Monday, January 31, 2011

सैर सबसे छोटे हिल स्टेशन की

(महाराष्ट्र के रायगढ़ ज़िले में एक हिल स्टेशन है माथेरान... मुंबई से 100 किलोमीटर दूर। मुंबई और इसके आस-पास रहने वाले लोगों के लिए माथेरान वीक-एंड मनाने के लिए उपयुक्त है। इसके अलावा जो लोग ट्रैकिंग के शौकीन हैं, माथेरान में साल भर उनका तांता लगा रहता है।) 

उत्तर भारत में सालों बिताने के बाद मैं मुंबई में कई चीज़ें अक्सर मिस करती हूं, जैसे उत्तर भारत का खाना और सर्दी का मौसम। मुंबई में ठंड न के बराबर होती है। इधर कुछ दिनों से उत्तरी भारत के दोस्तों से जब भी बात हो रही थी, वो कंपकंपाती सर्दी का राग अलाप रहे थे। ऐसे में ख़याल आया कि क्यों न हम भी किसी ठंडी जगह जाकर सर्द मौसम का मज़ा लें। बजट और समय का ध्यान भी रखना था, तो माथेरान से अच्छी जगह और कोई नहीं मिली। 
मुंबई से कुछ दोस्तों के साथ हम चल दिए माथेरान के लिए। अल्लसुबह रवाना होकर दादर स्टेशन से लोकल ट्रेन पकड़ 2 घंटे में हम नेरल जंक्शन पहुंच गए। नेरल माथेरान के लिए सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन है। यहां छोटी लाइन है जो माथेरान तक जाती है। 
स्टेशन से बाहर आते ही हमें एक लंबी कतार दिखी। यह लाइन टॉय ट्रेन की टिकट के लिए थी। टॉय ट्रेन माथेरान का मुख्य आकर्षण है। छुक-छुक करती हुई गाड़ी नेरल से 21 किलोमीटर का सफ़र तय करती हुई 2 घंटे में माथेरान पहुंचा देती है। मंज़िल तक पहुंचने की जल्दी कह लें या सब्र की कमी, कतार का हिस्सा न बनते हुए हमने टॉय ट्रेन को टाटा कहा और टैक्सी स्टैंड की तरफ बढ़ गए। 
रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही आपको कई छोटे-छोटे रेस्तरां दिखेंगे। इनमें महाराष्ट्र और गुजरात का भोजन मिलता है, मिसल-पाव खाना हो या पोहा, वड़ा-पाव पसंद करते हैं या ढोकला... यहां सब मिलेगा।
नेरल से माथेरान का रास्ता ख़ूबसूरत है। एक तरफ ऊंचे पहाड़ हैं तो दूसरी तरफ गहरी खाई। रास्ता काफी घुमावदार और चढ़ाई वाला है। लेकिन सुहाने सफ़र का मज़ा लेते हुए हम कब दस्तूरी नाका पहुंचे, पता ही नहीं चला। दस्तूरी नाका आख़िरी पड़ाव है, जहां से आप पैदल या घोड़ों की मदद से माथेरान पहुंच सकते हैं।
वाहनों का प्रवेश वर्जित
माथेरान देश का इकलौता हिल स्टेशन है जहां निजी वाहन ले जाने की अनुमति नहीं है। चाहें तो दस्तूरी नाका तक गाड़ी ला सकते हैं लेकिन आगे जाने के लिए पैदल चलने के अलावा, घोड़े या फिर हाथ-रिक्शा का विकल्प है। दस्तूरी नाका से माथेरान के लिए मामूली प्रवेश शुल्क है।
चारों तरफ बिखरी लाल मिट्टी, छायादार पेड़, ऊबड़-खाबड़ रास्ता, घोड़े और उनकी टापें... इस सबके बीच यहां ट्रैकिंग का मज़ा ही अलग है। रेलवे लाइन के साथ-साथ 3 किलोमीटर का नेचर-वॉक तरो-ताज़ा करने वाला है। कुछ दूर चलते ही कई छोटे-बड़े होटल दिखाई देने लगते हैं। माथेरान में होटलों की भरमार है। अगर आप पीक सीज़न में जा रहे हैं तो होटल की बुकिंग पहले ही करा लें।
