बचपन
में जब भी कोई अच्छा गाना सुनती तो मेरी आंखों में आंसू आ जाते थे। घर में संगीत
का माहौल था, मैंने छोटी उम्र से ही गाना शुरू कर दिया था। कॉलेज के दिनों में ‘सुर-सिंगार’ प्रतियोगिता में संगीतकार जयदेव ने मुझे गाते हुए सुना। उन्हें बहुत
अच्छा लगा कि एक पारसी लड़की, जिसकी मातृभाषा हिंदी नहीं है, वह हिंदी में इतनी सहजता
से गा रही है। जयदेव जी ने मुझे दूरदर्शन पर सूरदास का भजन ‘तुम तज और कौन पे जाऊं’ गाने का मौक़ा दिया। इस तरह टेलीविज़न
पर गाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वो जारी है। टेलीविज़न
पर सुनकर राजेश रौशन ने मुझे अपनी फ़िल्म ‘हमारी बहू अलका’ में गाने के लिए बुलाया। मुझे अलका यागनिक के साथ गाना था। अलका का भी वो
पहला गाना था। उन दिनों वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में रिकॉर्डिंग स्टूडियो होता था। हम
दोनों की मां हमारे साथ थीं। हम डरे हुए थे, लेकिन रिकॉर्डिंग के दौरान बहुत मज़ा
आया। गाने के बोल अजीब थे... ‘पक्का जामुन तोड़ो नहीं’ और हम दोनों को बहुत हंसी आ रही थी। अपने पहले गाने की रिकॉर्डिंग हमने
हंसी-ठिठोली करते हुए पूरी की।
इसके बाद
का सफ़र बहुत उम्दा रहा। प्राइवेट एलबमों और फ़िल्मों में गाने के अलावा देश-विदेश
में हज़ारों स्टेज शो कर चुकी हूं। मुझे हर जगह लोगों का
बेइंतहा प्यार मिला है। एक बार मैं घाना में परफॉर्म करने वाली थी। वहां के
राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति शो के मुख्य अतिथि थे, लेकिन संदेश
आया कि वक़्त की कमी के चलते वे सिर्फ़ दो मिनट के लिए ही आ पाएंगे। उस दिन मैंने ‘राग दरबारी’ गाया और वे तब तक नहीं गए जब तक कंसर्ट ख़त्म नहीं हो गया। यही संगीत का
जादू है। मैं अपनी गुरु मधुरानी जी की शुक्रगुज़ार हूं, जिन्होंने मुझे इस काबिल बनाया। अब तक कई अवॉर्ड मिल चुके हैं, लेकिन मेरे लिए सबसे ख़ुशी का दिन साल 2009 में था, जब मुझे ‘पद्मश्री’ से नवाज़ा गया।
-पीनाज़ मसानी से बातचीत पर आधारित
(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 9 दिसम्बर 2012 को प्रकाशित)
(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 9 दिसम्बर 2012 को प्रकाशित)
vah sundar abhivyakti
ReplyDeleteसादर निमंत्रण,
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