मानसरोवर जादू कर देता है, कहीं पढ़ा था। कैलाश-मानसरोवर जाकर लोग सम्मोहित हो जाते हैं, वशीभूत हो बैठते हैं। मैं बिना जाए ही इसके वश में हूं। भले ही वहां की यात्रा नहीं कर सकी हूं, लेकिन कल्पनाओं में हज़ारों फेरे लगाए होंगे कैलाश पर्वत के, डुबकियां लगाई होंगी मानसरोवर में।
कुछ जानकार जब अपनी यात्रा के अनुभव बताते हैं, सुनकर द्वेष होने लगता है। हो भी क्यों न? जगह ही ऐसी है- मंत्रमुग्ध कर देने वाली, कभी न भुलाई जाने वाली। जाने का मन करे, और एक बार जाओ तो लौटने की इच्छा न हो। लौटकर आओ तो बार-बार जाने को दिल उमड़े। छत्तीसगढ़ में मेरे एक परिचित हैं। घूमने-फिरने के शौकीन हैं, कैलाश यात्रा कर चुके हैं। जब-तब बात होती है। अक़सर वो फख़्र से कहते हैं- कैलाश-मानसरोवर की यात्रा के बिना सारी यात्राएं अधूरी हैं, तुम एक बार ज़रूर जाओ। सुनते ही मन में टीस उठती है। जाना है ही, लेकिन बुलावा तो आए। सुना है कि बुलावा न हो तो आप वहां जा नहीं सकते।
जहां मिलता है ब्रह्म ज्ञान
शिव का धाम है कैलाश-मानसरोवर। देवलोक है। कहते हैं कि मौत के बाद आत्माएं यहीं वास करती हैं। यह वो जगह है जहां ब्रह्म ज्ञान मिलता है। इसीलिए यहां देवता, दानव और ऋषि-मुनि सदियों से तपस्या करते रहे हैं। सैलानियों के अलावा धर्म-कर्म में विश्वास रखने वाले लोग भी आते हैं। हर साल.. हज़ारों की तादाद में। हिन्दुओं के लिए मानसरोवर किसी तीर्थ से कम नहीं है। बौद्ध और बोन (बौद्ध धर्म से भी पुराना धर्म जिसकी उत्पत्ति कैलाश में हुई मानी जाती है) अनुयायियों के लिए इससे पवित्र स्थान कोई नहीं है। जैन लोग भी इस जगह को पूजते हैं। मान्यता है कि जैनियों के पहले तीर्थंकर ऋषभ देव ने सिर्फ़ आठ क़दमों में कैलाश की परिक्रमा कर ली थी।
बहुत कठिन है डगर मानसरोवर की
कैलाश-मानसरोवर की यात्रा जीवन की सबसे मुश्किल यात्राओं में से है। सुदूर हिमालय में तिब्बत की गोद में बसा है मानसरोवर। इस यात्रा के लिए पहले अनुमति नहीं लेनी पड़ती थी। 1920 और 1930 के दशक में पंडित राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत की कई यात्राएं कीं और दिलचस्प यात्रा वृत्तांत लिखे। वो दौर अलग था। लेकिन तिब्बत अब चीन के आधिपत्य में है। इसलिए भारत और चीन सरकार की सहमति ज़रूरी हो गई है। अगर आप किसी ग्रुप के साथ न जा रहे हों तो वीज़ा मिलने की संभावना भी नहीं है।
कैलाश-मानसरोवर जाने के दो नज़दीकी रास्ते हैं। एक उत्तराखंड से होकर और दूसरा नेपाल से। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ से धारचूला होते हुए लिपूलेख पास पहुंचते हैं, और फिर तिब्बत। यह यात्रा भारत सरकार के कुमाऊं मंडल विकास निगम की देख-रेख में संपन्न होती है। नेपाल से जाना हो तो प्राइवेट टूर ऑपरेटर अच्छा विकल्प हैं। महंगा होने के बावजूद यह रूट ज़्यादातर यात्रियों की पसंद है। काठमांडू होकर पहले नेपाल-चीन सीमा पर स्थित मैत्री-पुल पहुंचा जाता है। यहां यात्रियों के ज़रूरी क़ागज़ात की जांच होती है। हरी झंडी मिलने पर यात्री