दिल्ली
में मेरी कॉलेज की एक दोस्त दूरदर्शन पर संगीत कार्यक्रम ‘अलबेला सुर मेला’ की एंकरिंग करती थी। एक बार उसकी को-होस्ट शूट पर नहीं आई। शूट रोकना
संभव नहीं था और उन्हें ऐसी एंकर चाहिए थी, जो अच्छी हिन्दी बोल सके और दिखने में भी
ठीक-ठाक हो। मेरी दोस्त ने मुझसे एंकरिंग करने के लिए कहा। उन दिनों मैं सिविल
सेवा परीक्षा की तैयारी कर रही थी। मैंने हां कर दी, क्योंकि यह साप्ताहिक
कार्यक्रम था। ऑडिशन अच्छा हुआ और सबको मेरा काम पसंद आया। इसके पारिश्रमिक के रूप
में जब मुझे 800 रुपए मिले तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। महीने में चार दिन
काम करने के 2000 रुपए मिल जाते थे, जो मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। ‘अलबेला सुर मेला’ के बाद दूरदर्शन से ही छोटी-मोटी भूमिकाओं के ऑफर आने लगे। शुरुआत में
मैं सिर्फ़ जेबख़र्च के लिए काम करती थी, लेकिन धीरे-धीरे यह शौक में बदल गया। फिर
स्टार प्लस के धारावाहिक ‘कहानी घर-घर की’ में काम करने का मौक़ा मिला। यह धारावाहिक आठ साल तक चला और मुझे अच्छी
पहचान मिली।
टेलीविज़न
में काम करते हुए मुझे 19 साल हो गए हैं। इस दौरान न सिर्फ़ बतौर कलाकार बहुत कुछ
सीखने को मिला है, बल्कि बतौर इंसान भी मैं काफी समृद्ध हुई हूं। यूं तो सभी
किरदार मेरे दिल के क़रीब हैं, लेकिन दूरदर्शन के लिए मैंने ‘सरस्वती’ नाम का एक नाटक किया था जो मेरा पसंदीदा है। इसके अलावा, धारावाहिक ‘देवी’ में गायत्री और ‘बालिका वधू’ में टीपरी के किरदार निभाते हुए भी बहुत मज़ा आया। फ़िल्मों की बात करूं
तो डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी की फ़िल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ में काम करने का अनुभव यादगार है। फिलहाल सोनी टेलीविज़न में ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ धारावाहिक में व्यस्त हूं। सभी दर्शकों की तहे-दिल से शुक्रग़ुज़ार हूं
कि उन्होंने मुझे इतना प्यार दिया है। दर्शकों के प्रेम और विश्वास के कारण ही मैं
उनकी उम्मीदों पर खरी उतर सकी हूं।
-साक्षी तंवर से बातचीत पर आधारित
(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 20 जनवरी 2013 को प्रकाशित)
(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 20 जनवरी 2013 को प्रकाशित)