Wednesday, June 27, 2012

घर-बाहर

(यह कविता विष्णु नागर के संग्रह 'घर के बाहर घर' 
से और मार्क शगाल की कलाकृति 'द ब्लू बर्ड'.)
मेरा घर 
मेरे घर के बाहर भी है 
मेरा बाहर 
मेरे घर के अंदर भी 

घर को घर में 
बाहर को बाहर ढूंढते हुए 
मैंने पाया 
मैं दोनों जगह नहीं हूं।

6 comments:

  1. बेहद गहन अभिव्यक्ति।

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  2. मार्क शगाल की कलाकृति के साथ इस कविता को जोड़कर देखना रोमांचित करता है।

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  3. माधवी जी ---बहुत बहुत शुक्रिया आप का और विष्णुजी का --इस सुन्दर काव्य के लिए.

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