Thursday, January 27, 2011

वक़्त-वक़्त की बात

सपनीली सुबह 
कभी उनींदी है 
तो कभी 
चटख, मुस्तैद भी

दोपहरी धूप
देह पर दमके कांसे-सी
तो कभी
सिकोड़ देती है पोर-पोर भी 

ढलती सांझ 
लगती रूमानी बेतरह
तो कभी
बेमानी-सी भी

रात स्याह
गुज़रे नीम बेहोशी में
तो कभी
लगाती फिरती है गश्त भी 

आसमां रहता है एक
बदल जाती हैं बस 
खिड़कियां ही।
-माधवी

5 comments:

  1. pure din ka kya
    bkhubi varnan kiya hai aapne
    bahut khub
    ...

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  2. sankshipt par vishaal...iss kavita ka yeh hai kamaal..

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  3. Hi Madhavi

    I really liked the last sentence very much and over all detailing of different day parts. Keep it up.....
    Lokesh

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  4. ओर हर उम्र का अपना अलग आसमान है

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  5. दीप्ति, अश्विन, लोकेश, डॉ अनुराग.. आप सभी का शुक्रिया !

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