Tuesday, December 25, 2012

बिना ऑडिशन के मिला पहला ब्रेक-सुरेखा सीकरी

फ़िल्मों में मेरी शुरुआत साल 1978 में किस्सा कुर्सी का से हुई। मैं दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में थिएटर कर रही थी, जब निर्देशक अमृत नाहटा इस फ़िल्म का प्रस्ताव लेकर आए। उन्होंने मेरा काम देखा था, इसलिए ऑडिशन की ज़रूरत नहीं पड़ी। फ़िल्म क िए मुझे सुबह जल्दी उठकर जाना होता था और मेक-अप करके अपने शॉट का इंतज़ार करना होता था। फ़िल्म में काम करने का तजुर्बा थिएटर से काफी अलग रहा।
टेलीविज़न में मुझे पहला ब्रेक गोविंद निहलानी ने तमस में दिया था।तमसदरअसल फ़िल्म की तरह शूट की गई थी, जिसे कुछ एपिसोड में बांटकर टेलीविज़न पर प्रसारित किया गया। इस बीच मृणाल सेन के साथ भी एक सीरियल किया। तमस के लिए मुझे नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड भी मिला था। धीरे-धीरे मेरे पास काम आने लगा। लेकिन मैं भूमिका की गुणवत्ता का ध्यान रखती थी। तमस के बाद परिणति, सलीम लंगड़े पे मत रो, लिटल बुद्धा’, ‘मम्मो, सरदारी बेगम, हरी-भरी, ज़ुबेदा, मिस्टर एंड मिसेज अय्यरऔर रेनकोट जैसी फ़िल्में कीं। टीवी पर मेरा पहला सीरियल था... वार-वार परिवार। उसके बाद बनेगी अपनी बात और सात फेरेमें काम किया। दोनों ही सीरियल बहुत लोकप्रिय हुए।
अब तक मैंने जितने किरदार निभाए हैं, उनमें प्रकाश झा की फ़िल्म परिणतिमें राजस्थानी महिला का किरदार मेरा पसंदीदा है। परिणतिविजयदान देथा की कहानी पर आधारित है। इसकी शूटिंग राजस्थान में हुई थी। भूमिका तो दिलचस्प थी ही, रेगिस्तान के बीचो-बीच टैंट बनाकर रहना और मुंह-अंधेरे उठकर सूरज को उगते हुए देखना भी बेहतरीन अनुभव था।
मुझे एकाग्रचित रहकर काम करना पसंद है, इसलिए एक समय में एक ही काम करती हूं। फिलहाल बालिका वधू में दादी सा के रोल में मज़ा आ रहा है। दर्शकों को भी यह पसंद आ रहा है। अच्छी प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं तो हम सबका उत्साह बना हुआ है। सुबह से शाम तक सारा वक़्त शूटिंग में गुज़र जाता है। शूट नहीं कर रही होती हूं तो घर पर रहना पसंद करती हूं। 
-सुरेखा सीकरी से बातचीत पर आधारित 

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 23 दिसम्बर 2012 को प्रकाशित)

