प्यार-प्यार
सखी प्यार की परिभाषा क्या''
रबिन्द्रनाथ टैगोर के इस गाने में एक सहेली दूसरी से पूछती है कि प्रेम की परिभाषा क्या है? अब प्रेम की कोई एक परिभाषा हो तो बताएं, एक मायना हो तो समझ आए। जितना सरल शब्द है प्रेम, उतना ही मुश्किल है इसे समझना। किसी के लिए प्रेम आपसी समझ है तो किसी के लिए सम्मान। किसी के लिए यह जुनून है तो किसी के लिए भक्ति।
कहीं भी चले जाइए, प्रेम की परिभाषा लिए हर शख़्स मुस्तैद खड़ा मिलेगा... गली, कूचे, मोहल्ले में। अपने-अपने ढंग और तजुर्बे से प्यार की परिभाषा देता हुआ। एक दिन मैं किसी कवि से पूछ बैठी कि आपकी नज़रों में प्रेम क्या है? उसने कहा, प्रेम कविता है। फ़िल्मकार कहता है कि प्रेम ज़रूरी है, इसके बिना हर फ़िल्म अधूरी है, शायद ज़िंदग़ी भी। किसी छात्र से पूछ लें तो वह मिनटों में प्रेम का पुराण पढ़ देगा। किसी चित्रकार की तस्वीरों को ग़ौर से देखिए तो प्यार को डिफाइन करते हुए चित्र मिल जाएंगे। लेकिन प्यार कैमिस्ट्री का कोई फॉर्मूला है या गणित की कोई थ्योरम, जिसकी वाक़ई कोई सेट डेफिनेशन है?
प्रेम सरेंडर है। निजी बात करूं तो प्रेम समर्पण है। अगर आप किसी से प्रेम करते हैं तो समर्पण का भाव ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाता है। आप 'मैं' और 'अहं' से ऊपर उठते हैं। त्याग स्थाई भाव बन जाता है। सब-कुछ न्योछावर कर देना चाहते हैं उस शख़्स पर, जो आपको निहायत अज़ीज़ है। जिसकी एक मुस्कुराहट पर आप सारे ग़म भूल उसके साथ मुस्कुराने लगते हैं। जिसकी खनखनाती हंसी से आपका दिन ख़ुशग़वार हो जाता है। वह उदास हो तो आपका चेहरा भी स्याह पड़ जाता है। साथी की जो कमियां कभी आपको खलती थीं, धीरे-धीरे वही उसका स्टाइल लगने लगती हैं। उसकी पसंद और नापंसद सब आपकी हो जाती है। आप सारी दुनिया से भले ही कट जाएं लेकिन उससे जुड़े रहना चाहते हैं। ख़ुद से पहले आप उसे सोचते हैं। दो जुदा रंग मिलकर जैसे कोई तीसरा रंग बना देते हैं, वैसा ही कुछ होता है प्रेम का रंग भी। कैसे दो अनजान दिल मिलकर प्रेम की नई परिभाषा गढ़ देते हैं। एक नया संसार रच देते हैं, इतना ख़ूबसूरत कि किसी को भी रश्क़ हो जाए।
प्रेम संघर्ष है, अनवरत, कभी ख़त्म न होने वाला संघर्ष। दो प्रेमी सात फेरे ले लें तो प्यार सफल मान लिया जाता है। कम-से-कम हिन्दुस्तान में तो प्रेम की परिणीति शादी ही है। सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा और लैला-मजनूं ने प्रेम किया, लेकिन वो इसे शादी के अंजाम तक न ला पाए। टीस रह गई। इसीलिए यह दुखांत है। सुखांत फ़िल्मों में होता है। हैप्पी