Monday, April 25, 2011

चलें दक्षिण के मैकलोडगंज

(मैं यहां बायलाकूपे की चर्चा शुरू करूं तो शायद आप मेरी बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं देंगे.. लेकिन अगर कहूं कि मैं दक्षिण के मैकलोडगंज के बारे में कुछ कहना चाहती हूं तो आप यक़ीनन मेरी बात ग़ौर से सुनने लगेंगे.. है न? और लीजिए, जैसे ही मैं दक्षिण के मैकलोडगंज का शब्दचित्र आपके सामने बांधने लगी हूं, मेरी आंखों के आगे वही वैभवशाली भवन आकार लेने लगा है जिसे देखकर मेरे मुंह से एक ही शब्द निकला था... वाह! इसके साथ ही कानों में गूंजने लगी हैं मन्त्रोच्चार की ध्वनियां.. जिन्हें सुनते ही मेरा सारा तनाव बह निकला और मुझे लगा कि मैं ध्यान के सागर में गोते लगा रही हूं।) 
  
मैं आपसे फिलहाल एक ऐसी बस्ती की बात कर रही हूं जिसे भारत में तिब्बती विस्थापितों का दूसरा सबसे बड़ा ठिकाना कहा जा सकता है.. है तो यह कर्नाटक के मैसूर ज़िले में, लेकिन मैसूर से यहां तक पहुंचने में क़रीब दो घंटे का वक़्त लग जाता है। बहुत कम लोग होंगे जो मैसूर जाने के दौरान बायलाकूपे आते होंगे। अक़्सर लोग जब कूर्ग घूमने जाते हैं, तब बायलाकूपे का रुख़ करते हैं। जब आप कूर्ग से मैसूर जाते हैं, तो कूर्ग के कुशलनगर से बाहर निकलते ही दायीं तरफ का मोड़ आपको पांच किलोमीटर के सफर के बाद बायलाकूपे तक ले जाता है। हम भी उन लोगों में से थे जो कूर्ग की ख़ूबसूरती को दिलो-ज़हन में बसाने के बाद बायलाकूपे जाने की इच्छा को दबा नहीं पाए।
बायलाकूपे की बस्ती में
कुशलनगर के बस-स्टॉप से ऑटो लेकर हम चल दिए गोल्डन टेम्पल। बायलाकूपे में कई बड़े मठ हैं, जिनमें से एक नामद्रोलिंग है। मूल नामद्रोलिंग मठ तिब्बत में है। यहां बने नामद्रोलिंग को स्थानीय लोग गोल्डन टेम्पल कहते हैं। बायलाकूपे की सीमा में प्रवेश करते ही हवा में लहलहाते तिब्बती प्रार्थना-ध्वजों ने हमारा स्वागत किया। गोल्डन टेम्पल ले जाने वाली सड़क के दोनों तरफ़ हरे-भरे खेत हैं। शहर के शोरगुल से दूर, शांत सी यह सड़क दिल को ठण्डक पहुंचाती है। गोल्डन टेम्पल से पहले तिब्बती बाज़ार है। बाज़ार से गुज़रते हुए कुछ ही पलों में हम गोल्डन टेम्पल पहुंच गए।
आस्था का प्रतीक
यह तिब्बती बौद्ध धर्म के निंगमा संप्रदाय का मठ है। निंगमा संप्रदाय की नींव भगवान बुद्ध के अवतार गुरु पद्मसंभव ने रखी थी। गोल्डन टेंपल में प्रवेश करने पर लगा जैसे हम किसी दूसरी दुनिया में आ गए हों। यहां भगवान बुद्ध, पद्मसंभव और अमितायुस (भगवान बुद्ध का ही दूसरा अवतार, जिनका नाम अवलोकितेश्वर भी है) की भव्य मूर्तियां हैं, जो मेरी तरह आपको भी विस्मित कर देंगी। भगवान बुद्ध की ऐसी ही मूर्ति मैंने हिमाचल प्रदेश के मैकलोडगंज में देखी थी। लेकिन इन तीन ख़ूबसूरत प्रतिमाओं ने जैसे मुझ पर जादू कर दिया। दीवारों पर बने तिब्बती देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र, मन्त्रोच्चार और मोहक ख़ुशबू ने मुझे काफी समय तक मंत्रमुग्ध रखा। इन यादगार पलों को मैंने अपने कैमरे में सहेज लिया। यह बात अच्छी लगी कि यहां मठों के अंदर फोटो खींचने की मनाही नहीं है इसलिए आप बेफिक़्र होकर फोटोग्राफी कर सकते हैं।

