Saturday, August 7, 2010

कोई-कोई दिन

कोई-कोई दिन कितना
अलसाया हुआ होता है
सुस्त, निठल्ला
नाकाम-सा

लेकिन मैं
कुछ न करते हुए भी
काम कर रही होती हूं 

जैसे 
बिस्तर पर लेटे
करवटें बदलना
कई सौ बार

यादों की पैरहन उधेड़ 
सिल लेना उसमें 
ख़ुद को 

अरसा पुराने ख़्वाबों को
नए डिज़ाइन में
बुनने की कोशिश करना 

फैंटेसी फ्लाइट में
बिना सीट बैल्ट के
बैठना
हिचकोले खाना जमकर
टाइम-अप के डर से
फिर
नीचे उतर आना

ज़हन में कुलबुलाते
उच्छृंखल विचारों पर 
नकेल डालना ताकि 
सब-कुछ बना रहे 
ऐसा ही
ख़ूबसूरत

बहुत सारे काम बाकी हैं 
और आंखें उनींदी हो चली हैं 
शाम का धुंधलका भी 
छा गया है बाहर। 
-माधवी

Wednesday, August 4, 2010

एक जीवन एकरस

एक लय
एक ताल 

एक झरोखा
एक चांद 

एक ख़ामोशी
एक चुभन 

एक हंसी
एक रुदन 

एक जीवन
एकरस जीवन।
-माधवी

Sunday, August 1, 2010

मुझे नहीं परवाह

कुछ जली, कुछ बुझी 
कुछ जड़, कुछ चेतन
थमी-सी कुछ, कुछ रौ में हूं मैं

एक-भाव की क़वायद में
ख़ुद के हूं ख़िलाफ़ मैं

मुखर, कभी मौन हूं
सोच के झंझावात में 
विचारशून्य
अजनबी, मैं परस्त कौन हूं

ग़मग़ीन किसी बात पर
ख़ुश-ख़याली में हर बात पर

सर्द कभी, कभी गरम
तल्ख़ कभी, कभी नरम 

भाव मन के सारे 
मौसमों के मानिंद 
क्यों हैं आजकल।
-माधवी
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