(साल 2010 की शुरुआत हमेशा की तरह न्यू इयर रेसोल्यूशन्स के साथ हुई। इनमें से एक था- केरल की यात्रा। व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद केरल जाने का मौक़ा जल्द मिल गया। 7 दिन की इस यात्रा में जो शानदार अनुभव हमें हुए, उन्हें आपके साथ बांट रही हूं...)
महानगर की भाग-दौड़ और कोलाहल से दूर केरल में हमारा पहला पड़ाव था एर्नाकुलम। कोच्चि से सटे इस छोटे लेकिन अहम शहर में पारिवारिक मित्र वासु के यहां ठहरना हुआ। केरल की विशुद्ध संस्कृति से रू-ब-रू होने का यह पहला मौक़ा था। डोसा, सांबर, कडाला कढ़ी (काले चने की तरीदार सब्ज़ी), मीठे में पायसम (चावल, दूध और नारियल से बनी खीर), उबला हुआ केला और गरमा-गरम कॉफी... पारंपरिक माहौल के बीच मलयाली खाने ने सफ़र की सारी थकान छूमंतर कर दी। पेट-पूजा के बाद कोच्चि दर्शन का मन हुआ और जोश से भरे हम निकल पड़े पुराने कोच्चि, यानी फोर्ट कोच्चि की ओर!
मसालों का निकास-द्वार कोच्चि
कोच्चि से गुज़रते हुए पुर्तगाली शैली के ख़ूबसूरत घर दिखे। घरों के चारों तरफ़ नारियल के पेड़ थे और हवा में बिंदासपन। यह शहर कुछ-कुछ हिप्पी संस्कृति की झलक लिए है। कुछ ही पलों में हम कोच्चि पोर्ट पर थे। कोच्चि बंदरगाह सामरिक और व्यापारिक नज़रिए से अहम है। यह वो जगह है जहां से भारतीय मसाले विदेशों में निर्यात किये जाते रहे हैं। कोच्चि में ऐतिहासिक महत्व की कई जगह हैं, जैसे सेंट फ्रांसिस चर्च, मत्तनचेरी पैलेस म्यूज़ियम और ज्यूइश चर्च। कोच्चि के इतिहास से वाक़िफ़ होते हुए हम पहुंचे 'वास्को द गामा' चौराहे पर। मछुआरों के इस शहर में स्थानीय मछुआरों को चाईनीज़ फिशिंग नेट की यानी चीनी जालों की मदद से मछली पकड़ते देखना अलग अनुभव है, हालांकि मछलियों को जाल में फंसे देख मुझे हमेशा एक अजीब बेचैनी और कोफ़्त होती है।
चीनी जाल केरल के मछुआरों की रोज़ी-रोटी का बड़ा साधन हैं। ये जाल काफी पुराने और तकनीकी हैं। कहते हैं कि चीन से ये जाल ज़ेंग हे नाम का चीनी यात्री कोच्चि लेकर आया था। ज़ेंग हे चीन के शासक कुबलई ख़ान का दरबारी था।
चीनी जाल केरल के मछुआरों की रोज़ी-रोटी का बड़ा साधन हैं। ये जाल काफी पुराने और तकनीकी हैं। कहते हैं कि चीन से ये जाल ज़ेंग हे नाम का चीनी यात्री कोच्चि लेकर आया था। ज़ेंग हे चीन के शासक कुबलई ख़ान का दरबारी था।
मछुआरों और जालों से ध्यान हटा तो नज़र दूसरी तरफ़ फुटपाथ पर लगे बाज़ार पर जा ठहरी, लगा जैसे हम दिल्ली के जनपथ मार्केट में हों। देशी-विदेशी पर्यटक यहां ख़रीद-फ़रोख़्त में मशगूल थे। केरल में आमतौर पर भाषाई समस्या आड़े नहीं आती क्योंकि यहां लोगों का अंग्रेज़ी ज्ञान अच्छा है। आम लोग भी अंग्रेज़ी या काम-चलाऊ हिन्दी में बातचीत कर लेते हैं। फोर्ट कोच्चि से क़रीब 25 किलोमीटर की दूरी पर है वायपिन द्वीप। यहां चेरई बीच है जो काफी साफ-सुथरा है और तैराकी के लिए माक़ूल भी।
