Tuesday, November 27, 2012

दो पैसे की धूप, चार आने की बारिश

(मुंबई के पॉश इलाक वर्सोवा में समदर किनारे बनी एक इमारत की छठी मंज़िल पर हूं। दरवाज़े की घंटी बजाने पर रिस्पॉन्स नहीं मिलता, घंटी ख़राब है या शायद बिजली नहीं है। दो-तीन बार कोशिश करने के बाद दीप्ति नवल को फ़ोन मिलाती हूं। ख़ुद दीप्ति आकर दरवाज़ा खोलती हैं। काली टी-शर्ट और पैंट, जूड़े में बंधे बाल, मेक-अप न के बराबर, अंगुली में चांदी का छल्ला... हम दोनों अंदर आते हैं। दीप्ति के घर की सादगी भी, उनकी सादगी की तरह मन को छूने वाली है। लिविंग हॉल में उनकी मां टेलीविज़न देख रही हैं। हम दूसरे छोर पर आकर बैठ जाते हैं, जो किसी स्टूडियो जैसा लगता है। सामने ब्लैकबोर्ड पर बड़े अक्षरों में लिखा है, बी स्ट्रॉन्ग, स्टैंड अलॉन्ग.... दीवारों पर जहां-तहां दीप्ति के बनाए चित्र हैं। मेरी नज़र फ़िल्म के एक पोस्टर पर ठहर जाती है। यह तसवीर कमला फ़िल्म से है, यह सुनकर दीप्ति से वापस मुख़ातिब होती हूं।)