एंडिंग। नायक-नायिका का रोमांस चलता है। फ़िल्म आगे बढ़ती है। प्रेम परवान चढ़ता है और एक-दूसरे के साथ जीने-मरने की क़समें खाई जाती हैं। फिर शादी होती है और फ़िल्म ख़त्म। दर्शक ताली पीटते हैं, घर लौट जाते हैं। लेकिन असल फ़िल्म इसके बाद ही शुरू होती है। जब दो लोग एक छत के नीचे रहने लगते हैं, साथ-साथ। तब शुरू होती है प्रेम की असली परीक्षा या कहिए जंग। ख़ुद को साबित करते रहने की जंग। प्यार को बचाने की जंग। शादी को बचाए रखने की जंग। रोज़ की लड़ाई। रोज़ की जद्दोज़हद। प्रेम का बीज बोया और पौधा उग आया। लेकिन यह पौधा नाज़ुक है। हर रोज़ पानी न दिया, देखभाल न की तो इसका मुर्झाना गारंटीशुदा है। इसे क़दम-क़दम पर खुराक चाहिए। ऑक्सीज़न चाहिए। रेजुवनेशन चाहिए।
प्रेम सृजन है, रचना है। मुमताज़ के प्रेम में शाहजहां ने ताजमहल बनवा दिया। कई बड़े शायर बन बैठे। कई चित्रकार बन गए। प्रेम में महाकाव्य लिखे गए, कविताएं लिखी गईं। मानो नींव का कोई पत्थर हो प्रेम, रखा और कविता की इमारत तैयार। समूचे संसार के लेखकों ने प्रेम को समझने और समझाने की कोशिश की है। ढंग सबका अलग-अलग है।
लियो तोलस्तोय मानते हैं कि ''प्रेम जीवन है। मैं जो कुछ भी समझ पाता हूं, उसकी वजह सिर्फ़ प्रेम है।''
अमेरीकी कवयित्री निकी जियोवानी की कविताएं प्रेम से लबरेज़ हैं, अलग ही ख़ूबसूरती लिए हुए। उनके लिए प्रेम की अभिव्यक्ति, वजूद की अभिव्यक्ति है। देखिए इस कविता में प्रेम में वशीभूत प्रेमिका किस तरह सब-कुछ गड़बड़ कर बैठती है:
''उम्दा ऑमलेट लिखा मैंने
रबिन्द्रनाथ टैगोर के इस गाने में एक सहेली दूसरी से पूछती है कि प्रेम की परिभाषा क्या है? अब प्रेम की कोई एक परिभाषा हो तो बताएं, एक मायना हो तो समझ आए। जितना सरल शब्द है प्रेम, उतना ही मुश्किल है इसे समझना। किसी के लिए प्रेम आपसी समझ है तो किसी के लिए सम्मान। किसी के लिए यह जुनून है तो किसी के लिए भक्ति।
कहीं भी चले जाइए, प्रेम की परिभाषा लिए हर शख़्स मुस्तैद खड़ा मिलेगा... गली, कूचे, मोहल्ले में। अपने-अपने ढंग और तजुर्बे से प्यार की परिभाषा देता हुआ। एक दिन मैं किसी कवि से पूछ बैठी कि आपकी नज़रों में प्रेम क्या है? उसने कहा, प्रेम कविता है। फ़िल्मकार कहता है कि प्रेम ज़रूरी है, इसके बिना हर फ़िल्म अधूरी है, शायद ज़िंदग़ी भी। किसी छात्र से पूछ लें तो वह मिनटों में प्रेम का पुराण पढ़ देगा। किसी चित्रकार की तस्वीरों को ग़ौर से देखिए तो प्यार को डिफाइन करते हुए चित्र मिल जाएंगे। लेकिन प्यार कैमिस्ट्री का कोई फॉर्मूला है या गणित की कोई थ्योरम, जिसकी वाक़ई कोई सेट डेफिनेशन है?