गोल्डन टेम्पल के पीछे पुस्तकालय है।
वहीं मैंने बहुत सारे भिक्षुओं को बातचीत करते हुए देखा। उत्सुकतावश जब एक भिक्षु से बात की तो उसने टूटी-फूटी हिन्दी में तिब्बती समुदाय से जुड़ी कई दिलचस्प बातें मुझे बताईं। जिनमें से एक यह कि हर तिब्बती परिवार के सबसे बड़े पुत्र का भिक्षु बनना अनिवार्य होता है, चाहे उसकी रज़ामंदी हो या नहीं। हालांकि अब इस परंपरा का पालन पूरी तरह से नहीं हो रहा। इसके पीछे यही वजह हो सकती है कि नई पीढ़ी पुरानी परंपराओं का निर्वाह करने में ख़ुद को असहज महसूस करने लगी है।
मठ के आस-पास का इलाक़ा साफ-सुथरा और शांति भरा है। चारों तरफ़ ख़ूबसूरत पार्क हैं और वातावरण में अजीब सा सुक़ून है। दिमाग अपने-आप ही ध्यान की मुद्रा में चला जाता है।
गोल्डन टेम्पल के अलावा दो प्रमुख मठ हैं- सेरा जे और सेरा मे। दोनों मठ गेलुग संप्रदाय के हैं जो तिब्बती बौद्ध धर्म, शिक्षा और संस्कृति के केन्द्र के रूप में दुनिया भर में जाने जाते हैं। 