अमृतसर से अमेरिका, और फिर भारत वापसी कैसा रहा यह सफ़र?
न्यूयॉर्क में कॉलेज ख़त्म करके मैं भारत आने के बारे में सोच रही थी। इस बीच मैंने मैनहट्टन के जीन फ्रैंकल इंस्टीट्यूट के एक्टिंग एंड फ़िल्म मेकिंग कोर्स में एडमिशन ले लिया। कोर्स शुरू किए एक महीना हुआ था कि मुझे भारत आने का मौक़ा मिला। मैं यहां छुट्टियां बिताने के मक़सद से आई थी। लेकिन मेरी दिलचस्पी हिन्दी फ़िल्मों में काम करने की थी, तो सोचा काम भी ढूंढ़ा जाए। इस सिलसिले में मुंबई में मेरी मुलाक़ात श्याम बेनेगल, बासु भट्टाचार्य, गुलज़ार, ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी से हुई। मुझे लेकर सबका रिस्पॉन्स बहुत पॉज़िटिव था। तुम्हें फ़िल्मों में ज़रूर काम करना चाहिए, तुम्हारा चेहरा बहुत फोटोजेनिक है, स्क्रीन पर अच्छी दिखोगी... इस तरह के कमेंट्स मिले तो उम्मीद जगी कि मेरा सपना पूरा होगा।
श्याम बेनेगल की फ़िल्म जुनून से मेरे करियर की शुरुआत हुई। मेरे पास एक्टिंग का कोई अनुभव नहीं था। स्कूल में कभी किसी नाटक में हिस्सा नहीं लिया था। डांस ज़रूर करती थी, लेकिन फ़िल्मों में इसका मौक़ा नहीं मिला। जुनून में दो-तीन दृश्य ही थे, इसलिए मेरी मौजूदगी भी दर्ज नहीं हुई। मेरी असल शुरुआत एक बार फिर से हुई। बड़े इत्तिफ़ाक़ से मिली थी यह फ़िल्म। डायरेक्टर विनोद पांडे फ़िल्म में नए चेहरे लेना चाहते थे। इसके लिए वो लंदन से भारत आए हुए थे। उनकी मुलाक़ात फारुख शेख से हुई। इस बीच मैं फारुख जी से दूरदर्शन में मिल चुकी थी। फारुख जी ने विनोद पांडे से कहा, जैसी हीरोइन की आप तलाश कर रहे हैं, वैसी ही एक लड़की से मैं हाल में मिल चुका हूं। आप उनसे ज़रूर मिलिए। उस वक़्त मैं जुनूनकी शूटिंग कर रही थी। शूट से लौटी तो संदेश मिला कि लंदन से कोई फ़िल्मकार आए हैं और आपको फ़िल्म में लेना चाहते हैं। मैं विनोद पांडे से मिली। हमारी पहली ही मुलाक़ात बहुत सहज रही। मुझसे मिलते ही उन्होंने तय कर लिया था कि उनकी फ़िल्म की हीरोइन मैं बनूंगी। इस तरह मुझे एक बार फिरमें कल्पना का रोल मिला। मेरे काम की बहुत तारीफ़ हुई। सब कहने लगे थे कि इंडस्ट्री में एक ख़ूबसूरत चेहरा आया है। फ़िल्मों में काम के फ़ैसले पर मां-बाप की क्या प्रतिक्रिया थी?
मैं बचपन में अंतर्मुखी स्वभाव की थी। छह साल की थी, तब से ही यह पता था कि मुझे बड़े होकर एक्टर बनना है। लेकिन इस राज़ को घर में किसी से शेयर करने की हिम्मत नहीं थी। न्यूयॉर्क में कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म होने पर मैंने वहां एक रेडियो स्टेशन जॉइन कर लिया, जिस पर हिन्दी कार्यक्रम भी आते थे। मैंने सोचा कि अब मैं अपने मन की बात कर सकती हूं। ग्रेजुएशन में पेंटिंग मेरा मुख्य विषय था। जब मैंने मां-बाप से फ़िल्मों में काम करने की इच्छा ज़ाहिर की तो वो बहुत हैरान-परेशान हुए। उन्होंने कहा, तुम पेंटिंग की पढ़ाई के लिए पेरिस जाना चाहो तो बेशक़ जाओ, लेकिन एक्टर बनने का ख़याल छोड़ दो। दोनों अध्यापक रहे हैं। उन्हें मनाना थोड़ा मुश्किल था। मुझे याद है, जब पहली बार मुंबई से लौटी थी तो पिताजी ने कहा था, एक्टिंग में तुम्हें तब तक काम मिलेगा जब तक तुम अच्छी दिखोगी, लेकिन पेंटिंग आख़िरी वक़्त तक तुम्हारा साथ देगी। अब फ़ैसला तुम्हें करना है। मैंने दोनों काम करने का निश्चय कर लिया। बाद में जब मां-पिताजी ने मुझे फ़िल्मों में देखा तो वो बहुत ख़ुश हुए।
दोनों जगहों के माहौल में बहुत फर्क़ है। ख़ासकर 1970 के दशक में तो बेहद फर्क़ था, सोच में भी और रहन-सहन में भी। कैसे एडजस्ट किया ख़ुद को?
जब भारत आई तो किसी तरह का डर मन में नहीं था। मैं आत्मविश्वास से भरी हुई आत्मनिर्भर लड़की थी। हां, कुछ आशंकाएं थीं लेकिन ख़ुद पर भरोसा था कि अच्छा मुकाम हासिल कर लूंगी। यही सोचकर मैं आगे बढ़ी थी कि जहां कम्फर्ट हुआ वहां काम करूंगी, और जहां माहौल ठीक नहीं लगा वहां न बोल दूंगी। यही सोचकर मैं आगे बढ़ती गई और मुझे ऋषिकेश मुखर्जी, सई परांजपे, गुलज़ार, बासु भट्टाचार्य और जगमोहन मूंदड़ा जैसे नामी लोगों के साथ काम करने का मौक़ा मिला। एक हनीफ़ भाई हुआ करते थे, बहुत अच्छे इंसान थे वो, उनके साथ मैंने दो-तीन फ़िल्में साइन की थीं। दक्षिण की एक फ़िल्म श्रीमान-श्रीमती भी की। अच्छे लोग मिलते गए और मैं काम करती गई।
मैं संरक्षित वातावरण में पली-बढ़ी हूं। अमेरिका में मां-बाप के साथ ही रहती थी। हम भाई-बहनों को बहुत ज़्यादा आज़ादी नहीं मिली हुई थी। रोक-टोक भी थी क्योंकि मां-बाप तो मां-बाप ही होते हैं, वे आसानी से बदलते नहीं। भारत आने पर कल्चरल शॉक नहीं लगा क्योंकि दिल से मैं भारतीय थी।
फ़िल्म इंडस्ट्री से कैसे तालमेल बिठा पाईं? क्या दिक्कतें आईं?
शुरुआत में मुझे काम के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। ब्रेक जल्दी मिल गया था और मेरे अभिनय की तारीफ़ भी होने लगी थी। रोल अच्छे मिलते रहें, संघर्ष उसमें था। अंगूर, चश्मे-बद्दूर, कथा, रंग-बिरंगी’, ‘किसी से न कहना जैसी फ़िल्में करते हुए मैं संतुष्ट थी। व्यस्त होने के कारण मुझे तब सोचने का मौक़ा महीं मिला। लेकिन एक समय ऐसा आया, जब मेरी पांच फ़िल्में दिल्ली इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल में मुकाबले में थीं। उस वक़्त मुझे लगा कि अब सीधे-सादे, प्यारे किरदारों से अलग कुछ करना चाहिए। मैं एक इमेज में बंधकर नहीं रहना चाहती थी। जैसे रोल मैं कर रही थी, उसमें बहुत ज़्यादा ग्रोथ नहीं थी। मैंने सोचा कि अब कुछ कॉम्प्लेक्स रोल करने चाहिए, इसलिए मैंने ब्रेक ले लिया। मुझे याद है कि मैंने 7-8 महीने तक कोई फ़िल्म साइन नहीं की थी। उसके बाद मुझे जगमोहन मूंदड़ा की फ़िल्म कमला मिली, जिसमें मेरा रोल आदिवासी लड़की का था। मेरे लिए यह किसी चैलेंज से कम नहीं था। मुझे शबाना आज़मी, मार्क ज़ुबेर, सईद मिर्ज़ा जैसे थिएटर के मंझे हुए कलाकारों के साथ काम करना था। उस रोल के लिए मुझे होमवर्क करने की ज़रूरत भी पड़ी। एक आदिवासी लड़की कैसे उठेगी, बैठेगी, साड़ी कैसे पकड़ेगी, उसके हाव-भाव कैसे होंगे... ये सब सीखना था। इस पर बहुत मेहनत भी की क्योंकि मुझे साबित करना था कि मैं इन्टेंस रोल भी कर सकती हूं। कमला के लिए मुझे काफी सराहना मिली। 
...और शुरुआती दिनों के कुछ ख़ुशनुमा और यादगार पल?