कुदरत से घिरा माथेरान
माथेरान एक ख़ूबसूरत पहाड़ी इलाक़ा है, जिसे पर्यावरण मंत्रालय ने संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर रखा है। हर हिल स्टेशन की तरह यहां भी खूब सारे पॉइंट्स यानी दर्शनीय स्थल हैं। इनमें से 'एको प्वायंट' पर पहाड़ से टकराकर आपको अपनी ही आवाज़ सुनाई देगी। पेनोरमा पॉइंट से उगते हुए सूरज का ख़ूबसूरत नज़ारा दिखेगा तो सनसेट पॉइंट पर सुदूर पहाड़ियों के बीच गुम होता सूरज भी। 
हमारा दिन चलते-चलते ही बीत गया, एक पॉइंट से दूसरे पॉइंट तक। मंकी पॉइंट पर पहुंचकर थोड़ी सांस ली तो देखा कि आस-पास ढेर सारे बंदर आराम फरमा रहे हैं। माथेरान में बंदरों और लंगूरों की बहुतायत है। हमारे सामने सैलानियों का एक दल फोटो खींचने में मशगूल था, उनके पास ही सामान रखा था। अचानक एक बंदर उनका बैग लेकर भागा। आस-पास खड़े लोगों ने किसी तरह उसके चंगुल से बैग छुड़ाया। हमें पता चला कि कुछ देर पहले उस ग्रुप में से एक आदमी बंदर को चिढ़ा रहा था। शांत दिखने वाले बंदर कभी भी खुराफ़ात कर सकते हैं इसलिए सावधान रहें और उनके सामने खाने-पीने की कोई चीज़ न ले जाएं। 
अगले दिन हमें शार्लोट लेक जाना था। शार्लोट लेक वो लेक है, जहां से पूरे माथेरान के लिए पानी की सप्लाई की जाती है। झील के आस-पास का इलाका सुकून देने वाला है। झील से कुछ ही दूरी पर पिसरनाथ मंदिर है। लॉर्ड्स पॉइंट भी नज़दीक है, जहां से आप सहयाद्रि पर्वत श्रृंखला से घिरा माथेरान देख सकते हैं। यहीं से गौर से देखने पर प्रबलगढ़ किला भी नज़र आता है। 
वापसी में आपको ब्रिटिश और पारसी शैली के ख़ूबसूरत बंगले देखने को मिलेंगे। ज़्यादातर बंगले परित्यक्त हैं, और देख-रेख के अभाव में जर्जर हो चुके हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि मुश्किल रहन-सहन और वाहन की सुविधा न होने से उन बंगलों के मालिक माथेरान छोड़कर बाहर जा बसे हैं। 
ट्रैकिंग प्रेमियों के लिए ख़ास
दिन भर सैर करते-करते हमारी टांगें जवाब देने लगीं थीं लेकिन कुदरत के साथ कदमताल करने का मौक़ा कभी-कभी ही मिलता है, यह सोचकर हम आगे बढ़ते रहे। यकीन मानिए, प्रकृति-प्रेमियों के लिए माथेरान किसी तोहफ़े से कम नहीं है। चारों तरफ़ सिर्फ़ और सिर्फ़ हरियाली है। तरह-तरह के जीव-जन्तुओं का घर भी है माथेरान! आप यहां पपीहा, मैना, किंगफिशर और मुनिया जैसे पंछी देख सकते हैं। यहां कई तरह के सांप भी हैं लेकिन वो ज़हरीले नहीं हैं। अगर आप चलते-चलते थक जाएं तो बीच रास्ते में कहीं से भी घोड़ा किराए पर ले सकते हैं। घोड़े वाले जगह-जगह मिल जाएंगे। हाथ रिक्शा का विकल्प भी है लेकिन मोल-भाव करना मत भूलिएगा।
वैली-क्रॉसिंग है आकर्षण