सेरा जे मठ  
यह मठ तिब्बत के सेरा विश्वविद्यालय की तर्ज पर बना है। सेरा जे एक बड़ी शैक्षिक संस्था है जिसमें देश-विदेश से छात्र पढ़ने आते हैं। बायलाकूपे में इसकी स्थापना गुरू गेशे लोबसांग पाल्देन ने सन् 1970 में की थी। यहां क़रीब 5,000 भिक्षु बौद्ध धर्म की पढ़ाई कर रहे हैं। विश्वविद्यालय के अलावा यहां एक बड़ा तिब्बती अस्पताल भी है, जो इसी मठ की देख-रेख में है।
इतिहास के पन्नों से 
1959 में तिब्बत पर चीनी हमले के बाद हज़ारों तिब्बती बेघर हो गए थे। भारत सरकार ने उन्हें बायालाकूपे में 3000 एकड़ भूमि दी, जहां अब 15 हज़ार से भी ज़्यादा शरणार्थी रह रहे हैं। तिब्बती प्रशासन का हेडक्वार्टर हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला के पास मैकलोडगंज में है। मैकलोडगंज के बाद बायलाकूपे तिब्बती विस्थापितों की सबसे बड़ी बस्ती है।  
यह प्रतिबंधित क्षेत्र है। आप चाहें तो पूरा दिन इत्मीनान से बिता सकते हैं लेकिन रात को बायलाकूपे में ठहरने के लिए पहले गृह मंत्रालय से 'प्रोटेक्टिड एरिया परमिट' लेना ज़रूरी है। बहरहाल यहां हर शाम होने वाली डिबेट में शामिल होना न भूलें। बहुत सारे भिक्षु वाद-विवाद के मक़सद से एक नियत स्थान पर एकत्रित होते हैं। एक भिक्षु नाटकीय ढंग से कोई सवाल पूछता है और ज़ोर से ताली बजाता है। दूसरा भिक्षु तुरन्त उठकर उसी लहज़े में जवाब देता है। पूरी डिबेट का कोई निष्कर्ष निकले, यह ज़रूरी नहीं लेकिन इसे देखना काफी दिलचस्प है।
बुद्धं शरणं गच्छामि 
पीले और मैरून रंग के लिबास में हर तरफ़ घूमते हुए भिक्षुओं को देखकर लगा जैसे मैं भारत में नहीं बल्कि तिब्बत में हूं। निर्वासन में रहने के बावजूद किसी तिब्बती के चेहरे पर शिकन नहीं दिखी। जन्मभूमि से दूर रहने वालों के लिए सबसे बड़ा ख़तरा अपनी संस्कृति और परंपरा को खो देने का होता है। लेकिन भारत में रह रहे तिब्बती लोगों ने अपने तौर-तरीक़ों और संस्कृति को काफी हद तक सहेजकर रखा है। प्रार्थना का वक़्त हुआ तो एक बार फिर हम गोल्डन टेम्पल की तरफ बढ़ गए। टेम्पल में रोज़ाना प्रार्थना सभा होती है। सभा शुरू हुई और हॉल में जमा बौद्ध भिक्षुओं ने तीन बार लेटकर नमन किया। फिर शुरू हुआ मन्त्रोच्चार का सिलसिला। मन्त्र पढ़ते हुए वो बच्चे भी दिखे जो कुछ ही देर पहले पार्क में भाग-दौड़ और मस्ती कर रहे थे। भक्ति में लीन वही बच्चे अब बेहद शांत और सौम्य लग रहे थे।
ज़ायका तिब्बत का 
अब पेट-पूजा की बात। अगर आपको भी तिब्बती भोजन पसन्द है तो बायलाकूपे में इसका मज़ा ज़रूर उठाएं। नामद्रोलिंग मठ के बाहर एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स है जहां खाने-पीने की कई दुकानें हैं। तिब्बत के कुछ व्यंजन यहां आज़माए जा सकते हैं जैसे टोफू’ (सोयाबीन के दूध को जमाकर बनाया गया आहार) मोमोज़ और थुक-पा (नूडल्स और सब्जियों से बना सूप)। पीने के लिए पो-चा है। पो-चा बटर टी है, जिसे तिब्बती बो-झा कहते हैं। इसका स्वाद चाय जैसा नहीं बल्कि कुछ कसैलापन लिए होता है। आम चाय यहां स्वीट टीहै। हमने वेज मोमोज़ और थुक-पा का ऑर्डर दिया, जिसे खाकर शॉपिंग के इरादे से हम आगे चल दिए। बाज़ार में फ्री तिब्बतस्लोगन के झोले और चीनी सामान का बहिष्कार करें वाले पोस्टर बिकते हुए दिखे। यहां मोल-भाव खूब होता है और आप ठीक दाम पर तिब्बती सामान ख़रीद सकते हैं.. जैसे कपड़े, सजावटी चीज़ें, मुखौटे और अगरबत्तियां वगैरह। ख़ास तौर से शेज़वान मिर्च जैसे तिब्बती मसाले, जो आमतौर पर आपको बाज़ार में नहीं मिलेंगे।
सूरज अस्त होने को था और पंछी अपने घोंसलो की तरफ लौट रहे थे। लेकिन मेरे ज़हन में
एक सवाल रह-रह कर उठ रहा था कि क्या तिब्बती मूल के लोग कभी अपने वतन लौट पाएंगे? क्या उन्हें उनके मौलिक अधिकार और खोई हुई पहचान वापिस मिलेगी जिसका वो बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं... यह सोचते हुए मैंने भी वापसी की राह पकड़ ली। 

याद रहे...
बायलाकूपे का मौसम सुहावना रहता है। बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले लोग देश-विदेश से यहां साल भर आते रहते हैं। लेकिन बायालकूपे का असली रंग देखना हो तो लोसर (तिब्बती नया साल), सागा दावा (बुद्ध जयंती), नेशनल अपराइसिंग डे (10 मार्च, तिब्बत पर चीन के हमले का दिन) या धर्मगुरू दलाई लामा के जन्मदिवस जैसा कोई अवसर चुनें। 

(दैनिक जागरण के 'यात्रा' परिशिष्ट में 24 अप्रैल 2011 को प्रकाशित)

Tuesday, April 19, 2011

हर सुबह देखती हूं

 
हर दिन
बेकल रात को 
बुनती हूं 
इक नया सपना

कुछ सपने सदाबहार हैं 
तितली कोई पकड़कर
बंद करना हौले से मुट्ठी
या उड़ते जाना अविराम 
मीलों ऊपर, दिशाहीन

