Thursday, December 22, 2011

रेत के शिल्प में घर

(इधर हाल में गौतम चटर्जी को पढ़ने का अवसर मिला. उनकी 
कविताओं में जीवन के प्रति जिजीविषा, मृत्यु बोध और दर्शन
की छाप जितनी गहन है, उतनी ही सरल है उनकी भाषा. 
फिलहाल एक प्रिय कविता, साथ में साल्वाडोर डाली का 
चित्र.)

घर से निकलता हूं तो 
घर शुरू होता है 

घर लौटता हूं तो 
घर छूटता है 

एक घर पेड़ पर 
एक घर आसमान पर 
एक घर मेरे पास 
एक घर तुम्हारे पास 

चलूं तो घर 
बैठूं तो घर 
रुकूं तो घर 
देखूं तो घर 

अद्भुत! 
सिर्फ़ 
घर में ही घर नहीं। 

(गौतम चटर्जी ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रपौत्र हैं.)

Saturday, December 10, 2011

लौटने की गुंजाइश बनी रहे


पिछले दिनों एक शॉर्ट फ़िल्म देखी, जिसका नाम था- एएसएल प्लीज़
। कहानी कुछ यूं है... एक लड़का और लड़की चैट-फ्रेंड्स हैं। कंप्यूटर पर दिन-रात चैटिंग करते हैं। यह चैटिंग धीरे-धीरे रोमांस में बदल जाती है। एक दिन लड़का, लड़की को प्रोपोज़ करता है और फिर उससे मिलने की ज़िद करता है। लड़की ब्लाइंड डेट के लिए राज़ी हो जाती है। 
किसी शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के अंदर, सायबर कैफे के एक केबिन में लड़की उसी लड़के का इंतज़ार कर रही है। हाथ में फूल लिए लड़का बेसब्री से शॉपिंग कॉम्प्लेक्स पहुंचता है। उधर लड़की भी उससे मिलने के लिए उतनी ही बेताब है। लड़का केबिन का दरवाज़ा खटखटाता है। दरवाज़ा खुलता है और इसी के साथ दोनों के होश फाख़्ता हो जाते हैं। लड़का और लड़की सगे भाई-बहन हैं। अपने-अपने कमरों में बैठकर वो नकली नामों से एक-दूसरे से फ्लर्ट कर रहे थे।
फिल्म में दोनों किरदारों के होश जितने फाख्ता हुए, उससे कहीं ज़्यादा होश मेरे उड़ गए। एक सच- एक कड़वा सच- सवाल बनकर मुंह बाये सामने आ खड़ा हुआ। हम किस रास्ते पर हैं, कहां पहुंच रहे हैं? तकनीक का जितनी तेज़ी से विकास हो रहा है, उससे कहीं ज़्यादा तेज़ी से बदल रहे हैं हम। होड़ सी लगी है और इस होड़ में हमारी पहचान पीछे छूट गई है। अब हम वो नहीं जो असल में हैं। हमारी पहचान अब कम्प्यूटर स्क्रीन पर चमक रहे एक फंकी चैट नेम की तरह सीमित होकर रह गई है। बीते कुछ सालों में सब इतनी तेज़ी से बदला है तो यह सवाल वाजिब लगता है। जीने के रंग-ढंग बदल गए हैं, जीवन-मूल्यों में परिवर्तन आ गया है। प्रकृति बदली है, प्राथमिकताएं बदली हैं और साथ ही इंसान की सोच भी। बदलना वक़्त की मांग है। बिल्कुल है और वक़्त के साथ बदलने में समझदारी भी है। बदले नहीं और वक़्त के साथ नहीं चले तो पीछे छूट जाएंगेओल्ड फैशन्ड कहलाएंगे। लेकिन बदलने की दिशा क्या होगी, यह तय करना भी लाज़िमी है। 
यह है 21वीं सदी मेरी जान
हम जेट ऐज में जी रहे हैं। जैसे बिजली की एक कौंध ने रातो-रात सब बदल डाला है। नित नई तकनीकें ईज़ाद हो रही हैं। ज़िंदगी को आसान बनाने की क़वायद चल रही है। कपड़ों के लिए फुली ऑटोमेटिक वॉशिंग मशीन, बर्तनों के लिए डिशवॉशर, खाना पकाने को माइक्रोवेव, पानी गरम करने को इन्स्टेंट गीज़र और साफ-सफाई के लिए वैक्यूम क्लीनर है। ज़रा-सा हाथ घुमाया और घर के सारे काम ख़त्म। बाहर जाना है तो कार तैयार है। एक शहर से दूसरे शहर के लिए फ्लाइट है। कभी लग़्जरी माने जाने वाले ये साधन अब हरेक की पहुंच में हैं। फिर कौन रेलगाड़ी और बस में वक़्त बर्बाद करता फिरे! शरीर में हरक़त भले न हो, बैठे-ठाले भले ही जंग लग जाए.. लेकिन इसकी फिक्र किसे है। जिम जाकर फॉर्म भरिए, फीस चुकाइए, फिर भागते रहिए ट्रीडमिल की न ख़त्म होने वाली सड़क पर।
खुली रहे इंटरनेट की खिड़की
कंप्यूटर के इस दौर में जीवन की राहें आसान लगने लगी हैं। रही-सही कसर इंटरनेट ने पूरी कर दी है। इंटरनेट नहीं जैसे शरीर का कोई अंग हो। हर वक़्त इंटरनेट का साथ ज़रूरी है, नहीं तो ज़िंदगी अधूरी है। दो-चार दिन इससे दूर रहना पड़े तो लगता है कुछ मिसिंग है। इंटरनेट पर एक क्लिक करो तो वसुधैव कुटुम्बकम की कहावत साकार हो जाती है। समूची धरती एक घर बन गई है। विदेश में बसे अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से जब चाहे तब बात कर लो। बातों से मन न भरे तो वीडियो चैट है। सात समंदर पार से एक-दूसरे को लाइव देख लो। किसी अज़ीज़ की सालगिरह है तो झट से ई-कार्ड या ई-फ्लावर भेज दो। राहत की एक और बात यह कि लंबी-लंबी लाइनों में खड़े रहने के दिन अब लद लिए। बिजली व फोन का बिल भरने या बैंक का कोई काम करने के लिए कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि ये काम इंटरनेट पर घर बैठे-बैठे मिनटों में निपटाए जा सकते हैं। रेल, हवाई जहाज की बुकिंग करनी हो या रिश्ते के लिए मैट्रीमोनियल साइट पर विज्ञापन देना हो.. इंटरनेट बेशक अच्छा ज़रिया है। लेकिन वर्चुअल वर्ल्ड में तफरीह कर रहे हैं तो चौकन्ना रहने की उतनी ही ज़रूरत है, जितनी असल ज़िंदगी में है।