तिब्बत के नायलम क्षेत्र की तरफ बढ़ते हैं। फिर दारचेन आता है जो बेस स्टेशन है। यहीं से शुरू होती है विराट कैलाश पर्वत की परिक्रमा। समुद्रतल से क़रीब 25 हज़ार फीट की ऊंचाई पर है कैलाश पर्वत। यहां तापमान शून्य से बहुत नीचे रहता है। सर्द हवाएं चलती हैं, भारी बर्फ़बारी होती है। इंसान तो दूर, परिंदा भी नज़र नहीं आता। हज़ारों फीट की ऊंचाई और ऑक्सीज़न की कमी के बीच लंबी पैदल यात्रा करनी होती है।
मुक्ति की चाह में
मान्यता है कि एक बार कैलाश की परिक्रमा कर लें तो सारे पापों का नाश हो जाता है। 10 फेरों में 'कल्पा' यानी एक युग के पाप धुल जाते हैं और 108 फेरे लगाने से निर्वाण मिल जाता है। मज़े की बात है कि एक चक्कर 52 किलोमीटर का है। इसका मतलब यह कि 10 चक्कर लगाने के लिए कई दिन चाहिए और गज़ब की इच्छाशक्ति व स्टेमिना भी। एक और मज़े की बात यह कि कैलाश की संरचना कुछ ऐसी है कि आधी परिक्रमा के दौरान यह दिखता है जबकि आधी में आंखों से ओझल रहता है।
चलिए, वापस चलते हैं परिक्रमा पर। बौद्धों की परिक्रमा ज़्यादा कठिन होती है। मेरे तिब्बती मित्र ताशी वांगचुक बताते हैं कि बौद्ध लेटकर साष्टांग प्रणाम करते हुए कैलाश का चक्कर लगाते हैं। धर्मगुरु दलाई लामा कहते हैं कि "जब तुम परिक्रमा करते हो, तुम्हारे पैर एक क़दम से दूसरे तक का रास्ता तय करते समय बीच की जगह छोड़ देते हैं, लेकिन जब साष्टांग प्रणाम करते हुए जाते हो तब तुम्हारी देह उस पवित्र धरती को छूती है, उसे अपनी देह के घेरे में बांधती है।"
कैलाश की विशालता स्तब्ध कर देने वाली है। दूर से देखने पर यह पत्थर और बर्फ़ के मिले-जुले पिरामिड जैसा लगता है। उस पर बर्फ़ की सीढ़ियां अचरज में डाल देती हैं। गर्मी के दिनों में जब बर्फ़ चटकती है तो गर्जना होती है। श्रद्धालु मानते हैं कि यह शिव के मृदंग की आवाज़ है। इसे देखना और सुनना दिव्य है, किसी ईश्वरीय अनुभव के जैसा। कैलाश के चरणों में गौरी कुंड है। हल्का हरा रंग लिए हुए यह छोटी सी झील है.. किसी ख़ूबसूरत गहने जैसी। पौराणिक कथाओं की मानें तो इस कुंड में मां पार्वती ने शिव को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया था।
कैलाश चार नदियों का उद्गम स्थल है- कर्नाली (गंगा की सहायक नदी), सतलुज, ब्रह्मपुत्र और सिंधु। कैलाश की चारों दिशाओं में अलग-अलग जानवरों की आकृतियां नज़र आती हैं। पूर्व दिशा अश्वमुख जैसी है, पश्चिम में हाथी का मुख है, उत्तर में शेर और दक्षिण में मोर का मुख है। चारों दिशाओं से एक-एक नदी का उद्गम होता है। कैलाश के कपाल से उतरकर ये नदियां एशिया के अलग-अलग हिस्सों में बहती हैं।
बात मानसरोवर की
यह दुनिया में सबसे ऊंची, और ताज़े पानी की इकलौती झील है। ख़ूबसूरत इतनी कि नज़रें न हटें। कहते हैं रात के वक़्त, ख़ासतौर से चांदनी में, यह और ख़ूबसूरत व रहस्यमयी लगती है। मानसरोवर का यह नयनाभिराम नज़ारा मैंने तस्वीरों में ही देखा है- सुंदर, भव्य, और गरिमा से भरा हुआ। झील में नीला, हरा, बैंगनी, और न जाने कौन-कौन से रंग परिलक्षित होते हैं। कुछ लोगों ने इसमें सात रंग भी देखे हैं। पानी में छिटकते इन्द्रधनुषी रंग और उनके बीच शान से तैरते हुए राजहंस.. यह किसी दिवास्वप्न से कम नहीं। यहां बाबा नागार्जुन की एक कविता याद आ रही है, जिसमें उन्होंने कैलाश-मानसरोवर का ख़ूबसूरत ज़िक्र किया है।