मुन्नार में मेहरबान क़ुदरत
कोच्चि से हमें कूच करना था मुन्नार की ओर। ज़हन में जब-जब भी केरल की तस्वीर उभरी है, बैकवॉटर्स के बाद दूसरा और सबसे ख़ूबसूरत नज़ारा मुन्नार का ही रहा है। केरल के इडुक्की ज़िले में है मुन्नार। एक जाना-माना हिल स्टेशन, जिसे हाल ही में जापान के टोक्यो के बाद एशिया में सबसे अच्छे पर्यटन केन्द्र का दर्जा हासिल हुआ है। क़ुदरती खूबसूरती, दूर-दूर तक फैले चाय के बागान और लुभावना मौसम... यही है मुन्नार की यूएसपी। यहां क़दम रखते ही आप एकदम तरो-ताज़ा महसूस करने लगते हैं। हर हिल-स्टेशन की तरह मुन्नार में भी कई टूरिस्ट पॉईंट हैं लेकिन जगह का चयन अपनी पसंद के मुताबिक ही करें। यहां कई टैक्सी वाले ऐसे मिलेंगे जो एक निर्धारित पैकेज में कुछ जगह दिखाने की बात करेंगे। बेहतर होगा यदि टैक्सी की बजाय ऑटो-रिक्शा को चुनें। इससे बचत तो होगी ही, आप ख़ुद को क़ुदरत के ज़्यादा करीब भी महसूस करेंगे। हमारे ड्राइवर मणि ने 800 रुपए में न सिर्फ़ पूरा दिन ऑटो-रिक्शा में घुमाया बल्कि स्थानीय जड़ी-बूटियों और जीव-जन्तुओं से जुड़ी दिलचस्प जानकारियां भी हमें दीं। मुन्नार में यूं तो तरह-तरह के फल-फूल पाए जाते हैं लेकिन एक ख़ास फल है... पैशन फ्रूट! यह सस्ता है और तक़रीबन हर जगह मिल जाता है। मुन्नार जाएं तो पैशन फ्रूट ज़रूर आज़माएं, इसका खट्टा-मीठा स्वाद आपको कुछ अलग ही मज़ा देगा। मुन्नार में ही पहली बार हमें काजू, कॉफी और इलायची के पौधे देखने को मिले।
काजू का फल हैरत से देख रही थी, तभी मणि ने बताया कि इसे खा भी सकते हैं। ख़ूबसूरत दिखने वाले काजू के फल का स्वाद मुझे कसैला लगा। मुंह का मिजाज़ कुछ बिगड़ा लेकिन स्थानीय शहद, जो कुछ देर पहले ख़रीदा था, चखकर स्वाद एक बार फिर बदल गया।
आप प्रकृति प्रेमी हैं और पहाड़ी मौसम का भरपूर लुत्फ़ उठाना चाहते हैं तो कम-से-कम 4 या 5 दिन मुन्नार में ज़रूर ठहरें। यहां चारों तरफ हरियाली की चादर बिछी है और साफ-सुथरी सड़कों पर कभी-कभार झूमते-इठलाते हाथी भी दिखाई दे जाते हैं... अब यह नज़ारा किसी शहर में तो मुमकिन नहीं है। मुन्नार में हैं तो हाथी के साथ जंगल की सफारी पर एक बार ज़रूर जाएं। यह एक बिल्कुल अलग अनुभव है।
शहर से दो किलोमीटर दूर है टाटा टी म्यूज़ियम। मुन्नार का क़रीब 99 फ़ीसदी चाय-व्यापार 'टाटा' के हवाले है। यहां कर्मचारियों को कई सुविधाएं मिली हुई हैं। टी म्यूज़ियम में चाय-पत्ती तैयार किए जाने की पूरी प्रक्रिया देख सकते हैं। इतना ही नहीं, अपनी आंखों के सामने तैयार हुई चाय की चुस्कियां भी ले सकते हैं।
