Wednesday, July 18, 2012

हां! मैं बहुत शर्मीली हूं

(किसे पता था कि आर्मी ज्वॉइन करने निकली एक लड़की बॉलीवुड पहुंचकर अभिनय की दुनिया में झंडा गाड़ेगीइसे किस्मत कहें, करिश्मा या कर्म... जो भी है लेकिन माही गिल अभिनय की जंग में सशक्त सिपहसालार बनकर उभरी हैं और उनकी जीत पक्की है। चुनिंदा फ़िल्मों से माही ने न सिर्फ़ ख़ुद को साबित किया है, बल्कि उनकी तुलना तब्बू जैसी बेहतरीन अदाकारा से होने लगी है। परदे पर जैसी नज़र आती हैं, असल ज़िंदगी में उससे बिल्कुल उलट हैं माही...) 

बचपन कहां और कैसे बीता?
चण्डीगढ़ में। वहीं पैदा हुई और पली-बढ़ी हूं। घर में अनुशासन का माहौल था, लेकिन मैं बहुत शरारती थी। पढ़ाई में अच्छी होने के कारण मेरी शरारतें अक्सर नज़रअंदाज़ कर दी जाती थीं। चण्डीगढ़ में स्कूल-कॉलेज में अच्छा समय गुज़रा। यूनिवर्सिटी के दिन भुलाए नहीं भूलते, वह मेरे जीवन का बेहतरीन वक्त था, वहां से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।
एक्टिंग के क्षेत्र में कैसे आईं?
मैं सिख परिवार से हूं और बचपन से ही आर्मी ज्वॉइन करना चाहती थी। नाना फौज में थे, इसलिए वह माहौल शुरू से पसंद था। मैंने कॉलेज में नेशनल कैडेट कोर ज्वॉइन किया। फायरिंग में मेरा कमांड बहुत अच्छा था। देशभर से कुल 16 एनसीसी छात्राओं को फौज के लिए चुना गया, उनमें से एक मैं थी। हमें चेन्नई भेजा गया, लेकिन वहां पैरासेलिंग के दौरान मुझे चोट लग गई और लौटना पड़ा। 
चण्डीगढ़ आकर पंजाब यूनिवर्सिटी में मैंने इंडियन थिएटर का फॉर्म भर दिया। स्कूल में एकाध बार नाटक किया था, लेकिन थिएटर की बाक़ायदा पढ़ाई भी होती है, यह नहीं पता था। मैंने फॉर्म महज़ इसलिए भरा था क्योंकि मुझे यूनिवर्सिटी में दाख़िला लेना था। हालांकि जैसे-जैसे थिएटर के बारे में जानना शुरू किया तो एक अलग दुनिया मेरे सामने आती गई। इसके बाद मैंने ख़ुद को पूरी तरह थिएटर के प्रति समर्पित कर दिया। एक्टिंग की शुरुआत वहीं से हुई।
...और मुंबई का सफ़र?
कुछ निजी कारणों से मैं चण्डीगढ़ छोड़ना चाहती थी, लेकिन एक्टिंग के अलावा ऐसा कुछ नहीं था, जो मैं कर सकती थी। पहले कुछेक पंजाबी फ़िल्मों में काम कर चुकी थी, लगा कि मुंबई जाकर किस्मत आज़मानी चाहिए। सामान पैक किया और आ गई। मैं सेल्फ-मेड इंसान हूं। मुझे यह पसंद नहीं है कि कोई मुझे सहारा दे, इसलिए मुंबई आकर इंडस्ट्री में काम ढूंढने के सिवा मेरे पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था। 
जब मुंबई आईं तो ज़हन में क्या था? 
अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं सोचा था। यही दिमाग में था कि रोज़ी-रोटी तो चल ही जाएगी। टेलीविज़न में काम कर लूंगी या शायद फ़िल्मों में भी छोटे-मोटे रोल मिल जाएं। पत्रिकाओं में पढ़ती थी कि फलां न्यूकमर को किसी डायरेक्टर ने कॉफी-शॉप में स्पॉट कर लिया, किसी पेट्रोल पंप पर या किसी पार्टी में देखकर उसे फ़िल्म ऑफर कर दी। यह सोचकर मैं रोज़ पार्टियों में जाने लगी कि शायद