"अमल धवल गिरि के शिखरों पर
कुछ जानकार जब अपनी यात्रा के अनुभव बताते हैं, सुनकर द्वेष होने लगता है। हो भी क्यों न? जगह ही ऐसी है- मंत्रमुग्ध कर देने वाली, कभी न भुलाई जाने वाली। जाने का मन करे, और एक बार जाओ तो लौटने की इच्छा न हो। लौटकर आओ तो बार-बार जाने को दिल उमड़े। छत्तीसगढ़ में मेरे एक परिचित हैं। घूमने-फिरने के शौकीन हैं, कैलाश यात्रा कर चुके हैं। जब-तब बात होती है। अक़सर वो फख़्र से कहते हैं- कैलाश-मानसरोवर की यात्रा के बिना सारी यात्राएं अधूरी हैं, तुम एक बार ज़रूर जाओ। सुनते ही मन में टीस उठती है। जाना है ही, लेकिन बुलावा तो आए। सुना है कि बुलावा न हो तो आप वहां जा नहीं सकते।
जहां मिलता है ब्रह्म ज्ञान
शिव का धाम है कैलाश-मानसरोवर। देवलोक है। कहते हैं कि मौत के बाद आत्माएं यहीं वास करती हैं। यह वो जगह है जहां ब्रह्म ज्ञान मिलता है। इसीलिए यहां देवता, दानव और ऋषि-मुनि सदियों से तपस्या करते रहे हैं। सैलानियों के अलावा धर्म-कर्म में विश्वास रखने वाले लोग भी आते हैं। हर साल.. हज़ारों की तादाद में। हिन्दुओं के लिए मानसरोवर किसी तीर्थ से कम नहीं है। बौद्ध और बोन (बौद्ध धर्म से भी पुराना धर्म जिसकी उत्पत्ति कैलाश में हुई मानी जाती है) अनुयायियों के लिए इससे पवित्र स्थान कोई नहीं है। जैन लोग भी इस जगह को पूजते हैं। मान्यता है कि जैनियों के पहले तीर्थंकर ऋषभ देव ने सिर्फ़ आठ क़दमों में कैलाश की परिक्रमा कर ली थी।
बहुत कठिन है डगर मानसरोवर की
कैलाश-मानसरोवर की यात्रा जीवन की सबसे मुश्किल यात्राओं में से है। सुदूर हिमालय में तिब्बत की गोद में बसा है मानसरोवर। इस यात्रा के लिए पहले अनुमति नहीं लेनी पड़ती थी। 1920 और 1930 के दशक में पंडित राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत की कई यात्राएं कीं और दिलचस्प यात्रा वृत्तांत लिखे। वो दौर अलग था। लेकिन तिब्बत अब चीन के आधिपत्य में है। इसलिए भारत और चीन सरकार की सहमति ज़रूरी हो गई है। अगर आप किसी ग्रुप के साथ न जा रहे हों तो वीज़ा मिलने की संभावना भी नहीं है।
कैलाश-मानसरोवर जाने के दो नज़दीकी रास्ते हैं। एक उत्तराखंड से होकर और दूसरा नेपाल से। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ से धारचूला होते हुए लिपूलेख पास पहुंचते हैं, और फिर तिब्बत। यह यात्रा भारत सरकार के कुमाऊं मंडल विकास निगम की देख-रेख में संपन्न होती है। नेपाल से जाना हो तो प्राइवेट टूर ऑपरेटर अच्छा विकल्प हैं। महंगा होने के बावजूद यह रूट ज़्यादातर यात्रियों की पसंद है। काठमांडू होकर पहले नेपाल-चीन सीमा पर स्थित मैत्री-पुल पहुंचा जाता है। यहां यात्रियों के ज़रूरी क़ागज़ात की जांच होती