Sunday, December 16, 2012

‘बैंडिट क्वीन’ से शुरुआत-सौरभ शुक्ला

मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली में थिएटर कर रहा था। शेखर कपूर अपनी फ़िल्म बैंडिट क्वीन की कास्टिंग के लिए वहां आए हुए थे। उन्होंने मेरा नाटक ख़ूबसूरत बहू देखकर मुझे मिलने के लिए बुलाया। उस वक़्त शेखर ने कुछ नहीं कहा। तिग्मांगु धूलिया उनके असिस्टेंट थे। तिग्मांशु ने बाद में बताया कि फ़िल्म की कास्टिंग हो चुकी है, लेकिन शेखर ने ख़ास तुम्हें ध्यान में रखकर एक किरदार गढ़ा है। इस तरह मुझे बैंडिट क्वीन में कैलाश का रोल मिला।
फ़िल्म में काम करना सुखद अनुभव रहा क्योंकि मैं सीमा बिश्वास, मनोज बाजपेयी, निर्मल पांडे और तिग्मांशु धूलिया को पहले से जानता था। सेट पर बहुत अच्छा माहौल था। हम सब एक-दूसरे के काम में दिलचस्पी लेते थे, एक-दूसरे की मदद करते थे। फ़िल्म इंडस्ट्री में ऐसा कम होता है। शेखर कपूर का व्यवहार भी दोस्ताना था। बैंडिट क्वीन की शूटिंग धौलपुर में हुई थी। हम वहां से 20 किलोमीटर दूर जंगल में ठहरे हुए थे। हम सुबह शूटिंग के लिए निकल जाते और रात को थक-हारकर वापस लौटते थे। यूनिट में विदेशी स्टाफ भी था। हम सबके लिए दावत और गाने-बजाने का इंतज़ाम होता था। खाने के बाद हम अक़सर अपने लॉज से बाहर निकल आते। वहां एक लंबी, सुनसान सड़क थी, जिस पर लेटकर हम देर तक बातें करते रहते थे।
बैंडिट क्वीन के बाद जासूसी सीरियल तहकीकात में काम किया। मेरे एक्टिंग करियर को आगे ले जाने में सुधीर मिश्रा का काफी योगदान रहा है। मेरी डील-डौल और मुस्कराते चेहरे को देखते हुए मुझे ज़्यादातर कॉमेडी रोल मिल रहे थे, लेकिन सुधीर जी ने मुझे इस रात की सुबह नहीं में ऐसे हिंसक आदमी का किरदार दिया, जिसकी बीवी मर जाती है और वो रात को बदला लेने और हत्याएं करने निकलता है। यह राम गोपाल वर्मा की पसंदीदा फ़िल्म थी। मेरा काम देखकर उन्होंने मुझे फ़िल्म सत्या में कल्लू मामा का किरदार दिया। कल्लू मामा को दर्शकों का बहुत प्यार मिला।  
आप अनजाने शहर में होते हैं तो अक़सर अकेलापन महसूस करते हैं, लेकिन मुंबई में मुझे ऐसी कोई दिक्कत नहीं हुई क्योंकि यहां मेरे कई दोस्त थे। ऐसा नहीं है कि मैंने संघर्ष का दौर नहीं देखा, लेकिन वो दौर बुरा नहीं था। मेरी आने वाली फ़िल्में हैं... जॉली एलएलबी’, फटा पोस्टर, निकला हीरो, गुंडे, और  ‘पी के। 
-सौरभ शुक्ला से बातचीत पर आधारित 

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 16 दिसम्बर 2012 को प्रकाशित)

Saturday, December 8, 2012

कैसे भूलूं 'पक्का जामुन तोड़ो नहीं'-पीनाज़ मसानी

बचपन में जब भी कोई अच्छा गाना सुनती तो मेरी आंखों में आंसू आ जाते थे। घर में संगीत का माहौल था, मैंने छोटी उम्र से ही गाना शुरू कर दिया था। कॉलेज के दिनों में सुर-सिंगार प्रतियोगिता में संगीतकार जयदेव ने मुझे गाते हुए सुना। उन्हें बहुत अच्छा लगा कि एक पारसी लड़की, जिसकी मातृभाषा हिंदी नहीं है, व हिंदी में इतनी सहजता से गा रही है। जयदेव जी ने मुझे दूरदर्शन पर सूरदास का भजन तुम तज और कौन पे जाऊं गाने का मौक़ा दिया। इस तरह टेलीविज़न पर गाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वो जारी है टेलीविज़न पर सुनकर राजेश रशन ने मुझे अपनी फ़िल्म हमारी बहू अलका में गाने के लिए बुलाया। मुझे अलका यागनिक के साथ गाना था। अलका का भी वो पहला गाना था। उन दिनों वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में रिकॉर्डिंग स्टूडियो होता था। हम दोनों की मां हमारे साथ थीं। हम डरे हुए थे, लेकिन रिकॉर्डिंग के दौरान बहुत मज़ा आया। गाने के बोल अजीब थे... पक्का जामुन तोड़ो नहीं और हम दोनों को बहुत हंसी आ रही थी। अपने पहले गाने की रिकॉर्डिंग हमने हंसी-ठिठोली करते हुए पूरी की।
इसके बाद का सफ़र बहुत उम्दा रहा। प्राइवेट एलबमों और फ़िल्मों में गाने के अलावा देश-विदेश में हज़ारों स्टेज शो कर चुकी हूं। मुझे हर जगह लोगों का बेइंतहा प्यार मिला है। एक बार मैं घाना में परफॉर्म करने वाली थी। वहां के राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति शो के मुख्य अतिथि थे, लेकिन संदेश आया कि वक़्त की कमी के चलते वे सिर्फ़ दो मिनट के लिए ही आ पाएंगे। उस दिन मैंने राग दरबारी गाया और वे तब तक नहीं गए जब तक कंसर्ट ख़त्म नहीं हो गया। यही संगीत का जादू है। मैं अपनी गुर मधुरानी जी की शुक्रगुज़ार हूं, जिन्होंने मुझे इस काबिल बनाया। अब तक कई अवॉर्ड मिल चुके हैं, लेकिन मेरे लिए सबसे ख़ुशी का दिन साल 2009 में था, जब मुझे पद्मश्री से नवाज़ा गया। 
-पीनाज़ मसानी से बातचीत पर आधारित 