एक बार फिर की शूटिंग लंदन में हुई थी। मैं न्यूयॉर्क से कॉलेज ख़त्म करके आई थी और लंदन में शूटिंग कर रही थी... यह सोचकर ही बहुत अच्छा लगता था। सब एक-दूसरे से हिले-मिले हुए थे। हममें से कोई स्टार नहीं था। फ़िल्म में कैमरामैन से लेकर एक्टर, डायरेक्टर... सब नए थे, इसलिए हंसते-खेलते काम हो जाता था। किसी को किसी से डर नहीं था। हम कॉलेज की टीम की तरह थे। दिन भर काम करते थे, और शाम को भागकर पिछले दिन के रशेज़ देखने जाते थे। छोटा-सा कमरा था, जहां सीट के लिए जद्दोज़हद चलती थी। कई बार तो खड़े ही रहना पड़ता था। पैक-अप होते ही हम सब पब में चले जाते थे। एक-एक ड्रिंक ऑर्डर करते थे, और फिर कौन-सा शॉट अच्छा हुआ है और किस शॉट में सुधार हो सकता है... इस पर डिस्कशन होता था। उस वक़्त मैं अल्कोहल नहीं लेती थी, सोडा या जूस लेकर बैठी रहती थी। अब कभी-कभार वाइन पी लेती हूं। बहुत ख़ुशनुमा दिन थे वो।
ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों में तो बिल्कुल पिकनिक जैसा माहौल होता था। ऋषि दा और फारुख शेख हमेशा मज़ाक करते रहते थे। ख़ासकर मुझ पर वे ख़ूब तंज कसते। उनकी हर बात में मज़ाक होता था। मैं उन्हें कहती, काश, मैं आपकी सारी लाइनें लिखकर रख पाती तो एक किताब पब्लिश कर लेती; और किताब का नाम होता... द फारुख शेख, ऋषि दा काइंड ऑफ ह्यूमर... एट द कॉस्ट ऑफ दीप्ति नवल।  
ऋषिकेश दा मेरे गॉडफादर की तरह थे। मेरी बड़ी तमन्ना थी कि ऋषि दा के साथ आगे भी काम कर पाती, जिन्होंने गुड्डी, आनंद, अभिमान जैसी फ़िल्में बनाईं। वो मेरे लिए स्टार डायरेक्टर थे। मैं उनके कैंप में रहना चाहती थी। मेरी दिली हसरत थी कि वो अपनी सारी फ़िल्में मुझे लेकर ही बनाते। ऋषि दा मेरा बहुत ख़याल रखते थे, हमेशा हौसला बढ़ाते थे।
निजी ज़िंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं आपने... बहुत सारे ऐसे पल भी रहे हैं जब इमोशनल सेटबैक लगे हैं... कैसे देखती हैं उन सबको?
उतार-चढ़ाव हर किसी की ज़िंदगी में आते हैं। यह मानती हूं कि हम लोग थोड़े ज़्यादा भावुक होते हैं। बहुत मज़बूत नहीं होते और भावनाओं में जल्दी बह जाते हैं। जब कोई इमोशनल चैप्टर सामने होता है तो हमारे करियर पर इसका असर दिखने लगता है। अब सोचती हूं तो लगता है कि अपने करियर या जीवन पर उन सब बातों का असर नहीं होने देना चाहिए था। जैसे पुरुष अपना रूटीन, अपना काम बरक़रार रखते हैं, वैसे हम औरतों को भी रखना चाहिए, भावनाओं में बहकर अपने काम को डांवाडोल नहीं होने देना चाहिए। इन सब बातों की वजह से मेरे काम पर बहुत असर पड़ा है, लेकिन ज़िंदगी तो चलती ही है, और हम जैसे-तैसे पटरी पर वापस लौट ही आते हैं। मैंने जीवन में एक सबक सीखा है कि अगर आप कामकाजी महिला हैं तो अपने काम के साथ कभी समझौता न करें। आपका काम ही है जो आख़िरी समय तक आपका साथ देने वाला है। भावनात्मक रूप से आप भले ही अस्थिर हो जाएं, लेकिन कोशिश करनी चाहिए कि आपका काम प्रभावित न हो।
ज़िंदगी में क्या भूमिका रही है उन अप्स एंड डाउन्स की?
निजी ज़िंदगी और मेरे काम का ताल्लुक बहुत गहरा है। जीवन के उतार-चढ़ावों ने ही मुझे मेरा काम सिखाया है। किसी किरदार को कैसे निभाना है- यह मैंने निजी अनुभवों से सीखा है। मेरे पास कोई और तकनीक ही नहीं है, सिवाय इसके कि मैं निजी ज़िंदगी के सदमों, उथल-पुथल, ग़म या ख़ुशियों से सीखती हुई आगे बढ़ूं। मैंने अपने किरदारों को ईमानदारी से निभाने की कोशिश की है, और इसकी प्रेरणा हमेशा अपने जीवन से ली है। न फ़िल्मों से कुछ सीखा है, न दूसरे एक्टर्स की नकल करके... सिर्फ़ अपने तरीके से काम करते हुए आगे बढ़ी हूं।
मैं जैसी हूं, पर्दे पर भी वैसी ही दिखने की कोशिश करती रही हूं। मेरा एक ही लक्ष्य होता था कि लोग मेरे साथ रिलेट कर पाएं, और जो मैं महसूस कर रही हूं दर्शक भी वही महसूस करें। एक ही डर था कि मेरी कोई परफॉर्मेन्स लोगों को बिना छुए न निकल जाए।  
आज की फ़िल्म इंडस्ट्री पर कुछ कहना हो तो क्या कहेंगी?
कभी-कभी सुनकर उत्साहित हो जाती हूं कि बर्फ़ी जैसी कोई फ़िल्म आई है, और लोग उसे बहुत पसंद कर रहे हैं। कहानीऔर डर्टी पिक्चर जैसी फ़िल्में भी बन रही हैं। या इससे पहले वो सारी फ़िल्में जो आमिर खान, शाहरुख, ऋतिक रोशन, संजय लीला भंसाली, प्रकाश झा ने बनाईं, और अनुराग कश्यप की देव डी, मेरी पसंदीदा हैं। लेकिन इसके बावजूद आज के सिनेमा में एक ख़ालीपन है। हाल ही राजेश खन्ना का देहांत हुआ, और कई दिन तक उनकी फ़िल्में और गाने टेलीविज़न पर चलते रहे, तब महसूस हुआ कि कितनी गहनता होती थी हर इमोशन में, हर गाने में, हर विषय में...। अब वो नहीं दिखती। उस गहराई को मैं मिस करती हूं।
अच्छी बात यह है कि आज फ़िल्मों में आने वाले कलाकार पहले से ही प्रशिक्षित हैं। लोगों के टेलेंट को आगे लाने के भरपूर मौक़े भी दिए जा रहे हैं। सारेगामा, इंडियन आयडल या डांस इंडिया डांस जैसे कार्यक्रम बेहतरीन पायदान हैं प्रतिभा से भरे लोगों के लिए। हमारे समय में यह सब नहीं था। अब लोग खुलकर सामने आते हैं, घर से भागकर या झगड़ा करके नहीं। फ़िल्मों को अच्छी निगाह से देखा जाने लगा है। यह मान लिया गया है कि अगर पैसा और शोहरत चाहिए तो शो बिज़नेस में आ जाओ।
आपको कोई फ़िल्म फिर से बनाने को कहा जाए तो कौन-सी फ़िल्म बनाएंगी, और क्यों?
अपनी फ़िल्मों की बात करूं तो एक फ़िल्म थी, पंचवटी... जो कब आई, कब चली गई, पता नहीं चला। यह अपने समय से आगे की फ़िल्म थी, बल्कि कहूंगी कि आज के ज़माने की फ़िल्म थी। इसमें औरत की शक्ति को बड़े शांत, सहज ढंग से दिखाया गया था। हालांकि अब उम्र हो चुकी है, लेकिन इच्छा है कि मुझे ऐसी कोई फ़िल्म फिर से करने का मौक़ा मिले। इसके अलावा एक बार फिर में दोबारा काम करना चाहती हूं। मुझे लगता है कि उस वक़्त मुझे एक्टिंग नहीं आती थी। अब कल्पना के किरदार को शायद बेहतर ढंग से निभा पाऊंगी।
और ऐसा कौन-सा रोल है जो आज भी करना चाहेंगी?
उमराव जान का। मुझे कत्थक का बहुत शौक़ है और मैं नृत्य करते-करते बड़ी हुई हूं। गाइड, और संगम जैसी फ़िल्में भी करना चाहूंगी, जिनकी कहानी और किरदारों में दम हो। गुरुदत्त या फिर बिमल रॉय की बंदिनी, और सुजाता जैसी फ़िल्में मिल जाएं तो भला एक कलाकार को और क्या चाहिए! 
पुराने वक़्त के सह-कलाकारों के साथ कैसा रिश्ता है? बात होती है? होती है तो पुराने दिनों की चर्चा होती है या मौजूदा हालात पर?
फ़िल्म इंडस्ट्री का चलन ऐसा है कि जिसके साथ आप काम कर रहे होते हैं, उसी से बात होती है। लेकिन हाल ही मैंने फारुख शेख के साथ फिर से एक फ़िल्म की है, जिसका नाम है लिसन अमाया। शूटिंग के दौरान हमें मिलने, बैठने और गपशप का मौक़ा मिला। कई पुरानी यादें ताज़ा कीं हमने। अपने दौर के उन कलाकारों के बारे में भी बातचीत की, जिनमें से कई अब इस दुनिया में नहीं हैं।