है। हरी झंडी मिलने पर यात्री तिब्बत के नायलम क्षेत्र की तरफ बढ़ते हैं। फिर दारचेन आता है जो बेस स्टेशन है। यहीं से शुरू होती है विराट कैलाश पर्वत की परिक्रमा। समुद्रतल से क़रीब 25 हज़ार फीट की ऊंचाई पर है कैलाश पर्वत। यहां तापमान शून्य से बहुत नीचे रहता है। सर्द हवाएं चलती हैं, भारी बर्फ़बारी होती है। इंसान तो दूर, परिंदा भी नज़र नहीं आता। हज़ारों फीट की ऊंचाई और ऑक्सीज़न की कमी के बीच लंबी पैदल यात्रा करनी होती है।
मुक्ति की चाह में
मान्यता है कि एक बार कैलाश की परिक्रमा कर लें तो सारे पापों का नाश हो जाता है। 10 फेरों में 'कल्पा' यानी एक युग के पाप धुल जाते हैं और 108 फेरे लगाने से निर्वाण मिल जाता है। मज़े की बात है कि एक चक्कर 52 किलोमीटर का है। इसका मतलब यह कि 10 चक्कर लगाने के लिए कई दिन चाहिए और गज़ब की इच्छाशक्ति व स्टेमिना भी। एक और मज़े की बात यह कि कैलाश की संरचना कुछ ऐसी है कि आधी परिक्रमा के दौरान यह दिखता है जबकि आधी में आंखों से ओझल रहता है।
चलिए, वापस चलते हैं परिक्रमा पर। बौद्धों की परिक्रमा ज़्यादा कठिन होती है। मेरे तिब्बती मित्र ताशी वांगचुक बताते हैं कि बौद्ध लेटकर साष्टांग प्रणाम करते हुए कैलाश का चक्कर लगाते हैं। धर्मगुरु दलाई लामा कहते हैं कि "जब तुम परिक्रमा करते हो, तुम्हारे पैर एक क़दम से दूसरे तक का रास्ता तय करते समय बीच की जगह छोड़ देते हैं, लेकिन जब साष्टांग प्रणाम करते हुए जाते हो तब तुम्हारी देह उस पवित्र धरती को छूती है, उसे अपनी देह के घेरे में बांधती है।"
कैलाश की विशालता स्तब्ध कर देने वाली है। दूर से देखने पर यह पत्थर और बर्फ़ के मिले-जुले पिरामिड जैसा लगता है। उस पर बर्फ़ की सीढ़ियां अचरज में डाल देती हैं। गर्मी के दिनों में जब बर्फ़ चटकती है तो गर्जना होती है। श्रद्धालु मानते हैं कि यह शिव के मृदंग की आवाज़ है। इसे देखना और सुनना दिव्य है, किसी ईश्वरीय अनुभव के जैसा। कैलाश के चरणों में गौरी कुंड है। हल्का हरा रंग लिए हुए यह छोटी सी झील है.. किसी ख़ूबसूरत गहने जैसी। पौराणिक कथाओं की मानें तो इस कुंड में मां पार्वती ने शिव को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया था।
कैलाश चार नदियों का उद्गम स्थल है- कर्नाली (गंगा की सहायक नदी), सतलुज, ब्रह्मपुत्र और सिंधु। कैलाश की चारों दिशाओं में अलग-अलग जानवरों की आकृतियां नज़र आती हैं। पूर्व दिशा अश्वमुख जैसी है, पश्चिम में हाथी का मुख है, उत्तर में शेर और दक्षिण में मोर का मुख है। चारों दिशाओं से एक-एक नदी का उद्गम होता है। कैलाश के कपाल से उतरकर ये नदियां एशिया के अलग-अलग हिस्सों में बहती हैं।
बात मानसरोवर की