हर सुबह देखती हूं 
हथेली पर बिखरे 
तितलियों के वो 
रंग अनगिन 
और 
रंग देती हूं तुम्हें

हर सुबह देखती हूं 
हथेली पर ठहरा वो 
आकाश अनन्त 
और 
भर लेती हूं उड़ान 
लिए साथ तुम्हें। 

('जनसंदेश टाइम्स' में 1 अप्रैल 2012 को प्रकाशित)

Wednesday, April 6, 2011

अश्व की वल्गा लो अब थाम, दिख रहा मानसरोवर कूल


मानसरोवर जादू कर देता है, कहीं पढ़ा था। कैलाश-मानसरोवर जाकर लोग सम्मोहित हो जाते हैं, वशीभूत हो बैठते हैं। मैं बिना जाए ही इसके वश में हूं। भले ही वहां की यात्रा नहीं कर सकी हूं, लेकिन कल्पनाओं में हज़ारों फेरे लगाए होंगे कैलाश पर्वत के, डुबकियां लगाई होंगी मानसरोवर में।
कुछ जानकार जब अपनी यात्रा के अनुभव बताते हैं, सुनकर द्वेष होने लगता है। हो भी क्यों न? जगह ही ऐसी है- मंत्रमुग्ध कर देने वाली, कभी न भुलाई जाने वाली। जाने का मन करे, और एक बार जाओ तो लौटने की इच्छा न हो। लौटकर आओ तो बार-बार जाने को दिल उमड़े। छत्तीसगढ़ में मेरे एक परिचित हैं। घूमने-फिरने के शौकीन हैं, कैलाश यात्रा कर चुके हैं। जब-तब बात होती है। अक़सर वो फख़्र से कहते हैं- कैलाश-मानसरोवर की यात्रा के बिना सारी यात्राएं अधूरी हैं, तुम एक बार ज़रूर जाओ। सुनते ही मन में टीस उठती है। जाना है ही, लेकिन बुलावा तो आए। सुना है कि बुलावा न हो तो आप वहां जा नहीं सकते। 
जहां मिलता है ब्रह्म ज्ञान
शिव का धाम है कैलाश-मानसरोवर। देवलोक है। कहते हैं कि मौत के बाद आत्माएं यहीं वास करती हैं। यह वो जगह है जहां ब्रह्म ज्ञान मिलता है। इसीलिए यहां देवता, दानव और ऋषि-मुनि सदियों से तपस्या करते रहे हैं। सैलानियों के अलावा धर्म-कर्म में विश्वास रखने वाले लोग भी आते हैं। हर साल.. हज़ारों की तादाद में। हिन्दुओं के लिए मानसरोवर किसी तीर्थ से कम नहीं है। बौद्ध और बोन (बौद्ध धर्म से भी पुराना धर्म जिसकी उत्पत्ति कैलाश में हुई मानी जाती है) अनुयायियों के लिए इससे पवित्र स्थान कोई नहीं है। जैन लोग भी इस जगह को पूजते हैं। मान्यता है कि जैनियों के पहले तीर्थंकर ऋषभ देव ने सिर्फ़ आठ क़दमों में कैलाश की परिक्रमा कर ली थी।
बहुत कठिन है डगर मानसरोवर की

कैलाश-मानसरोवर की यात्रा जीवन की सबसे मुश्किल यात्राओं में से है। सुदूर हिमालय में तिब्बत की गोद में बसा है मानसरोवर। इस यात्रा के लिए पहले अनुमति नहीं लेनी पड़ती थी। 1920 और 1930 के दशक में पंडित राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत की कई यात्राएं कीं और दिलचस्प यात्रा वृत्तांत लिखे। वो दौर अलग था। लेकिन तिब्बत अब चीन के आधिपत्य में है। इसलिए भारत और चीन सरकार की सहमति ज़रूरी हो गई है। अगर आप किसी ग्रुप के साथ न जा रहे हों तो वीज़ा मिलने की संभावना भी नहीं है।