मुझे नसीरूद्दीन शाह के साथ काम करना बहुत पसंद है। इसके अलावा हाल में सुधीर मिश्रा के साथ एक फ़िल्म काम की है। पुराने सह-कलाकारों या निर्देशकों के साथ काम करने में तसल्ली होती है। ज़्यादातर बातें पुराने वक़्त से ही जुड़ी होती हैं। जो वक़्त हमने गुज़ारा है, उसे हम सब शिद्दत से याद करते हैं। उस वक़्त से हम सबका लगाव है, और हम उसकी क़द्र करते हैं। रही आज के दौर की बात, तो वो इतना बदल चुका है कि उस पर क्या बात की जाए।
कौन-सा ऐसा सपना है, जो अभी तक पूरा नहीं हुआ?
सूची बहुत लंबी है लेकिन फिलहाल मेरे पास तीन-चार स्क्रिप्ट्स हैं, जिन पर फ़िल्में बनाना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि जो विषय मेरे पास हैं, वो दुनिया के सामने आएं। दूसरी इच्छा है कि बतौर डायरेक्टर जो मेरी फ़िल्म है, दो पैसे की धूप, चार आने की बारिश, वो ढंग से रिलीज़ हो जाए। लोग न सिर्फ़ मेरा बल्कि मेरे एक्टर्स, टेक्नीशियन्स, संगीतकार और गायकों का काम भी देख सकें। फाइनेंसरों की वजह से फ़िल्म का एक भी क़दम आगे उठाना मुश्किल हो रहा है, लेकिन उम्मीद है कि हम इस अड़चन से जल्दी पार पा लेंगे।
दो पैसे की धूप, चार आने की बारिश किस तरह की फ़िल्म है?
इस फ़िल्म का कथानक काफी अलग है। एक सेक्स वर्कर है, जो बूढ़ी है। उसका एक विकलांग बच्चा है। सेक्स वर्कर एक संघर्षशील गीतकार से मिलती है जो समलैंगिक है। इन तीनों में जो संबंध बनता है, वही कहानी का केंद्र है। सेक्स वर्कर का किरदार मनीषा कोइराला ने निभाया है। 
परिवार में कौन-कौन है?
मां-बाप हैं। भाई-बहन और उनके बच्चे हैं। सब अमेरिका में रहते हैं। मैं यहां मुंबई में अकेली रहती हूं। जब भी उनसे मिलने का मन होता है तो चली जाती हूं। आजकल मां मेरे पास आई हुई हैं। मां-बाप अब बूढ़े हो रहे हैं, इसलिए मैं न्यूयॉर्क जाकर उनके साथ ज़्यादा-से-ज़्यादा समय बिताने की कोशिश करती हूं।
आपकी एक बेटी है। कितनी बड़ी है, क्या करती है वो? उसे लेकर क्या सोचा है?
मेरी बेटी दिशा झा 23 साल की है। वो लोखंडवाला में रहती है। अपने बाबा प्रकाश झा के प्रोडक्शन हाउस में काम सीखती है। काम करती भी है और उसे बाक़ायदा तनख़्वाह मिलती है। उसकी दिलचस्पी प्रोडक्शन में है, भविष्य में शायद फ़िल्में बनाए। प्रकाश जी और मैंने उसे अपना करियर चुनने की पूरी छूट दे रखी है। हम उस पर अपने फ़ैसले नहीं थोपते हैं।
मैं और दिशा एक-दूसरे से बहुत अटैच्ड हैं। कोई बात हो तो उसका तुरंत फोन आ जाता है। मेरी कोई समस्या हो तो उसे फोन करके बताती हूं। और वो मुझे अच्छी सलाह देती है।
फ़िल्म इंडस्ट्री में किसे अपना दोस्त मानती हैं?
मनीषा कोइराला को। हम दोनों ने नेपाल के रास्ते पैदल चलते हुए तिब्बत जाने के बारे में सोचा है। हालांकि वो हर बार यह कह देती है कि हम पैदल नहीं, हेलीकॉप्टर से वहां जाएंगे।
डिम्पल कपाड़िया भी अच्छी दोस्त है। लीलामें डिम्पल के साथ काम करने में बहुत मज़ा आया। नानी बनने के बाद वो मसरूफ़ हो गई है। केतन मेहता, मीता वशिष्ठ, सुधीर मिश्रा और नंदिता दास भी इंडस्ट्री के अच्छे दोस्तों में से हैं। 
ख़ाली वक़्त में क्या करती हैं?
काश, ख़ाली वक़्त होता! पेंटिंग, लिखने-पढ़ने और फोटोग्राफी में सारा वक़्त निकल जाता है। इनमें से कुछ नहीं कर रही होती तो फ़िल्में देखती हूं। ख़ाली वक़्त में मुंबई में नहीं रहती, घूमने निकल जाती हूं। मेरा ज़्यादातर खर्च किताबों और घूमने-फिरने पर होता है। 
पेंटिंग और फोटोग्राफी की शुरुआत कैसे हुई?
पेंटिंग का हुनर विरासत में मिला है। मेरी मां पेंटर हैं। उन्होंने मुझे पेंटिंग की बारीक़ियों से रू-ब-रू कराया। उनके कहने पर ही मैंने पेंटिंग की पढ़ाई के बारे में सोचा। मां-पिताजी चाहते थे कि बी.ए. करने के बाद मैं पेरिस जाकर पेंटिंग की पढ़ाई करूं और इसे ही अपना करियर बनाऊं।
एक बार मुझे सर्दियों में लेह जाने की सूझी। वहां पहुंची तो देखा कि भयंकर ठंड के कारण रेस्तरां, होटल, दुकानें... सबकुछ बंद है। दिल्ली से मैं कैमरे के कुछ रोल अपने साथ लेकर चली थी। लेह के बाहर छोटे-से गांव में मुझे एक लद्दाखी के घर रहने की जगह मिल गई। उन्होंने मेरी बहुत आवभगत की। खाने में सूखे राजमाह और दो रोटियां मिल जाती थीं, जिन्हें मैं कोट की जेब में रखती और बाहर निकल जाती। मैं वहां 13 दिन रही और उस दौरान ख़ूब पैदल घूमी। सिंधु नदी के किनारे बेमक़सद भटकना, दूर-दराज़ के गांवों में जाना और फ़ोटो खींचना... यही मेरी दिनचर्या थी। मुंबई लौटकर फोटो से भरे वो पांच रोल लेकर कलर आर्ट वाले मुकुंद भाई के पास गई। उन्होंने हैरत से पूछा, ये सब तस्वीरें तुमने खींची हैं?’ शौक़ पहले से था, लेकिन मुकुंद भाई की बात सुन मैं फोटोग्राफी को लेकर संजीदा हो गई।
आपका साहित्य से काफी लगाव है। तीन किताबें लिख चुकी हैं। उनके बारे में बताएं।
पहली किताब नज़्मों की है... लम्हा-लम्हा’, जिसका अगला संस्करण जल्द आने वाला है। मेरी दूसरी किताब का नाम है, ब्लैक विंड एंड अदर पोएम्स, यह 2004 में प्रकाशित हुई थी। 2011 में लघु कथाओं का एक संग्रह प्रकाशित हुआ है, द मैड तिब्बेतन... स्टोरीज़ फ्रॉम दैन एंड नाऊ। चौथी किताब पर काम कर रही हूं। इस कविता-संग्रह का नाम द रिवर एंड आई है।
पसंदीदा जगह कौन सी है?
मेरी पसंदीदा जगह पहाड़ हैं। हिमाचल और लद्दाख के पहाड़ों में अक़्सर घूमती हूं। मुंबई से ही गाड़ी चलाकर जाती हूं। लॉन्ग ड्राइव्स पर जाना अच्छा लगता है। सो, मौक़ा मिलते ही पहाड़ों का रुख़ कर लेती हूं।
कोई अधूरी ख़्वाहिश?
मुझे गुरुदत्त और बिमल रॉय के समय में पैदा होना चाहिए था। मेरी मानसिक बुनावट, मेरी फितरत उस समय के सिनेमा में काम करने की रही है। मैं ख़ुद को ख़ुशकिस्मत मानती अगर उस वक़्त के सिनेमा का हिस्सा बन पाती। वैसे दौर की फ़िल्में न तो हमारे वक़्त में बनीं, और न ही बाद में। अब सिनेमा का कायापलट हो चुका है। मैं अगर नूतन, मीना कुमारी, नर्गिस या मधुबाला की तरह कुछ हासिल कर पाती तो लगता कि मैंने कुछ पाया है।
पसंदीदा किताबें कौन-सी हैं?
आत्मकथाएं पढ़ना बहुत पसंद है। राइनेर मारिया रिल्के को पढ़ना अच्छा लगता है, उनके लिखने का तरीका बहुत पारदर्शी है। वॉन गॉग की आत्मकथालस्ट फॉर लाइफ मेरी पसंदीदा किताबों में से है।
बचपन की कोई ख़ास याद?
मेरे पिताजी का पहाड़ों से ख़ास लगाव रहा है। बचपन में हर साल गर्मी की छुट्टियों में पिताजी हमें अमृतसर से कुल्लू-मनाली घुमाने ले जाते थे। मनाली से आगे हम एक कॉटेज किराए पर लेते, जिसके चारों तरफ़ सेब के पेड़ थे। पिताजी को लिखने का शौक़ था और मां को पेंटिंग का। पिताजी पहाड़ों में घूमते, लिखते; मां चित्र बनाती; और हम बच्चे मस्ती करते। नाश्ते में हम सेब खाते, दोपहर में भी सेब और डिनर में भी। खाने में कभी सेब की सब्ज़ी होती, कभी सलाद तो कभी उबले हुए सेब। 