मुझे भी कोई डायरेक्टर देख लेगा और अपनी फ़िल्म में साइन कर लेगा। यह मुश्किल भी था, क्योंकि इतने पैसे नहीं होते थे कि मैं रोज़ नए कपड़े ख़रीद सकूं। मुझे याद है कि एक पार्टी में जाने के लिए मैंने पहली बार अपने बाल ब्लो-ड्राई करवाए, जिसमें 600 रुपए ख़र्च हो गए। मैंने सोचा कि ऐसे ही चलता रहा तो मैं खाऊंगी क्या! फिर मैंने इस्तरी से अपने बाल सीधे करने शुरू किए, महंगे कपड़ों के बजाय मिक्स-एंड-मैच करके कपड़े पहनने शुरू किए। इस तरह मैं क़रीब साल भर तक पार्टियों और डिस्कोथेक्स में जाती रही, लेकिन कुछ नहीं हुआ।
एक बार मैं किसी दोस्त के बच्चे की बर्थडे पार्टी में नाच रही थी। वहां अनुराग कश्यप ने मुझे देखा और नो स्मोकिंग फ़िल्म में काम करने का ऑफर दिया। हालांकि वह फ़िल्म मैं नहीं कर पाई, क्योंकि निर्माता नहीं चाहते थे कि कोई नई लड़की फ़िल्म करे, लेकिन बाद में मुझे देव डी में मौक़ा मिला।
फ़िल्मों में थिएटर कितना काम आया है?
थिएटर ने मेरे अंदर आत्मविश्वास पैदा किया है। सह-कलाकारों के साथ दिक्कत नहीं आती, क्योंकि हमेशा यह ज़हन में रहता है कि आपको अपना बेहतर देना है। थिएटर की वजह से लंबे-लंबे संवाद आसानी से बोल पाती हूं। हालांकि कुछ चीज़ों पर मुझे काम करना पड़ा। थिएटर में आप बहुत ला होते हैं, क्योंकि आपको आख़िरी सीट पर बैठे दर्शक तक पहुंचना होता है। दूसरा, फ़िल्मों में कैमरा आपके हर छोटे-बड़े इमोशन और एक्सप्रेशन को पकड़ता है इसलिए शूटिंग के दौरान काफी सजग रहना पड़ता है। मैं थिएटर बहुत मिस करती हूं, लेकिन थिएटर ब्रेड मुश्किल से दे पाता है, बटर तो दूर की बात है।
साहब, बीबी और गैंगस्टर में माधवी का किरदार बोल्ड था, इसे निभाने में दिक्कत आई?
काफी चैलेंजिंग था। फ़िल्म के एक दृश्य में मुझे शराबी दिखना था। कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैंने तिग्मांशु जी से कहा कि अगर मैं वोदका के एक-दो शॉट ले लूं तो शायद अच्छा अभिनय कर पाऊंगी। पैग पीकर मैं सैट पर पहुंची। वोदका ठीक-ठाक असर कर गया था क्योंकि मैंने सारा दिन कुछ नहीं खाया था। दृश्य फिल्माए जाने के बाद मैं तिग्मांशु जी से कहती रही कि फिर से शूट कर लेते हैं, लेकिन वो नहीं माने। मुझे बाद में पता चला कि सीन कमाल का हुआ था। मैथड एक्टिंग काम तो आई, लेकिन फिर मैंने इससे तौबा कर ली। 
पंजाबी फ़िल्मों में भी काम कर रही हैं?
मुंबई आने के बाद मैं पंजाबी फ़िल्मों में काम नहीं कर पाई। लेकिन हाल में एक दोस्त के कहने पर पंजाबी फ़िल्म की है, जो उसका डायरेक्टर भी है। फ़िल्म का नाम कैरी ऑन जट्टा है। यह रोमांटिक कॉमेडी है और ऐसा रोल मैं पहली बार कर रही हूं। जब भी पंजाब जाती हूं तो लोग शिक़ायती लहज़े में कहते हैं कि मैं पंजाबी फ़िल्में क्यों नहीं करती। मैं तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हूं कि मेरे करियर की शुरुआत पंजाबी फ़िल्मों से हुई और आज मैं जो कुछ भी हूं, उन फ़िल्मों की वजह से ही हूं। रोल अच्छा हो तो पंजाबी फ़िल्में करने से मुझे कोई परहेज़ नहीं है।
