Wednesday, May 4, 2011

फाल्गुनी

 
जिन दिनों मैं कविता नहीं लिखता
उन दिनों
वह-
वनों में जाकर
वृक्षों के फूल
और वनस्पतियों की सुगंध बनी
फाल्गुनी हो जाती है
और मुझे भी
अरण्य की यह उत्सवता चैत्र बना देती है।

और फिर एक दिन
जब द्वार पर दस्तक देता
वन-
इस फाल्गुनी के साथ
उपस्थित हो कहने लगता है-

"लो सम्हालो अपनी यह कविता
मैं भी तो कुछ दिन तुम्हारी तरह
निश्चिंत रहना चाहता हूं।"

और वह मुझे अपनी आरण्यकता सौंप
बदले में मेरा पतझर लेकर
सामने की पगडंडियां उतरने लगता है।

मैं इस आरण्यकता से इतना ही कह पाता हूं-
"स्वागत है फाल्गुनी!"

"नहीं फाल्गुनी मैं वन में थी
यहां नहीं
यहां तो मैं तुम्हारी कविता हूं।"

और वह अपने पर से वन उतार
शब्द पहनने लगती है।

-श्रीनरेश मेहता 

(चित्र: श्रीनरेश मेहता)

1 comment:

  1. wah....ashcharychakit hoon itni madhur kavita padhkar......

    ReplyDelete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...