मुन्नार की एक और ख़ासियत है- वो है यहां उगने वाला नीलकुरुंजी नाम का ख़ूबसूरत फूल। लेकिन इसे देखने के लिए आपको भी साल 2018 तक इंतज़ार करना होगा। भई, यह फूल 12 साल में सिर्फ़ एक ही बार जो खिलता है।
कोल्लम में बैकवॉटर्स का लुत्फ़
अब बारी थी केरल की एक और ख़ासियत से रू-ब-रू होने की। सो हम अल-सुबह रवाना हुए कोल्लम के लिए। 250 किलोमीटर का यह सफ़र हमने राज्य परिवहन की बस में तय किया। रास्ते में एक चीज़ बहुतायत में दिखी, कटहल के पेड़। पूरे केरल में इसकी पैदावार अच्छी है। कटहल पौष्टिक सब्ज़ी है, और मेरी पसंदीदा सब्ज़ियों में से एक भी!
मुन्नार से क़रीब 10 घंटे के सफ़र के बाद हम कोल्लम पहुंचे। यहां से हमें अष्टमुडी जाना था। अष्टमुडी कोल्लम से 15 किलोमीटर की दूरी पर है। रिज़ॉर्ट पहुंचे तो सफ़र की थकान हावी थी। अचानक ख़याल आया कि हम आयुर्वेदिक मसाज के लिए मशहूर राज्य में हैं। थकान मिटाने के लिए इससे अच्छा विकल्प और भला क्या हो सकता था। हमने फौरन एक आयुर्वेदिक थेरेपिस्ट से संपर्क किया। अगले 2 घंटे सुक़ून और ताज़ग़ी से भरे थे। गुरू धनवंतरी, जो आयुर्वेद के जनक माने जाते हैं, की प्रार्थना के साथ हमारे थेरेपिस्ट ने सधे हुए हाथों से मसाज शुरू की। देखते-ही-देखते सारी थकान काफूर हो गई। मानसिक रूप से भी हम काफी स्फूर्ति भरा महसूस कर रहे थे। केरल में आयुर्वेदिक मसाज के एक सेशन की शुरूआती क़ीमत है- क़रीब 500 रूपए, जो तेल और उसकी क्वालिटी के साथ हज़ारों रूपए तक पहुंच जाती है। आप सादे आयुर्वेदिक तेल से मालिश चाहते हैं या ख़ास ख़ुशबूदार तेलों के साथ... यह आपकी पसंद पर निर्भर है।
मसाज के अलावा केरल अपने बैकवॉटर्स के लिए मशहूर है। बैकवॉटर्स का असल लुत्फ़ उठाना चाहते हैं तो केरल पर्यटन की नौका यात्रा सबसे अच्छा विकल्प है। महज़ 400 रूपए में आप 5 घंटे तक केरल की असली ख़ूबसूरती निहार सकते हैं, वो भी बेहद क़रीब से। कोल्लम बस स्टैंड पर केरल पर्यटन का दफ़्तर है, जहां से बुकिंग होती है। बुकिंग के बाद एक निश्चित समय पर केरल पर्यटन की बस आपको मुनरो द्वीप तक ले जाती है। वहां से आप एक छोटी नौका में सवार होते हैं और बैकवॉटर्स में धीरे-धीरे सरकती वो नौका आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाती है। नौका यात्रा के दौरान एकाएक इटली के ख़ूबसूरत शहर वेनिस का ख़याल आ गया। वेनिस में पानी की सड़कें हैं और वहां चलने वाली नौकाओं को इतालवी भाषा में ‘गोंडोला’ कहते हैं। वेनिस के लोग गोंडोला के ज़रिए ही रोज़मर्रा के काम निपटाते हैं, घूमते-फिरते हैं और एक-दूसरे से मिलने जाते हैं। यहां केरल में भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। फर्क़ इतना है कि वेनिस में पानी के इर्द-गिर्द इमारतें नज़र आती हैं तो यहां सिर्फ़ और सिर्फ़ हरियाली। नौका यात्रा के दौरान हमें केरल के ख़ालिस ग्रामीण जीवन और जैवीय विविधता को महसूस करने का मौक़ा मिला। पानी की सड़क के बीच से गुज़रते हुए हम मुनरो गांव की तरफ बढ़ रहे थे। नौका में हमारे साथ कुछ विदेशी मेहमान भी थे। मल्लाह चिदंबरम ने नौका रोककर हमें मुनरो गांव के अंदर चलने को कहा। कुछ दूर पैदल चलने पर हम मछुआरों की बस्ती में थे। यहां हमने कारीगरों को नौकाएं बनाते हुए देखा। मछुआरों ने हमें बताया कि एक साधारण नौका तैयार करना मशक्कत भरा काम है और इसमें उन्हें कम-से-कम 3 महीने का वक़्त लगता है। चिदंबरम हमें नारियल के पेड़ों के एक झुरमुट के बीच ले गया, जहां हमने ताड़ी बनने की प्रक्रिया देखी। नारियल के फूल से तैयार ताज़ा ताड़ी उतरते देख इसे पीने का मन हुआ तो गांव वालों को भी जैसे मेहमान-नवाज़ी का मौक़ा मिल गया। उन्होंने झट से हमारे सामने ताड़ी भरे गिलास पेश कर दिए। चिलचिलाती गर्मी और उमस के बीच ताज़ा ताड़ी ने राहत का काम किया।
बैकवॉटर्स से गुज़रते हुए आस-पास रोज़-एप्पल और अन्नानास के पौधे देखने को मिले। रोज़-एप्पल एक स्थानीय फल है जो खाने में रसीला और कुछ-कुछ सेब जैसा स्वाद लिए होता है। अगर आप ख़ुशकिस्मत हैं तो नौका की सवारी के दौरान आपको कई ऐसी चीज़ें देखने को मिलेंगी जिन्हें आपने शायद कभी नहीं देखा होगा। मेरे लिए यह सफ़र अद्भुत था और इससे जुड़ी हर छोटी-बड़ी घटना आने वाले कई सालों तक मुझे रोमांचित करती रहेगी।
भूला-बिसरा थंगासेरी
कोल्लम से 5 किलोमीटर दूर है, थंगासेरी लाइट हाउस। 144 फुट ऊंचा ये लाइट-हाउस एशिया का दूसरा सबसे ऊंचा लाइट हाउस है। लाइट-हाउस कैसे काम करता है, यह आप अंदर जाकर देख सकते हैं। दूर-दराज़ से आने वाले जहाज़ों को किस तरह सिग्नल दिया जाता है- यह देखना दिलचस्प है। पुर्तगाली, डच और ब्रिटिश शासन के अधीन रह चुके थंगासेरी में चर्च और पुर्तगाली किले के कुछ अवशेष हैं, जिन्हें देखकर आप इतिहास की गलियों में खो जाएंगे। स्थानीय भाषा में थंगासेरी का मतलब है- सोने का गांव। कहते हैं किसी ज़माने में यहां लोग करंसी के तौर पर सोने का इस्तेमाल किया करते थे। लाइट हाउस की सबसे ऊपरी मंजिल से थंगासेरी और कोल्लम का ख़ूबसूरत नज़ारा... मेरी आंखों में अभी तक बसा है। लाइट हाउस से उतर, कोल्लम बीच पर कुछ वक़्त बिताने का मन हुआ। समुद्र तट पर पहुंचकर निराशा हुई। तट पर बहुत भीड़ थी। मरमेड यानी मत्स्यकन्या के एक बुत के अलावा वहां कुछ अच्छा नहीं लगा।
