सियतें कितनी जुदा हैं। राजा की भाषा कुछ ऐसी है, ‘तूने तलवाई मेरी इज़्ज़त की भजिया’ जबकि रानी नफ़ासत से बात करती है।
…और किस तरह के गानों में मशक्कत लगती है?
रोमांटिक गाने लिखने में। क्योंकि रोमांस में कोई भी ऐसा पहलू नहीं बचा है जिसके बारे में बात न हुई हो, या जिसे छुआ न गया हो। दूसरी बात यह है कि रोमांस की अपनी शब्दावली होती है। लेकिन इसके बावजूद मैंने अपने गीतों के लिए बहुत सारे शब्दों को प्रतिबंधित किया हुआ है जैसे दिल, जिगर और धड़कन वगैरह।
कोई ख़्वाहिश, जो अब तक पूरी नहीं हुई?
यही कहूंगा कि ‘हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले…’
किस्मत को कितना बड़ा कारक मानते हैं?
एक कहावत है कि ‘हिम्मत-ए-मर्दां, मदद-ए-ख़ुदा’। भगवान उनकी मदद करता है जो अपनी मदद ख़ुद करते हैं। ऐसा किस्मत के साथ भी है। बमुश्किल एक-दो फ़ीसदी लोग होंगे जिनकी लॉटरी निकलती है या जो बिना कुछ किए रातो-रात करोड़पति बन जाते हैं। बाकी को मेहनत करनी पड़ती है, किस्मत भी तभी रंग लाती है। लेकिन सिर्फ़ किस्मत के बल पर सब हो जाए, यह मुश्किल है। और ऐसा भी नहीं होता कि मेहनत के बूते पर ही सब हो जाए। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मेरा एक शे’र है, ‘ख़ुद ही कीं चेहरे पे अपने दर्द की नक्क़ाशियां, ग़ौर से देखो हमारे हुनर की बारीक़ीयां; मेरी किस्मत, मेरी मेहनत मेरी दोनों बेटियां, हैं तो यारों दोनों बहनें, हैं मगर सौतेलियां’।
कॉलेज से जुड़ी कोई ख़ास याद?
ढेरों हैं। जब भी आत्मकथा लिखूंगा तो उसमें यक़ीनन सबसे दिलचस्प हिस्सा कॉलेज के दिनों का होगा। मेरी आत्मकथा का नाम ‘सेकंड ड्राफ्ट’ होगा, जिसमें कॉलेज में किताबों के अलावा ज़िंदगी की जो पढ़ाई मैंने की, उसका ज़िक्र होगा।
...शिमला से भी विशेष लगाव है आपका। क्या कारण है?
...शिमला से भी विशेष लगाव है आपका। क्या कारण है?
आपने पूछ ही लिया है तो बताता हूं। वैसे यह राज़ चुनींदा लोगों को ही मालूम है। एक बार मैं घर से भागकर शिमला चला गया था। वहां मैंने एक थियेटर ग्रुप जॉइन कर लिया। शिमला को मैंने एक हिल स्टेशन के नज़रिए से नहीं बल्कि एक स्ट्रग्लर के नज़रिए से देखा है। अजीब बात यह है कि मैं वहां घूमने के मक़सद से गया था। मैं शुरुआत में विज्ञान का छात्र रहा हूं, प्रेप इसी विषय से किया है। प्री-यूनिवर्सिटी की परीक्षा से पहले अपने कुछ दोस्तों के साथ मैं शिमला घूमने गया, चार-पांच दिन के लिए। लेकिन फिर पता नहीं क्या हुआ, मैंने दोस्तों से कहा कि तुम लोग वापस जाओ, मैं दो-चार दिन बाद आऊंगा। यह फरवरी की बात है, अप्रैल में परीक्षा थी। और मैं सितम्बर में शिमला से लौटा। हालांकि इस बीच घरवालों को मालूम था कि मैं कहां हूं। उन्हें बाक़ायदा फोन करता था। उनसे कहता था कि मैं ठीक हूं और जब दिल होगा मैं वापस आ जाऊंगा। यही वजह है कि मेरे दिल के बेहद क़रीब है शिमला। जब भी वहां जाता हूं, सब पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं।
हम बहुत जल्दी हार मान लेते हैं जबकि मुझे ऐसा लगता है कि अपनी क्षमताओं का सही प्रयोग किए बिना किसी नतीजे पर पहुंचना जायज़ नहीं है। हर इंसान बराबर है, सबकी क्षमताएं भी बराबर हैं। अगर तेनज़िंग हिमालय की चोटी पर जा सकता है तो कोई भी जा सकता है। जितनी कुव्वत हमें मिली है, और उसका जितना इस्तेमाल होना चाहिए वो नहीं हो पाता।
गीतकार नहीं होते तो क्या होते?
