Thursday, June 14, 2012

रिश्ता सपनों, ख़ूबसूरती और सिनेमा का-जावेद अख़्तर

(स्वप्न, सौंदर्य और सिनेमा का रिश्ता पुराना है। सपने दिल से देखे जाते हैं और ख़ूबसूरती भी वही है जो दिल को अच्छी लगे। वैसे भी, कोई व्यक्ति अपने परम स्वप्न में सुंदरता के अतिरिक्त क्या देखना चाहेगा! ...और हमारे इन्हीं स्वप्नों को सिनेमा दिखाता है, बल्कि बेहद ख़ूबसूरती के साथ बयां करता है। सिनेमा के नई ऊंचाइयां छूने की वजह भी यही है।)

सपने हैं तो उम्मीदें हैं
ज़िंदगी में ख़्वाबों की बहुत ज़रूरत है। जो ख़्वाब हम देखते हैं, वही हमारी उम्मीद बनते हैं, हमारी आरज़ू बनते हैं। वही आरज़ू हमें कोशिश करने पर मजबूर करती है। कोशिश ही हमें आगे बढ़ाती है। ज़िंदगी में आगे बढ़ने और अच्छा काम करने की शुरुआत सपनों से ही होती है।
ज़िंदगी ख़ूबसूरत हो, यह दुनिया ख़ूबसूरत हो, रिश्ते ख़ूबसूरत हों, हर पल ख़ूबसूरत हो... हर इंसान का यही एक सपना है। यह सपना शायद पूरी तरह सच न भी हो पाए, लेकिन कोशिश जारी रहनी चाहिए। कोशिश करते रहना अच्छी बात है। सपने देखना अच्छी बात है। सपने देखेंगे तभी तो वो पूरे होंगे। सपने ज़िंदगी को मक़सद देते हैं।  
ख़ूबसूरती वो है जो आंखों को अच्छी लगे और दिल को भी सुक़ून दे। कुछ चीज़ें देखने में ख़ूबसूरत होती हैं और कुछ चीज़ें व्यवहार में ख़ूबसूरत होती हैं, संस्कार में ख़ूबसूरत होती हैं। यह ज़रूरी नहीं है कि ख़ूबसूरती सिर्फ़ दिखाई दे, यह महसूस भी होती है। जो सुन्दरता व्यवहार और बातचीत में होती है, वह किसी से बात करके महसूस की जा सकती है और मैं मानता हूं कि जब एक पल या ज़िंदगी ख़ूबसूरत लगती है तो वही असल ख़ूबसूरती होती है।
ख़ूबसूरती है तो गीत हैं
एक चित्रकार चित्र के ज़रिए ख़ूबसूरती दिखाता है। कुम्हार ख़ूबसूरत घड़ा बनाकर, मूर्तिकार मूर्तियां बनाकर और एक गीतकार अपने गीतों से ख़ूबसूरती बयां करता है। सबके अपने-अपने तरीके, अपने-अपने लहज़े हैं। लहज़े भले जुदा हों लेकिन जब तक ख़ूबसूरती है तब तक गीत बनते रहेंगे और ख़ूबसूरती बयां होती रहेगी। अब कहें कि इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...’  तो उस ख़ूबसूरती के मायने समझना आसान हो जाता है लेकिन ख़ूबसूरती कभी-कभी कुछ इस तरह भी सामने आती है... तुम अपना रंज-ओ-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो या तुम चली जाओगी, परछाइयां रह जाएंगी... या किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, जीना इसी का नाम है... कितने ख़ूबसूरत तरीके हैं दिल की ख़ूबसूरती बयां करने के।
ख़ूबसूरती का रिश्ता जब हम कुदरत से जोड़ देते हैं तो उसमें विस्तार पैदा होता है। कोई सुंदर चीज़ प्रकृति के साथ जुड़ते ही और सुंदर हो जाती है। इंसान की ख़ूबसूरती की बात करूं तो उसके चेहरे पर चांदनी, बालों में काली घटाएं, मुस्कुराहट में बिजलियां आने पर सुंदरता का कैनवास अपने-आप बड़ा हो जाता है। चेहरा है या चांद खिला है, ज़ुल्फ़ घनेरी शाम है क्या, सागर जैसी आंखों वाली, यह तो बता तेरा नाम है क्या... इस गीत में क़ुदरत की मदद से ख़ूबसूरती को बयां करने की कोशिश की है और यह कोशिश कामयाब हुई है। तुमको देखा तो यह ख़याल आया, ज़िंदगी धूप, तुम घना साया... एक शायर धूप-छांव का सहारा लेकर अपने जज़्बाती दिल को इस क़दर बयां कर देता है कि फिर कुछ कहने-सुनने की ज़रूरत नहीं रह जाती! 
-जावेद अख़्तर से बातचीत पर आधारित 

(दैनिक भास्कर की पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के जून 2012, सिनेमा विशेषांक में प्रकाशित)

7 comments:

  1. उम्दा पोस्ट,जावेद साहब के कार्यों का तो जग कायल है।
    रामगढ में मिलिए सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष से।

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  2. sundar prastuti ! pichhale ank me bhi shandar prastuti thi .

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  3. तुम चली जाओगी, परछाइयां रह जायेगी... ख्वाबों के काफ़िले, उम्मीदों की डोर पर.

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  4. आपका पूरा लेखन मेरे लिए कुछ ख़ास है , एनर्जी मिलता है इस से , मेरे सभी प्यारे जो इस में शामिल हैं | इस की हर पेश करी के लिए मुबारकबाद !

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  5. बहुत अच्छा इन्टर्व्यू...बहुत पहले जब "जुबैदा" फिल्म रिलीज हुई थी तो जावेद साहब का किसी चैनल पर इन्टर्व्यू देखा था..उसमे भी कुछ कुछ ऐसी बातें की थी उन्होंने, याद आ रहा है मुझे!

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  6. गुलेरीजी की कहानी की तरह आपका ब्लाॅग भी बहुत खूबसूरत है। पहली बार देखा, मन खुश हो गया। जावेद अख्तर ने भी जिंदगी की खूबसूरती को अच्छे से बयान किया है। मेरा भी सुमरनी नाम से एक अनियमित ब्लाग है। http://sumarnee.blogspot.in/ अगर समय मिले तो देखिएगा। शुभकामनाएं
    नरेंद्र मौर्य

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  7. http://anmolratn.wordpress.com/2012/08/30/%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6-%E0%A4%85%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80-%E0%A4%89%E0%A4%A8%E0%A5%8D/

    जावेद जी को पढ़ने के लिए इस लिंक पर भी कुछ बेहतर लग सकता है आपको...

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