पैसा फेंको, तमाशा देखो
जीवन की दशा और दिशा अब बड़े-बड़े ब्रांड तय करने लगे हैं। मल्टीनेशनल कंपनियां सुझाती हैं कि हमें कहां रहना चाहिए, क्या पहनना चाहिए, क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। पिछले दिनों मेरी एक दोस्त की शादी हुई। आंटी-अंकल ने शादी का पूरा ज़िम्मा एक वेडिंग प्लानर को दे दिया। उस प्लानर ने शादी के जोड़े से लेकर वरमाला तक का बेहतरीन चुनाव किया। सब-कुछ इतनी आसानी से हो गया कि लगा, वक़्त वाकई बदल चुका है। पहले घर के बड़े-बूढ़े, रिश्तेदार और पड़ोसी मिलकर शादी-ब्याह की ज़िम्मेदारी उठाते थे, लेकिन अब वेडिंग प्लानर जैसे कॉन्सेप्ट आ चुके हैं।
क्रैश शब्द से मैं पहली बार महानगर में परिचित हुई। क्रैश यानी बच्चों की देखभाल करने वाली ऐसी जगह, जहां नौकरीपेशा लोग अपने छोटे बच्चों को छोड़कर काम पर जा सकते हैं। फुल टाइम मेड भी एक विकल्प है। महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है। ऐसे में पति-पत्नी, दोनों कमाने वाले न हों तो एक अच्छा लाइफस्टाइल अफोर्ड नहीं कर सकते। वहीं कुछ लोग ऐसे हैं जो मानते हैं कि मियां-बीवी की बंधी-बंधाई तनख़्वाह से आजकल गुज़ारा नहीं होता, एक्स्ट्रा इनकम ज़रूरी है। ऐसे में अगर पैसा दोगुना-चौगुना करने वाली स्कीमों के पीछे लोग बिना जोखिम की जानकारी लिए भागते हैं तो बड़ी बात नहीं है। हाल में ऑनलाइन सर्वे के नाम पर एक कंपनी ने जनता से करोड़ों वसूल लिए, यह आश्वासन देकर कि आने वाले समय में पैसा कई गुना हो जाएगा। मामला सरासर धोखाधड़ी का निकला जिसने छोटे-बड़े सभी निवेशकों की नींद उड़ा दी। अमेरिका में कई कंपनियां हैं जो ऐसे ऑफर देती हैं, इन्हें पोन्ज़ी स्कीम कहते हैं। लेकिन अपने देश में इतना बड़ा ऑनलाइन घोटाला पहली बार सुनने को मिला है।
आम घोटालों की आदत हमें पड़ चुकी है। पहले भ्रष्टाचार और बेईमानी के ख़िलाफ़ लोग एकजुट होते, आवाज़ उठाते, क्रान्तियां करते। अब आए दिन स्कैम होते हैं, इसीलिए हमारे भीतर रोष नहीं है। या कहें कि अब असर नहीं पड़ता क्योंकि हम इम्यून हो चुके हैं। आम आदमी से वैसे भी किसी रिएक्शन की उम्मीद रखना बेमानी है.. वो क्रान्ति का बिगुल बजाए या जैसे-तैसे अपने परिवार का पेट पाले? ज़ाहिर बात है पहले परिवार और दो जून की रोटी है।
फंडा स्टेटस सिंबल का
एक टेलीविज़न ब्रांड का विज्ञापन आपको याद होगा, जिसमें पड़ोसी जलते रहें और मालिक फूला न समाए जैसा संदेश था। यानी, अपनी किसी चीज़ पर आपको उतना ही अभिमान है, जितना उसे देख आपके पड़ोसी को जलन होती है। उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद कैसे.. यह अब विज्ञापन नहीं, एक आम ख़याल है। पड़ोसी कार ख़रीदता है तो देखा-देखी दूसरा भी ख़रीदना चाहता है। यह इंसान की प्रवृत्ति है। रैट रेस है, जिसमें न चाहते हुए भी शामिल होना पड़ता है। पैसे कमाने के लिए दिन-रात भागना पड़ता है, स्टेटस का ख़याल जो रखना है। बड़ा फ्लैट और लग़्जरी गाड़ी अब स्टेटस सिंबल हैं। इनके होने से आप हाई-प्रोफाइल कहलाते हैं। हैरानी की बात है कि स्टेटस सिंबल कही जाने वाली ये चीज़ें बच्चों के दिलो-दिमाग पर भी हावी हो चली हैं। आज का यूथ इससे इतर कुछ नहीं सोचता। मेरी बिल्डिंग के कुछ लड़के जो अभी कॉलेज में पढ़ते हैं, यही सपना लेकर जी रहे हैं कि उनके पास जल्द-से-जल्द एक बड़ा फ्लैट, कार और शानदार नौकरी हो।
महंगाई डायन खाय जात है...