कैलाश-मानसरोवर जाने के दो नज़दीकी रास्ते हैं। एक उत्तराखंड से होकर और दूसरा नेपाल से। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ से धारचूला होते हुए लिपूलेख पास पहुंचते हैं, और फिर तिब्बत। यह यात्रा भारत सरकार के कुमाऊं मंडल विकास निगम की देख-रेख में संपन्न होती है। नेपाल से जाना हो तो प्राइवेट टूर ऑपरेटर अच्छा विकल्प हैं। महंगा होने के बावजूद यह रूट ज़्यादातर यात्रियों की पसंद है। काठमांडू होकर पहले नेपाल-चीन सीमा पर स्थित मैत्री-पुल पहुंचा जाता है। यहां यात्रियों के ज़रूरी क़ागज़ात की जांच होती है। हरी झंडी मिलने पर यात्री तिब्बत के नायलम क्षेत्र की तरफ बढ़ते हैं। फिर दारचेन आता है जो बेस स्टेशन है। यहीं से शुरू होती है विराट कैलाश पर्वत की परिक्रमा।
समुद्रतल से क़रीब 25 हज़ार फीट की ऊंचाई पर है कैलाश पर्वत। यहां तापमान शून्य से बहुत नीचे रहता है। सर्द हवाएं चलती हैं, भारी बर्फ़बारी होती है। इंसान तो दूर, परिंदा भी नज़र नहीं आता। हज़ारों फीट की ऊंचाई और ऑक्सीज़न की कमी के बीच लंबी पैदल यात्रा करनी होती है।
मुक्ति की चाह में 
मान्यता है कि एक बार कैलाश की परिक्रमा कर लें तो सारे पापों का नाश हो जाता है। 10 फेरों में 'कल्पा' यानी एक युग के पाप धुल जाते हैं और 108 फेरे लगाने से निर्वाण मिल जाता है। मज़े की बात है कि एक चक्कर 52 किलोमीटर का है। इसका मतलब यह कि 10 चक्कर लगाने के लिए कई दिन चाहिए और गज़ब की इच्छाशक्ति व स्टेमिना भी। एक और मज़े की बात यह कि कैलाश की संरचना कुछ ऐसी है कि आधी परिक्रमा के दौरान यह दिखता है जबकि आधी में आंखों से ओझल रहता है।
चलिए, वापस चलते हैं परिक्रमा पर। बौद्धों की परिक्रमा ज़्यादा कठिन होती है। मेरे तिब्बती मित्र ताशी वांगचुक बताते हैं कि बौद्ध लेटकर साष्टांग प्रणाम करते हुए कैलाश का चक्कर लगाते हैं। धर्मगुरु दलाई लामा कहते हैं कि
"जब तुम परिक्रमा करते हो, तुम्हारे पैर एक क़दम से दूसरे तक का रास्ता तय करते समय बीच की जगह छोड़ देते हैं, लेकिन जब साष्टांग प्रणाम करते हुए जाते हो तब तुम्हारी देह उस पवित्र धरती को छूती है, उसे अपनी देह के घेरे में बांधती है।"
कैलाश की विशालता स्तब्ध कर देने वाली है। दूर से देखने पर यह पत्थर और बर्फ़ के मिले-जुले पिरामिड जैसा लगता है। उस पर बर्फ़ की सीढ़ियां अचरज में डाल देती हैं। गर्मी के दिनों में जब बर्फ़ चटकती है तो गर्जना होती है। श्रद्धालु मानते हैं कि यह शिव के मृदंग की आवाज़ है। इसे देखना और सुनना दिव्य है, किसी ईश्वरीय अनुभव के जैसा। कैलाश के चरणों में गौरी कुंड है। हल्का हरा रंग लिए हुए यह छोटी सी झील है.. किसी ख़ूबसूरत गहने जैसी। पौराणिक कथाओं की मानें तो इस कुंड में मां पार्वती ने
शिव को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया था।
कैलाश चार नदियों का उद्गम स्थल है- कर्नाली (गंगा की सहायक नदी), सतलुज, ब्रह्मपुत्र और सिंधु। कैलाश की चारों दिशाओं में अलग-अलग जानवरों की आकृतियां नज़र आती हैं। पूर्व दिशा अश्वमुख जैसी है, पश्चिम में हाथी का मुख है, उत्तर में शेर और दक्षिण में मोर का मुख है। चारों दिशाओं से एक-एक नदी का उद्गम होता है। कैलाश के कपाल से उतरकर ये नदियां एशिया के अलग-अलग हिस्सों में बहती हैं। 
बात मानसरोवर की 
यह दुनिया में सबसे ऊंची, और ताज़े पानी की इकलौती झील है। ख़ूबसूरत इतनी कि नज़रें न हटें। कहते हैं रात के वक़्त, ख़ासतौर से चांदनी में, यह और ख़ूबसूरत व रहस्यमयी लगती है। मानसरोवर का यह नयनाभिराम नज़ारा मैंने तस्वीरों में ही देखा है- सुंदर, भव्य, और गरिमा से भरा हुआ। झील में नीला, हरा, बैंगनी, और न जाने कौन-कौन से रंग परिलक्षित होते हैं। कुछ लोगों ने इसमें सात रंग भी देखे हैं। पानी में छिटकते इन्द्रधनुषी रंग और उनके बीच शान से तैरते हुए राजहंस.. यह किसी दिवास्वप्न से कम नहीं। यहां बाबा नागार्जुन की एक कविता याद आ रही है, जिसमें उन्होंने कैलाश-मानसरोवर का ख़ूबसूरत ज़िक्र किया है।
"
अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहीन कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।"

