(यह कविता विष्णु नागर के संग्रह 'घर के बाहर घर'
से और मार्क शगाल की कलाकृति 'द ब्लू बर्ड'.)
मेरा घर
मेरे घर के बाहर भी है
मेरा बाहर
मेरे घर के अंदर भी
घर को घर में
बाहर को बाहर ढूंढते हुए
मैंने पाया
मैं दोनों जगह नहीं हूं।
मेरा घर
मेरे घर के बाहर भी है
मेरा बाहर
मेरे घर के अंदर भी
घर को घर में
बाहर को बाहर ढूंढते हुए
मैंने पाया
मैं दोनों जगह नहीं हूं।
बेहद गहन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteमार्क शगाल की कलाकृति के साथ इस कविता को जोड़कर देखना रोमांचित करता है।
ReplyDeleteAwesome! :)
ReplyDeletebahuat hi umda rachna.
ReplyDeleteमाधवी जी ---बहुत बहुत शुक्रिया आप का और विष्णुजी का --इस सुन्दर काव्य के लिए.
ReplyDeleteconstantly i used to read smaller articles that also clear their motive, and that is also happening
ReplyDeletewith this paragraph which I am reading here.
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