टॉय ट्रेन और प्रदूषण रहित आबो-हवा के अलावा माथेरान में एक आकर्षण और है... वैली-क्रॉसिंग का। वैली-क्रॉसिंग यानी रस्सियों की मदद से दो पहाड़ियों के बीच की खाई पार करना। इस तरह के रोमांचकारी खेल में अगर आप दिलचस्पी रखते हैं तो माथेरान आपके लिए अच्छी जगह है। लॉर्ड्स पॉइंट के नज़दीक वैली-क्रॉसिंग की सुविधा है। यहां दो विकल्प हैं- बटरफ्लाई वे और क्रॉलिंग वे। अपनी सुविधानुसार आप वैली-क्रॉसिंग का कोई भी तरीक़ा चुन सकते हैं। ज़रा सोचिए, एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक जाने का यह अंदाज़ कितना रोमांचक हो सकता है।
अलग ही रोमांच
लॉर्ड्स पॉइंट में मैं बटरफ्लाई और क्रॉलिंग कर ही चुकी थी, लेकिन वो सिर्फ़ वॉर्म-अप था। रोमांच की चिंगारी भीतर अब भी सुलग रही थी, जिसे शांत करने का मौका मुझे यहां मिल गया। ट्रैकिंग करते हुए लुइज़ा पॉइंट की तरफ हमें हनीमून पॉइंट का बोर्ड दिखा। स्थानीय लोगों ने बताया कि यहां वैली-क्रॉसिंग होती है। यह सुनते ही हम हनीमून पॉइंट की तरफ़ बढ़ गए, जहां एक प्रोफेशनल टीम ने हमारा स्वागत किया। सामने, दूर जो पहाड़ी दिख रही थी, वही लुइज़ा पॉइंट था। लुइज़ा पॉइंट की उस पहाड़ी तक मुझे फ्लाइंग फॉक्स के ज़रिए पहुंचना था। फ्लाइंग फॉक्स वैली-क्रॉसिंग का एक तरीका है, जिसमें रस्सियों की मदद से हवा में लटके-लटके एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक पहुंचा जा सकता है। 
जेब ढीली और दिल मज़बूत करके 900 फुट की गहराई पार करने के लिए मैं तैयार थी। तभी हल्का-सा एक धक्का लगा... सर्र की आवाज़ आई और अगले ही पल मैंने ख़ुद को हवा से बातें करते हुए पाया! हिम्मत जुटाकर आस-पास देखा तो चारों तरफ़ दूर तक फैला जंगल और डूबता हुआ सूरज नज़र आया। हवा में झूलते हुए यह नज़ारा अद्भुत लगा। नीचे झांका तो पांव तले ज़मीन खिसक जाने का सही मतलब समझ में आया। एक गहरी खाई ठीक नीचे थीस जिसे देखकर एकबारग़ी तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए लेकिन फिर इस रोमांच से तारतम्य-सा बैठ गया। मज़बूत रस्सियों से बंधी मैं खुले आकाश में किसी पंछी की तरह इठला रही थी। मन तो था कि ऐसे ही, घंटों तक हवा में झूलती रहूं लेकिन ख़ूबसूरत लम्हों की उम्र कम होती है। मैं अपनी मंज़िल, लुइज़ा पॉइंट तक पहुंच चुकी थी। एक लम्बी सांस लेकर मैंने उत्तेजना से भरे इस अनोखे सफर के बारे में सोचा और आगे बढ़ गई। 
अगर आप भी रोमांच प्रेमी हैं तो हनीमून पॉइंट पर वैली-क्रॉसिंग का अनुभव ज़रूर करें। 900 फुट गहरी खाई, आर-पार दो पहाड़ियां, और उनके बीच 850 फुट का फ़ासला, यहां वैली-क्रॉसिंग का तजुर्बा बेहतरीन साबित होगा। फीस प्रति व्यक्ति 250 रूपए है। सुरक्षा के इंतज़ाम पक्के हैं।  
चहल-पहल भरी एमजी रोड
लाल मिट्टी से सना कच्चा रास्ता और दूर-दूर तक कोई वाहन नहीं, यह है माथेरान की एमजी रोड यानी महात्मा गांधी रोड। किसी दूसरी एमजी रोड से बिल्कुल अलग, लेकिन चहल-पहल के मामले में अव्वल। दोपहर हो या शाम, सैलानियों का खूब जमावड़ा रहता है यहां। तकरीबन हर दुकान पर लकड़ी की गुलेलें बिकती हुई दिखीं। एक दुकानदार ने बताया कि ये गुलेलें बंदरों को डराने के काम आती हैं। एमजी रोड पर चिक्की की कई दुकानें हैं, चिक्की माथेरान का ख़ास मिष्ठान है। इसके अलावा आप स्थानीय कारीगरों के बनाए जूते-चप्पल भी यहां से ख़रीद सकते हैं। 
माथेरान को अलविदा कहने का वक़्त था। बाज़ार से हम रेलवे स्टेशन की तरफ चल दिए, यह सोचकर कि वापसी में ही सही, टॉय ट्रेन की सवारी का लुत्फ़ ज़रूर लेंगे। लेकिन वहां एक लम्बी कतार फिर नज़र आई। चार डिब्बों की टॉय ट्रेन और सैकड़ों सवारियां, लगा जैसे एक अनार हो और सौ बीमार। पर इस बार लाइन में खड़े होने की हिम्मत जुटा ही ली। लेकिन पता चला कि करंट बुकिंग में 30 से ज़्यादा सवारियों को टिकट नहीं मिलता। माथेरान लाइट रेलवे का यह नियम सर-आंखों पर रख हमने वापसी के लिए टैक्सी पकड़ ली। 
कब जाएं
माथेरान का मौसम यूं तो साल भर सुहावना रहता है लेकिन अक्तूबर से मई तक का समय सबसे अच्छा है। माथेरान की असली छटा देखनी हो तो मॉनसून के तुरन्त बाद प्रोग्राम बनाएं। भीड़-भड़क्के से बचना है तो वीक-एंड और छुट्टियों में जाने से परहेज़ करें।
क्या ले जाएं 
ट्रैकिंग के लिए अच्छी क्वालिटी के जूते साथ रखें। स्पोर्ट्स शूज़ हों तो बेहतर है। सामान हल्का रखें। 