यह दुनिया में सबसे ऊंची, और ताज़े पानी की इकलौती झील है। ख़ूबसूरत इतनी कि नज़रें न हटें। कहते हैं रात के वक़्त, ख़ासतौर से चांदनी में, यह और ख़ूबसूरत व रहस्यमयी लगती है। मानसरोवर का यह नयनाभिराम नज़ारा मैंने तस्वीरों में ही देखा है- सुंदर, भव्य, और गरिमा से भरा हुआ। झील में नीला, हरा, बैंगनी, और न जाने कौन-कौन से रंग परिलक्षित होते हैं। कुछ लोगों ने इसमें सात रंग भी देखे हैं। पानी में छिटकते इन्द्रधनुषी रंग और उनके बीच शान से तैरते हुए राजहंस.. यह किसी दिवास्वप्न से कम नहीं। यहां बाबा नागार्जुन की एक कविता याद आ रही है, जिसमें उन्होंने कैलाश-मानसरोवर का ख़ूबसूरत ज़िक्र किया है।
"अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहीन कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।"
कुछ लोग कहते हैं कि ब्रह्म मुहूर्त के समय मानसरोवर में सुनहरी राजहंस भी आते हैं। ख़ुशक़िस्मत होगा वो जिसने सुनहरी हंस देखे होंगे।
मानसरोवर के दूसरी तरफ राक्षसताल है। गंगा-चू नाम की एक छोटी नदी इन दोनों झीलों को जोड़ती है। कहते हैं कि रावण ने इस झील के किनारे बैठकर शिव की आराधना की थी, इसलिए इसका नाम रावणताल भी है।
ऊंचे-ऊंचे शिखर, बर्फ़ से ढके हुए, उदात्त। और उनमें समाया हुआ अजीब-सा खालीपन। ऐसा खालीपन जिसे ख़ुद में भर लेने का मन करे। ऐसा रहस्य जिसे सुलझाने का और उसमें ही समा जाने का दिल करे। कुछ यात्री कैलाश पर सामान छोड़कर आते हैं, अपना या अपने किसी प्रिय का कपड़ा, कोई चीज़, बाल या नाख़ून वगैरह।
हंसों को तिरते देखा है।"
कुछ लोग कहते हैं कि ब्रह्म मुहूर्त के समय मानसरोवर में सुनहरी राजहंस भी आते हैं। ख़ुशक़िस्मत होगा वो जिसने सुनहरी हंस देखे होंगे।
मानसरोवर के दूसरी तरफ राक्षसताल है। गंगा-चू नाम की एक छोटी नदी इन दोनों झीलों को जोड़ती है। कहते हैं कि रावण ने इस झील के किनारे बैठकर शिव की आराधना की थी, इसलिए इसका नाम रावणताल भी है।
...बैठकर किसी कोने में करो ध्यान
एक बौद्ध प्रार्थना है- "बैठकर किसी कोने में ध्यान करो, यूं कि जैसे तुम कोई घायल पशु हो।" हिन्दू दर्शन कहता है कि शरीर को जितना कष्ट होगा, उतना ही पुण्य भी मिलेगा। हम जब तक़लीफ़ में होते हैं तो आस्था जाग उठती है। हम भगवान को याद करने लगते हैं। मानसरोवर की यात्रा में यह दर्शन सटीक बैठता है। जितना कष्ट, उतनी ही संतुष्टि। स्कंद पुराण में लिखा है- "जैसे ओस सूख जाती है सुबह होने पर, पाप सूख जाते हैं हिमालय दर्शन होने पर।" एकचित्त होकर हिमालय की गोद में बैठें तो भक्तिभाव स्वत: ही फूटेगा और निर्मल हो जाएगा सब।ऊंचे-ऊंचे शिखर, बर्फ़ से ढके हुए, उदात्त। और उनमें समाया हुआ अजीब-सा खालीपन। ऐसा खालीपन जिसे ख़ुद में भर लेने का मन करे। ऐसा रहस्य जिसे सुलझाने का और उसमें ही समा जाने का दिल करे। कुछ यात्री कैलाश पर सामान छोड़कर आते हैं, अपना या अपने किसी प्रिय का कपड़ा, कोई चीज़, बाल या नाख़ून वगैरह।
कीथ डोमेन की किताब 'द सेक्रेड लाइफ ऑफ तिब्बत' में लिखा है कि "किसी शक्ति-स्थल पर अपने देवता के लिए स्मृति-चिह्न छोड़ आने का अर्थ है उसके लिए अपनी उपस्थिति छोड़ आना, ताकि वह उसे याद रखे विशेषकर जब तीर्थयात्री मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच का रास्ता पार कर रहा हो।"