गीतकार नहीं होते तो क्या होते?
पत्रकार ही होता। यह इकलौता पेशा है, जिसकी समाज को कुछ देन है, जो कुछ अहमियत रखता है। जहां आप कहने की ताक़त भी रखते हैं और जहां आपकी बात सुनी भी जाती है।
अपनी किस ख़ूबी से प्यार है?
अपनी किस ख़ूबी से प्यार है?
मुझे नहीं लगता कि मुझमें कुछ ख़ूबी है। यहां एक शे’र आपकी नज़र करना चाहूंगा, जोकि मेरा नहीं है... ‘मैं भी तो कुछ ख़ुश नहीं हूं अपने आप से, मुझको मेरे ख़िलाफ़ शिक़ायत ही भेज दे’।
ख़ाली वक़्त में क्या करते हैं?
ख़ाली वक़्त में क्या करते हैं?
बेटे कामरान के साथ खेलता हूं, उसके साथ अपना बचपन जीने की कोशिश करता हूं। स्केचिंग कर लेता हूं। फोटोग्राफी का भी शौक है। बरसात के दिनों में जब मुंबई में लगातार बारिश होती है तो अपना कैमरा उठाकर निकल जाता हूं। फोटोग्राफी में मुझे नए-नए प्रयोग पसंद हैं। फोटो खींचकर उसे वहीं तक महदूद नहीं रखता बल्कि उस पर पेन चलाता हूं, ब्रश चलाता हूं। फिर जो नतीजा निकलता है वो कुछ-कुछ फोटोपेंटिंग जैसा होता है।
पढ़ना-लिखना अब मेरा शौक़ नहीं रहा है, आदत बन गया है। रोज़ाना कम-से-कम दो पन्ने पढ़ना, और दो लाइनें लिखना मेरे सिस्टम का हिस्सा है।
ज्ञान को किस तरह परिभाषित करेंगे?
ज्ञान को किस तरह परिभाषित करेंगे?
पुराने ज़माने में कहा करते थे कि फलां आदमी पढ़ा नहीं कढ़ा है। या वो पढ़ता-गुनता बहुत है। पढ़ने का मतलब किताबों से है और गुनने का अर्थ है कि किताबों का सार आपने जीवन में किस तरह उतारा है। अख़बार पढ़ कर दुनिया भर की ख़बरें पता कर लेना ज्ञान नहीं है। आप एन्साइक्लोपीडिया बन जाएं या पूरा शब्दकोश रट लें, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि आप ज्ञानी हो गए। मेरे लिए ज्ञान रोज़मर्रा की ज़िंदगी व्यावहारिक रूप से, जागरूक व तटस्थ रहते हुए बिताना है।
आपके गीतों में साहित्य का पुट होता है जबकि बॉलीवुड को बिज़नेस चाहिए। कैसे मैनेज करते हैं?
आपके गीतों में साहित्य का पुट होता है जबकि बॉलीवुड को बिज़नेस चाहिए। कैसे मैनेज करते हैं?