पिछले कुछ सालों में जिस दर से महंगाई बढ़ी है, उसी दर से रहन-सहन का स्तर भी बढ़ा है। बाज़ार ने आश्चर्यजनक रूप से हमारी जीवनशैली बदल दी है। मेले की जगह मॉल ने ले ली है। छोटे बाज़ार पर बड़ा बाज़ार हावी है। मॉल कल्चर ने जैसे हमारी नब्ज़ पकड़ी है। महानगरों में कुकरमुत्तों की तरह मॉल उग आए हैं। जहां देखो बस मॉल ही नज़र आते हैं। महानगर ही क्यों, छोटे-मोटे शहरों में भी मॉल की महिमा फैल रही है और हम अभिभूत हैं इस महिमा से। हों भी क्यों न, समय और मेहनत जो बचती है। कुछ ख़रीदने के लिए यहां-वहां भटकने की आवश्यकता नहीं क्योंकि अब घर के सामने मॉल है और उसमें हर वो चीज़ जो हमें चाहिए। इधर-उधर जाना कौन चाहता है! कुछ भी ख़रीदना हो, सीधे मॉल का रुख़ कर लो। यह दीगर बात है कि मॉल में ज़रूरत से ज़्यादा ख़रीदारी हो जाती है। चम्मच लेने जाओ तो कड़ाही आ जाती है। 200 की जगह 2000 रुपए की ख़रीदारी हो जाती है। कैश कम पड़ता है तो डेबिट और क्रेडिट कार्ड तो है ही।
मॉल के माहौल में लोग ख़ुश रहने लगे हैं। कपड़े-लत्ते, रसोई का सामान, बच्चों के लिए प्ले कॉर्नर, यहां तक कि सिनेमा हॉल भी... सब एक छत के नीचे है। मॉल में जाना जैसे किसी पिकनिक पर जाना हो गया है। घर लौटकर खाना बनाने की इच्छा न हो, या लंबे-चौड़े मॉल में घूमते-घूमते भूख लगे तो फूड कोर्ट है। बच्चे साथ हों तो बचने की कोई सूरत नहीं। पिज्जा, बर्गर या कोई अन्य फास्ट फूड ऑर्डर करना पड़ेगा। बड़े मॉल जेब पर भारी हैं तो डेली-डिस्काउंट वाले मॉल भी हैं, जहां किसी-न-किसी चीज़ पर रोज़ाना छूट मिलती है। बाय वन गेट वन फ्री का ऑफर है। जो सामान हम आम दुकान से ख़रीदते हैं, वही अगर ठीक-ठाक दाम पर मॉल में मिलता है तो क्या हर्ज़ है। बहुतों की सोच यही होगी। मॉल के माहौल में जो मनोरंजन होता है वो भी ज़रूरी लगने लगा है। पहले लोग हाथ में पैसे लेकर बाज़ार जाते और झोला भरकर सामान लाते थे। अब महंगाई के दौर में पर्स भरकर पैसे ले जाने पर भी मुट्ठीभर सामान के साथ लौटना पड़ता है।
फैशन का है जो जलवा
पिछले दिनों न्यूज़ चैनल पर दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक ख़बर देखी जिसमें मॉडर्न कपड़ों में लिपटे छात्र कैम्पस में घूम रहे थे। एटीट्यूड के साथ हाथों में हाई-एन्ड मोबाइल पकड़े छात्र, स्टूडेंड कम और मॉडल ज़्यादा लग रहे थे। कॉलेज जैसे कोई रैम्प हो और वो फैशन परेड का हिस्सा। हिंग्लिश में बात करता क्राउड, साही जैसे खड़े बाल, लाल-भूरे रंगों में पुती ज़ुल्फें तो कहीं मोबाइल फोन पर बजता डैडी मुझसे बोला तू गलती है मेरी गाना… मेरे लिए यह दृश्य किसी क्लचरल शॉक से कम नहीं। लगा, फैशन की परिभाषा जैसे एकाएक बदल गई हो।
आपसी रिश्तों के मायने बदले हैं। मानवीय संवेदनाएं कुंद पड़ गई हैं। संबंधों में अब पहले जैसी गरमाहट कहां! सब बनावटी लगने लगा है। सिल्वर-स्क्रीन के सितारों को ही देख लीजिए। प्रेमी-प्रेमिका पहले क़रीब आते हैं, एक-दूसरे के नाम का टैटू गुदवाते हैं और रिश्तों में खटास आते ही टैटू हटवा देते हैं।
रियल लाइफ में लौटें तो बदलाव पारिवारिक ढांचों में भी आया है। सबको अपना स्पेस चाहिए। जॉइंट फैमिली न्यूक्लियर हो गई है। संयुक्त परिवारों की जगह संकुचित परिवार ले चुके हैं। बड़े-बड़े परिवार अब सिर्फ़ टीवी पर डेली सोप में दिखते हैं।
दिल ढूंढता है फिर वही...
बदलते दौर ने हमें सहूलियत तो दी है लेकिन एक कमी का एहसास भी कराया है। सहज, सामान्य जीवन की कल्पना धूमिल होती जा रही है। चौबीस घंटे किसी प्रेशर में जीने की मजबूरी झेल रहे हैं हम। एक-दूसरे के लिए वक़्त नहीं है, जबकि दिन भी वही है और दिन के घंटे भी वही। आज हर इंसान इसी तकिया कलाम के साथ मिलता है कि क्या करें टाइम नहीं मिलता। रिश्तेदार तो दूर, दोस्तों और पड़ोसियों से बात करने का भी वक़्त नहीं है। हम सोशल एनिमल हैं लेकिन ये जज़्बा हक़ीकत में कम और सोशल नेटवर्किंग साइट पर ज़्यादा दिखता है। अपनों की बात तब सुनें जब ट्विटर का शोर कम हो, अपनों का चेहरा तब पढ़ें जब फेसबुक से नज़र हटे।
मेरे एक जानकार विटामिन-डी की कमी से ग्रस्त हैं। दवाइयों की लंबी-चौड़ी लिस्ट के साथ उन्हें धूप में बैठने की हिदायत मिली है। धूप में बैठना तो दूर, उनके पास ठीक से खाना खाने का भी वक़्त नहीं। घर, गाड़ी और ऑफिस.. सब एयरकंडीशंड। ऐसे में एयर कंडीशनर की आदत होना स्वाभाविक है। 24 घंटे एयरकंडीशन्ड माहौल में जीने वाले ज़रा-सा बाहर निकल जाएं, छींकने लगते हैं। उनका शरीर मौसम के मुताबिक ढलने की क्षमता खोता जा रहा है। आजकल सब-कुछ रिमोट के कंट्रोल में है। लेकिन सोचने वाली बात है कि बदलते वक़्त के साथ हम कहीं ऐसी मशीन न बन जाएं, जिसका कंट्रोल भी केवल रिमोट से होने लगे। बदलाव की आंधी में उड़ते-उड़ते हम एक दिन इतनी दूर न निकल जाएं कि फिर लौटना मुश्किल हो।  
-माधवी