मानसरोवर प्रकृति का प्रतीक है। हम सब कितने बौने हो जाते हैं प्रकृति के सामने। प्रकृति के अपने क़ायदे हैं। लेकिन मानसरोवर में कोई क़ायदा नहीं है। बल्कि यहां बंधन टूटते हुए लगते हैं। सब-कुछ स्वच्छंद है। न कोई मंदिर न मूर्ति। न ही पूजा-पाठ करने की विवशता। अगर कुछ है तो सिर्फ़ संकल्प और दृढ़ विश्वास। ऊपरी सत्ता को महसूस करने का खुला मौक़ा है। अडिग रहने की इच्छाशक्ति है... कैलाश पर्वत जैसी अडिग शक्ति।
कैलाश-मानसरोवर की यात्रा में जो परम सुख है, उसे शब्दों में बयां करना मुमकिन नहीं। एक परिचित ने कैलाश-मानसरोवर से लौटकर जो आप-बीती मुझे बताई उसे सुनकर मैं निःशब्द रह गई।
एक अलौकिक अनुभव
कैलाश-मानसरोवर की यात्रा अलौकिक है। इस यात्रा के दौरान कई पल ऐसे आते हैं जब सब थम जाता है। आंखें चुंधियाने लगती हैं, आंसू बहने लगते हैं, अंदर का सारा मैल निकल जाता है, मन की स्लेट साफ हो जाती है। हर कोई निश्छल और निष्कपट हो जाता है। यहां ख़ुद से सामना होता है, अन्तर्मन से साक्षात्कार होता है। यहां आकर कुछ लोग या तो बिल्कुल मौन रहते हैं, या फिर बिलख-बिलख कर रोने लगते हैं। मोह-माया, सांसारिक उलझनें.. सब बेमानी लगते हैं। आत्मशुद्धि होने लगती है। कैथार्सिस (विरेचन) होता है। लामा अंगरिका गोविंदा ने कहा है- "हर तीर्थयात्रा, विशेषकर कैलाश परिक्रमा, में वह क्षण आता है जब यात्री का अहं टूटता है, अपने से रिश्ता टूटता है। और जैसे ही यह होता है, भीतर विराट को ग्रहण करने की रिक्ति आ जाती है।"
कैलाश-मानसरोवर में हर साल 12 जून को 'सागा दावा' उत्सव मनाया जाता है। तिब्बती कैलेंडर के मुताबिक चौथे महीने के 15वें रोज़ पूर्णमासी के दिन यह उत्सव होता है। कहते हैं इस दिन 'शाक्यमुनि' यानि गौतम बुद्ध का जन्म हुआ और यही वो दिन है जब उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ था। ज़्यादातर श्रद्धालु इसी समय कैलाश यात्रा पसंद करते हैं। इस दिन तिब्बती मूल के लोग 'तारबुचे' यानि प्रार्थना-डंडिका पर ध्वज लहराकर पारंपरिक नृत्य करते हैं। सागा दावा के दिन बौद्ध मांसाहार से दूर रहते हैं।
कहते हैं कि आप जितने ऊंचे होते जाते हैं, उतने ही अकेले भी। बिल्कुल सत्य है। आध्यात्मिक यात्रा में यह बात उतनी ही खरी बैठती है जितनी जीवन की दूसरी यात्राओं में। सबकी अपनी-अपनी यात्राएं हैं, अपनी-अपनी चढ़ाइयां हैं। किसी के लिए रुपए-पैसे की अहमियत है और भौतिकवादी चढ़ाई ही सब-कुछ है, तो कुछ लोग हैं जो अध्यात्मिक ऊंचाइयों को पाकर ही संतुष्ट होते हैं।
मानसरोवर एक अंतर्यात्रा है, अल्टीमेट जर्नी है। कहते हैं, वहां जाकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष मिले या न मिले, कैलाश यात्रा पर ज़रूर जाना है। एक बार उस ऊंचाई तक पहुंचना है। पक्का यक़ीन है कि मैं जल्द ही ख़ुद को कैलाश के समक्ष नतसिर होते हुए देखूंगी।