आपने अनुराग कश्यप और तिग्मांशु धूलिया जैसे फ़िल्मकारों के साथ काम किया है, दोनों की निर्देशन शैली में क्या अंतर है?
अनुराग और तिग्मांशु, दोनों हमेशा नई चीज़ें लेकर आते हैं और कमाल के अभिनेता भी हैं, लेकिन दोनों के काम करने का तरीका बिल्कुल अलग है। अनुराग एक्टर को परफॉर्म करने के लिए खुला छोड़ देते हैं। ख़ुद वो सेट पर किसी बच्चे की तरह होते हैं। कोई शॉट अच्छा हो जाए तो जोश में आकर एक्टर को गले से लगा लेते हैं। तिग्मांशु को कोई सीन पसंद न आए तो वो ख़ुद उसे एक्ट करके बताते हैं और यह काम वो इतनी अच्छी तरह से करते हैं कि समझ में न आने का सवाल ही नहीं होता। उनके समझाने का तरीका बहुत अच्छा है। अनुराग और तिग्मांशु, दोनों अपनी-अपनी जगह कमाल के निर्देशक हैं।
पुराने दौर और आज के सिनेमा में क्या बुनियादी फर्क़ आया है?
बहुत फर्क़ आ चुका है। समय के साथ-साथ दर्शक भी बदल चुका है। आज का सिनेमा ज़्यादा यथार्थवादी है। पहले जिस तरह की फ़िल्में होती थीं, उनमें शायद ही कुछ प्रैक्टिकल या रियलस्टिक होता था। अब दर्शक वास्तविकता से ज़्यादा सरोकार रखते हैं। अभिनय, संवाद अदायगी, यहां तक कि पूरी शैली में ही बदलाव आ गया है। पहले कम फ़िल्में बनती थीं, अब एक दिन में पांच-पांच फ़िल्में रिलीज़ होती हैं। पहले कोई फ़िल्म ख़त्म करने में एक साल लग जाता था, अब फ़िल्म तीस दिन में पूरी हो जाती है। दर्शकों को लुभाने के लिए प्रमोशन भी उसी हिसाब से करनी पड़ता है, अब मार्केटिंग के हथकंडे अपनाकर उन्हें थिएटर तक लाना पड़ता है।
ख़ूबसूरती के पैमाने भी बदले हैं, इस पर क्या कहेंगी?
पुराने ज़माने में अभिनेत्रियों में मासूमियत और ताज़गी नज़र आती थी। पहले लड़कियों को फ़िल्म इंडस्ट्री में जाने की इजाज़त नहीं मिलती थी, जिन्हें मंज़ूरी मिलती थी, उन्हें फ़िल्मों के बारे में कुछ पता नहीं होता था। तब हीरोइनों के लुक पर बहुत ध्यान दिया जाता था, आजकल पूरे पैकेज पर ग़ौर किया जाता है। अब फ़िल्मों में आने से पहले बाक़ायदा प्रशिक्षण लिया जाता है। चाहे मैं हूं या कोई और, सब प्रशिक्षित हैं। हमारी मासूमियत इसलिए भी ख़त्म हो जाती है, क्योंकि हम पहले से सब जानते हैं। मेरी एक आंटी ने मुझसे कहा कि जब तुम नॉट ए लव स्टोरी में रो रही थीं तो तुम्हें इतनी बुरी शक्ल बनाने की क्या ज़रूरत थी, थोड़ा आराम से रोना चाहिए था। मुझे उन्हें बताना पड़ा कि अगर मैं आराम से रोती तो दर्शक मुझसे जुड़ नहीं पाते, मैं उन्हें अपने दुख में शामिल नहीं कर पाती। पहले हंसते या रोते हुए भी ख़ूबसूरत दिखना ज़रूरी होता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। पुराने दौर की अभिनेत्रियां फिगर पर उतना ध्यान नहीं देती थीं, फिर भी वे अच्छी लगती थीं, लेकिन अब फिटनेस पर पूरा ध्यान देना पड़ता है। ज़रा-सा वज़न बढ़ा नहीं कि हम चर्चा का विषय बन जाते हैं। किसी रोल विशेष के लिए थोड़ा वज़न बढ़ाने के लिए कहा जाता है लेकिन बाद में हमें उसी तरह पतला दिखना पड़ता है। 