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के विशेष वार्षिक अंक, 2011 में प्रकाशित
)

Wednesday, December 7, 2011

कम से कम इच्छाएं देती हैं बहुत ज़्यादा संतोष

(दिल्ली का एक मोहल्ला... जहां लोग दिन-रात कारोबार में उलझे रहते, 9 को 99 बनाने की धुन में खोए रहते, वहां कोई था, जो अलग सपने बुन रहा था। सोते-जागते एक ही ख़्वाब उसे दिखाई देता, वो था फ़िल्म बनाना। सिनेमा उसका पहला प्यार था, और इस प्यार के पीछे वो शिद्दत से भागता रहा। आज वो एक कामयाब फ़िल्मकार है और हम उसे दिबाकर बैनर्जी के नाम से जानते हैं। दिबाकर की फ़िल्में ज़िंदग़ी से जुड़ी होती हैं और अपनी सनद दर्ज कराए बिना परदे से नहीं उतरतीं। बातचीत में पता चला कि सिनेमा ही उनके जीने का सबब है और यही एक काम है जिसे करते हुए वे आख़िरी सांस लेना चाहते हैं।)

बचपन के बारे में कुछ बताएं।
मेरा जन्म दिल्ली में करोल बाग में हुआ, बचपन वहीं बीता। करोल बाग के जिस इलाके में हम रहते थे, वो विस्थापितों की कॉलोनी थी। जब से होश संभाला, आस-पास सिर्फ़ कारोबार का माहौल देखने को मिला। हमारे घर की ऊपरी मंज़िल पर चमड़े की बेल्ट बनाने का काम होता था। तक़रीबन सभी दोस्तों के पिता किसी-न-किसी कारोबार से जुड़े हुए थे। वे दुकान या फिर कारखाने में काम करते। मैं उन अल्पसंख्यकों में से एक था, जिनके पिता नौकरीपेशा थे। कभी-कभी मैं कहता कि मेरे पिताजी भी दुकान चलाते हैं। 
कोई ख़ास याद?
1974 में पिताजी ने टेलिविज़न खरीदा था। उन दिनों दूरदर्शन पर आने वाली हर फ़िल्म मैं बड़े शौक से देखता था। घर के सामने लिबर्टी सिनेमा था, वहां भी कई फ़िल्में देखीं। पहली फ़िल्म जो लिबर्टी थियेटर में देखी, वो नया ज़माना थी। चार साल का था लेकिन बारिश में भीगती हुई पद्मा खन्ना का आइटम नंबर आज भी याद है।
फ़िल्मकार बनने का सपना कब देखा?
फ़िल्में देखना बचपन से ही शुरू कर दिया था। दसवीं या ग्यारहवीं में कहने लगा था कि फ़िल्में बनाऊंगा। हालांकि तब मैं आर्किटेक्ट भी बनना चाहता था और पत्रकार भी। उस उम्र में जो पेशे लुभावने लगते हैं, उन्हीं के बारे में सोचता था। लेकिन 12वीं के बाद पक्का फ़ैसला कर लिया था फ़िल्मकार बनने का।
करियर की शुरुआत कैसे हुई?
स्कूल की पढ़ाई ख़त्म होते ही मैं किसी ऐसे प्रोफेशनल कोर्स के बारे में सोचने लगा जो मेरे सपनों को पूरा करने में मदद करे। पुणे के फ़िल्म एंड टेलिवज़न इंस्टीट्यूट में दाख़िला लेना चाहता था लेकिन उसके लिए ग्रेजुएट होना पहली शर्त थी। फिर अहमदाबाद के नेशनल स्कूल ऑफ डिज़ाइन में दाख़िल हुआ लेकिन दो-ढाई साल में ऊबकर दिल्ली वापस आ गया। दिल्ली में एड एजेंसियों के साथ छोटे-मोटे काम करने लगा। एड फ़िल्में लिखते-लिखते फ्रीलांसिंग शुरू कर दी, तब तक मेरे पास एक अच्छी शो-रील तैयार हो गई थी। फिर एनआईडी के दो दोस्तों के साथ मिलकर ख़ुद की एड फ़िल्म कंपनी खोली। इत्तेफाक से यह फ़ैसला बहुत फायदेमंद साबित हुआ। नाम के साथ-साथ हमने पैसा भी ख़ूब कमाया। लेकिन एक दिन अचानक महसूस हुआ कि मैं 99 के फेर में फंस गया हूं, और मेरा असली सपना धूमिल पड़ता जा रहा है। कंपनी में अपना शेयर बेचकर मैंने मुंबई का रुख़ कर लिया।
मेरे पुराने मित्र व सहकर्मी जयदीप साहनी पहले से फ़िल्म लाइन में थे। एक दिन उनका फोन आया और उन्होंने कहा कि दिल्ली की पृष्ठभूमि पर एक फ़िल्म का ऑफर है, मैं कहानी लिखूंगा अगर तुम निर्देशन करोगे। यह मुंह-मांगी मुराद थी, मैंने बिना सोचे-समझे हां कर दी।
...किस तरह की चुनौतियां सामने आईं?
मैं फ़िल्म इंडस्ट्री में नया था, इसके तौर-तरीकों से वाकिफ़ नहीं था लेकिन कहूंगा कि यह अच्छा ही हुआ। इसका फ़ायदा यह हुआ कि मैं अपने स्टाइल से शुरुआत कर सका। 
जीवन का टर्निंग पॉइंट?
खोसला का घोंसला फ़िल्म बनकर तैयार थी लेकिन दो-ढाई साल तक रिलीज़ नहीं हुई। वो काफी बुरा दौर था। कोई काम हाथ में नहीं था, मैं फिर से सिफ़र बन गया था। लोगों से फ़ब्तियां सुनने को मिलती थीं लेकिन मैंने परवाह नहीं की। उस दौरान पत्नी ने भी बहुत साथ दिया, वो मुझे हमेशा यह समझाती रही कि सकारात्मक बने रहना ज़रूरी है। मैं एक अच्छे मनोचिकित्सक के पास भी गया, जिससे काफी मदद मिली। जीवन के उस मोड़ पर मैंने बहुत कुछ सीखा।
किस्मत पर कितना भरोसा है?
सबसे बड़ा कारक किस्मत ही है। मान लीजिए कि मेहनत ज़ीरो है। आप मेहनत करते हैं, एक ज़ीरो लग जाती है, थोड़ी और मेहनत करने पर एक और ज़ीरो लग जाती है। आप मेहनत करते जाते हैं और ज़ीरो लगती जाती हैं। एक दिन किस्मत ज़ीरो के आगे एक जोड़ देती है, और आप सफल हो जाते हैं। लेकिन, अगर कुछ न करें और यह सोच लें कि नसीब में होगा तो मिल जाएगा, तो ऐसा नहीं होता।
किसे आदर्श मानते हैं?
किसी एक को नहीं। हरेक इंसान से कुछ-न-कुछ सीखने में विश्वास रखता हूं।
जीवन में सकारात्मक सोच की क्या भूमिका है?
बहुत बड़ी भूमिका है। आधे खाली गिलास को आधा भरा हुआ देखना सकारात्मक सोच का ही कमाल है।