मानसरोवर प्रकृति का प्रतीक है। हम सब कितने बौने हो जाते हैं प्रकृति के सामने। प्रकृति के अपने क़ायदे हैं। लेकिन मानसरोवर में कोई क़ायदा नहीं है। बल्कि यहां बंधन टूटते हुए लगते हैं। सब-कुछ स्वच्छंद है। न कोई मंदिर न मूर्ति। न ही पूजा-पाठ करने की विवशता। अगर कुछ है तो सिर्फ़ संकल्प और दृढ़ विश्वास। ऊपरी सत्ता को महसूस करने का खुला मौक़ा है। अडिग रहने की इच्छाशक्ति है... कैलाश पर्वत जैसी अडिग शक्ति।
कैलाश-मानसरोवर की यात्रा में जो परम सुख है, उसे शब्दों में बयां करना मुमकिन नहीं। एक परिचित ने कैलाश-मानसरोवर से लौटकर जो आप-बीती मुझे बताई उसे सुनकर मैं निःशब्द रह गई।
एक अलौकिक अनुभव
कैलाश-मानसरोवर की यात्रा अलौकिक है। इस यात्रा के दौरान कई पल ऐसे आते हैं जब सब थम जाता है। आंखें चुंधियाने लगती हैं, आंसू बहने लगते हैं, अंदर का सारा मैल निकल जाता है, मन की स्लेट साफ हो जाती है। हर कोई निश्छल और निष्कपट हो जाता है। यहां ख़ुद से सामना होता है, अन्तर्मन से साक्षात्कार होता है। यहां आकर कुछ लोग या तो बिल्कुल मौन रहते हैं, या फिर बिलख-बिलख कर रोने लगते हैं। मोह-माया, सांसारिक उलझनें.. सब बेमानी लगते हैं। आत्मशुद्धि होने लगती है। कैथार्सिस (विरेचन) होता है। लामा अंगरिका गोविंदा ने कहा है- "हर तीर्थयात्रा, विशेषकर कैलाश परिक्रमा, में वह क्षण आता है जब यात्री का अहं टूटता है, अपने से रिश्ता टूटता है। और जैसे ही यह होता है, भीतर विराट को ग्रहण करने की रिक्ति आ जाती है।"
कैलाश-मानसरोवर में हर साल 12 जून को 'सागा दावा' उत्सव मनाया जाता है। तिब्बती कैलेंडर के मुताबिक चौथे महीने के 15वें रोज़ पूर्णमासी के दिन यह उत्सव होता है। कहते हैं इस दिन 'शाक्यमुनि' यानि गौतम बुद्ध का जन्म हुआ और यही वो दिन है जब उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ था। ज़्यादातर श्रद्धालु इसी समय कैलाश यात्रा पसंद करते हैं। इस दिन तिब्बती मूल के लोग 'तारबुचे' यानि प्रार्थना-डंडिका पर ध्वज लहराकर पारंपरिक नृत्य करते हैं। सागा दावा के दिन बौद्ध मांसाहार से दूर रहते हैं।
कहते हैं कि आप जितने ऊंचे होते जाते हैं, उतने ही अकेले भी। बिल्कुल सत्य है। आध्यात्मिक यात्रा में यह बात उतनी ही खरी बैठती है जितनी जीवन की दूसरी यात्राओं में। सबकी अपनी-अपनी यात्राएं हैं, अपनी-अपनी चढ़ाइयां हैं। किसी के लिए रुपए-पैसे की अहमियत है और भौतिकवादी चढ़ाई ही सब-कुछ है, तो कुछ लोग हैं जो अध्यात्मिक ऊंचाइयों को पाकर ही संतुष्ट होते हैं।
मानसरोवर एक अंतर्यात्रा है, अल्टीमेट जर्नी है। कहते हैं, वहां जाकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष मिले या न मिले, कैलाश यात्रा पर ज़रूर जाना है। एक बार उस ऊंचाई तक पहुंचना है। पक्का यक़ीन है कि मैं जल्द ही ख़ुद को कैलाश के समक्ष नतसिर होते हुए देखूंगी।
-माधवी
('अहा ज़िंदगी' पत्रिका के अप्रैल 2011 'यात्रा विशेषांक' में प्रकाशित, चित्र गूगल से)
('अहा ज़िंदगी' पत्रिका के अप्रैल 2011 'यात्रा विशेषांक' में प्रकाशित, चित्र गूगल से)
Wonder what you would have written if this was post your visit to Mansarovar. This article of yours has made my conviction to visit Mansarovar even stronger.
