सपनीली सुबह
कभी उनींदी है
तो कभी
चटख, मुस्तैद भी
दोपहरी धूप
देह पर दमके कांसे-सी
तो कभी
सिकोड़ देती है पोर-पोर भी
ढलती सांझ
लगती रूमानी बेतरह
तो कभी
बेमानी-सी भी
रात स्याह
गुज़रे नीम बेहोशी में
तो कभी
लगाती फिरती है गश्त भी
आसमां रहता है एक
बदल जाती हैं बस
खिड़कियां ही।
-माधवी
pure din ka kya
ReplyDeletebkhubi varnan kiya hai aapne
bahut khub
...
sankshipt par vishaal...iss kavita ka yeh hai kamaal..
ReplyDeleteHi Madhavi
ReplyDeleteI really liked the last sentence very much and over all detailing of different day parts. Keep it up.....
Lokesh
ओर हर उम्र का अपना अलग आसमान है
ReplyDeleteदीप्ति, अश्विन, लोकेश, डॉ अनुराग.. आप सभी का शुक्रिया !
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