ख़ाली वक़्त में क्या करते हैं?
ऐसा कम होता है लेकिन जब भी ख़ाली वक़्त मिलता है तो कोई अच्छी किताब पढ़ना पसंद करता हूं। संगीत में विशेष रुचि है। स्केचिंग भी कर लेता हूं। बेटी के साथ वक़्त गुज़ारने में सुक़ून मिलता है। इसके अलावा भीड़-भाड़ वाले इलाक़ों में जाकर लोगों को ऑब्ज़र्व करने में बड़ा मज़ा आता है। असल भारत ऐसे गली-कूचों, कस्बों या मोहल्लों में ही दिखता है। वहां मैं दीवार की मक्खी बन जाता हूं और घंटों लोगों को ताकता हूं। जब दिल्ली में था तो बसों में सफ़र करता था, लोगों की बातें सुनने के लिए। लेकिन अब ऐसा कम होता है। गाड़ी में बैठकर पैदल चलने वालों की मानसिकता को नहीं समझा जा सकता।
नए ज़माने में क्या अच्छा लगता है?
पुरुष और स्त्री की समानता। दोनों के बीच का भेद कम हो रहा है, महिलाओं को आर्थिक आज़ादी मिल रही है, यकीकन यह अच्छा बदलाव है। दूसरा, इंटरनेट आने से बहुत फायदा हुआ है। ज्ञान का बहुत बड़ा भंडार हमारे सामने है। छत्तीसगढ़ के किसी सुदूर गांव में बैठा बच्चा भी इंटरनेट पर आइज़ैक न्यूटन के बारे में जान सकता है, गुरुत्वाकर्षण का नियम कैसे काम करता है, उसका वीडियो देख सकता है। यह क्रांति पहले नहीं थी।
एक अच्छा निर्देशक होने के लिए क्या गुण होने चाहिए?
ईगो या अहम का होना ज़रूरी है। मैं यहां सकारात्मक ईगो की बात कर रहा हूं। एक निर्देशक का अहम बहुत बड़ा होना चाहिए ताकि साथ काम करने वाले लोग आपके विज़न को समझें, सोच और नज़रिए को समझें। निपुण होना अलग बात है, उसमें ऊंच-नीच होती रहती है। बड़ी बात यह है कि जो निर्देशक की सोच है वो स्क्रीन पर भी दिखनी चाहिए, और यह ईगो से संभव है।
सफलता के लिए क्या ज़रूरी है?
अगर आपकी पृष्ठभूमि अच्छी है, आर्थिक नींव मज़बूत है तो समझिए कि आधी जंग आप जीत गए। दूसरा, अच्छी शिक्षा ज़रूरी है। विडंबना यह है कि हम विदेशी भाषा के पूरी तरह अधीन हैं। उस भाषा में बात करते हैं तो आपका स्तर ऊंचा माना जाता है, विषय चाहे कितना भी फूहड़ क्यों न हो। हिन्दी में बात करने में हम ख़ुद को छोटा महसूस करते हैं, यह सोच नुकसानदायक है। इससे व्यक्तित्व में खोखलापन आता है। इसके अलावा सही नज़रिए के साथ चलना भी ज़रूरी है। आत्मविश्वास होना चाहिए, घमंड नहीं। घमंडी न बनकर दिमाग खुला रखें ताकि हमेशा कुछ नया सीखने को मिल सके। फिर आपका भाग्य है। किस्मत के हाथ में बहुत-कुछ है, वही सब तय करती है।
सफलता को किस तरह सहेजकर रखा जा सकता है?
सफलता को सहेजकर नहीं रखना चाहिए। संभालकर रखने से वो पूंजी बन जाती है। सफलता को भुला देना बेहतर है, इससे काम में नयापन बना रहता है।
कोई अधूरी ख्वाहिश?
काश, मैं ड्राइव कर सकता! ड्राइविंग सीखना चाहता हूं। मुझे घूमने-फिरने का बहुत शौक है लेकिन गाड़ी न चला पाने की वजह से ड्राइवर हमेशा साथ रखना पड़ता है। अगर ड्राइविंग सीख लूं तो शायद जीवन में नया मोड़ आ जाए।
अपनी किस ख़ूबी से प्यार है?
अपने अंदर तो ख़ामियां-ही-ख़ामियां दिखती हैं। मैं अपने लिए अहम नहीं हूं, मेरा काम मेरे लिए ज़्यादा अहम है और मैं ख़ुद से ज़्यादा मुख़ातिब नहीं होता। हां, एक ख़ूबी है, हर इंसान से कुछ-न-कुछ नया सीखने या जानने की कोशिश करता हूं।
दिनचर्या क्या रहती है?
एडिटिंग या शूटिंग के दिनों की बात छोड़ दें तो सुबह 7 बजे तक उठ जाता हूं। बेटी इरा के साथ वक़्त गुज़ारना अच्छा लगता है। 10 बजे तक ऑफिस पहुंचता हूं। घर से दफ्तर नज़दीक ही है। काम के बाद शाम को सीधे घर लौटता हूं। दोस्त बहुत ज़्यादा नहीं है। पार्टियों में भी नहीं जाता। एक बुरी आदत है, कई बार देर रात तक इंटरनेट खंगालता हूं। मुझे लगता है कि एक यही वक़्त होता है जब मैं फ़िल्मों के अलावा दुनिया भर का ज्ञान बटोर सकता हूं। लेकिन कई बार इतना डूब जाता हूं कि वक़्त का होश नहीं रहता। सोने में 2 या 3 बज जाते हैं, फिर सुबह भी देर से होती है।
ख़ुद में क्या बदलाव लाना चाहते हैं?
और सकारात्मक बनना चाहता हूं। जीवन से अपेक्षाएं कम करना चाहता हूं। जितनी कम अपेक्षाएं होंगी उतनी संतोष की भावना बढ़ेगी।
...किस तरह की अपेक्षाएं?
जैसे और बड़ा घर, और गाड़ियां, और पैसा पाने की अपेक्षा। मैं ख़ुद को समेटकर रखना चाहता हूं ताकि जीवन सरल बने, जटिल नहीं। दूसरा, नियमित व्यायाम करना चाहता हूं। अभी तो फिट हूं लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ेगी, वर्जिश की ज़रूरत होगी। एक निजी समस्या है, मेरे पांव के तलवे कुछ कमज़ोर हैं सो ज़्यादा देर तक चल नहीं सकता। मुझे पैदल चलना बहुत अच्छा लगता है तो पैरों में बदलाव चाहता हूं।
ख़ुशी के क्या मायने हैं?
दिन भर में कोई एक पल, जिसमें चेहरे पर मुस्कुराहट है और आप ख़ुद से संतुष्ट हैं, वही है ख़ुशी। वरना इंसान हर वक़्त यही सोचता रहता है कि मुझे यह नहीं मिला, वो नहीं मिला। 
ईश्वर पर कितना यकीन है?