वापसी में कोल्लम के मुख्य बाज़ार पहुंचे तो चेहरे पर एक बार फिर मुस्कुराहट तैर गई। चारों तरफ सजावट और चहल-पहल दिखी। स्थानीय लोगों से पूछने पर पता चला कि यह विशू का समय है। विशू केरल का बड़ा पारंपरिक त्योहार है। इस दौरान यहां पूरे 10 दिन तक रंगारंग कार्यक्रम होते हैं। इस उत्सव का ख़ास आकर्षण है- सजे-संवरे हाथियों की झांकी और कथकली नृत्य। उत्सव का हिस्सा बनने की हसरत लिए हम श्री कृष्ण आश्रम मंदिर पहुंचे। यह मंदिर 1000 साल से भी ज़्यादा पुराना है। प्रांगण में घूमते हुए पता चला कि कुछ देर में कथकली नृत्य का प्रदर्शन होने वाला है। हमने तय कर लिया कि लौटने में भले ही देर हो जाए लेकिन यह मौक़ा हम चूकेंगे नहीं। बाद में कथकली नृत्य देखते हुए हमें अपने फ़ैसले पर ख़ुशी भी हो रही थी और गर्व भी। त्योहार के अलावा भी केरल में कथकली के प्रदर्शन होते रहते हैं। आप केरल आएं तो कथकली को अपनी कार्यक्रम-सूची में ज़रूर शामिल करें। तिरूवनंतपुरम से आख़िरी सलाम
केरल में 7 दिन के प्रवास के दौरान हमने स्थानीय बसों में घुमक्कड़ी का ख़ूब मज़ा लिया। मेरे ख़याल से किसी भी शहर की नब्ज़ पकड़नी हो तो स्थानीय बसों से बेहतर कोई दूसरा माध्यम नहीं है। राजधानी तिरूवनंतपुरम हमारा आख़िरी पड़ाव था। यह एक छोटा लेकिन घूमने लायक शहर है। वक़्त की कमी के चलते हम शहर से कुछ दूरी पर स्थित शंखमुखम बीच ही जा सके। तिरूवनंतपुरम से क़रीब 54 किलोमीटर दूर है, वरकला का ख़ूबसूरत समुद्र तट, जिसे देखने की हसरत दिल में ही रह गई। यक़ीनन एक बार फिर मैं केरल जाना चाहूंगी और तब वरकला होगा मेरा सबसे पहला पड़ाव। फिलहाल केरल की ख़ुशनुमा यादों को अपने दिलो-दिमाग में क़ैद कर मैं लौट आई हूं अपने ठिकाने पर। (दैनिक जागरण के 'यात्रा' परिशिष्ट में 27 जून 2010 को प्रकाशित)
Bahut Khoob.. ye lekh padh ke mera bhi keral jaane ka mann ho raha hai... Maine aapke dil aur dimaag ki sunder chavi toh dekhi aur achcha bhi laga par agar saath mein camera mein kaid chhavi bhi hota toh bilkul hi adbhut ho jata. Umeed hai Madhavi Guleri ji aap apne agley lekh mein hamein apne camerey ki chhavi bhi zarur dhikayengi.
ReplyDeleteaap ki hindi bahuthi achi lagi... :)
ReplyDeleteAapne hamare sujhaav pe tavojjo di... hum aapke abhari hain... abb iss lekh ko padhney ka mazza aaur badh gaya hai... kehna padega aapki pakad jitni achchi kalam pe hai utni hi achchi camerey per bhi haai... jitna sunder lekh hai utni hi sundar chaavi bhi... intezaar hai aapke agley lekh ka... tab tak shabba khair !!!
ReplyDeletewow, infact this was my first glimpse of your blog. It is wonderful, I feel like should had read hindi after 8th.
ReplyDeleteAnyway, nice to hear from you through blog.
Tashi Delek Zema
Tash
Thanks Asad & Nihar ! And of course Tash, even if you can't read Hindi Well :)
ReplyDelete