प्रेम सरेंडर है। निजी बात करूं तो प्रेम समर्पण है। अगर आप किसी से प्रेम करते हैं तो समर्पण का भाव ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाता है। आप 'मैं' और 'अहं' से ऊपर उठते हैं। त्याग स्थाई भाव बन जाता है। सब-कुछ न्योछावर कर देना चाहते हैं उस शख़्स पर, जो आपको निहायत अज़ीज़ है। जिसकी एक मुस्कुराहट पर आप सारे ग़म भूल उसके साथ मुस्कुराने लगते हैं। जिसकी खनखनाती हंसी से आपका दिन ख़ुशग़वार हो जाता है। वह उदास हो तो आपका चेहरा भी स्याह पड़ जाता है। साथी की जो कमियां कभी आपको खलती थीं, धीरे-धीरे वही उसका स्टाइल लगने लगती हैं। उसकी पसंद और नापंसद सब आपकी हो जाती है। आप सारी दुनिया से भले ही कट जाएं लेकिन उससे जुड़े रहना चाहते हैं। ख़ुद से पहले आप उसे सोचते हैं। दो जुदा रंग मिलकर जैसे कोई तीसरा रंग बना देते हैं, वैसा ही कुछ होता है प्रेम का रंग भी। कैसे दो अनजान दिल मिलकर प्रेम की नई परिभाषा गढ़ देते हैं। एक नया संसार रच देते हैं, इतना ख़ूबसूरत कि किसी को भी रश्क़ हो जाए।
प्रेम संघर्ष है, अनवरत, कभी ख़त्म न होने वाला संघर्ष। दो प्रेमी सात फेरे ले लें तो प्यार सफल मान लिया जाता है। कम-से-कम हिन्दुस्तान में तो प्रेम की परिणीति शादी ही है। सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा और लैला-मजनूं ने प्रेम किया, लेकिन वो इसे शादी के अंजाम तक न ला पाए। टीस रह गई। इसीलिए यह दुखांत है। सुखांत फ़िल्मों में होता है। हैप्पी एंडिंग। नायक-नायिका का रोमांस चलता है। फ़िल्म आगे बढ़ती है। प्रेम परवान चढ़ता है और एक-दूसरे के साथ जीने-मरने की क़समें खाई जाती हैं। फिर शादी होती है और फ़िल्म ख़त्म। दर्शक ताली पीटते हैं, घर लौट जाते हैं। लेकिन असल फ़िल्म इसके बाद ही शुरू होती है। जब दो लोग एक छत के नीचे रहने लगते हैं, साथ-साथ। तब शुरू होती है प्रेम की असली परीक्षा या कहिए जंग। ख़ुद को साबित करते रहने की जंग। प्यार को बचाने की जंग। शादी को बचाए रखने की जंग। रोज़ की लड़ाई। रोज़ की जद्दोज़हद। प्रेम का बीज बोया और पौधा उग आया। लेकिन यह पौधा नाज़ुक है। हर रोज़ पानी न दिया, देखभाल न की तो इसका मुर्झाना गारंटीशुदा है। इसे क़दम-क़दम पर खुराक चाहिए। ऑक्सीज़न चाहिए। रेजुवनेशन चाहिए।
प्रेम सृजन है, रचना है। मुमताज़ के प्रेम में शाहजहां ने ताजमहल बनवा दिया। कई बड़े शायर बन बैठे। कई चित्रकार बन गए। प्रेम में महाकाव्य लिखे गए, कविताएं लिखी गईं। मानो नींव का कोई पत्थर हो प्रेम, रखा और कविता की इमारत तैयार। समूचे संसार के लेखकों ने प्रेम को समझने और समझाने की कोशिश की है। ढंग सबका अलग-अलग है।
लियो तोलस्तोय मानते हैं कि ''प्रेम जीवन है। मैं जो कुछ भी समझ पाता हूं, उसकी वजह सिर्फ़ प्रेम है।''
अमेरीकी कवयित्री निकी जियोवानी की कविताएं प्रेम से लबरेज़ हैं, अलग ही ख़ूबसूरती लिए हुए। उनके लिए प्रेम की अभिव्यक्ति, वजूद की अभिव्यक्ति है। देखिए इस कविता में प्रेम में वशीभूत प्रेमिका किस तरह सब-कुछ गड़बड़ कर बैठती है:
''उम्दा ऑमलेट लिखा मैंने
खाई एक गरम कविता
तुमसे प्रेम करने के बाद
गाड़ी के बटन लगाए
कोट चलाकर मैं
घर पहुंची बारिश में
तुमसे प्रेम करने के बाद
लाल बत्ती पर चलती रही
रुक गई हरी होते ही
झूलती रही बीच में कहीं
यहां कभी, वहां भी
तुमसे प्रेम करने के बाद
समेट लिया बिस्तर मैंने
बिछा दिए अपने बाल
कुछ तो गड़बड़ है
लेकिन मुझे नहीं परवाह
उतारकर रख दिए दांत
गाउन से किए गरारे
फिर खड़ी हुई मैं और
लिटा लिया ख़ुद को
सोने के लिए
तुमसे प्रेम करने के बाद।''
पाब्लो नेरूदा के लिए प्रेम कभी न ख़त्म होने वाला भाव है। वह कहते हैं...