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के विशेष वार्षिक अंक, 2012 में प्रकाशित)
 

Saturday, November 24, 2012

21वें जन्मदिन पर मिली पहली फ़िल्म-नफ़ीसा अली

मैं राष्ट्रीय स्तर पर स्विमिंग चैम्पियन रही थी। फिर 1976 में मैंने मिस इंडिया का ख़िताब जीता। मैं 16 साल की थी जब राज कपूर ने मुझे फ़िल्म हिना में काम करने का ऑफर दिया। लेकिन वो फ़िल्म मैं नहीं कर पाई। मेरी शुरुआत श्याम बेनेगल की फ़िल्म जुनूनसे हुई। शशि कपूर के बेटे ने बताया कि श्याम बेनेगल अपनी फ़िल्म के लिए एक नया चेहरा ढूंढ रहे हैं। वो मेरी तसवीर लेकर श्याम बेनेगल के पास गए, हालांकि सिनेमा में मेरी दिलचस्पी नहीं थी। श्याम बेनेगल ने तसवीर देखकर मुझे फ़ोन किया और मिलने के लिए मुंबई बुलाया। उस दिन मेरा 21वां जन्मदिन था, जब मैं उनसे मुंबई में मिली। उन्होंने फ़ौरन हां कर दी। मुझे ख़ुशी थी कि एक बुद्धिजीवी और सुलझे हुए निर्देशक के साथ काम करने का मौक़ा मिल रहा है। जुनून के प्रोड्यूसर शशि कपूर थे। उनकी पत्नी जेनिफर कपूर भी फ़िल्म में काम कर रही थीं। कपूर ख़ानदान की किसी फ़िल्म से जुड़ना अच्छा अनुभव था। इसके अलावा शबाना आज़मी, दीप्ति नवल, नसीरूद्दीन शाह, टॉम अल्टर जैसे मंझे हुए अभिनेताओं के साथ काम करने का बहुत मज़ा आया। मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।
जुनून की शूटिंग के दौरान मेरी मुलाक़ात कर्नल सोढ़ी से हुई और हम विवाह-बंधन में बंध गए। शादी के बाद मैंने फ़िल्मों से ब्रेक ले लिया। ब्रेक के बाद क्षत्रिय, मेजर सा, लाइफ इन ए मेट्रो, लाहौर, ग़ुज़ारिश और यमला पगला दीवाना जैसी फ़िल्में कीं। फ़िल्में मेरी प्राथमिकता कभी नहीं रहीं, इसीलिए गिनी-चुनी फ़िल्मों में ही काम किया। फ़िल्मों में काम करते रहने का एक मक़सद यह भी रहा कि मैं अपने बच्चों, ख़ासकर अपनी बेटियों को बताना चाहती थी कि अच्छा और अर्थपूर्ण सिनेमा आज भी बन रहा है। फिलहाल मेरा पूरा ध्यान परिवार और सामाजिक कार्यों पर है। 
-नफ़ीसा अली से बातचीत पर आधारित 

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 25 नवम्बर 2012 को प्रकाशित)

Friday, November 23, 2012

शुरुआत में मिला रहमान का साथ-कुणाल गांजावाला

अपना फर्स्ट ब्रेक मैं उस गाने को कहूंगा जिस गाने से मुझे फिल्म उद्योग में अच्छी पहचान मिली। ए.आर. रहमान ने मुझे साथिया फ़िल्म में ओ हमदम सुनियो रे गाने का मौक़ा दिया था। हालांकि, मैं इससे पहले भी कुछ गीत गा चुका था। पार्श्वगायिका पूर्णिमा ने मुझे साल 1992 में एक कॉलेज प्रतियोगिता में गाते हुए सुना था, वहां से वे मुझे अनु मलिक तथा आनंद-मिलिंद से मिलाने ले गईं। फिर पूर्णिमा ने मेरी मुलाक़ात संगीतकार रंजीत बरोट से कराई। मुझे विज्ञापनों में जिंगल और फ़िल्मों में गाने का काम मिलने लगा।
रंजीत जी ने ही मुझे ए.आर. रहमान से मिलवाया। उन्होंने रहमान जी से कहा, यह लड़का अच्छा और अलग गाता है, आपको इसकी आवाज़ ज़रूर इस्तेमाल करनी चाहिए। रहमान साहब ने मुझे पहले तमिल फ़िल्मों में गाने का मौक़ा दिया, फिर हिन्दी फ़िल्म लकीर में गवाया। इस बीच राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्म उफ्फ, क्या जादू मोहब्बत है में चार गाने मिले। यह फ़िल्म साथिया से पहले रिलीज़ हुई थी। हालांकि फ़िल्म नहीं चली लेकिन मेरे गायकी के करियर को आगे बढ़ाने में इसका काफी योगदान रहा।
रहमान साहब के साथ ओ हमदम सुनियो रे रिकॉर्ड करने में काफी मज़ा आया। उन्होंने मेरी बहुत हौसलाअफ़ज़ाई की। गाने की रिकॉर्डिंग के लिए मैं चेन्नई जा रहा था। एयरपोर्ट पर आशा भोसले मिलीं, जो साथियाफ़िल्म का ही एक गाना गाकर वहां से लौट रहीं थीं। उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया। गाना गुलज़ार साहब का लिखा था, उन्होंने भी मुझे आशीर्वाद दिया था। गाना हिट हुआ और इसके बाद कई ऑफर आने लगे। मैं ख़ुशनसीब हूं कि करियर के शुरुआती दिनों में मुझे बेहतरीन लोगों के साथ काम करने का मौक़ा मिला। ओ हमदम सुनियो रेके बाद अनु मलिक ने भीगे होंठ तेरे गाना गवाया। इस गाने ने तो मुझे स्टार ही बना दिया। आज भी किसी कन्सर्ट में गाता हूं तो लोग सबसे पहले इसी गाने की फ़रमाइश करते हैं। 
-कुणाल गांजावाला से बातचीपर आधारित

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 18 नवम्बर 2012 को प्रकाशित)