कुछ लोग कहते हैं कि ब्रह्म मुहूर्त के समय मानसरोवर में सुनहरी राजहंस भी आते हैं। ख़ुशक़िस्मत होगा वो जिसने सुनहरी हंस देखे होंगे।

मानसरोवर के दूसरी तरफ राक्षसताल है। गंगा-चू नाम की एक छोटी नदी इन दोनों झीलों को जोड़ती है। कहते हैं कि रावण ने इस झील के किनारे बैठकर शिव की आराधना की थी, इसलिए इसका नाम रावणताल भी है।

...बैठकर किसी कोने में करो ध्यान
एक बौद्ध प्रार्थना है- "बैठकर किसी कोने में ध्यान करो, यूं कि जैसे तुम कोई घायल पशु हो।" हिन्दू दर्शन कहता है कि शरीर को जितना कष्ट होगा, उतना ही पुण्य भी मिलेगा। हम जब तक़लीफ़ में होते हैं तो आस्था जाग उठती है। हम भगवान को याद करने लगते हैं। मानसरोवर की यात्रा में यह दर्शन सटीक बैठता है। जितना कष्ट, उतनी ही संतुष्टि। स्कंद पुराण में लिखा है- "जैसे ओस सूख जाती है सुबह होने पर, पाप सूख जाते हैं हिमालय दर्शन होने पर।" एकचित्त होकर हिमालय की गोद में बैठें तो भक्तिभाव स्वत: ही फूटेगा और निर्मल हो जाएगा सब।
ऊंचे-ऊंचे शिखर, बर्फ़ से ढके हुए, उदात्त। और उनमें समाया हुआ अजीब-सा खालीपन। ऐसा खालीपन जिसे ख़ुद में भर लेने का मन करे। ऐसा रहस्य जिसे सुलझाने का और उसमें ही समा जाने का दिल करे। कुछ यात्री कैलाश पर सामान छोड़कर आते हैं, अपना या अपने किसी प्रिय का कपड़ा, कोई चीज़, बाल या नाख़ून वगैरह।
कीथ डोमेन की किताब 'द सेक्रेड लाइफ ऑफ तिब्बत' में लिखा है कि "किसी शक्ति-स्थल पर अपने देवता के लिए स्मृति-चिह्न छोड़ आने का अर्थ है उसके लिए अपनी उपस्थिति छोड़ आना, ताकि वह उसे याद रखे विशेषकर जब तीर्थयात्री मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच का रास्ता पार कर रहा हो।" 
मानसरोवर प्रकृति का प्रतीक है। हम सब कितने बौने हो जाते हैं प्रकृति के सामने। प्रकृति के अपने क़ायदे हैं। लेकिन मानसरोवर में कोई क़ायदा नहीं है। बल्कि यहां बंधन टूटते हुए लगते हैं। सब-कुछ स्वच्छंद है। न कोई मंदिर न मूर्ति। न ही पूजा-पाठ करने की विवशता। अगर कुछ है तो सिर्फ़ संकल्प और दृढ़ विश्वास। ऊपरी सत्ता को महसूस करने का खुला मौक़ा है। अडिग रहने की इच्छाशक्ति है... कैलाश पर्वत जैसी अडिग शक्ति।
कैलाश-मानसरोवर की यात्रा में जो परम सुख है, उसे शब्दों में बयां करना मुमकिन नहीं। एक परिचित ने कैलाश-मानसरोवर से लौटकर जो आप-बीती मुझे बताई उसे सुनकर मैं निःशब्द रह गई।
 