तुमसे प्रेम करने के बाद।''
पाब्लो नेरूदा के लिए प्रेम कभी न ख़त्म होने वाला भाव है। वह कहते हैं...
“अब मैं उसे प्यार नहीं करता हूं
उसमें कोई शक़ नहीं
लेकिन शायद उसे प्यार करता हूं।''
इंडोनेशिया की सोकार्दा इस्त्री सावित्री की रचनाओं में प्रेम का सशक्त रूप दिखता है। वह कहती हैं...
''मैं प्यार की वेदी पर चढ़ा दूंगी यह दुनिया।''
जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख़्त प्रेम को कमज़ोरी से आंकते हैं। यह बानगी देखिए...
''कमज़ोरियां तुम्हारी कोई नहीं थीं
मेरी थी एक
मैं करता था प्यार''
भारत की एनी ज़ैदी कहती हैं...
''प्रेमी क़रीब आना चाहे
बिल्कुल क़रीब
तो गहरी सांस बनाकर थाम लो उसे
तब तक
जब तक टूट न जाओ''
इन सभी रचनाओं में एक ही भाव है, प्रेम का भाव। लेकिन फील सबका अलग-अलग है।
प्रेम सुरक्षा है। कुछ दिन पहले मैंने डिस्कवरी चैनल पर देखा कि एक गीदड़ दो चीतों के आस-पास घूमता हुआ उन्हें ललकार रहा था। चीते उस पर खिन्न होकर आक्रमण करते। गीदड़ अपनी जान बचाने के लिए भागता, चीते उसका पीछा करते। गीदड़ फिर पास आकर उन्हें छेड़ने की कोशिश करता। यह खेल कुछ देर तक चलता रहा। चीते आख़िर में परेशान होकर वहां से चले गए। मैं यह नहीं समझ पा रही थी कि गीदड़ क्यों इस तरह चीतों को उत्तेजित कर रहा था। बाद में मालूम हुआ कि वह एक मादा गीदड़ थी। पास ही एक खोह में छिपे अपने बच्चों की हिफ़ाज़त के लिए वह ऐसा कर रही थी। कहां से आता है इतना हौसला कि गीदड़ जैसा डरपोक प्राणी भी चीते से भिड़ जाए? अपनी जान पर खेल बैठे। प्रेम देता है यह हौसला। प्रेम जनता है यह हिम्मत।
प्रेम स्वार्थ है। कहता है कि जो हमारा है, वह हमारा होकर ही रहे जीवन भर। प्रेम सिखलाता है किसी पर अपना हक़ समझना। और कई दफ़ा मजबूर कर देता है हर बात मानने के लिए, जी-हुज़ूरी करने के लिए। फूल की फ़रमाइश करें तो आपका साथी पूरा बगीचा ले आए। चांद-तारे तोड़ लाए। मन की किताब पढ़ ले। आंखों में झांकते ही दिल की बात समझ जाए। अपेक्षाएं बढ़ाता है प्रेम। डिमांड पूरी होती रहे तो सब अच्छा। कमी आई नहीं कि प्रेम का पारा नीचे उतरना शुरू। खड़ी चढ़ाई पर साइकिल चलाने जैसा है प्रेम। पैडल मारने बंद किए कि धड़ाम नीचे। लेकिन स्वार्थ है भी तो क्या हुआ? प्रेम तो है। मोहब्बत की बयार बहती रहे तो ख़ुदग़र्ज़ी की धूल धीरे-धीरे उड़ जाएगी। बस आपका प्यार तब तक आजिज़ न आ जाए। स्वार्थ इतना हावी न हो जाए कि प्रेम बंधन लगने लगे, घुटन होने लगे। बंधन तोड़ भागने का मन करे। इसीलिए ख़ुद को चैक करते रहना ज़रूरी है, वक़्त-वक़्त पर। थर्मामीटर से अपने प्यार का बुखार मापते रहिए। प्रेम सर चढ़ कर बोले लेकिन चीखे नहीं। चिल्लाए नहीं।