फिट रहने के लिए क्या करती हैं?
जब भी वक्त मिलता है तो कार्डियो कर लेती हूं। सुबह उठकर गरम पानी ख़ूब पीती हूं। अभी योग शुरू किया है। सुबह-शाम एक घंटा योग के लिए निकालती हूं। मैं बहुत जल्दी चिढ़ जाती हूं, ऐसे में योग फ़ायदेमंद साबित हुआ है। इससे मुझे शांत और संतुलित रहने में मदद मिल रही है।
किस्मत पर कितना भरोसा है?
पूरा... किस्मत ने अब तक पूरा साथ दिया है। किस्मत नहीं होती तो बच्चे की पार्टी में पागलों की तरह नाचते हुए देखकर अनुराग कश्यप मुझे फ़िल्म का ऑफर नहीं देते। अगर अनुराग ने देव डी के लिए मेरा ऑडिशन लिया होता तो शायद मैं आज यहां नहीं होती क्योंकि मैं ऑडिशन देने में बहुत बुरी हूं। मैंने कई फ़िल्मों के लिए ऑडिशन दिए थे, लेकिन ठीक न कर पाने की वजह से हमेशा रह जाती थी। मुझे आज भी ऑडिशन देने में वैसी ही घबराहट होती है जैसी किसी बच्चे को परीक्षा के समय होती है। सच तो यह है कि किस्मत के साथ मेहनत भी ज़रूरी है। ऐसा नहीं है कि किस्मत से ही सब संभव हो जाता है। मेहनत करते हैं तो नसीब भी साथ देता है।   
ख़ुशी के क्या मायने हैं?
किसी की मदद करना। आपकी वजह से किसी के चेहरे पर ख़ुशी आती है तो जीवन में इससे बड़ा सुख और कुछ नहीं है। आप किसी के लिए कुछ करते हैं तो अपनी संतुष्टि और ख़ुशी के लिए करते हैं। लोग कहते हैं कि हमने उसके लिए यह कर दिया, वह कर दिया, लेकिन ऐसा कहना ठीक नहीं है। मेरा जीवन दर्शन है- सकारात्मक रहना और हमेशा ख़ुश रहना। किसी का अच्छा नहीं कर सकते तो बुरा भी नहीं करना चाहिए। पंजाबी में एक कहावत है कि नीतां नूं मुरादां...। अगर आपकी नीयत अच्छी है तो आपके साथ हमेशा अच्छा ही होता है, आप हमेशा ख़ुश रहते हो। किसी का रास्ता रोकने की कोशिश कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि जो आपको मिलना है, वह तो मिलेगा ही।
अपने बारे में ऐसी बात बताएं, जो किसी को नहीं पता!
लोगों को लगता है कि मैं बहुत बिंदास हूं, लेकिन ऐसा नहीं है। मैं बहुत शर्मीली हूं। जब काम नहीं कर रही होती तो घर में ही रहती हूं। मुझे पार्टियों में जाना बिल्कुल पसंद नहीं है। मैं सिर्फ़ उन लोगों के साथ ही सहज महसूस करती हूं, जिन्हें मैं अच्छी तरह जानती हूं।  
ख़ाली वक्त में क्या करती हैं?
नींद पूरी करती हूं। दोस्तों से मिलती हूं, उन्हें घर बुलाती हूं या उनके घर चली जाती हूं। हम जब भी मिलते हैं, अच्छा खाना बनाते हैं और ख़ूब मस्ती करते हैं। ये सब वो दोस्त हैं जिन्होंने बुरे वक्त में भी मेरा साथ नहीं छोड़ा। आप चाहे किसी भी मुकाम पर पहुंच जाएं, उन दोस्तों को नहीं भूलना चाहिए जो मुश्किल वक्त में भी आपके साथ खड़े हों, क्योंकि वही दोस्त आपके शुभचिंतक और सच्चे आलोचक होते हैं। मेरे दोस्त मुझे स्टार की तरह नहीं लेते, बल्कि अच्छा काम करने पर तारीफ़ करते हैं और ख़राब करने पर आलोचना। वे मुझे मेरी ख़ामियां बताते रहते हैं। दोस्तों के साथ समय बिताने के अलावा मुझे घूमने का बहुत शौक है। 