ReplyDeleteI hope you would make it there soon. --D
bahut achcha laga.....hope u will be sharing ur realtime experience soon
ReplyDeleteइतने अच्छे आलेख में मानसरोवर का चित्र भी नहीं है :)
ReplyDeleteलाक्षणिक यात्रा तो पूरी हो गयी यह पढ़कर ही !
राहुल सांस्कृत्यायन नहीं राहुल सांकृत्यायन !
Many thanks Anonymous and Shekhar !
ReplyDeleteअरविन्द जी, मुझे खेद है। भूल सुधार ली गई है। बहुत धन्यवाद। ब्लॉग पर तशरीफ़ लाते रहिएगा।
ReplyDeleteपुनश्च: - पाठक हो तो आप जैसा :)
परिब्राजक(trotter)भी हो तो आप जैसा :)
ReplyDeleteमाधवी ,
ReplyDeleteएक सांस में पढ़ गयी मैं पूरा !
गटगट गट गट ! पानी की तरह पी गयी रे !
Madhvi Ji
ReplyDeleteBahut hi khubsurat lekh. Aha Jindgi main padha aur dundthe hue yahan pahuncha. Laga Mansarovar yatra karwane ke liye aur baba nagarjun ki kavita ke liye abahar prakat kar du. So Abhar Swikar Kare Mansarovar Kool ke liye.
मैं भी नहीं गया मानसरोवर, लेकिन जितनी बार भी तस्वीरें देखता हूँ या फिर कुछ पढता हूँ, मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ...बहुत से जगहों पे जाने का मन है, उन सबमे मानसरोवर ऊपर ही आता है...
ReplyDeleteThanks Baabusha, DK & Abhi !!
ReplyDeleteअहा ज़िन्दगी में के इस एडिशन में सिर्फ यही एक आर्टिकल था जिसे पढने की इच्छा हुई.. और जबसे पढ़ा है उसके बाद नेट पर मानसरोवर के बारे में काफी कुछ सर्च कर लिया है.. वहां जाने की इच्छा प्रबल हो गयी है.. आपने वहा ना जाकर भी इतनी खूबसूरती से जो उसका वर्णन किया है वो काबिल ए तारीफ़ है.. कभी मानसरोवर जा पाया तो वहां जाने का रीजन सिर्फ ये आर्टिकल होगा..
ReplyDeleteThanks a lot for sharing this.
शुक्रिया कुश ! मेरा अदना सा लेख आपको मानसरोवर तक ले जा पाए कभी.. तो ख़ुशक़िस्मत हूँ मैं !!
ReplyDelete'अहा जिन्ददी' में इसे पढ़ा था चार - पाँच दिन पहले और अब फिर पढ़कर कह रहा हूँ - अहा!
ReplyDeleteबहुत ही अच्छॆ गद्य से साक्षात्कार हुआ है इस रचना से !
और आपके ब्लॉग के बारे में यही कहना है - उत्तम , सचमुच।
भगवान आपकी मनोकामना शीघ्र पूरी करें। आमीन
ReplyDeleteसिद्धेश्वर जी, आभारी हूं।
ReplyDeleteश्याम जी, दुआ के लिए शुक्रिया।
ReplyDelete