पारंपरिक दृष्टि से मैं नास्तिक हूं। पूजा-पाठ नहीं करता, न ही ईश्वर की कोई ठोस छवि है मेरे मन में। कभी-कभी यह लगता है कि हम मनुष्यों से ऊपर, अलग कोई शक्ति है जो हमें जोड़ती है, एक-दूसरे से हमारा नाता बनाए रखती है। काम कर रहा होता हूं तब कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब लगता है कि मैं किसी अदृश्य सत्ता से जुड़ गया हूं। धर्म से ज़्यादा कर्म में यक़ीन रखता हूं। 
सबसे बड़ा सपना? 
काम करते-करते दम तोड़ना। सबसे बड़ा सपना है कि मेरी फ़िल्म 99 फ़ीसदी शूट हो चुकी हो और लोग अचानक देखें कि मैं जा चुका हूं। इस तरह सुक़ून से मरना चाहता हूं।
आने वाले पांच साल में ख़ुद को कहां देखते हैं?
कहीं नहीं। मुझे कुछ फर्क़ नहीं पड़ता कि मैं आने वाले सालों में कहां पहुंचता हूं। फ़िल्में बनाते रहना चाहता हूं, बस।  
जीवन का अर्थ?
खोज। जीवन का अर्थ जिस दिन पता चल जाएगा, उस दिन जीने का सबब ख़त्म हो जाएगा। जीवन का मतलब ही एक निरंतर खोज है।
कौन-सी जगह है जहां बार-बार जाना चाहेंगे?
राजस्थान, गोवा और केरल। गोवा अकसर जाना होता है क्योंकि वहां हमारा एक घर है। 
दिबाकर बैनर्जी फ़िल्में क्यों बनाते हैं?
पता नहीं। लेकिन यही वो काम है जो मरते दम तक करना चाहूंगा।
'शंघाई' अगली फ़िल्म है, इसके बारे में कुछ बताएं।
एक औसत भारतीय के मानस पटल पर शंघाई की जो छवि है, उसी के इर्द-गिर्द फ़िल्म की कहानी घूमती है। ऊंची इमारतें, बड़े-बड़े मॉल, चौड़ी सड़कें और द्रुत गति से भागती गाड़ियां... रातो-रात शंघाई बनने की होड़ में हमारे देश में क्या हो रहा है, यह दिखाने की कोशिश है। तीन मुख्य किरदार हैं- एक आईएसएस अधिकारी, जो भारत के शासन तंत्र का उदाहरण है। एक लड़की, जो आधी भारतीय है और आधी ब्रिटिश; उसे भारत से प्यार है और वो यहीं रहना चाहती है, बावजूद इसके कि यह देश उसे नकारता है। तीसरा किरदार एक छोटे-से शहर के वीडियो पार्लर का सड़कछाप वीडियोग्राफर है। उस शहर में स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन बन रहा है, यहीं से शंघाई की कहानी आगे बढ़ती है। 
भविष्य की योजना?
और फ़िल्म बनाना। ऐसी फ़िल्म, जिसे बनाना चाहूं, न कि जो मुझे बनानी पड़े। 
आपकी प्रिय किताबें?
बहुत-सी हैं लेकिन जिन पुस्तकों ने मुझ पर सबसे ज़्यादा असर डाला, वो हैं- जोसेफ कैम्पबेल की ओरिएन्टल, ऑक्सीडेंटल और प्रिमिटिव माइथॉलॉजी, ये तीनों अलग-अलग किताबें हैं। आरनोल्ड टॉयनबी की स्टडी ऑफ हिस्ट्रीभी पसंदीदा है। बंगाली साहित्य ख़ूब पढ़ा है। शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय की मानव ज़मीन बेहद पसंद है। हिन्दी किताबें अब फिर से पढ़ना शुरू करूंगा।
प्रिय फ़िल्में?
एक फ़िल्म मैं बार-बार देखता हूं वो है- मार्टिन स्कॉर्सेसी की रेजिंग बुल। इसके अलावा इटली की फ़िल्म गोमोरा बहुत पसंद है, इसके निर्देशक मातिओ गैरोन हैं। भारतीय सिनेमा में सत्यजीत रे की सारी फ़िल्में पसंद हैं। केतन मेहता की भावनी भवाई और मिर्च-मसाला बहुत पसंद हैं। श्याम बेनेगल की मंथन, विशाल भारद्वाज की मक़बूल और अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे अच्छी फ़िल्में हैं। 
प्रिय शहर?
दिल्ली, जहां पैदा हुआ, पला-बढ़ा। इस शहर के ज़र्रे-ज़र्रे से मेरा नाता है।
मुंबई में प्रिय जगह?
परेल शिवड़ी, जहां मैं रहता हूं। यह मुंबई का बहुत पुराना इलाक़ा है। यहां दो भारत एक-दूसरे से मुख़ातिब हैं। एक वो भारत, जिसमें आलीशान फ्लैट व बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं और दूसरा जो हमारे घर के सामने नज़र आता है। एक बहुत बड़ा स्लम। इस बस्ती के ज़रिए अपनी 20 मंज़िली इमारत में बैठकर मैं दीवाली, नवरात्र, होली और गणेश उत्सव मना लेता हूं।
प्रिय गज़लें?
गज़लों का ख़ास शौक नहीं है। बचपन में मेरी बहन ग़ालिब और मेहंदी हसन की गज़लें गाया करती थी जो मन को भाती थीं। मल्लिका पुखराज के गाने भी टीवी पर ख़ूब सुनते थे। अहमद फराज़ की गज़ल रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ अच्छी लगती है।
प्रिय अभिनेता?
पुराने अभिनेताओं में बलराज साहनी और मोती लाल पसंद हैं, वो सहज अभिनय करते थे। मौजूदा अभिनेताओं में एक कलाकार ऐसा है जो स्क्रीन पर जब भी आता है, कुछ-न-कुछ कमाल कर के ही जाता है, वो इरफान खान है। अभल देओल भी एक सशक्त अभिनेता हैं, हर बार अपने अभिनय से अचम्भित करते हैं। अभय में एक गहराई है, जो फ़िल्म-दर-फ़िल्म और गहराती जाती है। अभिनेत्रियों में अनुष्का शर्मा लाजवाब हैं। उनकी अभिनय क्षमता का मैं बहुत कायल हूं। माधुरी दीक्षित और तब्बू बेहतरीन अदाकाराओं में से हैं। मैं मानता हूं कि तब्बू को उनकी क्षमता के अनुसार प्रयोग नहीं किया गया। पुरानी अभिनेत्रियों में गीता बाली और नूतन का फैन हूं। 
पाठकों के लिए कोई संदेश? 
टेलीविज़न कम देखिए और पढ़िए ज़्यादा। किताबों से नाता कभी नहीं छूटना चाहिए। किताबें जीवन के प्रति एक नई समझ पैदा करती हैं। 