Friday, November 16, 2012

औरत की आज़ादी के मायने

आज़ादी, स्वतंत्रता, फ्रीडम... कानों में इन शब्दों के पड़ते ही एक सुखद, प्यारा-सा अहसास मन को हर्षाने लगता है। ये शब्द उस अनुभूति को परिलक्षित करते हैं जो संसार के हर इंसान को प्यारी है। क्या है यह आज़ादी, क्यों है यह इतनी प्रिय हर किसी को? और आज़ादी में भी अगर हम ख़ासकर औरतों की आज़ादी की बात करें तो क्या इसके मायने बदल जाते हैं? आज़ादी अपने-आप में एक संपूर्णता लिए हुए है, तो फिर स्त्रियों की आज़ादी की बात कहां से निकलकर आई? क्या है स्त्रियों की आज़ादी? क्या ज़रूरी है स्त्रियों की आज़ादी? और है तो, कितनी ज़रूरी है यह आज़ादी? 
उन्मुक्त आकाश में किसी आज़ाद परिंदे की परवाज़ देखिए... उससे पूछिए आज़ादी के मायने। या पिंजरे में बंद पंछी से मिलिए, उसके पंखों का संकुचन देखिए... और उससे पूछिए आज़ादी के मायने। स्वच्छंद वातावरण में रह रहे इंसान के लिए व्यापक अर्थों में आज़ादी के वही मायने होंगे, जो किसी सज़ायाफ़्ता क़ैदी के लिए हैं। पर स्वतंत्रता का अर्थ, इसकी परिभाषा सबके लिए समान नहीं है। हर इंसान के लिए स्वतंत्रता की विवेचना अलग है, उसकी प्राथमिकताएं अलग हैं। एक बच्चे के लिए आज़ादी का मतलब दिन भर खेलना-कूदना है। किसी युवा के लिए जीवन का हर फ़ैसला ख़ुद लेना आज़ादी हो सकता है तो प्रौढ़ के लिए आत्मनिर्भर बने रहना आज़ादी है। 
इसी तरह किसी पुरुष और स्त्री के लिए भी स्वतंत्रता के अर्थ भिन्न हैं। अर्थों में यह अंतर किसी व्यक्ति विशेष सोच, हालात और परवरिश के आधार पर तो है ही, कुदरती तौर पर भी है। हमारे हॉरमोन यह तय करते हैं कि हम क्या सोचते हैं, किस स्थिति में कैसे रिएक्ट करते हैं। महिलाओं के विशिष्ट हॉरमोन उन्हें भावुक बनाते हैं और यह भावुकता उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी, क्रियाकलापों और फ़ैसलों में साफ़ झलकती है। वहीं पुरुष-विशेष हॉरमोन उन्हें ज़्यादा व्यावहारिक तथा भावनात्मक रूप से कड़ा बनाते हैं और उन्हें अपने फ़ैसलों के हर असर को तार्किक ढंग से झेलने में ज़्यादा सक्षम बनाते हैं। तो क्या दोनों के बीच यह प्राकृतिक भेद ही उनकी स्वतंत्रता की सीमाएं तय करता रहा है? क्या चिर-पुरातन समय से चला आ रहा यह विभेद असल में परिवारों के सहज अस्तित्व को और महिलाओं को भावनात्मक ठेस से बचाए रखने के लिए था, जो कालांतर में पुरुषों की वर्चस्ववादी मानसिकता के चलते भौंडी शक़्ल अख़्तियार करता गया और महिलाओं के लिए पिंजरे में बंद पंछी के जैसी छटपटाहट का सबब बनता गया? क्या यह फर्क़ धीरे-धीरे महिलाओं को दोयम दर्जे का समझकर उनकी उपेक्षा का आधार बनता चला गया? 
क्या वाकई उपेक्षित है स्त्री?
द सैकेंड सेक्स जैसी महत्वपूर्ण किताब लिखने वाली फ्रेंच लेखिका और दार्शनिक सिमोन द बोवुआ कहती हैं, आज जो स्त्रियां हमारे पद्चिन्हों पर चल रही हैं, वे लिटिल लॉयर, लिटिल ये, लिटिल वो बन रही हैं। वे कहती हैं कि एक स्त्री के लिए इतना ही बहुत है। वे और आगे जाने की कोशिश नहीं करतीं, अपने क्षेत्र में बेमिसाल होने की कोशिश... वे एक अपराध-बोध महसूस करती हैं। करियर कभी भी एक ठोस अस्तित्व वाली चीज़ नहीं होती। हमेशा यह दुविधा होती है। क्या मैं एक करियर अपनाऊं? क्या मैं घर में रहकर परिवार की देखभाल करूं? पुरुषों के लिए ऐसा कोई सवाल नहीं उठता। उनके सामने कोई दो रास्ते नहीं होते। उन्हें कोई करियर अपनाना ही होता है, उसके लिए तैयारी करनी होती है, अपने आपको पूरी लगन और मेहनत से उसमें लगाना होता है। स्त्रियां अपने आपमें ही अलग-अलग मान्यताओं में बंटी हुई हैं। फिर समाज भी उन्हें निरुत्साहित करना चाहता है। अगर वे स्वतंत्रता और किसी करियर का चुनाव करती हैं तो उन्हें एडवेंचरस या ऐसा ही कोई नाम दे दिया जाता है।
इसलिए लाज़िमी है स्त्रियों की आज़ादी
एक बेहतर दुनिया के लिए, बेहतर परिवार के लिए, अगली पीढ़ी की बेहतर परवरिश और भविष्य के लिए... कुल मिलाकर एक बेहतर जीवन के लिए ज़रूरी है कि औरत और पुरुष के अधिकारों में कोई फर्क़ नहीं समझा जाए; और इस अधिकार में सबसे पहला है- जीवन को एक इंसान के रूप में जीने का अधिकार। शारीरिक रूप से कमतर होने का अर्थ यह नहीं कि स्त्री को दबाकर रखा जाए। स्त्री, पुरुष की दासी नहीं साथी है। कुदरती विभेदों के चलते दोनों के कार्य, दोनों के उत्तरदायित्व अलग-अलग हैं, यह बात हमें समझनी ही होगी... लेकिन अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए जिस तरह पुरुष को जो सुविधाएं, जो अवसर मिलते हैं, वो किसी स्त्री से छीनकर उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वो अपनी ज़िम्मेदारियों को सही और न्यायोचित तरीके से निभाए। किसी भी स्त्री की सबसे बड़ी भूमिका एक मां की है, और देखा जाए तो बेहद ईश्वरीय भूमिका है यह- एक बच्चे को जन्म देकर ईश्वर के एक अंश जैसा दर्जा पा जाना। एक स्त्री अपनी उस भूमिका को बेहतरीन तरीके से अंजाम दे पाए, अपनी संतान को बेहतर संस्कार देकर उसे एक अच्छा इंसान बना पाए, इसके लिए बेहद ज़रूरी है कि उसकी सोच पर कोई बंधन न हो। वो पढ़ी-लिखी है, उन व्यक्तिगत फ़ैसलों को वे खुद ले पा रही है जो परिवार के सामूहिक फैसलों से अलग हैं, हर बात या हर फ़ैसले के लिए वो पुरुष का मुंह नहीं ताकती है... तभी वो अपनी औलाद को सक्षम बना पाएगी। 
महीन रेखा है स्वतंत्रता और स्वछंदता के बीच