भारत में पसंदीदा जगह कौन-सी है?
केरल। वैसे, मुझे पहाड़ों पर जाना बहुत भाता है। मनाली, मसूरी और नैनीताल मेरी पसंदीदा जगहें हैं। समय मिलते ही नॉर्थ-ईस्ट जाना है। मुंबई में पसंदीदा जगह है- मेरा घर, उससे बेहतर जगह मेरे लिए पूरी दुनिया में कहीं नहीं है। रेस्तरांओं में अर्बन तड़का, क्योंकि वहां बहुत अच्छा भारतीय भोजन मिलता है। कॉन्टिनेंटल खाने के लिए पॉप टेट्स जाती हूं।
खाने में क्या पसंद है?
देसी खाना। मांसाहारी से ज़्यादा शाकाहारी खाने को तरजीह देती हूं। छोले-कुलचे, सरसों का साग और मक्की की रोटी बेहद पसंद है। इसके अलावा ग्रीस और इटली का भोजन भी अच्छा लगता है। वैसे मैं ख़ुद बहुत अच्छा खाना बना लेती हूं... ख़ासतौर से छोले, सूखे आलू और पनीर-दो-प्याज़ा। बहुत-से लोग बैंगन पसंद नहीं करते लेकिन मेरे हाथ की बनी बैंगन की सब्ज़ी खाकर पसंद करने लगते हैं।
परिवार में कौन-कौन है?
दो भाई, जो मां के साथ अमरीका में रहते हैं। बहुत वक्त बीत गया है उनसे मिले हुए। सबको काफी मिस करती हूं, ख़ासकर जब चण्डीगढ़ जाना होता है। पंजाब में बिताए वे दिन बहुत याद आते हैं, जब हम सब छुट्टियों में अपने लुधियाना वाले फॉर्महाउस में इकट्ठा होते थे। 
अभी तक के किस किरदार से संतुष्ट हैं? 
सबसे। मैंने जितनी भी फ़िल्में की हैं, उनमें ज़्यादातर गंभीर रोल ही अदा किए हैं, लेकिन मुझे लगता है कि इससे मेरी ग्रोथ कहीं-न-कहीं रुक सकती है। मुझे कॉमेडी भी करनी चाहिए और एक्शन भी। हर तरह का किरदार निभाऊंगी तो ख़ुद को संतुष्ट मानूंगी। 
अपनी किस ख़ूबी से प्यार है?
मेरे ख़याल से मैं सच्ची और ईमानदार हूं और यही मेरी ख़ूबी है।
आने वाले पांच साल में ख़ुद को कहां देखती हैं?
शायद मेरी शादी हो चुकी होगी, पर मैं इसी तरह काम कर रही होऊंगी।
...कब कर रही हैं शादी?
फिलहाल तो नहीं, लेकिन जब भी करूंगी तो आपको ज़रूर बुलाऊंगी।
सबसे बड़ा सपना?
मैं रोज़ नए-नए सपने देखती हूं, लेकिन स्वभाववश मैं संतुष्ट रहने वाली इंसान हूं। जितना है, उसमें ख़ुश रहने की कोशिश करती हूं। बहुत इच्छाएं होतीं तो एक-साथ कई फ़िल्में साइन कर चुकी होती। मुझे पैसे कमाने का लालच नहीं है, कम लेकिन अच्छा काम ही मेरा सपना है। मैं जब तक चुस्त-दुरुस्त हूं, फ़िल्में करना चाहती हूं क्योंकि मैं फ़िल्मों में ही सोती-जागती और जीती हूं। एक अदाकार के जीवन में संघर्ष हमेशा रहता है। हमें हर फ़िल्म में ख़ुद को साबित करना पड़ता है। कोशिश रहती है कि मैं और बेहतर कर सकूं, अपने अभिनय में और सुधार ला सकूं। काम करती रहूं और दर्शक मेरे काम को सराहते रहें, यही इच्छा है। 
प्रिय किताबें?
कॉमिक्स, आर्ची मेरी पसंदीदा है।
प्रिय फ़िल्में?
लम्हे, गाइड, और चालबाज़
पसंदीदा गायक?
गुलाम अली ख़ान की बहुत बड़ी फैन हूं। उनकी सब ग़ज़लें पसंद हैं।
प्रिय अभिनेता/अभिनेत्रियां?
आमिर ख़ान, ऋतिक रोशन और रणबीर कपूर। अभिनेत्रियों में रेखा, श्रीदेवी, तब्बू, विद्या बालन और करीना कपूर।
जीवन का अर्थ?
जियो और जीने दो। 