एक अलौकिक अनुभव 
कैलाश-मानसरोवर की यात्रा अलौकिक है। इस यात्रा के दौरान कई पल ऐसे आते हैं जब सब थम जाता है। आंखें चुंधियाने लगती हैं, आंसू बहने लगते हैं, अंदर का सारा मैल निकल जाता है, मन की स्लेट साफ हो जाती है। हर कोई निश्छल और निष्कपट हो जाता है। यहां ख़ुद से सामना होता है, अन्तर्मन से साक्षात्कार होता है। यहां आकर कुछ लोग या तो बिल्कुल मौन रहते हैं, या फिर बिलख-बिलख कर रोने लगते हैं। मोह-माया, सांसारिक उलझनें.. सब बेमानी लगते हैं। आत्मशुद्धि होने लगती है। कैथार्सिस (विरेचन) होता है। लामा अंगरिका गोविंदा ने कहा है- "हर तीर्थयात्रा, विशेषकर कैलाश परिक्रमा, में वह क्षण आता है जब यात्री का अहं टूटता है, अपने से रिश्ता टूटता है। और जैसे ही यह होता है, भीतर विराट को ग्रहण करने की रिक्ति आ जाती है।" 
कैलाश-मानसरोवर में हर साल 12 जून को 'सागा दावा' उत्सव मनाया जाता है। तिब्बती कैलेंडर के मुताबिक चौथे महीने के 15वें रोज़ पूर्णमासी के दिन यह उत्सव होता है। कहते हैं इस दिन 'शाक्यमुनि' यानि गौतम बुद्ध का जन्म हुआ और यही वो दिन है जब उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ था। ज़्यादातर श्रद्धालु इसी समय कैलाश यात्रा पसंद करते हैं। इस दिन तिब्बती मूल के लोग 'तारबुचे' यानि प्रार्थना-डंडिका पर ध्वज लहराकर पारंपरिक नृत्य करते हैं। सागा दावा के दिन बौद्ध मांसाहार से दूर रहते हैं। 
कहते हैं कि आप जितने ऊंचे होते जाते हैं, उतने ही अकेले भी। बिल्कुल सत्य है। आध्यात्मिक यात्रा में यह बात उतनी ही खरी बैठती है जितनी जीवन की दूसरी यात्राओं में। सबकी अपनी-अपनी यात्राएं हैं, अपनी-अपनी चढ़ाइयां हैं। किसी के लिए रुपए-पैसे की अहमियत है और भौतिकवादी चढ़ाई ही सब-कुछ है, तो कुछ लोग हैं जो अध्यात्मिक ऊंचाइयों को पाकर ही संतुष्ट होते हैं।
मानसरोवर एक अंतर्यात्रा है, अल्टीमेट जर्नी है। कहते हैं, वहां जाकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष मिले या न मिले, कैलाश यात्रा पर ज़रूर जाना है। एक बार उस ऊंचाई तक पहुंचना है। पक्का यक़ीन है कि मैं जल्द ही ख़ुद को कैलाश के समक्ष नतसिर होते हुए देखूंगी।
-माधवी 

('अहा ज़िंदगी' पत्रिका के अप्रैल 2011 'यात्रा विशेषांक' में प्रकाशित, चित्र गूगल से)

Tuesday, April 5, 2011

जो प्रकृति के सबसे निकट हैं

जो प्रकृति के सबसे निकट हैं
जंगल उनका है
आदिवासी जंगल के सबसे निकट हैं
इसलिए जंगल उन्हीं का है 


अब उनके बेदखल होने का समय है
यह वही समय है
जब आकाश से पहले
एक तारा बेदखल होगा
जब एक पेड़ से
पक्षी बेदखल होगा
आकाश से चांदनी
बेदखल होगी 


जब जंगल से आदिवासी
बेदखल होंगे 

जब कविता से एक-एक शब्द
बेदखल होंगे।
-विनोद कुमार शुक्ल
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