बिज़नेस आटा है, वो पेट भरेगा, जबकि साहित्य नमक है। नमक से पेट नहीं भरता लेकिन स्वाद ज़रूर मिलता है। मैं आटे में नमक बराबर साहित्य डालता हूं ताकि स्वाद बना रहे। मसलन, फ़िल्म ‘एक्शन रीप्ले’ में एक गाना था, ‘तेरा-मेरा प्यार...’ नाम से, इसमें एक लाइन थी ‘अब तेरी सोच में रहता हूं मैं’। बहुत सादी लाइन है लेकिन अगर आप मतलब निकालने लगेंगे तो कई परतें मिलेंगी इसमें। यह ऐसा भी है कि मैं तेरी सोच में रहता हूं, और ऐसा भी है कि तुम जो सोच रही हो मैं उसमें हूं।
हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में औसत दर्जे के गीतों से काम चल जाता है। ऐसे में ख़ुद को उस लेवल से हटाते हुए कविता को ज़िंदा रखना कितना मुश्किल है?
फ़िल्म ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ के लिए मुझे एक गाना लिखना था। यह गाना इमरान हाशमी पर फ़िल्माया जाना था और इमरान ख़ास किस्म के गानों के लिए मशहूर थे। उन पर जिस्मानी इश्क़ वाला लेबल लगा हुआ था। मुझ पर प्रेशर था। मुझे कहा गया कि गाना कुछ क़रारा होना चाहिए। मैंने ‘पी लूं’ लिखना शुरू किया लेकिन बाद में उसे सूफ़ियाना अंदाज़ की तरफ़ ले गया।
आप हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं, करियर में इसका कितना फ़ायदा हुआ है?
मैंने समकालीन हिन्दी कविता पर काम किया है। पढ़ाई के दौरान कुछ बेहतरीन शायरों और कवियों को जानने-पढ़ने का मौक़ा मिला। पढ़ाई आपको आत्मविश्वास देती है और वो आत्मविश्वास आपके लेखन में झलकता है। मैं सेहरा लिख सकता हूं, क़सीदा लिख सकता हूं। नज़्म और ग़ज़ल में फर्क़ बता सकता हूं। इस सबकी ज़रूरत भले ही न पड़े लेकिन इल्म होना चाहिए।
कवि और गीतकार में क्या फर्क़ है?
मुझे लगता है कि कवि हमेशा एक कम्फर्ट ज़ोन में रहता है। वो अपनी मर्ज़ी से विषय चुनता है और लिखता है। जबकि गीतकार को हर हाल में लिखना है। गीतकार मर्ज़ी का काम ज़रूर करता है लेकिन मर्ज़ी से नहीं करता है।
मुझे लगता है कि कवि हमेशा एक कम्फर्ट ज़ोन में रहता है। वो अपनी मर्ज़ी से विषय चुनता है और लिखता है। जबकि गीतकार को हर हाल में लिखना है। गीतकार मर्ज़ी का काम ज़रूर करता है लेकिन मर्ज़ी से नहीं करता है।
गीतकार भी तो रचनाकार ही है...
लेखक अगर किसी विचार को फ़िल्म के लिए लिखता है तो उसे हल्का मान लिया जाता है, या फिर उसे वो सम्मान नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। लेकिन वही विचार जब किसी दूसरे की कलम से निकलता है और वो किसी साहित्यिक पत्रिका में छप जाता है तो उसे कवि मान लिया जाता है। बैंक में काम करने वाला कोई आदमी कविता लिखता है तो वो कवि है। पत्रकार कविता लिखता है तो वो भी कवि है। एक आदमी अध्यापक है और कविता लिखता है, वो भी कवि है। एक शख़्स, जो गीतकार है और कविता लिखता है, उसे कवि नहीं माना जाता।
प्रिय किताबें?
रसूल हम्ज़ातोव की ‘मेरा दागिस्तान’, ज्ञानी गुरजीत सिंह की ‘मेरा पिंड’, गोर्की की ‘मां’, और निर्मल वर्मा की ‘चीड़ों पर चांदनी’ बेहद पसंद हैं। लिस्ट में कई नाम हैं लेकिन आमतौर पर ऐसी किताबें पढ़ना पसंद करता हूं जिनमें कुछ डेफिनेटिव, कुछ नियत नहीं होता।
प्रिय फ़िल्में?