स्त्रियों की आज़ादी पर किसी भी बहस में पड़ने से पहले यह तय करना ज़रूरी है कि हम स्वच्छंदता की बात कर रहे हैं या स्वतंत्रता की। स्वतंत्रता सोच के स्तर पर आती है, स्वछंदता आचार-व्यवहार के स्तर पर। किसी भी समाज में, किसी भी समुदाय के अपने नियम और सीमाएं होती हैं, जो उस समाज या समुदाय के अस्तित्व के लिए प्राणवायु हैं। उसके लिए सीमाएं तय हैं- पुरुषों के लिए और स्त्रियों के लिए भी। स्वछंदता और स्वतंत्रता में महीन अंतर है। हमें यह अंतर पहचानना होगा, और यह भी ख़याल रखना होगा कि आज़ादी किसी मोड़ पर उच्छृंखलता तो नहीं बनती जा रही। अक्सर पुरुषों के साथ बराबरी करने की धुन में हम यह ख़याल नहीं रखते कि जो पुरुष कर रहा है वो सही भी है कि नहीं। किसी महिला के लिए पुरुष की हर ग़लत या अनैतिक बात की नकल करना स्वतंत्रता कतई नहीं है, बल्कि वो तो सबसे बड़ी ग़ुलामी का सूचक है। जो पुरुष कर रहा है, उसे हम भी आंख मूंदकर कर रहे हैं, तो फिर हमारी अपनी स्वतंत्र सोच कहां गई? अगर हम महिला-आज़ादी के उन नारों के पीछे लगकर कोई भी रास्ता अपना रहे हैं, जिनमें पुरुष कर सकता है तो हमें किसने रोका है की बात होती है, तो भी हम ग़ुलाम हैं। जबकि बड़ी लड़ाई इसी मोर्चे पर है कि महिलाओं को सोचने की आज़ादी मिले, वो अपना भला-बुरा सोच सकें, अपनी परिवार की बेहतरी के लिए फ़ैसले ले सकें, परिवार के फ़ैसलों में अपनी सकारात्मक राय दे सकें, कोई बात ग़लत हो रही हो तो उसका तार्किक ढंग से विरोध कर सकें।
यह सोचती हैं आज की स्त्रियां
मेघना अश्चित फ़िल्म एडिटर और लाइफ कोच हैं। मेघना का कहना है, हमारे समाज में लड़के-लड़की की परवरिश में शुरू से भेदभाव होता आया है, और आज भी हो रहा है। जब हमारे कानून में लड़का-लड़की के बीच अंतर नहीं समझा गया है तो फिर समाज के अपने क़ायदे क्योंकर हैं? मसलन, पहले लड़की की शादी हो जाने पर पैतृक संपत्ति पर उसका हक़ ख़त्म मान लिया जाता था और सारी जायदाद पर भाई का अधिकार हो जाता था। लेकिन अब भाई-बहन दोनों कानूनी रूप से पैतृक संपत्ति में बराबर के हक़दार हैं। बहन चाहे तो स्वेच्छा से अपना अधिकार छोड़ सकती है। लेकिन लड़की से आज भी यही अपेक्षा रखी जाती है कि शादी के बाद वो पैतृक संपत्ति से अपना हिस्सा नहीं मांगेगी। बहुत-से मां-बाप यह सोचते हैं कि बेटे को डॉक्टरी कराएंगे और बेटी को ग्रेजुएशन करा देंगे क्योंकि उसे शादी करके पराये घर जाना है। मेरे मां-बाप ने मुंबई जैसे शहर में मुझे एक ऐसी इंडस्ट्री में काम करने के लिए भेजा, जिसे बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता, ख़ासकर उत्तरी भारत में। अगर मैं लड़का होती तो मेरे पेरेंट्स पर वो दबाव नहीं आते, जो शुरुआत में समाज या रिश्तेदारों की ओर से आए। मैं आत्मनिर्भर बनने के लिए मुंबई आई थी। लेकिन आज यदि चाहूं कि मैं गोरखपुर, अपने घर जाकर खेत-खलिहान संभालूं, खेती करके अपनी रोज़ी-रोटी चलाऊं तो सामाजिक, वैचारिक तौर पर यह कितना मान्य होगा, कहना मुश्किल है।
मेघना आगे कहती हैं- मेरे लिए आज़ादी के मायने यह हैं कि सामाजिक रूप से मेरी जाति या वर्ण को लेकर कोई  भेदभाव न किया जाए। दिखने में मैं गोरी या सुंदर न होऊं, पर मैं आत्मविश्वास से भरी हूं। मुझे ख़ुद पर भरोसा है और मैं जानती हूं कि मैं एक अच्छी इंसान हूं। मैं चाहती हूं कि अपने जीवन को, अपने ढंग से, ईमानदारी से जी सकूं। लेकिन लड़कियों को अक्सर अपनी स्वाभाविक अभिव्यक्ति को रोकना पड़ता है। हम पर अक्सर सामाजिक दबाव होता है कि हम अपनी चीज़ों को अपने ढंग से नहीं कर सकतीं। मेरी जीवनशैली ऐसी है कि मुझे देर रात तक काम करना पड़ता है। लेकिन देर रात तक घर से बाहर रहने वाली लड़कियों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता। हमारे समाज में जब तक सोच के स्तर पर स्वतंत्रता नहीं आएगी, तब तक हम सही मायनों में स्वतंत्र नहीं हो सकते। 
टेलीविज़न कलाकार बीना भट्ट मानती हैं कि ज़माना काफी बदला है जैसी आज़ादी पुरुषों को दी जाती रही है, वही आज़ादी अब स्त्रियों को भी मिलने लगी है। हालांकि, वो ये भी मानती हैं कि अब भी कहीं-न-कहीं कुछ रोक, कुछ अड़चनें ज़रूर हैं। वो कहती हैं- लड़कियों को पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। किसी तरह का संशय नहीं होना चाहिए, क्योंकि औरत जानती है कि वो स्त्री है और उसे किस दायरे में रहना है। वो अपनी रक्षा ख़ुद करना जानती है। मुझे अपने परिवार में हमेशा स्वतन्त्र माहौल मिला है। हम चार बहनें हैं, और पापा को हम पर फ़ख्र है। हालांकि हमारे रिश्तेदार यह कहते रहे कि चार-चार बेटियों को किस तरह पढ़ाओगे, उनके करियर का क्या होगा, शादी कैसे होगी... पर मेरी मां इतनी साहसी हैं कि उन्होंने अपनी बेटियों के लिए वो जगह ही छोड़ दी ताकि हम पर किसी तरह का नकारात्मक असर न पड़े। एक औरत होते हुए उन्होंने इतनी हिम्मत दिखाई कि हम सब उनके कायल हैं। मैं अपने सपनों को पूरा कर पा रही हूं इसलिए मैं आज़ाद हूं। मुझे मौक़ा मिला है आगे बढ़ने का, कुछ कर दिखाने का, तो ज़ाहिर है कि मैं इस मौक़े का ग़लत फ़ायदा नहीं उठाऊंगी। मैं या मेरी बहनें ऐसा कोई काम नहीं करेंगी, जिससे मां-बाप के नाम पर बट्टा लगे। एक स्त्री होने के नाते मैं यही कहूंगी कि ख़ुद को कमतर न समझिए। आत्मसम्मान बेहद ज़रूरी है। अगर आप अपना सम्मान करेंगी त ही सामने वाला भी आपका सम्मान करेगा। आप ख़ुद को पहचानेंगी, तो लोग भी आपको पहचानने की कोशिश करेंगे। कहते हैं कि हर सफ़ल आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है। कितना अच्छा हो, अगर कभी हम यह भी सुनें कि हर सफ़ल औरत के पीछे एक आदमी का हाथ है। 
दिल्ली पब्लिक स्कूल में 11वीं में पढ़ रहीं अकीक्षा शर्मा आज़ाद-ख़याल लड़की हैं। इसका सारा क्रेडिट वो अपनी परवरिश को देती हैं। अकीक्षा ख़ासतौर से अपनी मां का शुक्रिया अदा करती हैं। वे कहती हैं- मां को मुझ पर पूरा भरोसा है और मुझे यह भरोसा हर हाल में क़ायम रखना है। कभी-कभार लगता है कि मुझे थोड़ी और आज़ादी मिलनी चाहिए। जैसे, मैं जब चाहूं, अपने दोस्तों से फ़ोन पर बात कर सकूं या जब चाहूं, जहां चाहूं, घूमने जा सकूं। लेकिन आज़ादी की कोई सीमा नहीं है। मेरे लिए अहम यह है कि मैं मां-बाप से खुलकर बात कर पाती हूं, ख़ुद को एक्सप्रेस कर पाती हूं। अपने बाकी दोस्तों के मुक़ाबले मुझे काफी छूट मिली हुई है। लेकिन साथ ही साथ मुझे अपनी लिमिट्स भी अच्छी तरह मालूम हैं। 