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के जुलाई 2012 अंक में प्रकाशित)

9 comments:

  1. mahi ka achchha parichay prastut kiya hai aapne .badhai

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  2. mahi gil ke vishay me achchi jankari mili ..........badhai

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  3. अच्छी जानकारी आभार

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  4. बधाई स्‍वीकार करें। मैं भी दैनिक भास्‍कर में ही काम करता हूं

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  5. एक अभिनेत्री, एक स्त्री और एक कलाकर्मी से बात करना तीन अलग-अलग स्त्रियों से बात करना भी हो सकता है!
    बातचीत बहुस्तरीय हो, परत-दर-परत व्यक्तित्व को खोलती; तभी सार्थक है- वरना, वह महज़ औपचारिकता बन कर भी रह जा सकती है!

    ....शुभ है कि सर्जनात्मक फिल्मकार मानसी शर्मा गुलेरी का ये अंतर्व्यूह (इंटरव्यू) बहुत दूर तक पाठक की इसी बुनियादी उम्मीद पर खरा उतरता जान पड़ता है....धन्यवाद. और हाँ, आप के लेखन को और जान पाने की उत्सुकता तो यह ब्लॉग-पन्ना इस रूप में भी जगा ही रहा है....

    अगर पुराने लंबे सांस्कृतिक-संवादों की बात याद करें- तो आकाशवाणी के लिए अज्ञेय जी से गोपाल दास जी और रघुवीर सहाय का लंबा साक्षत्कार, ज्ञानपीठ से प्रकाशित विद्यानिवास मिश्र जी से इन पंक्तियों के लेखक और डॉ. पुष्पिता की बेहद लंबी बातचीत: “आलोक से संवाद”, पीयूष दैय्या की चित्रकार अखिलेश से सुदीर्घ चर्चा, ‘समास’ के नए अंक में उदयन वाजपेयी की कवि-चिन्तक मलयज जी से लंबी चर्चा, के अलावा अनगिनत स्मरणीय बातचीतें हिंदी की सम्पदा हैं......

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  6. Maansee ko Maadhvee padhne kii karbadhha prarthna sahit, dhayawadam!

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  7. अच्छा साक्षात्कार है।

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  8. बढ़िया साक्षात्कार है...माही गिल का अब तक मैंने एक भी इन्टर्व्यू नहीं पढ़ा...तो मुझे काफी दिलचस्प लगा ये...!!

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  9. आपने माही गिल के साथ मुलाक़ात की, अच्छी लगी | बहुत विस्तार के साथ बातें की हैं आपने | मुलाक़ात हो तो इतनी डिटेल में ही होनी चाहिए, ताकि बोलने वाला मन की बातें मन खोलकर कर सके | माही बिना शक बहुत ही उम्दा कलाकार है | मैं खुद उसकी एक्टिंग का दीवाना हूँ | उसको मेरी तरफ से भी मुबारक बोलना खास तौर पर 'पान सिंह तोमर' के लिए | पंजाबी फिल्म 'मिटटी वाजां मारदी' में भी उसके काम की काफी तारीफ़ हुई थी|
    दूसरी बात आपके लिए वो यह कि जब मैंने साहित्य पढना शुरू किया था तो ऊन दिनों आपके परदादा जी कि कहानी 'उसने कहा था' मेरी सब से मनपसंद कहानिओं में एक थी और सब से ऊपर | आपके ब्लॉग के साथ जुडकर बहुत ही अच्छा लगा | ऐसी ही मुलाकातें करते रहना |

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