प्रेम वासना है। प्रेम शरीरी है। कहते हैं प्रेम की गहराई में कहीं-न-कहीं शारीरिक घनिष्ठता छिपी है। कहते हैं दो शरीरों का मिलन आत्माओं का मिलन होता है। कहते हैं अंतरंग होकर एक-दूसरे से कनेक्ट हुआ जा सकता है। एक-दूसरे के प्रति गूढ़ प्रेम को महसूस किया जा सकता है। प्रेम के पलों में नीरस से नीरस व्यक्ति भी भावुक हो उठता है। शायद इसीलिए संभोग को प्रेम की पराकाष्ठा मानते हैं।
वहीं प्लेटोनिक प्रेम भी है, आउट ऑफ दि वर्ल्ड। कोई चाह नहीं, कोई कंडीशन नहीं। मन से मन का रिश्ता, दिल से दिल को राह। बिना तार का करंट है प्लेटोनिक प्रेम।
प्रेम को लेकर भ्रांति है। कहते हैं कि एक बार प्यार हो जाए तो ताउम्र रहता है लेकिन मैं इससे इत्तेफाक़ नहीं रखती। मेरा मानना है कि प्यार जन्म लेता है, प्यार जवान होता है, प्यार बूढ़ा होता है और फिर प्यार मरता भी है। लेकिन हां, प्यार में मर-मर कर ज़िंदा होने की ताक़त है। प्यार जो ख़ुद को मुक्त करता है फिर प्यार करने के लिए। प्यार के भी तो अपने मौसम हैं।
लब्बोलुआब यह कि प्यार को किसी परिभाषा में बांधना मुश्किल है और बेमानी भी। प्यार तो सिर्फ़ प्यार है। एक दरिया है बहता हुआ, निरन्तर। इसके बहने में ही सुन्दरता है। इसके बहने में ही प्राण हैं। इसके बहने में ही जीवन है। हमारा होना ही इस बात का सुबूत है कि प्यार है। हमारा सांस लेना ही प्यार है। बस.. यही तो है प्यार।
-माधवी
(दैनिक भास्कर की पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के फरवरी 2011 प्रेम विशेषांक में प्रकाशित)
(दैनिक भास्कर की पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के फरवरी 2011 प्रेम विशेषांक में प्रकाशित)
बढ़िया ……कई-कई जगह बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत शानदार. ये जानकर अच्छा लगा कि आप लगातार सृजन कार्य में लगी हैं। साथ में कार्य करने के दौरान कभी ये अवसर नहीं लगा कि कभी गंभीर मुद्दों पर चर्चा की जा सके। विनायक सेन के बारे में भी आपके विचार पढ़े थे। बहुत अच्छा लगा।
ReplyDelete-महेंद्र यादव
thirfrontindia.blogspot.com
"प्रेम खेत न उपजै, प्रेम न हाट बिकाय"
ReplyDeleteकिस बंजर जमीन में उग जाए और किस सस्ते बाजार में मिल जाए कोई नहीं कह सकता। यही प्रेम की ताकत है।
हर पहलू से किया गया प्रेम का चित्रण अच्छा लगा।
लेख पसंद करने के लिए शुक्रिया पुखराज और श्याम जी।
ReplyDeleteमहेन्द्र जी.. वो दौर मशीनी ही था। इतर सोचते हुए भी कुछ करते न बना। अब हाथ आज़माइश है। आभार आपका।
bahut sunder vyakhya ki hai aap ne.....vistrit ....hr pehlu pr gaur krte hue....bdhai
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा!
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