लखनऊ की रहने वाली मानसी कुमार के लिए आज़ादी का मतलब आत्मनिर्भर होना है। मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर काम कर रहीं मानसी अपने पैरों पर खड़ा होने को ज़रूरी मानती हैं। उनका कहना है- लोग कहते हैं कि औरतें आदमियों से आगे निकल रही हैं, पर मैं इस बात से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखती। आदमी और औरत के बीच कोई होड़ नहीं चल रही है। किसी तरह का मुक़ाबला नहीं है, सिर्फ़ यह है कि हम भी कोशिश कर रही हैं आगे बढ़ने की, और पुरुष हमें आगे बढ़ने का मौक़ा दे रहे हैं, हमारा साथ दे रहे हैं। ऐसा नहीं है कि पुरुष हमसे पिछड़ रहे हैं। हम अपना काम कर रही हैं, और वो अपना। लेकिन पुरुष हो या स्त्री, हर किसी के लिए अपनी हद बनाए रखना ज़रूरी है। अगर पुरुष हैं, तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि आप कुछ भी करें, या अपनी सीमा भूल बैठें। स्वतंत्रता का दुरुपयोग किसी के लिए मान्य नहीं है। जहां तक एक स्त्री का सवाल है, तो उसे भी सामाजिक दायरे में रहते हुए ही अपनी क्षमताएं पहचानकर आगे बढ़ना आना चाहिए। हमारी ज़िम्मेदारी ज़्यादा इसलिए है क्योंकि जो हमारे संस्कारों में है, जो हमें सिखाया गया है, समझाया गया है उसे आगे बढ़ाने का दायित्व हम औरतों पर ही है।
सोच के स्तर पर ज़रूरी है स्वतंत्रता
हाल में दिल्ली में एक बच्ची के साथ दुर्व्यवहार की ख़बर आई थी। बच्ची के मां-बाप ने तुरंत थाने जाकर मामले की रपट कराई, क्योंकि वो चाहते थे कि गुनहगार पकड़ा जाए और उसे कड़ी सज़ा हो। लेकिन कितने मां-बाप ऐसे हैं जो ऐसी घटनाओं की सूचना पुलिस को देते हैं? मां-बाप के दिमाग में सबसे पहले यही बात आती है कि अगर दुनिया को पता चल गया तो हमारी लड़की की शादी कैसे होगी, कोई उसे अपनाएगा या नहीं। ज़रूरत इस सोच से मुक्ति पाने की है। दूसरा यह कि एक लड़की के लिए शादी आख़िरी मंज़िल नहीं है, या घर बसा लेना अंतिम सत्य नहीं है। तीसरा, इस तरह की घटनाएं एक लड़के के लिए भी उतनी ही बदकिस्मत हैं, जितनी लड़की के लिए। 
भारतीय समाज में सोच के स्तर पर परतंत्र होने का एक दुखद पहलू यह है कि एक स्त्री ही अमूमन यह सुनिश्चित कर रही है कि ये बेड़ियां क़ायम रहें। हम आए दिन मिलने वाली ऐसी ख़बरों से अछूते नहीं हैं जिसमें घर में ब्याह कर लाई लड़की पर अत्याचार के पीछे बड़ा हाथ एक सास का होता है और अक्सर घर के पुरुष अपने नए सदस्य के हक़ में खड़े दिखते हैं। एक उदाहरण इसे समझने के लिए काफी होगा। मेरे एक परिचित परिवार के इंजीनियर बेटे की शादी एक एमबीए लड़की से हुई। लड़की यूनिवर्सिटी में पढ़ी थी, जींस-टॉप पहनती थी और बाल खुले रखती थी। आते ही उसकी सास ने फ़रमान सुना दिया कि वो सलवार-कमीज़ ही पहने और बालों में तेल लगाकर रखे। उनके मुताबिक, ये सब भले घर की लड़कियों को शोभा नहीं देता था और इससे समाज में उनके सम्मान पर आंच आती थी। कुछ दिन तो लड़की ने टालने की कोशिश की, पर रोज की किचकिच से बचने के लिए उसे मन मारकर सास की बात माननी पड़ी। वो लगातार तनाव में थी और अपना दुख यहां-वहां जाकर बांटती थी। 
यहां सिमोन द बोवुआ की बात सच दिखती है कि स्त्री अगर सामने वाल की सोच से हटकर कुछ भी करती है तो उसे एडवेंचरस मान लिया जाता है। कितनी हास्यास्पद बात है कि इसमें जीवन किसी का है, और सोच किसी दूसरे की मायने रखती है। एक परिवार चाहता है कि जो लड़की ब्याहकर घर में आए वो पढ़ी-लिखी तो हो ताकि पहचान वालों पर रौब डाल सकें, लेकिन उसकी सोच यूटोपियन हो। उससे यह भी अपेक्षा नहीं है कि वो किसी मसले पर अपनी राय दे। अब भला यह कैसे संभव है कि हम रह तो आज के ज़माने में रहे हैं, लेकिन दिमाग नव-पाषाण युग में विचरण करे। ऐसी स्थिति में एक मोड़ पर स्त्रियों को ख़ुद यह सोचना होगा कि वो अपनी सोच को कितना विस्तार देना चाहती हैं।
स्लट वॉक की ज़रूरत क्यों?
स्त्रियां अपनी स्वतंत्रता, अपने अधिकारों के प्रति सहज रहकर भी जागरूक बनी रह सकती हैं। स्त्री की आज़ादी को हर बार मुद्दा बनाकर पेश किया जाए, यह कतई ज़रूरी नहीं है। स्त्री की आज़ादी या उसका हक़ वीमेन्स डे या स्लट वॉक में नहीं है। न ही यह किसी नारी मुक्ति मोर्चाया कुख्यात नारीवाद में है। सुखद बात यह है कि स्थितियां ख़ुद-ब-ख़ुद बदल रही हैं। मैं जितने परिवारों को जानती हूं, उनमें लगभग नई पीढ़ी के सभी पुरुष अपनी पत्नियों, बहनों, बेटियों के लिए यह स्वतंत्रता चाहते हैं और अपनी तरफ़ से कोशिश भी कर रहे हैं कि घर की औरतें ख़ुद को कमतर न समझते हुए पुरुषों के बराबर समझें। वो घर के कामों में हाथ बंटाते हैं, बच्चों को बड़ा करने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। वो तीन दशक पुराने उन पिताओं से अलग हैं जिन्हें बच्चों के नाम तक याद नहीं रहते थे... यह जानना तो दूर की बात थी कि कौन-सी औलाद क्या कर रही है। इन हालात में स्त्रियां भी इस आज़ादी को बेहद ज़िम्मेदाराना तरीके से ले रही हैं। यह ठीक है कि हमें बहुत से उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिनमें आज़ादी के नाम पर स्त्रियों के गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार की झलक मिलती है, लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि सब कुछ सही नहीं चल रहा। 
स्वतंत्रता के सही मायनों को महिलाएं यूं समझ सकती हैं कि वो मां के तौर पर अपनी बेटी से क्या अपेक्षा करेंगी। जो इस सवाल का जवाब होगा, वही उचित रास्ता होगा, वो सही सोच का सूचक भी होगा, उसमें एक महिला की स्वतंत्र सोच की झलक होगी। और जब यह सोच होगी तो इसका असर आने वाली पीढ़ी के पुरुषों पर भी होगा, और वर्तमान व पुरानी पीढ़ी के पुरुषों पर भी। एक आधुनिक सोच के साथ महिलाएं, पुरुषों को सही रास्ता दिखा सकती हैं, बल्कि एक अच्छे जीवन की तरफ़ हमारी यात्रा की कमान पुरुषों के मुक़ाबले बेहतर तरीके से संभाल सकती हैं, क्योंकि उनमें एक गुण ऐसा है जो पुरुष वर्ग में न के बराबर मिलता है, और वो है संयम। संयम और स्वतंत्र सोच का युग्म यक़ीनन एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर पाएगा... ऐसी दुनिया जिसमें हम अपने बच्चों को बड़ा होते हुए देखना चाहते हैं। 
-माधवी  

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के विशेष वार्षिक अंक, 2012 में प्रकाशित; जहर दासगुप्ता, ऑनरी मातीस, अमृता शेरगिल और अमेदिओ मोदिग्लियानी की कलाकृतियां गूगल से)
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