(दैनिक भास्कर समूह की पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के दिसम्बर 2011 अंक में प्रकाशित)

Saturday, December 3, 2011

तेज़ रफ़्तार सड़कें और यादों की टमटम

मैं छोटे-से पहाड़ी गांव में एक छोटी-सी पहाड़ी पर बने एक बड़े-से घर में थी... बचपन से लेकर जवानी के कई साल तक। और अब एक बड़े शहर के एक बड़े-से उपनगर के एक छोटे-से घर में रहती हूं। यहां मेरे पास मेरी यादें हैं, और आस-पास हैं एक अंतहीन दौड़ में तेज़ी से दौड़ते हुए लोग।
महानगर के बच्चों को मेरी यादें किसी जादुई दुनिया के किस्से-कहानियों जैसी लगती हैं। जब उन्हें बताती हूं कि मैं घर में बना हुआ कपड़े का झोला लेकर स्कूल जाती थी तो उन्हें यकीन नहीं होता। एक हाथ में झोला और दूसरे हाथ में ताज़ी गाचनी से लिपी हुई तख़्ती। हम सारे रास्ते तख़्ती को झुलाते हुए जाते। हमारा तख़्ती का एक गीत था, जिसका हिन्दी अनुवाद कुछ यूं है- फट्टी-फट्टी सूख जा, सूख के तू ख़ुशियां ला, कलम से मैं करूं लिखाई, मास्टर जी ना करें पिटाई। लकड़ी की इस तख़्ती को हम मुल्तानी मिट्टी यानी गाचनी से घिसकर सुखाते, फिर बांस की बनी कलम को रोशनाई में डुबो-डुबोकर तख़्ती पर लिखते। उन दिनों सरकारी स्कूलों में न के बराबर सुविधाएं थीं। हम ज़मीन पर टाट बिछाकर बैठते थे, टाट न होने पर मिट्टी में ही बैठ जाते। इन सब बातों पर शहर के बच्चों को यकीन नहीं होता। वो इसे एक कहानी से ज़्यादा कुछ नहीं समझते। पर उन्हें यह कहानी लगती बड़ी दिलचस्प है।
घर से स्कूल का रास्ता ढाई किलोमीटर का था। छोटी और ऊंची-नीची, पथरीली गलियों से होकर गुजरता था। पैदल चलते-चलते यह सफर कब तय हो जाता, पता ही नहीं चलता था। और रास्ते में हर तरह की कसरत होती। बच्चों के बीच रेस लगती तो जॉगिंग की कमी पूरी होती। पेड़ पर चढ़ते तो स्ट्रेचिंग हो जाती। पूरा रास्ता एक ट्रैक की तरह था, सो ट्रैकिंग भी हो जाती थी। स्कूल के रास्ते में एक नदी पड़ती थी। नदी का किनारा, जहां पानी उथला था
, कई बार हम लोगों का स्विमिंग पूल बन जाता। मैंने उसी नैचुरल स्विमिंग पूल में हाथ-पैर मारने सीखे। कुल मिलाकर सब बच्चे फिट थे। जहां तक मुझे याद पड़ता है, स्कूल में एक-आध बच्चा ही मोटापे का शिकार था। नदी जब नीची होती तो हम उसे हंसते-खेलते पार कर जाते। लेकिन बरसात के दिनों में जब नदी लबालब भरी होती, तो कश्ती लेनी पड़ती। 10 पैसे में एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचते, लेकिन स्कूल जाने वाले बच्चों से मल्लाह कभी-कभी 10 पैसे भी नहीं लेता। रास्ते में पेड़-पौधे और जानवर हमारे साथी होते। स्कूल से ज़्यादा मज़ा स्कूल पहुंचने में आता था। जब स्कूल पहुंचते तो हमारी जेबें कभी बेर, कभी जामुन तो कभी अमरूद से भरी होतीं। अब ये बेर, जामुन, अमरूद महानगर के बाज़ार में ऊंचे दाम पर बिकते हुए देखती हूं तो बड़ा अजीब लगता है। बचपन में ये सारे फल मुफ़्त में खाए थे। इसलिए काफी समय तक इन्हें 100 रुपए किलो में खरीदने की हिम्मत नहीं हुई, लेकिन जल्द ही समझ आ गया कि अगर फल खाने हैं तो खरीदने ही पड़ेंगे। खरीदे, लेकिन बचपन में खाए फलों जैसा स्वाद आज तक नहीं मिल पाया है।
शहर में बच्चों को देखती हूं, सुबह-सुबह स्कूल के लिए तैयार हुए। फिर एक बड़े पिंजरे जैसी बस आती है और बच्चे उसमें चले जाते हैं चिड़ियों की तरह चीं-चीं करते हुए। इनके रास्ते में पेड़ नहीं, बड़ी-बड़ी इमारतें हैं। धूल है, धुआं है... पर इन चिड़ियों ने वो पानी, वो हवा, वो पेड़ देखे नहीं। स्कूल जाते हुए इमारतें ही उनकी साथी हैं। इन बच्चों को स्कूल पहुंचने में उतना ही वक़्त लगता है जितना हमें लगता था; और बहुत बार तो उससे भी ज़्यादा। यह अलग बात है कि इनका ज़्यादातर समय हरी बत्ती का इंतज़ार करती या ट्रैफिक में फंसी हुई गाड़ी में बीतता है, जबकि हमारा पेड़ों पर चढ़ने व उछल-कूद मचाने में बीतता था।
बिल्डिंग के बच्चों को खेलते हुए देखती हूं तो अपने बचपन के खेल याद आते हैं... खो-खो, विष-अमृत, छुपन-छुपाई, लोहा-लक्कड़, चोर-सिपाही और स्टैपू। शहरों के बच्चे भी बहुत-से खेल खेलते हैं, लेकिन इनके बहुत-से खेल जगह की कमी ने बदल दिए हैं। जिन खेलों के लिए बहुत-सी जगह चाहिए वो इन बिस्कुटनुमा बिल्डिंगों में चाहकर भी नहीं खेले जा सकते।
घर में सुख-सुविधा की तमाम चीज़ें मौजूद हैं। लेकिन ये आधुनिक चीज़ें देखकर पता नहीं क्यों मन ख़ुशी की वो उड़ान नहीं भर पाता जो कभी अचानक किसी छोटी-सी पुरानी चीज़ को देखकर भरता है। पुरानी वस्तुओं से मेरा मोह कम नहीं हुआ बल्कि समय के साथ बढ़ता गया है। बचपन में इकट्ठी की गई चीज़ों की तरफ मन अक़्सर भागता है। चिड़ियों के रंग-बिरंगे पंख, नदी से इकट्ठे किए गए पत्थर व सीपियां, कंचे, माचिस के कवर, डाक-टिकट और खोटे सिक्के... ये चीज़ें आज भी मेरे दिल के उतने ही क़रीब हैं जितनी तब थीं। बल्कि अब मैं उन्हें ज़्यादा अहमियत देने लगी हूं। यह ऐसा अमूल्य ख़ज़ाना है, जिसे मैंने सालों से सहेजकर रखा है। कुछ दुर्लभ सिक्के और डाक-टिकट आज भी मेरे पास हैं। ये चीज़ें मुझे मेरे बीते वक़्त से जोड़े रखती हैं। या कहें कि उन चिड़ियों से, नदी से, पहाड़ से और बेर-अमरूद के पेड़ों से। जब इन चीज़ों को देखती हूं तो गांव का वो बड़ा-सा घर शहर के इस छोटे-से घरौंदे में इठलाता हुआ चला आता है। आज घर में मौजूद सुख-सुविधाएं आराम पहुंचाती हैं, वहीं बचपन में सहेजी ये छोटी-छोटी चीज़ें सुक़ून के पल दे जाती हैं।
डाक-टिकट के नाम से मुझे अपने गांव के डाकिये की याद आ गई। सरदारा राम की सायकिल की घंटी बजती तो भरी दोपहरी में हम भी भागते हुए घर के बाहर आ खड़े होते। जिस घर की चिट्ठी होती, सरदारा उस घर के सामने घंटी बजाता। सरदारा को देख हम फूले नहीं समाते। वो हमारे सुख-दुख का साथी रहा। लेकिन अब लगता है कि चिट्ठी का ज़माना बीत चुका। अब मुझे नहीं मालूम कि हमारी बिल्डिंग में कौन-सा डाकिया आता है। आता है तो वो गेट पर ही सबकी चिट्ठियां देकर चला जाता है। हां, कूरियर वाले ज़रूर फ्लैट के दरवाज़े तक आकर घंटी बजाते हैं, लेकिन हर बार नया चेहरा सामने होता है।