(दैनिक जागरण के 'यात्रा' परिशिष्ट में 30 जनवरी 2011 को प्रकाशित)

Thursday, January 27, 2011

वक़्त-वक़्त की बात

सपनीली सुबह 
कभी उनींदी है 
तो कभी 
चटख, मुस्तैद भी

दोपहरी धूप
देह पर दमके कांसे-सी
तो कभी
सिकोड़ देती है पोर-पोर भी 

ढलती सांझ 
लगती रूमानी बेतरह
तो कभी
बेमानी-सी भी

रात स्याह
गुज़रे नीम बेहोशी में
तो कभी
लगाती फिरती है गश्त भी 

आसमां रहता है एक
बदल जाती हैं बस 
खिड़कियां ही।
-माधवी

Sunday, January 23, 2011

अपने साथ

दुर्लभ होते हैं ऐसे पल
सब होता है जब
एकान्त से भरा और
नितान्त निजी

कोई नहीं दिखता आस-पास
पथरीली चुप्पी के सिवा
मैं होती हूं केवल
अपने साथ
वक़्त गुज़ारती हुई

बिखरने लगते हैं मोह-तंतु
टूट-टूट कर जब 
बेतरह अकेला
भीतर का कोई अंश
गर्भनाल तोड़ 
आ बैठता है सामने

और मैं 
और अलमस्त हो जाती हूं
-माधवी

Sunday, January 16, 2011

मुझे चाहिए

(अशोक वाजपेयी की कविता उनकी 70वीं सालगिरह पर

मुझे चाहिए पूरी पृथ्वी
अपनी वनस्पतियों, समुद्रों
और लोगों से घिरी हुई
एक छोटा-सा घर काफ़ी नहीं है

एक खिड़की से मेरा काम नहीं चलेगा
मुझे चाहिए पूरा का पूरा आकाश
अपने असंख्य नक्षत्रों और ग्रहों से भरा हुआ

इस ज़रा सी लालटेन से नहीं मिटेगा
मेरा अंधेरा
मुझे चाहिए
एक धधकता हुआ ज्वलंत सूर्य

थोड़े से शब्दों से नहीं बना सकता
मैं कविता
मुझे चाहिए समूची भाषा
सारी हरीतिमा पृथ्वी की
सारी नीलिमा आकाश की
सारी लालिमा सूर्योदय की।

Monday, January 10, 2011

कल की कविता

आने वाले कल के ख़याल
बेचैन करते हैं 
आज को

कल की परवाह 
उठाती है सर
और बौना-सा बन आज
दुबक जाता है किसी
कोने में जाकर

कल की तदबीरें
बेमानी हैं आज के लिए 
वजूद लिए अपना आज
भटकता है 
दर-ब-दर

कल के चक्र में
फंसकर आज 
तोड़ता है दम
थक-हार कर 

कल का इंतज़ार? 
गुज़र जाएंगे आज 
कल, परसों
और फिर बरसों 
लेकिन 
कल नहीं आएगा।
-माधवी

Tuesday, January 4, 2011

बिनायक सेन के जन्मदिन पर

तुम उनकी साज़िशों को ख़त्म कर दोगे
तुम प्रवंचना की उनकी कुटिल
चालों का अंत कर दोगे

हत्याएं करने-करवाने की
ठंडी फांसियां देने-दिलवाने की
चुपचाप ज़हर घोलने-घुलवाने की

कारागार की नाटकीय कोठरियों में
मानवता को गलाने-गलवाने की
यानी उनकी एक-एक साज़िश को
तुम ख़त्म कर दोगे
हमेशा-हमेशा के लिए

मैं तुम्हारा ही पता लगाने के लिए
घूमता फिर रहा हूं
सारा-सारा दिन, सारी-सारी रात
आगामी युगों के मुक्ति सैनिक
कहां हो तुम?
-बाबा नागार्जुन
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