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 9 दिसम्बर 2012 को प्रकाशित) 

Saturday, December 1, 2012

बिना किसी सुरक्षा के दिया पहला शॉट-दिव्या दत्ता

पंजाब से कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके मैं मुंबई आई और यहां स्टारडस्ट एकेडमी में एक्टिंग के कोर्स में दाख़िला लिया। कोर्स के बाद लोगों से मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हुआ। उस वक़्त मैं जितने भी लोगों से मिली, सब यही कहते कि तुम हमारी फ़िल्म कर रही हो। मुझे लगा कि मुझे एक-साथ कई फ़िल्मों का ऑफर मिल रहा है। लेकिन यह बात बाद में समझ आई कि फ़िल्म इंडस्ट्री में चलन है कि कोई किसी को न नहीं बोलता। इसलिए जब फ़िल्म सुरक्षामें काम करने का ऑफर मिला, तब भी मुझे यक़ीन नहीं हुआ कि मैं वो फ़िल्म कर रही हूं। लेकिन जल्द ही सब-कुछ तय हुआ और मुझे पहली ही फ़िल्म में सुनील शेट्टी और सैफ़ अली ख़ान के साथ काम करने का मौक़ा मिला।
मेरा पहला दृश्य सुनील शेट्टी के साथ था। मैं बहुत नर्वस थी। घबराहट के कारण एक जगह बैठ नहीं पा रही थी। सुनील शेट्टी ने निर्देशक से कहा था, आपकी हीरोइन बहुत प्यारी है, लेकिन वो हमेशा खड़ी रहती है!’ शूटिंग के दौरान सुनील ने मेरा बहुत साथ दिया। हमारा पहला सीन जुहू बीच पर फ़िल्माया गया, जिसमें सुनील शेट्टी मुझे खींचते हुए समुद्र-तट पर ले जाते हैं। एक्शन मास्टर ने मुझसे लैग-पैड पहनने को कहा ताकि चोट न लगे। नई होने के कारण मैं पूरे जोश में थी और मैंने बिना पैड के ही शॉट दिया। लेकिन इस दौरान मेरे घुटने बुरी तरह छिल गए। सुनील ने मुझे बड़े प्यार से समझाया कि हम एक्टिंग कर रहे हैं और इसे एक्टिंग की तरह ही लो। फिर मुझे पैड पहनाए गए और शूट पूरा हुआ।
जब मेरी शुरुआत हुई, उस वक़्त मल्टीस्टारर फ़िल्मों का दौर था। सुरक्षा के बाद अग्निसाक्षी, वीरगति और ट्रेन टू पाकिस्तान में काम किया। जैसी गंभीर फ़िल्में मैं करना चाहती थी, उनमें काम करने का अवसर भी मिला। मैं ख़ुशकिस्मत हूं कि मुझ पर ठेठ हीरोइन का ठप्पा नहीं लगा। मुझे अलग-अलग किस्म के रोल मिलते रहे हैं। फ़िल्म में सबसे अच्छा किरदार मुझे दिया जाता है, शायद इसीलिए मैं दर्शकों के दिलों में अलग जगह बना पाई हूं। मेरी आने वाली फ़िल्में हैं... ज़िला ग़ाज़ियाबाद, भाग मिल्खा भाग,लुटेरा और स्पेशल छब्बीस। 
-दिव्या दत्ता से बातचीत पर आधारित 

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 2 दिसम्बर 2012 को प्रकाशित)
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