तीसरी कसम और मुगल-ए-आज़म।
प्रिय अभिनेता?
दिलीप कुमार। मौजूदा अभिनेताओं में रणबीर कपूर अच्छे लगते हैं। अभिनेत्रियों में वहीदा रहमान और मधुबाला पसंद हैं।
प्रिय जगह?
सारे पहाड़ी इलाक़े। और वो सारी जगहें, जहां मैं नहीं जा पाया हूं।
मुंबई में पसंदीदा जगह?
मेरी राइटिंग टेबल।
पसंदीदा ग़ज़लें?
डॉ. बशीर बद्र, वसीम बरेलवी, राहत इंदौरी और मुनव्वर राणा की ग़ज़लें पसंद हैं।
मुंबई में पसंदीदा जगह?
मेरी राइटिंग टेबल।
पसंदीदा ग़ज़लें?
डॉ. बशीर बद्र, वसीम बरेलवी, राहत इंदौरी और मुनव्वर राणा की ग़ज़लें पसंद हैं।
जीवन का अर्थ?
ख़ुद को खोजना। विडंबना यह है कि ख़ुद को छोड़कर जीवन में हम सब-कुछ खोजते हैं।
(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के फरवरी 2012 अंक में प्रकाशित)
ख़ुद को खोजना। विडंबना यह है कि ख़ुद को छोड़कर जीवन में हम सब-कुछ खोजते हैं।
(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के फरवरी 2012 अंक में प्रकाशित)
बहुत अच्छी प्रस्तुति,इंटरव्यू बढ़िया लगा.....
ReplyDeleteMY NEW POST ...कामयाबी...
Thanks
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रहा यह साक्षात्कार...शुभकामनायें॥
ReplyDeleteअच्छा लगा इरशाद साहब को जानना,आपकी कलम से...
ReplyDeleteयही बताने यहाँ आयी हैं कि हम पहले ही पढ़ ली हैं 'अहा' में . :P :P
ReplyDeleteमाधवी ये बेहद खूबसूरत एहसास रहा होगा. यकीनन. मै उनसे फोन पर बात करके ही फ़िदा हो गयी थी उनकी ज़हीनियत की. तुमने बहुत सुन्दर बातचीत की है...बधाई!
ReplyDeleteएक बहुत अच्छी शख्सियत से परिचय कराने का शुक्रिया।
ReplyDeleteबढिया साक्षात्कार।
ReplyDeleteइरशाद जी से परिचय कराने के लिए शुक्रिया।
awesome read... thanks...
ReplyDeletenice interview
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteमाधवी जी एक संतुलित साक्षात्कार के माध्यम से संगीत की दुनिया की एक शख्शियत से परिचत करानेे के लिए धन्यवाद।
ReplyDeletebahut bahut aabhar ek achchi shakhsiyat se milvaane ka.
ReplyDeleteइरशाद कामिल का बस नाम सुना था... आज थोड़े करीब से जानने का मौका मिल गया..
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद इस इंटरव्यू के लिए..
nice introduction. Thanks.
ReplyDeleteइरशाद साहब को जानना बढ़िया रहा....
ReplyDeleteसादर आभार.
चर्चा मंच के माध्यम से आप तक पहुंची ...
ReplyDeleteइरशाद साहब को जानना अच्छा लगा .....
कुछ उनके गीत कवितायेँ भी साथ पेश करती तो और अच्छा लगता .....
Amazing questions and Amazing answers,
ReplyDeleteRegards,
DP
Amazing questions and Amazing answers,
ReplyDeleteRegards,
DP
वाह...मस्त!!! :)
ReplyDeleteवैसे तो यह पत्रिका मेरे घर आती है पर इस महिने का अंक अभी पढ़ा नहीं था। बड़े अच्छे प्रश्न पूछे आपने व इरशाद जी ने जवाब भी बेहतरीन दिए। संग्रहणीय पोस्ट !
ReplyDeleteHello, I want to subscribe for this website to get latest updates,
ReplyDeletethus where can i do it please help.
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