आजकल मैं टेलीविज़न नहीं देख पाती। टीवी ऑन रहता है और मैं चैनल बदलती रहती हूं। इसे टीवी देखना नहीं, चैनल सर्फिंग कहते हैं। इतने ज़्यादा चैनल हैं कि कोई करे भी तो क्या। क़दम-क़दम पर ब्रेक है और हाथ अनायास रिमोट की तरफ बढ़ जाता है। अगले दिन कुछ याद नहीं होता कि क्या देखा था। पहले केवल एक चैनल था और उस पर हफ़्ते में एक फिल्म आती थी और उसे लगभग सब लोग देखते थे। अगले दिन उस फ़िल्म पर चर्चा होती। फ़िल्म का खुमार कई दिन तक नहीं उतरता था। बच्चे हफ़्ते भर के लिए कभी धर्मेन्द्र तो कभी जितेन्द्र बने नज़र आते थे। 'चित्रहार' के गाने सबकी ज़ुबान पर होते थे। रविवार सुबह आने वाली गीतों की 'रंगोली' आधे घंटे के लिए जीवन में रंग भर देती थी। 'साप्ताहिकी' देखना एक ज़रूरत थी। यह एक ऐसा प्रोग्राम था, जिसमें टेलीविज़न पर आने वाले हफ़्ते में कौन-कौन से कार्यक्रम आएंगे, उनका ब्योरा दिया जाता था। और वो पुराने धारावाहिक... मालगुडी डेज़, हम लोग, बुनियाद, सुरभि, नुक्कड़, उड़ान! सोचती हूं कि जीवन में हमेशा ज़्यादा मिलने पर ही ख़ुशी हो, यह ज़रूरी नहीं। ख़ुशी मन-मुताबिक मिलने में है। अब भरपूर मिलता है पर मन नहीं भरता। पहले थोड़ा-बहुत मिलता था और ज़्यादा ख़ुशी देकर जाता था। सच ही कहते हैं कि ज़्यादा खाना देखकर कई बार भूख मर जाती है।
रेडियो की बात किए बिना यादों का यह झरोखा अधखुला है। 'बिनाका संगीतमाला' को कौन भूल सकता है। रेडियो सिलोन के इस प्रोग्राम से फ़िल्मी-संगीत के काउंट डाउन की शुरुआत हुई थी। 'बिनाका संगीतमाला' शुरु होते ही घर में पास-पड़ोस के लोगों का जमघट लग जाता। कौन-से पायदान पर कौन-सा गाना है, यह सारे गांव को पता होता था। अमीन सयानी की रेशमी आवाज़ और उनके दिलक़श अंदाज़ का हर कोई दीवाना था। अब इतने रेडियो चैनल आ गए हैं कि कौन-सा स्टेशन लगाएं, यही तय करना मुश्किल है। उस पर कहीं किसी चैनल पर ठहर जाएं तो लगातार चलने वाली बक-बक सिर में दर्द करती है। किसी एक रेडियो चैनल को देर तक सुनना मुमकिन नहीं लगता अब। अगर कोई आपके फेवरेट आरजे या उद्घोषक का नाम पूछे, तो आप यक़ीनन सोच में पड़ जाएंगे। उद्घोषक इतने सारे हैं कि किसी एक का नाम याद रखना मुश्किल है।
बचपन में पढ़ी पत्र-पत्रिकाओं और कॉमिक्स के नाम आज तक नहीं भूले हैं। कितनी बेसब्री से इंतज़ार रहता था डायमंड कॉमिक्स और मनोज चित्रकथा के नए सेट का। जेब-खर्च से एक-एक पैसा जोड़कर पूरा का पूरा सेट एक साथ पढ़ने की होड़! घर में कॉमिक्स किराए पर लाने के बजाय दुकान पर ही बैठकर पढ़ने में कम पैसे लगते थे। छोटी-सी दुकान के एक कोने में टाट पर बैठकर मैं कब एक सांस में सारी कॉमिक्स पढ़ जाती, पता नहीं चलता था। बिल्लू, पिंकी, चाचा चौधरी, लम्बू-मोटू, फौलादी सिंह, राजन-इकबाल, नागराज और साबू मेरे प्रिय पात्र थे। जब कभी मां-पिताजी कॉमिक्स पढ़ने पर टोकते तो लगता कि पता नहीं क्यों वे मुझे ऐसा करने से रोकते हैं। फिर मन-ही-मन सोचती कि जब मैं उनके जितनी बड़ी हो जाऊंगी तब भी कॉमिक्स पढ़ना नहीं छोडूंगी और अपने बच्चों को भी कॉमिक्स पढ़ने से कभी मना नहीं करूंगी। जिस उम्र में कॉमिक्स पढ़ती थी, उस उम्र के बच्चों का आजकल कई-कई सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अकाउंट हैं और वो रात-दिन उन पर चैटिंग करते हैं। वे नए-नए मोबाइल फोन और वीडियो गेम्स के सुपरहीरो की बात करते हैं। कॉमिक्स की जगह अब प्ले-स्टेशन और एक्स-बॉक्स के गेम्स ने ले ली है। मुझे तो अभी तक ये गेम्स समझ ही नहीं आए। कभी-कभार हुआ तो कम्प्यूटर पर फ्री-सेल या सॉलिटेयर खेल ली, बस। वैसे, मैं बोर होने पर आज भी कोई किताब खोलना ही पसंद करती हूं। लेकिन महानगर के बच्चे बोर होने पर हमेशा कंप्यूटर का स्विच ऑन करते हुए ही नज़र आते हैं।
मुझे याद है जब मेरे पिताजी ने पक्का घर बनवाया था। यह काम लगभग एक साल तक चला, पर अपना घर बनते हुए देखना और पिता की आंखों में हर जुड़ती ईंट के साथ एक ख़ुशी जुड़ते हुए देखना अविस्मरणीय है। अपनी ज़मीन, अपनी छत और अपना आंगन था। लेकिन अब मेरे घर का पता गुलेरी जी का घर नहीं है। फ्लैट नंबर, विंग नंबर, प्लॉट नंबर, सेक्टर नंबर... तरह-तरह के नंबरों के बाद मेरे घर का पता मिलता है। अब हम फ्लैट में टंगे हैं और लोग पूछते हैं कि कौन से फ्लोर पर रहते हो। छत पर जाना अलाउड है? दरवाज़ा पूरब की ओर खुलता है? धूप आती है? अब क्या बताऊं कि धूप आती तो है, पर मेरे घर के सामने खड़ी एक दूसरी बड़ी इमारत पर। धूप कोई भेदभाव नहीं करती, वो सब पर जमकर बिखरना चाहती है। लेकिन महानगर में दाम तय करता है कि किसको कितनी धूप मिलेगी। यह हक़ीकत है, इसी हक़ीकत को बयां करता जावेद अख़्तर का एक शेर है- "ऊंची इमारतों से मकां मेरा घिर गया, कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए" 
तारों की झिलमिल चादर के नीचे खुली छत पर सोना अब किसी दिवास्वप्न से कम नहीं लगता। महानगर में तारों से भरा हुआ आकाश नहीं दिखता। प्रदूषण और रोशनी की चकाचौंध तारों की चमक फीकी कर देती है। एक-आध ज़िद्दी ध्रुव तारा या फिर कभी शुक्र ग्रह दिख जाता है। कभी किसी ख़ुशकिस्मत रात को सप्तऋषि के दर्शन भी हो जाते हैं, पर धुएं की परत के पार उसकी चमक फीकी-सी दिखती है। मेरे गांव में मोतियों-जड़ा आकाश इतना साफ और चमकीला नज़र आता था कि मैं कई बार मां-पिताजी से किसी तारे को घर ले आने की ज़िद कर बैठती। और मज़े की बात यह कि मां-पिताजी वो तारा ले आने का आश्वासन भी दे देते। सब बच्चों का एक फेवरेट तारा होता था और मेरे ऑल टाइम फेवरेट थे- सप्तऋषि। एक टेबल फैन और उसके सामने बिछी पूरे परिवार की चारपाइयां! कभी-कभार भिन-भिन करता हुआ कोई मच्छर, मच्छरदानी की अभेद दीवार को न तोड़ पाने की झल्लाहट में झुंझलाकर लौट जाता! सुबह-सुबह सूरज की थपकी, हल्की गुनगुनी धूप, और थोड़ा और सो लेने का लालच! कभी-कभार रात को अचानक पड़ने वाली बारिश की फुहार, फिर आनन-फानन में वो बिस्तर समेटकर घर के भीतर भागना! अब ये सब यादें ही रह गई हैं। सुदर्शन फ़ाकिर का एक गीत अकसर याद आता है... "ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी..."
आज के दौर को मैं कम आंकते हुए नहीं देखना चाहती, पर मेरी यादें हैं कि पीछा नहीं छोड़तीं। या कहूं कि मैं ही उन्हें छोड़ना नहीं चाहती। और छोडूं भी क्यों, वो मेरे दौर की निधि हैं। मेरी धरोहर हैं। और चाहे किस्से-कहानियों के रूप में ही सही, यह धरोहर अगली पीढ़ी तक पहुंचेगी ज़रूर। 
-माधवी

(दैनिक भास्कर की पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के विशेष वार्षिक अंक 2011 में प्रकाशित
)
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